अनगढ़ मानव को ब्राह्मण बनाने का रसायन : गायत्री मंत्र

August 1992

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संस्कृति’-बोध का गौरव -ग्रन्थ उल्लास और उत्साह अभिवर्धन के साथ किन्हीं स्वर्णिम सम्भावनाओं की ओर संकेत करता है। इसके बावजूद मन में उफनते सवालों का तूफान धीमा नहीं पड़ता । अध्यात्म की कही सुनी जाने वाली विशालकाय शक्ति सामर्थ्य के बाद भी देवभूमि भारत को हजारों साल इतनी आपदा-व्यथा क्यों भुगतनी पड़ी ? इस बीच संत-महात्मा, अपने चमत्कारों से लोक को लुभाने वाले औघड़ ताँत्रिक कम नहीं हुए। उनकी शक्ति एवं प्रयासों का कितना ही गान क्यों न किया जाय पर परिणाम में विजय तो हासिल नहीं ही हुई। अरबों के हमले यूनानियों के आक्रमण ग्यारहवीं शती में घुस पड़ी बर्बरता जिस समय साँस्कृतिक चिह्नों की रौंदती-मसलती रही उस समय देव शक्तियों को मौन, अकर्मण्यता क्यों सूझी ? आक्रान्ताओं, गुलाम, साँस्कृतिक तहस-नहस का वेग धीमा कहाँ हुआ? वर्ष, सदी और पूरी हो चली सहस्राब्दी गुजरने के बाद भी अकेले भारत ही नहीं समूचे विश्व क्षितिज पर असुरता का प्रलय नर्तन कहाँ कम पड़ा है?

ये सवाल किसी नास्तिक के नहीं, उस हृदयवान आस्तिक के हो सकते हैं जो स्वार्थों से ऊपर उठकर दिन पर दिन बढ़ती रही समय की विपन्नता, साँस्कृतिक मूल्यों के हास को देखता-समझता और बिलख उठता है। सर्वनाशी विभीषिकाएँ जिस क्रम में गहरा रही हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है, कुछ भी अनिष्ट कभी सम्भव है। कुविचारों और कुकर्मों के चरम सीमा तक पहुँच जाने पर वर्जनाएँ लगभग समाप्त होती जा रही हैं, उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अपराध, अनाचार अति की सीमा लाँघ रहे हैं। छल-प्रपंच कौशल , के रूप में मान्यता प्राप्त कर चला है। परिवार बुरी तरह टूट-बिखर रहे हैं। समूचा जीवन आतंकवाद के साए के नीचे सहमा-सिसक रहा है। चरित्र कहने सुनने की वस्तु रह गयी है। आदर्शों का अस्तित्व इसलिए है कि वे कथन और प्रवचन को लच्छेदार बनाने के काम आते हैं। लिखते समय भी उनका पुट लगाने की आवश्यकता पड़ती है। मूर्धन्यों ने इस विग्रह को अपने लिए तो अपनाया ही है, छुटभइयों को भी अनुगमन की प्रेरणा देकर वैसा ही अभ्यस्त कर दिया है। प्रचलन और आन्दोलन उस दिशा में चल रहे हैं, जिनका अन्त सर्वनाशी परिणति के अतिरिक्त और कहीं कुछ हो ही नहीं सकता। न व्यक्ति को चैन है न समाज में शान्ति । पीढ़ियाँ अपने जन्मकाल से ही ऐसे दुर्गुण लेकर जन्मती हैं कि अपना, परिवार का और समाज का सर्वनाश करके ही रहें।

यह कल्पनाएं नहीं, मान्यताएँ नहीं, ऐसी परिस्थितियां हैं जो दर्पण की तरह सामने हैं । ऐसी स्थिति में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा किया गया विश्व में साँस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना , धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अभय घोष! क्या आधार है इसका ? वह कौन सी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो आज तक सम्पन्न नहीं हुई अब सम्पन्न होकर उलटे प्रवाह को उलट देगी ?विचारशीलों, भावनाशीलों, पुरुषार्थी आशावानों के मन में युगऋषि के इस प्रचण्ड तप के बारे में जानने की ललक स्वाभाविक है।

