सामूहिक आध्यात्मिक पुरुषार्थ की प्रभावोत्पादकता

August 1992

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वैदिक संस्कृति संज्ञान सूक्तों के माध्यम से सबको सामूहिकता का -संघबद्ध रचनात्मक प्रयासों का संदेश देती आयी है। ऋषि कहते हैं “सं गच्छच्वं सं वदध्वं, सं वो मनाँसि जानताम्। देवाभागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।” अर्थात्-सभी धर्म में निरत व्यक्ति एक साथ रहें एक ही बात बोलें जिनका मन से अर्थ भी एक हो। सभी निज विरोध का त्याग कर वही कर्म करें जो देवों को शोभनीय है। “समानों मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सह चिन्तमेषाम्” अर्थात्’-” हम सब के मंत्र एक समान हो, अंतःकरण, विचार व आकाँक्षाएँ भी समान हों” इस माध्यम से ऋषिगण एक ही तथ्य पर जोर देते हैं कि श्रेष्ठता की दिशा में प्रयासरत व्यक्तियों के मन, अंतःकरण वृत्तियों तथा बोले गए उच्चारित शुभेच्छा मंत्र भी एक रूप हों तो उसका अति व्यापक प्रभाव अदृश्य जगत पर पड़ता है।

यह भावना कि धर्म प्रधान कृत्यों की संघबद्धता द्वारा विश्व-चेतना तक को प्रभावित किया जा सकता है, आदि काल से ऋषिगणों की रही है। आज का पर्यावरण संकट व सूक्ष्म जगत की घुटन भरी प्रदूषण जन्य दैवी आपदाओं में देव संस्कृति एक महत्वपूर्ण सूत्र अदृश्य जगत के परिशोधन के निमित्त देती है। आदिकाल से ही हमारे पूर्वज ऋषिगणों की मान्यता रही है कि उसका सम्बन्ध प्राण-प्रवाह चलता था जिससे व्यक्तियों की भावना, मान्यता प्रभावित होती थी। इसी कारण उनके गुण,कर्म,स्वभाव में उत्कृष्टता भरी होती थी। चिन्तन,चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश रहता था। मानवी पुरुषार्थ का भी इस में योगदान रहता था, पर इस प्रयोजन को सफल बनाने में अदृश्य वातावरण की भूमिका-अनुकूलता का भी भारी योगदान रहता था। परिस्थितियाँ मनःस्थिति के आधार पर इतने बड़े करवट लेती है कि उसे भाग्य विधान, ईश्वरेच्छा जैसा नाम देना होता है। इसलिये अदृश्य जगत में संव्याप्त वायुमण्डल की तरह ही उसका दूसरा पक्ष वातावरण भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता।

इन दिनों बढ़ती विषाक्तता एवं उससे वायुमण्डल तथा वातावरण दोनों के ही प्रभावित होने की चर्चा बड़े विस्तार से समाचार पत्रों पत्रिकाओं में आती रहती है कि इनका गम्भीर पर्यवेक्षण करें तो ज्ञात होता है कि इनका मूल कारण प्रचलन-प्रवाह तक ही नहीं है। इसकी जड़ें अदृश्य वातावरण में बड़ी गहराई तक दृष्टिगोचर होती हैं। दुश्चिन्तन की भरमार से विषाक्त अदृश्य वातावरण और इससे फिर लोक-मानस में असुरता-निकृष्टता का बढ़ना । यह एक ऐसा कुचक्र है जो एक बार चल पड़ने पर फिर टूटने का नाम नहीं लेता । लोक चिन्तन व प्रवाह का अदृश्य वातावरण से अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है।

इस कुचक्र को संघबद्ध प्रयासों द्वारा तोड़ना ही होगा। परमात्मा की तरह आत्मा को भी अपना उत्तरदायित्व निभाना होगा। अवतार प्रकरण की सूक्ष्म प्रक्रिया अपने स्थान पर है लेकिन सुधार प्रयोजन का दूसरा पक्ष मनुष्यकृत है जिसे जाग्रत व्यक्ति आपत्ति धर्म की तरह अपनाते और स्रष्टा के प्रयोजन में हाथ बँटाते हैं। उन्हें अध्यात्म उपचारों का आश्रय लेना पड़ता है। विशालकाय सामूहिक धर्मानुष्ठान प्रायः इसी प्रयोजन के लिए किये जाते हैं। लंका विजय में असुरों का संहार तो हुआ पर अदृश्य वातावरण में विषाक्तता भरी होने के कारण लगा कि सामयिक समाधान भर पर्याप्त नहीं, अदृश्य का भी संशोधन होना चाहिए। श्रीराम ने दस अश्वमेधों का नियोजन इसी निमित्त किया। कुरुक्षेत्र में महाभारत विजय के उपरान्त कंस, दुर्योधन, जरासंध से तो पीछा छूटा पर अदृश्य की विषाक्तता यथावत् रहने से स्थायी समाधान न सूझा। अन्ततः अध्यात्म उपचार का आश्रय लिया गया एवं विशालकाय राजसूय यज्ञ की भी ऐसी ही अध्यात्मपरक योजना बनाई गई।

