साधना का तत्व और उसकी सिद्धि

August 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“आपकी उपस्थिति भी यदि प्राणियों को अभय न दे सके तो फिर किसकी शरण में जाय हम, अशिक्षित, उपेक्षित, असहाय प्राणी।” कई ग्रामों के प्रमुख इकट्ठे होकर आए थे। उनमें जो सबको लेकर आये थे, वे प्रार्थना कर रहे थे।

राजधानी से दूर, घोर वन से लगभग घिरे हुए जो थोड़े से गाँव इन वनवासियों के हैं उनमें कुछ गिने चुने लोग पढ़े लिखे भी हैं, क्योंकि कश्मीर के विरक्त विद्वान ब्राह्मणों का परिवार इन ग्रामों में लम्बी अवधि से रहता आया है। उनके संपर्क ने विद्या-व्यसन दिया है।

पता नहीं किसके अपराध से, किस के अपकर्म का परिणाम है कि एक अश्रुतपूर्व उत्पात इन दिनों यहाँ प्रारम्भ हो गया है। वन का एक शेर आततायी बन गया है। किसी न किसी के पाप का ही यह परिणाम है। अन्यथा वन-पशु तो कभी मानव का शत्रु नहीं रहा इस पवित्र प्रदेश में। शेर अब इन जनपदों तक में आने लगा है। वह गोष्ठ से पशु ही नहीं उठा ले जाता-दो-तीन मानवों का भी आखेट कर चुका है।

शासक प्रमत्त नहीं है। समाचार पाकर शासकीय अधिकारी कई बार आ चुके हैं किन्तु शेर बहुत चतुर है। वह या तो मिलता नहीं, अथवा इतना अकल्पित आक्रमण करता है कि आखेटक, कुछ नहीं कर पाता। तीन अभियानों में चार राजकर्मचारी आहत हो चुके और उनमें एक तो मृत्यु का ग्रास बन गया।

‘कोई असुर आ गया है इस वन में।’ लोगों में अनेक प्रकार की बातें फैली हैं-वह प्रेताविष्ट पशु है। उसे कोई मार नहीं सकता।’

जब कोई दूसरा उपाय नहीं दीखा, वनवासी ग्रामों के लोग एकत्र हुए और उन्होंने महासिद्ध की शरण लेने का निश्चय किया। चौरासी सिद्धों में प्रथम सिद्ध सरहपा (श्री नागार्जुन ) इन दिनों कई महीनों से अपनी साधना के लिए समीप के वन में आ गए थे। वनवासियों का समुदाय उनके आश्रम पहुँचा।

“महापुरुषों की उपस्थिति ही सम्पूर्ण आतंकों का शमन कर देती है।” आगतों ने प्रार्थना की-”हम आर्त हैं और हमारे अपने उद्योग असफल हो चुके हैं।”

“अच्छा !” अपनी बड़ी-बड़ी पलकें उन परम प्रज्ञावान त्रिकालदर्शी, अमित शक्ति सम्पन्न महापुरुष ने उठाई

“लगता है कि कन्ह को इसका अनुमान हो गया था। वह आ रहा है।”

दृष्टि जिधर उठी थी लोगों ने उस ओर मुड़कर देखा। दूर वृक्षों के मध्य से निकलती एक आकृति उन्हें दीख पड़ी। कोई आ रहा था-कोई शेर की पीठ पर बैठा चला आ रहा था। आश्चर्य से लोग उधर देखने लगे।

चरवाहे बालक जैसे अपने भैंसे की पीठ पर स्वच्छंद बैठते हैं शेर की नंगी पीठ पर एक ही ओर दोनों पर पैर लटकाए जो अल्हड़, जटाजूट धारी युवक आ रहा था, वह इन ग्रामवासियों के लिए अपरिचित नहीं है। सबका प्रिय, सबका श्रद्धाभाजन किंचित संकोची महासिद्ध सरहपा का प्रिय शिष्य कन्हपा-उसे भला कौन नहीं जानेगा।