देश और विश्व में जो कुछ दृश्यमान है उसके पीछे ऐसा बहुत कुछ है जो अदृश्यमान है । कर्म के प्रेरक शक्तियाँ हैं ऐसा समझ पाने का बूता सर्वसामान्य में नहीं है। फिर भी सत्य ने किसी मान्यता अथवा सोच की परवाह कब की है ? सच्चाई कभी अनुगमन नहीं करती, उसका बल औरों को अनुगमन करने के लिए विवश करता है। विचारों की प्रेरक शक्तियों की बात कुछ इसी तरह का सच है जिसका विवरण देवों और असुरों के रूप में पुराण वर्जित है। देवों का बल, उनकी विजय-विचारों में उच्चस्तरीय प्रेरणा भरती , कर्म के प्रवाह में संवेदना की संजीवनी घोलने में समर्थ होती है। इसके विपरीत असुरों के बलवान होने का परिणाम वही सब होता है जो आज हो रहा है। देवों और असुरों का संघर्ष अस्तित्व के आरम्भ से है सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने इसी वजह से मनुष्यों को देवताओं के सहभागी होने का निर्देश दिया है । आध्यात्म सही अर्थों में देव शक्तियों और उनके अधिष्ठाता परमात्मा से सामंजस्य सम्बन्ध स्थापित करने एकात्म होने की प्रक्रिया है। जब-जब यह प्रवाह टूटता है, असुरता का बल बढ़ने लगता है, जीवन पतन पराभव के गर्त की ओर ढुलक पड़ता है। इतिहास पुराणों के कलेवर में दिव्य द्रष्टाओं ने अनेक तरह से इसका उल्लेख किया है।

महाभारत की कथा कृष्ण के नेतृत्व में देव शक्तियों के विजय का वृत्तांत है। इसी के वन पर्द्र में कथा आती है- पाण्डव जब, वनवास में थे दुर्योधन उन्हें छेड़ने, चिढ़ाने के उद्देश्य से वहाँ जा पहुँचा। संयोग से चित्रसेन गंधर्व से उसका झगड़ा हो गया, जिसमें सपरिवार बन्दी होना पड़ा। दयार्द्र युधिष्ठिर ने अर्जुन आदि भाइयों को इन्हें छुड़ाने के लिए निर्देश दिये। अर्जुन के पराक्रम से मुक्त हुआ। दुर्योधन आत्मग्लानि से भर गया। विक्षुब्ध मनःस्थिति में वह प्रयोपवेशन (आमरण उपवास) करके उपवास करके प्राण त्यागने का संकल्प करके बैठ गया। उसके मन में इस बात का अपार दुःख था कि जिन्हें वह चिर शत्रु मानता था उन्हीं पाण्डवों ने उसे छुड़ाया। इतने में सूक्ष्म रूप से असुरों की पूरी जमात प्रकट हो गयी। उन्होंने दुर्योधन को समझाया-”हम तुम्हारे विचारकों के प्रेरक हैं। तुम इस लोक में हमारे माध्यम हो । उठ खड़े हो हमारा बल तुम्हारा सहायक बनेगा।” दुर्योधन उठ खड़ा हुआ-आगे की कथा स्पष्ट है किस प्रकार योगेश्वर कृष्ण के प्रयासों ने असुरों के प्रयोजनों को निरस्त किया।

घटना की प्रवाह सीमा रामायण महाभारत काल तक सीमित नहीं रही। दुबले-पतले सामान्य सिपाही हिटलर को दुर्दान्त दैत्य बना डालने में एक विशिष्ट असुर का हाथ था। मातृवाणी में श्री माँ ने रोचक विवरण देते हुए बताया है-किस तरह श्री अरविन्द ने उसे नष्ट किया और विनाश की ओर बढ़ रही दुनिया के कदम यकायक लौट पड़े। परन्तु यह सामयिक उपचार भर था। श्री माँ के शब्दों में कहें तो अभी एक असुर नायक और उसके सहचर बाकी है। इन्हीं के प्रभाव विश्व में उत्पात मचाए हैं। जैसे ही ये नष्ट होंगे-धरती पर स्वर्ग उतर आएगा। देव शक्तियों के नायक कार्तिकेय की भाँति पूज्य गुरुदेव का पराक्रम इन्हीं से जूझने और निरस्त करने में लगा है।