सामूहिक धर्मानुष्ठानों से अदृश्य वातावरण की संशुद्धि के और भी अगणित प्रमाण-उदाहरण इतिहास पुराणों से भरे पड़े हैं। आसुरी सत्ता से भयभीत देवगणों को रक्षा का आश्वासन ऋषि रक्त के संचय से बनी सीता के माध्यम से मिला था। इसी प्रकार देवता जब संयुक्त रूप से प्रजापति के पास पहुँचे एक स्वर से प्रार्थना की तो महाकाली प्रकट हुई जिन्होंने असुरों का संहार किया। संघ शक्ति की ही यह परिणति थी । जिस समय राम-रावण युद्ध हो रहा था, अगणित अयोध्यावासी मौन धर्मानुष्ठान थे ताकि अन्य परास्त हो, नीति की विजय हो। ये सभी उदाहरण सामूहिकता के माध्यम से वातावरण को संशोधित करने के घटनाक्रमों पर लागू होते हैं।

सामूहिकता में असाधारण शक्ति है। दो निर्जीव वस्तुएँ मिलकर एक +एक दो ही बनती हैं जबकि प्राणवानों की एकात्मकता कई गुना हो जाती है। तिनके-तिनके मिलकर रस्सा बँटने, धागों के बुन जाने से कपड़ा बनने, ईंटों से इमारत, बूँदों से समुद्र तथा सींकों से बुहारी बनने के उदाहरण यही बताते हैं कि मिलकर एक हो जाने की परिणति की सम्भावनाएँ दृश्यमान होने लगती हैं। तालबद्ध ढंग से परेड करती फौज ध्वनि-शक्ति द्वारा पुल तोड़ सकती है तथा एक छोटा-सा पेण्डुलम निरन्तर संघात से गार्डर तोड़कर भवन धराशायी कर सकता है। समूहबद्ध ढंग से की गयी प्रार्थना में वह प्रभाव है जो वातावरण के प्रवाह को बदल-उलटकर असम्भव को भी सम्भव बना सकता है। आज जो परिस्थितियाँ उभर सकें, जैसी दिव्यदर्शियों ने अपने भविष्य कथन में व्यक्त की हैं, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

मानव निर्मित वातावरण की जहाँ चर्चा की जा रही है, वहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अवसर आने पर इसकी भूमिका बड़ी विशिष्ट होती है। एक चिंतन एक प्रयास जब आँधी की तरह चलता है, सारे वातावरण को हिलाकर रख देता है। इसका एक उदाहरण ‘युद्धोन्माद’ , “ माँब मेन्टलिटी” के रूप में देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में दिमाग पर मात्र लड़ने का आवेश छाया होता है। हवा में तेजी और गर्मी कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य व्यक्ति भी सम्मोहित होकर, असामान्य पुरुषार्थ करते देखे जाते हैं।

महात्मा गाँधी का सत्याग्रह आन्दोलन, दाण्डी यात्रा मानव निर्मित प्रवाह का एक स्वरूप है। अगणित व्यक्ति स्वेच्छा से जेल गए। मस्ती के इस जुग में अनेकों शहीद हो गए। स्वतन्त्रता इस आँधी प्रवाह की परिणति थी । द्वितीय विश्वयुद्ध के समय विंस्टन चर्चिल ने हाथ की उंगलियों से अँग्रेजी का ‘वी’ (अ) बनाते हुए एक नया नारा दिया था- ”वी फॉर विक्ट्री।” इस नारे ने जनसाधारण का आत्मबल ऐसा बढ़ाया कि अन्ततः जीत नाजीवाद से संघर्ष करने वाली समूह शक्ति की ही हुई।

