स्वयं को जीते, वही वीर

August 1992

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ऋजुकूला नदी अपनी गंभीर गति से बहती चली जा रही थी। जल का कल-कल तीरस्थ बन-भूमि में अपनी हल्की गूँज प्रतिध्वनित कर रहा था। ज्ञातृखण्ड की प्राचीन भूमि में किनारे खड़े शाल वृक्ष की छाया में वह गम्भीर मुखाकृति लिए खड़ा था। उसके चेहरे पर किसी गहन चिन्तन का झीना आवरण था। उसका रंग भव्य गौर था, किन्तु इस समय उस पर हल्की सी छाया आ गई थी। उसकी आँखों में असीम वेदना रहस्य, गौरव और जिज्ञासा कांप रही थीं। पलकों में एक अचंचल स्तब्धता थी , जिसे देखकर लगता था कि वह बहुत गहरी अँधेरी में पड़ा हुआ भी प्रकाश की ओर बढ़ रहा था। उसकी खिंची हुई भवें उसके उन्नत ललाट और लम्बी नाक के बीच में ऐसी दिखती थीं जैसे अरुणोदय वाले क्षितिज की पृष्ठभूमि पर रेखा मात्र से दिखाई देने वाले दो जहाजों के पाल अनन्त के वक्ष पर तन गए हों और अज्ञात आलोक की ओर बढ़ चलें हों। उसके लंबे और पतले होठों पर एक विचित्र स्फुरण थी मानो वे किसी अत्यन्त पवित्र शब्द का निर्घोष करने के लिए व्याकुल हो उठे हों। वह लम्बा, चौड़े स्कन्ध वाला पुरुष जो आज दुबला हो गया था, उस ऋजुकूला के तीर पर ऐसा स्तब्ध खड़ा था कि उसे देखकर सारा वन प्रान्तर जैसे हरकरा कर अभिवादन कर रहा था। समस्त वायुमण्डल से पुकार उठ रही थी.....लौट चल वर्द्धमान लौट चल।

शालवन के फूलों की सुगंध बार-बार झोंकों पर झूम उठती थी। कभी-कभी पक्षी पक्षी अपने कलरव से आकाश में पृथ्वी तक एक अजस्र मनोहारिता को भर-भर देते थे। शीतल स्पर्श से लुभा देने वाली वायु अंग-अंग की ऊष्मा को ऐसे ही थपेड़े दे रही थी जैसे तरल कल्लोलिनी हिलोरें नीरस तीर भूमि की मोहनिद्रा को बार-बार झकझोरने को आ-आकर अपना समर्पण करके बिखर जाती हों ।

वर्द्धमान का मन फिर भी दृढ़ था । उसने हठात् किसी दृढ़तम निश्चय से सिर उठाया और फिर उसने रात के उतरते अंधकार के पावों के नीचे बिछे सुनहले कंबल जैसे साँध्य गगन को देखकर धीरे से बुदबुदाया मा-मुज्जह-मा रज्जह-मूर्छा में मत बहो-राग की धारा में मत बहो। निश्चय के इन दृढ़ किन्तु धीमे स्वरों के साथ चिन्तन उभरा । मैं इतना आगे आ गया हूँ कि मेरे लिए लौटने के सब द्वार बन्द हो गए हैं। यदि मैं जीवन के सत्य को नहीं पा सकता तो मेरे लिए जीना निष्फल है, क्योंकि जिसे मन आज बार-बार याद कर रहा है , मैं उसी जीवन को तो निस्सार समझकर एक दिन छोड़ आया था। तब उसमें यदि मुझे सन्तोष नहीं मिला तो किस विर्फ्यय से आज इस साधना से विमुख होकर पराजित होकर मुझे फिर कहीं विश्राम मिल सकेगा? यह तो असम्भव है।

और तब वह दीर्घकाय भव्य पुरुष मन्दगति से ऋजुकूला की तट भूमि पर धीर पदों से घूमने लगा। वह मानो अपने उस घूमने से वायु को विक्षुब्ध करके अपने भीतर के समस्त संकुल क्षोभ को स्थिर कर लेना चाहता था। वह धीरे-धीरे शाल वृक्ष के नीचे जा पहुँचा । चंचल पल्लव वाले चलदल शाल की फुनगी पर अब आलोक तिरोहित होने के पहले अन्तिम मुसकान बिखेर रहा था। शाल का तना उस आती धुन्ध में स्तब्ध था पास आते जा रहे अन्धकार की मुसकान किसी गहरे रहस्य से भरी थी। वर्द्धमान खड़ा सोच रहा था अपने जीवन के बारे में उस जीवन के बारे में जो यात्रा बन गया था।