उनके प्रयासों को सर्वसामान्य सामाजिक आन्दोलन का रूप भले समझे पर जिनके पास आंखें हैं, भाव जगत में हो रही उलट फेर को देखने की सामर्थ्य है, व यहाँ के प्रत्येक क्रिया-कलापों को असुरता के विरुद्ध सशक्त व्यूह रचना समझ सकते हैं। युगावतार बार-बार अपने समर्थ सहायकों को देवमानवों की सशक्त वाहिनी कहते आए हैं। उसके पीछे यही रहस्य है। उनके द्वारा प्रवर्तित अध्यात्म पहले के अध्यात्म से पूर्णतया भिन्न है। इसका लक्ष्य व्यक्तिगत स्वर्ग मुक्ति न होकर स्थूल और सूक्ष्म में हुए प्रदूषण को धो डालना है। यह व्यक्ति से ऊपर उठकर समष्टि में किया जाने वाला प्रयोग बन गया है।

इस प्रवर्तन के पहले तक आध्यात्मिक रुचि प्रायः व्यक्तिगत स्तर की साधनाओं तक केन्द्रित थी। जनसामान्य से लेकर विशिष्ट कहे जाने वाले तक इसी के लिए प्रायः इच्छुक, प्रयत्नशील और व्यस्त रहते थे। जिस प्रकार निजी स्वार्थी लोग व्यक्तिगत रूप से धनवान-सम्पन्न बनने तक ही अपनी इच्छाओं को सीमित रखते हैं उसी प्रकार साधु, सन्त साधक भी स्वर्ग-मुक्ति की व्यक्तिगत उपलब्धियों, या कुछ विशिष्ट शक्तियों के संचय को ही अपना लक्ष्य बनाते रहे हैं । उनके ये क्रियाकलाप बाहर से कितने ही उत्कृष्ट लगें पर भिन्न-भिन्न स्वार्थपरक रुचियों के कारण इससे देव -मन को विखण्डित होना पड़ा है, जब कि असुरता अपनी समस्त दुष्प्रवृत्तियों के बावजूद परस्पर संगठित और एकात्म होने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे में यदि देवसंस्कृति को अपन पुत्रों की वजह से पराजय का मुख देखना पड़ा तो आश्चर्य क्या ?

इतिहास के पृष्ठों और साधना सम्प्रदायों के कलेवर को देखें तो विवरण भी मिल सकेंगे। गजनी के आक्रमण के समय फेरुक वज्र नाम के विख्यात ताँत्रिक थे । उनकी शक्तियाँ जन सामान्य को अभिभूत किये थीं । आक्रमण के लिए बढ़ती आ रही सेना का दुर्मद वेग देखकर तत्कालीन समाज के व्यक्तियों ने बड़े विश्वास से उनसे प्रार्थना की कि गजनवी के पाँव मोड़ दें । फेरुक वज्र अपने सारे प्रयासों के बावजूद असफल रहे। उन्हें स्वीकार करना पड़ा , इन सबके मन आपस में इतने गुँथे हैं, इनमें उत्साह का इतना तीव्र वेग है जिसे तोड़ पाने में मेरी समूची साधना अक्षम है।

महायोगी-गोरखनाथ के मन में योगियों की इस मूर्खता को दूर करने के लिए कितनी विकलता थी इसे तनिक उन्हीं के शब्दों में सुनें “क्या संसार के इतर प्राणियों के मूर्ख समझने से योगियों और सिद्धों की मूर्खता कम हो जाएगी ? जब हमारी आँख के सामने’-लाख-लाख निरीह प्राणियों का वध हो रहा है? जब अधमरे युवकों, परित्यक्त शिशुओं और लाँछित-बहिनों के क्रन्दन और आह से वायुमण्डल व्याप्त है, उस समय क्या सहज समाधि सम्भव है। योगियों! आज सब कुछ भूल कर संगठित होने की आवश्यकता है! व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ध्यान-धारणा के प्रयोग रुक सकते हैं मारण, मोहन की विधियाँ स्थगित रखी जा सकती हैं। मोक्ष की चिन्ता में भटकने का व्यवसाय बन्द किया जा सकता है। “ उन्होंने अपने एक मित्र अमोघवज्र को सुनाते हुए कहा था “ अब भी तुम इस घपले में पड़े हो अमोघ ? गजनवी से साकल तक के विहार और रत्न स्तूप ध्वस्त हो गए, सामेश्वर तीर्थ लुट गया। नालन्दा और ओदन्त पुरी जल रही हैं और तुम्हारी ये जादूगरी की साधना अब भी अव्याहत गति से चल रही है ?” महायोगी में साधना शक्ति के सम्मिलित प्रवाह को लोक-मानस के-परिष्कार, लोक जीवन में सुख संचार के लिए मोड़ने की कसक थी। पर उनकी वेदना को किसने पहचाना ?