नियाग्रा जल प्रपात के बारे में अमरीका की जन-जातियों में यह मान्यता संव्याप्त है कि जिस दिन यह झरना बन्द हो गया, प्रलय आ जायगी । योगवश इसी सदी में एक बार हिम ग्लेशियर के नदी के उद्गम स्रोत पर जम जाने से कुछ घण्टों के लिए झरने से पानी गिरना बन्द हो गया। विश्व के सबसे बड़े प्रपात के थम जाने से सारा अमरीकन समुदाय अनायास ही शंकित हो उठा। सारे राष्ट्र में चर्चों में घण्टियाँ बजने लगीं एवं सामूहिक प्रार्थनाएँ की जाने लगीं। कुछ ही घण्टों में वह प्रपात फिर बहने लगा। पर्यावरण विशेषज्ञों का कथन है कि सामान्यतः ऐसा होता नहीं (ग्लेशियर का जमना)। परन्तु होने पर इतना शीघ्र पूरे प्रवाह से नदी का शीत ऋतु में भी बह निकलना अपने आप में अविज्ञात रहस्य है। स्कायलैब के गिरने व सारे विश्व में उसके गिरने से होने वाली क्षति से आशंकित जनसाधारण द्वारा प्रार्थना व उसके समुद्र पर गिरकर नष्ट होने का वर्णन तो अभी-अभी का ही है।

मुस्लिमों की नमाज का एक सुनिश्चित समय होता है। अजान का समय होते ही जो व्यक्ति जहाँ भी है, तुरन्त अपनी उपासना का शुभारम्भ कर देता है। ईसाई रविवार प्रातः एकत्र होते हैं तथा चर्च में सामूहिक प्रार्थना करते हैं। मिलिट्री की ‘रिट्रीट’ जब भी होती है, जो व्यक्ति जहाँ होता है वहीं सावधान मुद्रा में खड़ा हो जाता है। ये सारे उदाहरण एक समय एवं सामूहिकता की शक्ति की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये बताए जा रहे हैं। प्रज्ञा अभियान द्वारा प्रणीत युगसंधि महापुरश्चरण कई विशेषताएँ लिए हुए है। अगणित व्यक्तियों की प्राण ऊर्जा, एक-सा चिन्तन, शब्द शक्ति की अपरिमित क्षमता एक समय-एक साथ जप ध्यान तथा महाप्रज्ञा की प्रेरणा का चिन्तन-इन सभी का प्रज्ञा पुरश्चरण में समावेश है। साधक पाँच मिनट तक सूर्योदय के साथ ही गायत्री मन्त्र का मौन जप करते हैं। अन्तरिक्ष में ही गायत्री मन्त्र का मौन जप करते हैं। अन्तरिक्ष में परिशोध हेतु आहुतियों का यह परोक्ष यज्ञ है। जितना अधिक उच्चारण इस मन्त्र का सृष्टि के आदि से अभी तक हुआ है उतना किसी का नहीं हुआ। शब्द शक्ति ओंकार गुँजन के रूप में समग्र अन्तरिक्ष में संव्याप्त है। ऐसी स्थिति में उच्चारित मन्त्र की शक्ति का प्रभाव द्विगुणीय हो जाता है। समधर्मी कम्पन परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते ही हैं।

शब्द शक्ति सूक्ष्म मानव शरीर तथा परोक्ष अन्तरिक्षीय संसार को प्रभावित करने वाली एक समर्थ ऊर्जा शक्ति है। यह जीभ से नहीं, मन व अन्तःकरण से निकलती है। लोक प्रवाह को निष्कृष्टता से उलटकर उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के लिए उच्चस्तरीय शब्द सामर्थ्य चाहिए। साधक स्तर की उत्कृष्ट जीवनचर्या वाले माँत्रिक जब एक साथ पुरश्चरण सम्पादित करते हैं तो ऋषि कल्प महामानवों जैसी वातावरण को आमूलचूल बदल देने की सामर्थ्य विकसित होने लगती है तप-पूत उच्चारण ही मन्त्र जाप है। सदाशयता को संघबद्ध करने और एक दिशा में चल पड़ने की व्यवस्था बनाने के लिए जप का सामूहिक अनुष्ठान स्वरूप ही आदर्श है। श्रुति ने आदेश भी दिया है “सहस्र सा कर्मचत्” अर्थात्-”हे पुरुषों तुम सभी सहस्रों मिलकर देवार्चन करो”। वस्तुतः सामवेद और ऋग्वेद की समस्त ऋचाएँ सामूहिक गान ही तो हैं।