वर्द्धमान! कुण्डपुर के राजा का पुत्र !! वैशाली का राजकुमार ! कैसे माँग सका था वह भिक्षा ! लोग आश्चर्य से देखते थे। कोई-कोई हाथ हिला देता था। पहले अपमान सा लगा, परन्तु मन ने कहा वर्द्धमान! अपने अहं को कुचल दे उसे राजाकूल ने राजपुरुषों को पीछा करने की आज्ञा दी। वह प्रासाद पर खड़ा था। वर्द्धमान को देखा तो उसे आश्चर्य हुआ। उसे सन्देह हुआ।

वर्द्धमान पथ पर भीख माँग रहा था और उसके भीतर अब शान्ति का स्थान नम्रता ले रही थी।

पेट के लिए इतना काफी होगा, सोचकर जो भोजन मिला वही लेकर वह नगरद्वार के बाहर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ कर खाने लगा। कितना बुरा था भोजन!

लगा था आंतें उलट जायेंगी।

राजपुरुषों ने छिपकर सुना, वह सुन्दर तपस्वी बड़बड़ा उठता था तू अन्न-पान सुलभ राजकुल में तीन वर्ष के पुराने सुगंधित चावल का भाजन करता था..... नाना प्रकार का अत्युत्तम रसों के साथ भोजन किए जाने वाले स्थान में जन्म लेकर तूने सोचा था कि मैं अब सर्वत्यागी हो कर सत्य की खोज करूंगा...... आज क्यों हार रहा है.... दृढ़ हो, मन-दृढ़ हो।

यही सोचकर घर से निकला था अब क्या कर रहा है?

वर्द्धमान जब जाने लगा तो देखा सामने राजाकूल था। श्रमण! आप कौन हैं ? यह सुन्दर देह यह यौवन ! इस सबके रहते सर्वस्व त्याग क्यों ? कूल ने कहा क्या किसी रमणी ने आप का तिरस्कार किया ? वर्द्धमान मुस्करा दिया। राजा मैं स्त्री प्रेम में नहीं लोक प्रेम में प्रव्रजित हुआ हूँ।

‘श्रमण ! यह जीवन यों नष्ट करने से क्या लाभ । अभाव आते हैं चले जाते हैं। तुम निराश न हो युवक। फिर से जीवन बन सकता है। आओ मैं तुम्हें भूमि दूँगा, मैं तुम्हें धन दूँगा। तुम इतने हताश क्यों होते हो ?

वर्द्धमान हँस पड़ा “मुझे वस्तु और भोग की कामना नहीं है। मैं ज्ञातृ पुत्र हूँ । मेरे पास एक नहीं अनेक प्रासाद थे। उनमें सुन्दरी रमणियाँ भी थीं। परन्तु उसमें सत्य न था।

ज्ञातृ पुत्र! क्षत्रिय!!

‘तुम क्षत्रिय हो ?’

श्रमण हूँ महाराज!”

कल ने सोचा तब तो गहरा आदमी है।

उसने कहा ‘जाओ युवक! तुम निःसन्देह धन्य हो! राजनीति से कलुषित हो रही वसुन्धरा में यदि तुम्हारा स्वर मनुष्यों को सुख दे सके तो वह जीवन , वह भव्य जीवन इन कुचक्रों भरे जीवन से कहीं अधिक महान होगा। तुम सब कुछ छोड़ आए हो इन्द्र करे तुम सब कुछ पा जाओ और कठोर साधना में वर्ष बीतने लगे।

वैशाली के दूत आए और चले गए, इसका अब कोई मूल्य नहीं रह गया था। प्राणायाम के अवरुद्ध श्वासों ने शरीर को सुखा दिया । उस युग के वायु भक्षी तपस्वी पत्ते खाने वाले भी आश्चर्य से भर गए। रात आती जागते बीत जाती दिन आता एक ही आसन से बीत जाता और दिन रात की सन्धियाँ आँखें मूँदे बीत जातीं।

और उसने सोचा ‘क्या है सत्य का मार्ग ‘?

यातना!!