समस्या-बुद्धि-विचारों और उसके प्रेरक तंत्र की रही है। पूज्य गुरुदेव तथाकथित साधकों से मिन्नतें करते इसके स्थान पर उन्होंने नए योगियों उन्नत साधकों की समर्थ सेना गठित कर डाली जिनके समस्त साधनात्मक प्रयास उच्चस्तरीय व्यापक आदर्शों के लिए समर्पित होना निश्चित हुए। इस साधना का केन्द्र उन्होंने भगवान सूर्य को माना। सूर्य के बारे में अभी तक बहुत कुछ कहा सुना लिखा पढ़ा गया है। पर इन पंक्तियों में सिर्फ उन्हीं सन्दर्भों की चर्चा है जो लोक स्पर्श से अछूते और गुह्य रहे हैं।

जब-जब असुरता के विरोध में व्यूह रचना हुई है। सूर्य शक्ति के अवतरण को व्यापक बनाना पड़ा है। बाल्मीकीय रामायण में युद्ध के समय महर्षि अगस्त्य द्वारा भगवान राम को सूर्य उपासना बताये जाने का वर्णन है। आदित्य हृदय का रहस्य जानकर ही रावण वध सम्भव हो सका। महाभारत में महर्षि धौम्य ने युधिष्ठिर सहित अन्य भाइयों को सूर्य उपासना में दीक्षित किया था। ध्यान रखने की बात यह है कि इसके प्रतिफल व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए न थे।

वैज्ञानिकों की दृष्टि में सूर्य लोक में प्राण का संचारक हीलियम हाइड्रोजन की अन्तर्क्रियाओं का समुच्चय भर है। यह उसका आधि-भौतिक रूप है। जो अपने में समर्थ और सृष्टि का केन्द्र बिन्दु है इस सामर्थ्य से शत-सहस्र गुना बढ़कर उसके अधिदैवत रूप की चर्चा है। इस रूप में यह विचारों का नियंत्रक, भावों का प्रेरक और ग्रहों का अधिपति है। वराह मिहिर ने इसे जातक की आत्मा माना है। वेद भी “सूर्य आत्मा जगतस्थुषश्च” अर्थात् सूर्य को जगत की आत्मा स्वीकार करते हैं। व्यक्ति में इसकी शक्तियों का अभाव काम विकार, मनोरोगों को जन्म देने वाला सिद्ध होता है। जिसका सूर्य नीच का है उसे सारी सफलता के बावजूद दुर्विचारों , कुकर्मों से घिरे रहना पड़ेगा। आत्मिक उत्थान इसकी ऊर्जा के बिना सम्भव नहीं। इस ऊर्जास्विता को प्राप्त करने के लिए ज्योतिष शास्त्र ने एकमत से महाधिपति की उपासना के विधान सुझाए हैं। इनका परिपालन जहाँ उपासक को सभी ग्रहों को कष्ट से मुक्त करता है वहीं पवित्रता प्रखरता उपलब्धि के रूप में मिलती है।

अपने तीसरे रूप में सूर्य विराट पुरुष की ज्योति है। श्री अरविन्द ने इसे “अतिमानस की ज्योति” कहा है। विराट पुरुष के रूप में इसकी उपासना उपनिषदों में ब्रह्म विद्या दहरविद्या ( छा. उ. ) मधु विद्या उपकोशल विद्या, मन्थ विद्याएँ, पंचाग्नि विद्या के रूप में मिलती है। वेदों में ब्रह्म सूर्य समं ज्योतिः (यजुः 23/40) भवानों अर्वांग र्स्वणः ज्योतिः (ऋक् 4/10/3) कहकर इसे विराट पुरुष के रूप में अनुभव किया गया। ऋग्वेद में सूर्य की इस महिमा को सूचित करने वाले चौदह सूक्त हैं।