“मैं इसे पकड़ लाया हूँ” थोड़ी दूर पर कन्हपा शेर की पीठ पर से कूदे और उन्होंने आकर गुरुदेव के सम्मुख भूमि में मस्तक रखने के पश्चात् दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की-”जो दण्ड विधान श्री चरण करेंगे, यह स्वीकार कर लेगा।”

शेर अब बैठ गया था। वह जैसे मस्तक झुकाए आया था, अब भी वैसे ही मस्तक झुकाए था। एक बड़े आकार के पालतू कुत्ते जैसा वह शान्त था। “कन्ह इसको अपना वाहन बना चुका।” महासिद्ध ने ग्रामवासियों की ओर देखा “अब यह उत्पात तो करने से रहा। इसे तो साधकत्व प्राप्त हो गया। वन पशु है-अपने स्वभाव दोष से हिंसा की है। आप सब इसे अब क्षमा कर दें, यही उचित होगा।”

दृष्टि फिर शेर पर गयी और वह उठा धीरे-धीरे चलकर समीप आया और महासिद्ध के चरणों पर सिर रखकर बैठ गया।

“महासिद्ध की जय !” आगतों ने उत्साहपूर्वक जयनाद किया। जयनाद के ये स्वर अभी मन्द नहीं पड़ने पाए थे-कि कुछ ही महीनों के बाद-

महासिद्ध की जय!’ कन्हपा की जय।’ जनसमूह उमड़ा पड़ रहा था। लोगों की श्रद्धा का आवेग भी एक नदी पूर है। जब वह उमड़ता है, उस पर अंकुश रखना सरल नहीं होता। राजकर्मचारी बड़ी कठिनाई से भीड़ को नियंत्रित कर रहे थे।

जनता का यह उत्साह श्रद्धा का यह आवेग सर्वथा उचित था। महासिद्ध के प्रिय शिष्य कन्हपा ने उन्हें जीवनदान दिया है। बहुत नीची है कश्मीर घाटी। पर्वतों से घिरी यह एक विशाल झील ही तो थी, जो महर्षि कश्यप की कृपा से जल निकल जाने के कारण आवास भूमि बन गई। यों भी इस घाटी में झीलों, कुण्डों, स्रोतों की बहुलता है, किन्तु जब कभी बड़ी वर्षा होती है-इस पुराण-वर्णित झील में नाग ने जो जल निकलने का मार्ग बनाया वह छोटा रह गया है। इसे वर्षा शीघ्र ही झील का रूप देने लगती है। इस बार तो तीन दिन-रात मेघ खुले ही नहीं थे। लगता था कि घाटी में प्रलय आ गयी है।

महासिद्ध अपने आश्रम में ध्यानस्थ थे। कुशल यही थी कि वे राजधानी के आश्रम में थे। जब जल आश्रम में प्रवेश करने लगा सहसा कन्हपा उठ खड़े हुए। अनेक लोगों का कहना है कि वे शरण लेने आश्रम गए उस समय। वे कहते हैं ‘कन्हपा के मुख की ओर देखना सम्भव नहीं था। लगता था कि सूर्य ही पृथ्वी पर उतर आया है।’

आश्रम से बाहर आकर एक नजर उन्होंने मेघों पर डाली। ‘हूँ’ एक धीमी हुँकार-और मेघ तो वायु के झकोरों में उड़ते ही चले गए। दो क्षणों में तो सुनहली धूप-पूरी घाटी पर चमकने लगी थी।

आकाश खुल गया था, किन्तु धरा तो जैसे प्रलय सागर में डूबती जा रही हो। जल में तैरते डकराते पशु, भवनों की छतों पर टँगे-रोते चिल्लाते शिशु और उनकी माताएँ! फूस के छप्पर, खपरैले-सब पर लोग घर का सामान लेकर चढ़ गए थे-या चढ़ रहे थे। नीचे पानी में कहाँ क्या डूबा है, क्या बह रहा है, कौन गणना करे ?