अचानक सत्ता के सत्य ने पुकारा ‘बुद्धि का आधार अन्न है। उसे छोड़कर शरीर को कष्ट देना बुद्धि को ही आतंकित करना है। उससे लाभ नहीं होता विकारों को हटाने के स्थान पर दृढ़तर किया जाता है।’

समय की गति अविराम थी । क्या मिला उसे इतने दिनों में ? केवल भटकन ! धूलि से भरा जीवन । माँगकर खाते-खाते अहं नष्ट हो गया। राह पर चलते-चलते पावों में छाले पड़ गये।

सारा अतीत धीरे-धीरे घुलने लगा। प्रियकारिणी त्रिशाला की ममता-भरी आंखें बुलाती फिर तिरोहित हो जातीं। पिता सिद्धार्थ की लालसाओं की थातना , बार-बार पुकारता नन्द्यावर्त प्रासाद कलिंगराज जितशत्रु की पुत्री यशोदा के समर्पित स्वर, सबके सब जीवित हो उठे। अधिकार , गर्व-धन फिर अंकुश मारकर क्रोध के हाथी को जगाने लगे।

परन्तु वर्द्धमान पुकार उठा ‘काम! नर्क की भीषण ज्वालाओं से घिराना चाहता है तू मुझे ! स्वर्ग छलना है अज्ञानी! ब्रह्मा मेरा स्रष्टा नहीं है।’ फिर शून्य में से साकार छवियाँ जन्म लेने लगीं। वासना के पशु हुँकारने लगे। चारों ओर जैसे महापक छा गया।

अंधकार मिटने लगा- वह घुमड़न वह विष अचेतन की सी वह मूर्छा वर्द्धमान ने सामने से दूर कर दी, क्योंकि वह आज सम बनकर बैठा था। नहीं लौटूँगा में, मेरी आत्मा जाग्रत हो इस अन्धकार को नष्ट करो। वह आसन मेरा ही है मैं दानी हूँ.......।

वासना ने अन्तिम प्रहार किया ‘क्या दानी है तूने वर्द्धमान’

मैंने! मैंने अपने को लोकहित के लिए दान दे दिया है।

‘कौन है तेरा साक्षी ?’

‘मेरा साक्षी ! यह अचेतन ठोस पृथ्वी ही मेरी साक्षी है।’

वासना थर्रा गई भयाक्रान्त कांप गई।

‘वसुँधरे! तू ही मेरी साक्षी है।’ उसने दाहिना हाथ उठाकर कहा। उसका वह स्वर जब उसके पास फिर लौट आया , उसे लगा वह समस्त आधार अपने ही सत्य के अनुकूल बना पाया था। क्योंकि उसे किसी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं था। वर्द्धमान का स्वर अब साकार आलोक बनता हुआ सा फैलने लगा अनेक जन्मों में दौड़ता हुआ मैं इस जग में फिरता रहा। जन्म के दुःख सहता हुआ मैं गृहकार को खोजता रहा। ओ गृहकार तू दुःख हैं। अब मैंने तुझे देखा है। अब फिर मुझे नहीं रहना है। दुःख ! तेरी सारी शृंखलाएं टूट गई हैं, देखा! त्रा शिखर टूटा पड़ा है। भग्न विध्वस्त संस्कारों से मेरा चित्त मुक्त है, मेरी तृष्णा नष्ट हो चुकी है। मैं विजयी हूँ। सारी ग्रन्थियाँ खुल चुकीं थीं वह अब निर्ग्रन्थ थे। रात्रि बीत रही थी साथ ही उनके जीवन की रात्रि भी। भारत की अमर संस्कृति नए स्वरों में मुखरित हो रही थी-’एगो में सासदा आदा सत्वे संजोग तक्खणा, चौदहवीं भूमिका से आते स्पन्दन कह रहे थे-एक मेरी आत्मा ही शाश्वत है। सारा संसार संयोग लक्षण वाला है। अद्भुत थी ई. पू. 557 रविवार वैशाख शुक्ल दशमी प्रभात की रश्मियों के साथ एक निनाद फूटा वीरता दूसरों को मारने स्वयं के अहं के विस्तार में नहीं है। वीर वही है जिसने स्वयं को जीता जो अपने देवत्व को औरों में उड़ेल सका।’ देव संस्कृति की इन स्वर तरंगों से विश्व को आप्लावित करने वाले वर्द्धमान अब महावीर हो चुके थे।


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