सूर्य की उपासना के तत्वों को यदि विश्व के विभिन्न भू भागों में ढूंढ़ें तो विस्मय जनक हर्ष होता है कि समूचा विश्व, सूर्य उपासना के रूप में कभी एकजुट था। इसे देवसंस्कृति के प्रति एक निष्ठा ही कहेंगे। आकाश के देवता ‘एना’ और पृथ्वी के देवता ‘इया’ में निष्ठा रखने वाले बेवीलोनीयाँ निवासियों ने दिन का आरम्भ सूर्योदय से माना। मिश्र की नीलघाटी सभ्यता में सूर्य पूजा मुख्य थी। फैल्डियन लोगों की श्रद्धा भी सूर्य पर टिकी थी। सुमेरियन सभ्यता के दो देवता थे सूर्य-चन्द्रमा। फिनीशियन भी सूर्य चंद्र के उपासक थे। पर वैदिक वाङ्मय में सूर्य तत्व की जो गहन शोध है वह विरल है। वेदों ने सूर्य को सु+इर सुन्दर प्रेरणा देने वाला माना है।

पूज्य गुरुदेव द्वारा सूर्य उपासना को सर्व प्रचलित करने में लोक जीवन के भाव और विचारों के परिष्कार का रहस्य छुपा है। यों सूर्य उपासना के अन्य अनेक मंत्र हैं तरह-तरह की उपासना पद्धतियाँ हैं पर उनकी सीमा अधिदैवत तक सीमित है। व्यक्तिगत स्तर पर भले उनसे लाभान्वित हुआ जा सकें । सामूहिक मन में हो रहे प्रदूषण का निवारण संभव नहीं । यह सम्भावना सिर्फ गायत्री मंत्र के माध्यम से स्वीकार हो सकती है। सूर्य रहस्य का प्रकटीकरण सिर्फ इसी समर्थ विधि से सम्भव हैं।

गायत्री आदि मंत्र है इसी के रहस्य की व्याख्या चारों वेदों में इसकी उपस्थिति इसके वैशिष्ट्य और महत्व के दर्शाने के लिए पर्याप्त है। ऋग्वेद , शाकल संहिता 3/62/10, शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिनोय संहिता 3/35, 22/9, 30/2, 36/3 कृष्ण यजुर्वेद , तैत्तिरीय संहिता 1/5/6/12, 1/5/8/10, 4//11/61 तथा कृष्ण यजुर्वेद, तेतरीय संहिता 1/5/6/12 दृ 1/5/8/10, 4/1/11/62 तथा कृष्ण मैत्रायणी संहिता 4/10/77 सामवेद कौशुल संहिता उत्तरार्चिक 13/3/3 तथा 13/4/3/1 अथर्ववेद शौनक संहिता 19/71/1 में गायत्री के गान की गूँज हैं।