लोहे का लम्बा गार्डर, सीमेन्ट का एक बड़ा पिलर अकेला एक व्यक्ति नहीं उठ पाता। जब कई व्यक्ति मिलकर “हईशा” के निनाद के साथ जोर लगाते हैं तो वे उसे उठाकर खड़ा कर देते हैं। लेकिन जब यही शब्द शक्ति शुभ कामना का चिन्तन लिए एक साथ कई व्यक्तियों द्वारा उच्चारित होती हैं, एक सी तरंगें जन्म लेती हैं और बदले शुभ विचारों की वर्षा ऊपर से करती हैं। “धियो यो नः प्रचोदयात्” “अग्नेनय सुपथा राये अस्मान्” “आनो भद्रा, कृणवो यन्तु विश्वतः” इन सभी मन्त्रों में सारे समूह के लिए श्रेष्ठ विचारों की-सन्मार्ग पर चलने की भारी प्रार्थना की गयी है। एक सी भाव लहरें एक ही चित्त वृति को जन्म देती हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक फ्रीक्वेंसी पर तरंगें उत्पन्न होने पर वे अप्रत्याशित परिवर्तन लाती हैं। अल्ट्रासोनिक तरंगों से रोगों का निदान व चिकित्सा की जाने लगी है। माइक्रोवेव्स से न केवल संपर्क वरन् ऊर्जा उत्पन्न करने में भी सफलता मिली है। गायत्री मन्त्र की विशेषता उसे यह स्तर प्रदान करती है। जिससे वह सामूहिक उच्चारण के माध्यम से अन्तरिक्ष को मथने में समर्थ हो सके । “सिम्पेथेटिक वाइब्रेशन” के सिद्धान्त पर आधारित यह प्रक्रिया “लाइटनिंग (तड़ित विद्युत) जैसी सामर्थ्य रखती है।

वैज्ञानिकों का कथन है कि शब्द शक्ति से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक लहरें उत्पन्न होती हैं जो स्नायु प्रवाह पर वाँछित प्रभाव डालकर उनकी सक्रियता ही नहीं बढ़ाती वरन् विकृत चिन्तन को रोकती व मनोविकार मिटाती हैं। एक अन्य निष्कर्ष के अनुसार संसार के पचास व्यक्ति यदि एक साथ एक शब्द का तीन घण्टे तक उच्चारण करें तो उससे छह हजार खरब वॉट विद्युत शक्ति पैदा होगी। सारे विश्व में इससे घण्टों तक प्रकाश किया जा सकता है।

ऋषियों ने शब्द शक्ति की शोध उच्चस्तर पर की थी और उनने पाया था कि सामर्थ्य के इस महान भाण्डागार को लोकहित के लिए बहुत ही उपयुक्त रीति से प्रयोग में लाया जा सकता है। अस्तु उन्होंने इस दिशा में लाखों वर्षों तक अथक श्रम किया और जा उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं उनमें मानवजाति का महान हित साधा । आज हम उस महान विज्ञान को भुला बैठे और मणिहीन सर्प की तरह अधःपतित स्थिति में जा पहुँचे। नवजागरण की इस पुण्य बेला में हमें अपने वर्चस्व का मूल स्रोत पुनः खोजना और उपलब्ध करना होगा। वह स्रोत एक ही है-’शब्द’ । शास्त्रकार ने ‘शब्दों वै ब्रह्म’ शब्द को ब्रह्म कहा है।ब्रह्म में परमात्मा में, जो कला , जो विभूति, जो महत्ता विद्यमान हैं वे सभी शब्द शक्ति माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। ‘मन्त्र’ शब्द का उच्चस्तरीय उपयोग है। इसका उपयोग यदि हम जान सकें तो निःसन्देह सच्चे ज्ञानी, सच्चे विज्ञानी बन सकते हैं।

गायत्री महामंत्र, समस्त मन्त्र शास्त्र का प्राण, बीज, उद्गम एवं मर्म है। आगम और निगम’-वेद और तन्त्र के अंतर्गत जितने भी ताँत्रिक प्रयोग हैं उन सब को गायत्री बीज शक्ति का पल्लव-परिकर ही मानना चाहिये। मन्त्र विद्या का भाण्डागार है-वेद और उनका उद्भव वेदमाता-विश्वमाता, गायत्री महाशक्ति के द्वारा हुआ है। इस अनुपम, अद्भुत-अनन्त और प्रमेय विभूति का सामूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में विज्ञान सम्मत प्रयोग कर हम देव संस्कृति का स्वर्णिम अतीत वापस ला सकते हैं। वैदिक संस्कृति के प्रत्येक निर्धारण के मूल में विज्ञान सम्मत चिंतन है। यदि संघबद्ध आध्यात्मिक पुरुषार्थ इस माध्यम से संपन्न हो सके तो सतयुग की वापसी संभव है, इसमें संदेह नहीं।


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