सुना गया है कि महर्षि अगस्त्य ने कभी समुद्र पी लिया था, किन्तु देखने वाले भी कुछ समझ नहीं सके कि इस बार क्या हुआ। कन्हपा ने अपनी दांहिनी भुजा उठायी और कुछ संकेत किया सम्भवतः उनकी उँगलियों ने कोई मुद्रा बनायी। जल अकस्मात वाष्प बनकर उड़ता तो बादल या कुहरा उठता। इतना जल किसी मार्ग से बह जाता तो उसमें प्रबल प्रवाह उमड़ता और कन्हपा ने उसे पिया हो ऐसा तो प्रतीत नहीं हुआ। हुआ चाहे जो हो, जल बड़ी शीघ्रता से घटने लगा था।

कन्हपा स्थिर शान्त भुजा उठाए आश्रम से बाहर खड़े रहे और जल घटता गया, घटता चला गया। सायंकाल तक केवल भूमि गीली रह गयी थी। छोटे गड्ढों तक के जल को पृथ्वी ने सोख लिया था उस समय तक, जब कन्हपा ने अपनी भुजा नीचे की और आश्रम की ओर मुड़े।

राजकर्मचारी शीघ्र सावधान हो गए थे। समाचार फैला और जनसमूह श्रद्धा के आवेश में उमड़ पड़ा। स्वयं कश्मीर नरेश पधारे महासिद्ध और उनके महामहिम शिष्य की वन्दना करने। इस जय घोष के कोलाहल के कारण महासिद्ध समाधि से उठ गए थे।

“कन्ह”। रात्रि के द्वितीय प्रहर में जब जनता का कोलाहल शान्त हो चुका था और आने वाले लोग लौट चुके थे महासिद्ध ने अपने शिष्य को समीप बुलाया और स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखने लगे। “तुमने कोई अकार्य किया है, ऐसा मैं नहीं कहता, किन्तु साधना का स्वरूप और उसकी सफलता समष्टि के विधानों में परिवर्तन करने की शक्ति प्राप्त करना तथा ऐसे हस्तक्षेप करना नहीं है। तुम भटक गए हो अपने मार्ग से।”

कन्हपा-आज पूरा नगर जिन्हें महासिद्ध की दूसरी मूर्ति मान रहा था-वे मस्तक झुकाए अपराधी के समान खड़े थे। सभी गुरु भाई उनके इर्द-गिर्द खड़े थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था-गुरुदेव अपने इस सर्व प्रिय शिष्य पर आज इतने निष्करुण क्यों हो गए हैं। कन्ह के किसी कार्य में स्वार्थ और अहं कभी नहीं रहा है उसने जो कुछ किया-लोक दया से प्रेरित होकर किया है।

तब-आज फिर महासिद्ध का यह व्यवहार? कन्ह आत्म ग्लानि से भर उठे। उनका अपराध आंसुओं में बह निकला। “देव ! दया दया !! दया !!” आर्तना करते गुरु सरहपा के चरणों में वे गिरे और बच्चों के समान क्रंदन करने लगे। उन्होंने औरों की ओर देखा तक नहीं था। “वत्स !” सरहपा का आक्रोश उनके इस रुदन में बह गया। उनका स्वर गदगद हो गया। उनके कर अपने प्रिय शिष्य की जटाओं और पीठ पर फिर रहे थे। वात्सल्य से सनी वाणी उमड़ पड़ी-”साधना का तत्व और उसकी सिद्धि ईश्वर से प्रेम है-चमत्कार-सिद्धि प्रदर्शन-उसके विधान में हेर-फेर करने का दुःसाहस-इसमें बाधक तत्व हैं। ईश्वर के प्रति प्रेम करने का अर्थ है लोक के प्रति करुणा से भर जाना और लोक के प्रति करुणावान होने का अर्थ है जन-जन में सद्भावों-सत्चिंतन-सत्कर्म-को उमगा देना। स्वयं में यदि आदर्शों के प्रति प्रेम उमड़ सका लोक हृदय में उनके प्रति श्रद्धा, निष्ठा उमगायी जा सकी तो समझो साधना बन सकी सिद्धि मिल सकी”।

महागुरु के इन स्वरों ने उनके अंतर्मन में सच्ची सिद्धि का स्वरूप प्रकाशित कर दिया। वह लोक-जीवन में आदर्शों की संवेदना सरिता को बहाने चल पड़े।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118