मंत्र शक्ति की अलौकिक सामर्थ्य-सूर्य रहस्य का ज्ञान, विराट पुरुष से एकत्व छुपी है। वहीं इसमें महान संस्कृति के उदय विस्तार का तत्व भी सँजोया है । इसका प्राकट्य जिस महान उद्देश्य से हुआ उसे बताने वाली एक कथा संकेत ऋग्वेद में मिलती है। ऋक् काल में भारत में आर्य और दो जातियाँ थीं। सुसंस्कृत आर्यों के नेता अगस्त्य थे, दस्युओं का नेतृत्व शम्बर के हाथ में था । अगस्त्य वरुण के उपासक थे । दस्यु अपनी दुष्प्रवृत्तियों के कारण आर्यों के शत्रु थे। अगस्त्य के शिष्य विश्वरथ के मन में विचार आया क्या इन दस्युओं का आर्य बनाना सुसंस्कृत कर सकना संभव है ? यदि हाँ तो कैसे ? इस प्रश्न के समाधान के लिए उन्होंने घोर तप किया। परिणाम में जो विद्या मिली वह गायत्री थी। जिसकी शक्ति से उन्होंने दस्युओं को सामूहिक रूप से आर्य बना डाला। उनके इस महान प्रयास पर ऋषियों ने चकित होकर उन्हें विश्व का मित्र-विश्वामित्र कहा उदय काल से सूर्य उपासना की महान विद्या सामूहिक हितों, सामूहिक मन को सुसंस्कृत बनाने के लिए प्रयोग की जाती रही है। महर्षि दयानन्द ने आधुनिक समय में व्रात्य हो चुके समाज को आर्य बनाने के लिए इसका प्रयोग किया उनके प्रयास की परिधि भले छोटी रही हो पर उद्देश्य गगनचुम्बी था। कहने सुनने के लिए गायत्री की साधना बहुतों ने की होगी। पर उसके 24 अक्षरों में एक अक्षर नः का तत्वज्ञान कितनों सद्बुद्धि के अर्जन और उपार्जन की यह प्रक्रिया ‘मम्’ अर्थात् मेरे लिए न होकर नः अर्थात् हमारे (हम सब) के लिए है। उपदिष्ट साधना प्रक्रिया भी डालने के लिए सक्रिय हुई है। इसका अर्थ, आर्य होना, सुसंस्कृत होने के बराबर समझा जाना चाहिए। यह महर्षि प्रयोगों का अति व्यापक और सुविस्तृत सामूहिक अनुष्ठान, उदय कालीन एक समय ध्यान-आदि अनेकों ऐसी गहन प्रक्रियाएँ हैं जिनके दुर्विचारों की प्रेरक आसुरी शक्तियाँ नष्ट होने के लिए विवश हैं। सामूहिक मन का परिशोधन अपने अन्तिम चरण में है। उन्होंने प्रारम्भ से लेकर अब तक साधना की जो प्रणालियाँ सुझाई हैं सबका उद्देश्य व्यष्टि का समष्टि में विलय माना जाना चाहिए। इनमें युग ऋषि की ओर हिमालय की दिव्य सत्ताओं की ओर स्वयं को खोलना होता है।

युग साधकों के लिए निर्दिष्ट-गायत्री महामंत्र का तीन माला का जप , उगते हुए सूर्य का सविता का ध्यान इसी उद्घाटन हेतु है, जिसके परिणाम में युगऋषि की चेतना उनके अस्तित्व में व्यापक फेर बदलकर सामूहिक चेतना को जोड़ती है। इसके व्यक्तिगत परिणाम आत्मसंतोष-आत्मानुभव ब्राह्मणत्व की जाग्रति के रूप में उभरेगी ही। सामूहिक मन में जो परिवर्तन हो चुके हैं हो रहे हैं उनके परिणाम-मूर्धन्यों की मूर्छना को तोड़ने वाले सिद्ध होंगे। राजनेता, वैज्ञानिक, धनाध्यक्ष मनीषी-इन चारों के मनः क्षेत्र में अनोखी सूझ’-बूझ का उदय होगा। उनके कदम सही दिशा में उठने के लिए विवश होंगे। यों परिणामों की शृंखला लम्बी है जिसे स्थानाभाव में दे पाना सम्भव नहीं। पर संक्षेप में इन चारों वर्गों को झकझोरने कचोटने के साथ अन्य महत्वपूर्ण परिणति है प्रतिभावान आदर्शनिष्ठ पीढ़ी का उदय जो परिष्कृत हो रहे सामूहिक मन से जुड़कर नवयुग का नेतृत्व सँभालेगी।

इस साधनाक्रम में सम्मिलित होने वाले साधकों से यही अनुरोध है कि वे गायत्री महामंत्र के नः अक्षर का तत्वदर्शन समझें । स्वयं को सूर्य से एकाकार हुए गुरुदेव की चेतना से जोड़े । विश्वास रखें हिमालय की दिव्य शक्ति धाराएँ उनकी ओर दौड़ पड़ने के लिए आतुर हो उठेंगी वह सब सहज मिल जायेंगे जो युगों की साधना से सम्भव न था और सामूहिक मन पर इसके परिणाम के रूप में विश्व के कर्णधार यह मानने के लिए विवश होंगे कि वर्तमान गठन अनुपयुक्त है। उसके स्थान पर नित नवीन का कलेवर धारण करना पड़ रहा है। उनके मस्तिष्क कुछ ऐसा ताना-बाना बुनेंगे जिसमें विश्व की एकता का व्यवहार में व्यापक उथल-पुथल की अनुभूत की जा सकेगी। समूचा विश्वचिंतन ऐसी उलट-फेर से भर जाएगा जिसे आज की तुलना में शीर्षासन की संज्ञा दी जा सके।


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