हिन्दुत्व क्या है ?

August 1992

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(परमपूज्य गुरुदेव के साथ अंतरंग वार्ता के दौरान हुए प्रश्नोत्तरों की शृंखला, जो विगत माह से धारावाहिक प्रकाशित की जा रही है-विषय है भारतीय संस्कृति एवं हिन्दुत्व )

प्रश्न:-वर्णाश्रम धर्म की व्याख्या आपने प्रगतिशील ढंग से की है, जबकि हिन्दू धर्म के प्रवक्तागण इस संबंध में बड़ा कट्टर रुख रखते हुए जन्म से ही जाति माने जाने की बात कहते हैं?

उत्तर:- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यह चार वर्ण हैं तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं। यह संस्कृति का शाश्वत विज्ञान है किन्तु यह भी स्पष्ट समझा जाना चाहिए कि वर्णों का , जाति का, विभाजन गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर होता है, न कि जन्म के आधार पर । यदि जन्म से कोई किसी वर्ण में है, पर कर्म तदनुकूल नहीं हैं तो वह जाति से भले ही वह कहा जाता रहे, उसके कर्म ही यह निर्धारण करेंगे कि चिंतन-कर्म कौशल की दृष्टि से उसे क्या संबोधन दिया जाना चाहिए। समाज व्यवस्था का यह आदिकाल से चला आ रहा सुनियोजित क्रम है। चिंतनशील ज्ञानार्जन व अध्यापन में रुचि लेने वाले वर्ग को प्राचीनकाल में ब्राह्मण कहा गया था । दुर्धर्ष साहस , काम का सृजनात्मक उल्लास में प्रयोग करने वालों को ‘क्षत्रिय’ तथा अर्थ व्यवस्था व उसके सुनियोजन में रुचि लेने वालों को वैश्य बताया गया । साधारण रुचि वाले किन्तु श्रमनिष्ठ सेवाभावी व्यक्तियों को जो ऊपर के तीनों ही वर्गों में नहीं आते थे , शूद्र कहा गया। यह विभाजन विशुद्धतः कर्मों के आधार पर व्यक्ति के संस्कारों के अनुरूप किया गया व आज भी यही युगानुकूल है। जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं, यह मनु की मान्यता है व आज के मनोवैज्ञानिक की भी किन्तु प्रयास-पुरुषार्थ, साधना-संस्कारादि द्वारा सब ब्राह्मण बन सकते हैं, यह सबकी मान्यता रही है। हमने ब्राह्मणत्व के वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत तथा परिव्रज्या, वानप्रस्थ के आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत नवजागरण व विस्तार का संकल्प लिया है। निश्चित ही अगले दस वर्षों में पूरा होगा।

प्रश्न:- स्त्रियों के संबंध में मध्यकाल व अब तक के विचारकों का मत उन्हें दोयम दर्जे का मानने का रहा है। आपने न केवल नारी जाग्रति अभियान का शंखनाद किया, इक्कीसवीं सदी को नारी सदी कहा है, इसका क्या आधार है ?

उत्तर:- वस्तुतः संस्कृति के प्रणेताओं ने तो नारी को पूज्य मानकर उसकी स्थान-स्थान पर अभ्यर्थना की है। वेदमंत्रों का साक्षात्कार करने व संहिताओं का निर्माण करने वाली बहुसंख्य तपस्वी नारियाँ हैं। ऋषि व ऋषिकाएँ एक साथ तप -जप-यज्ञ संपन्न करते थे। तब नारी को सम्मान ही नहीं , पुरुष से भी ऊँचा स्थान प्राप्त था। पर व नारी में नारी देहयोनि सौभाग्यवान आत्माओं को ही मिलती है ऐसी संस्कृति की मान्यता रही है किन्तु मध्यकाल में भटकाव के दुर्दिन आए । ऐसा कुछ अनर्थ उन दिनों हुआ कि पूज्यभाव कुदृष्टि में बदलकर उसे वासना की आग में झोंक दिया गया । पुरुष वर्ग के इस षडयंत्र में तत्कालीन धर्मतंत्र प्रवक्ताओं ने भी साथ दिया व शास्त्रों में मिलावट से लेकर नारी के किसी भी धर्म कृत्य में भागीदारी, गायत्री जप करने व यज्ञ संस्कार आदि कराने के अधिकार छीन लिये । कन्या जन्म दुर्भाग्य का सूचक घोषित कर दिया गया व यह भेदभाव इतना बढ़ा कि दोनों की अलग-अलग आचार संहिताएँ बन गयीं। विवाह में दहेज व तत्पश्चात् उत्पीड़न इन सब में उलझी नारी अपनी सभी विशेषताएँ गरिमाएँ भुलाती गयी। बहुत जरूरी था कि धर्म तंत्र से एक आँदोलन जन्म ले व समग्र नारी समुदाय लोक नेतृत्व के क्षेत्र में आगे आए । नारी संवेदना का समुच्चय है। नारी सदी से आशय है- संवेदना जिनकी जाग्रति है, उनका युग । अगले दिनों नारी जैसे विशाल हृदय वाले विश्वमानवता के प्रति विराट स्तर का ममत्व रखने वाले नर व नारी ही देव संस्कृति के माध्यम से समग्र मानवता का मार्गदर्शन करेंगे यह एक भक्तिव्यता है, जो पूरी होनी ही है।

प्रश्न- देव संस्कृति महान है, उसका गौरवपूर्ण अतीत रहा है। फिर भी क्या कारण है कि उसके पक्षधर कहे जाने वाले ही आज मात्र भूतकाल की दुहाई देते दिखते हैं, स्वयं उनके जीवन में वह तत्वदर्शन उतरता नहीं दीखता। उलटे पाश्चात्य संस्कृति उन पर हावी होती जान पड़ती है। इसका क्या कोई समाधान है?

उत्तर:- हमने बार-बार कहा है कि संस्कार परम्परा के पुनर्जागरण तथा धर्मतंत्र से जन-जागरण लोक शिक्षण द्वारा ही धर्म-संस्कृति के नाम पर घर करती जा रही प्रतिगामिताएँ मिटायी जा सकती हैं। भूतकाल के गुणगान से ही नहीं, देव संस्कृति के तत्वदर्शन को जीवन में उतारने से ही नवयुग आयेगा । यह बात हमने अपने आचरण से लेकर लाखों व्यक्तियों के अंतःकरण व चिंतन तंत्र पर प्रयोग करके कही है। हमारा विश्वास है कि बावजूद इस तथ्य के कि पाश्चात्य संस्कृति अपना आधिपत्य जमाती दिख रही है, राष्ट्र का ब्राह्मणत्व जागेगा, प्रबुद्ध वर्ग अपने दायित्वों को समझेगा तथा सत्तर प्रतिशत से अधिक देहात व कस्बों में रहने वाला वर्ग धर्मतंत्र के प्रगतिशील रूप की ओर झुकेगा। सारे राष्ट्र के कण-कण में समाए देवत्व को जो प्रसुप्त पड़ा है , जगाने के लिए हम ही नहीं , अगणित ऋषिगण सक्रिय हैं। इस राष्ट्र की नियति ही यह है कि इसे अगले दिनों सारे विश्व का मार्ग दर्शन व्यक्तित्व निर्माण व परिष्कार से लेकर समाज देवता की आराधना क्षेत्रों में करना है। यह इतना ही सत्य है जितना कि सूर्य का अस्तित्व है। हम शरीर से समर्थ न रहने पर भी इसी प्रक्रिया में सतत् जुटे रहेंगे यह हमारी घोषणा है ।(क्रमशः)


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