वर्चस् का उपार्जन एवं शक्ति का संरक्षण

August 1992

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मनुष्य को प्राणी कहा गया है। प्राण होने पर वह सजीव कहलाता है तथा प्राण निकलते ही निर्जीव हो जाता है। मनुष्य तथा प्राण निकलते ही निर्जीव हो जाता है। मनुष्य तथा अन्य जीव-जन्तुओं के जीवित रहने और विविध क्रियाकलाप करते रहने का सारा श्रेय इस प्राणशक्ति को है। जिसमें यह न्यूनाधिक होगी, उसी अनुपात में सशक्तता, समर्थता, प्रतिभा एवं व्यक्ति की समाज में स्थिति में कमोबेशी दिखाई देगी। मनुष्य व अन्य जीवधारियों में यही एक अंतर है कि उसमें प्राणतत्व का बाहुल्य औरों की अपेक्षा कुछ अधिक है, निरन्तर प्राण संचय करते रहने का बहुमूल्य तंत्र उसके पास है तथा विवेकयुक्त जीवनचर्या अपनाते हुए वह प्राणवान निरन्तर बना रह सकता है।

आज का सबसे बड़ा संकट यह है कि मनुष्य इस प्राण शक्ति के विपुल महासागर में रहते हुए भी प्राणहीन, निस्तेज, बलहीन जीवन जी रहा है। विक्षिप्तताओं से भरे आज के समाज में उनकी संख्या कहीं ज्यादा है, जिन में पर्याप्त प्राणशक्ति-जीवनी शक्ति का अभाव है। इसी कारण वे हेय, दुर्भाग्य भरा अभिशप्त, कुण्ठाओं व मनोविकारों से ग्रसित जीवन जीते देखे जाते हैं। चिकित्सकों का मत है कि मनःशक्ति की , संकल्प शक्ति की कमी से जन्में मानसिक क्षोभ भावनात्मक उद्वेलन तथा निषेधात्मक चिन्तन ने ही आज उन विकृतियों को पैदा किया है जो स्थूल शरीर के स्तर पर असाध्य रोगों के रूप में मनुष्य को प्रभावित करती दिखाई देती हैं। मनःवेद एरिक फ्राम अपनी कृति “मैन फॉर हिमसेल्फ” में लिखते हैं कि “वैयक्तिक जीवन में व्यक्ति का स्वयं को अशक्त-बलहीन महसूस करना आज के मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना है। कहने को तो उसने बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक आते-आते प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है किन्तु वह अपने आप पर से विश्वास खो बैठा है। सृष्टि के समस्त ज्ञान के बावजूद वह अपने आपे को विस्मृत कर बैठा है, जहाँ शक्ति का जखीरा छिपा पड़ा है किन्तु वह उसको प्रयोग नहीं कर पा रहा।”

ऋषियों के अनुसार संसार में तीन दुखों के कारणों में सबसे प्रमुख अशक्ति है अज्ञान व अभाव अन्य दो कारण हैं। अशक्ति अर्थात् प्राणतत्व की काय संस्थान व मनः संस्थान में न्यूनता। या तो उसका अधिक अपव्यय होना अथवा समुचित मात्रा में उपार्जन न होना। “ प्राण “ शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग लगाकर “अन्” धातु से होती है। “अन्” शब्द जीवनीशक्ति चेतना-शक्ति का बोधक है। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ हुआ चेतना का कण-कण में संचार। प्राण शक्ति जब रोम-रोम में जीवनी शक्ति के रूप में संचारित होती है तो व्यक्ति प्राणवान कहा जाता है शरीर में यह अधिक परिमाण में होती है तो व्यक्ति रूप लावण्य युक्त, तेजवान, ओजस्वी, नीरोग, दीर्घजीवी, परिपुष्ट दिखाई देता है। मन में जब इसकी मात्रा बढ़ने लगती है तो व्यक्ति कुशाग्र, बुद्धिमान प्रतिभा संपन्न, मनस्वी, मनोबल-संपन्न बन जाता है। यही शक्ति अध्यात्म क्षेत्र में व्यक्ति को शूरवीर , साहसी आदर्शवादी, निर्भय आत्मबल संपन्न बनाती है। प्राणशक्ति का उपार्जन व अभिवर्धन यदि व्यक्ति समुचित मात्रा में करता है तो उसका पुरुषार्थ सधता चला जाता है व जीवन -सुखी , सफल, प्रसन्नता-पारलौकिक विभूतियों से संपन्न माना जाता है। देव संस्कृति के प्रणेता ऋषियों ने आत्मविज्ञान के क्षेत्र में गहरी शोध कर प्राण-शक्ति के उपार्जन की बल की-जीवट की प्राप्ति की प्रक्रिया को भली भाँति समझ लिया था। गायत्री महाशक्ति के माध्यम से प्राणशक्ति के सतत् अभिवर्धन की शोध ऋषिगणों द्वारा ही की गयी है। गायत्री शब्द का अर्थ है आत्मिक क्षेत्र में प्राणशक्ति भर देने वाली विधा। गय और त्री शब्दों से मिलकर यह शब्द बना है। गय अर्थात् प्राण और त्र अर्थात् रक्षा-जो प्राणों की रक्षा करे-प्राण क्षमता का रमण करे-सतत् प्राणशक्ति बढ़ाती रहें, वह गायत्री है।

शतपथ ब्राह्मण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार समझाई गयी है-

“सा हैषा गयाँस्तत्रे। प्राणा वै गयास्तत् प्राणाँस्तत्रे तद् गयाँस्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम।” (14/8/15/7)

अर्थात्-”उसने “गयो” की रक्षा की। प्राण ही “गय” हैं। उन प्राणों यानी “गयो” का त्राण करने वाली का नाम गायत्री है।”

ताण्डंयोपनिषद् में “प्राणों गायत्रं” कौशितकी उप. में “प्राणों वै गायऋयः तथा पुनः शतपथ ब्राह्मण में “प्राणो वै गायत्री” कहकर उपरोक्त कथन की पुष्टि ही की गयी है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार “गायन्ते त्रायते इति वा गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः” -अर्थात्-प्राणों का संरक्षण करने वाली होने के कारण ही उसे गायत्री कहा जाता है। निरुक्तकार का कथन है-”गायन्तं त्रायते इति गायत्री”- जो गान करने वाले का त्राण करती है, वह गायत्री है। गान का अर्थ है गायत्री मंत्र के माध्यम से संपूर्ण अन्तश्चेतना को झंकृत कर देना, उसमें तन्मय हो जाना शरीर का रोम-रोम कण-कण में प्राण-शक्ति का संचारित हो उठना।

ऋषिगणों ने प्राणशक्ति का महत्व समझा था व इसी कारण उनने जनसाधारण को संबोधित कर कहा-”बलभ् उपास्व” शक्ति की उपासना करो प्राण का संरक्षण करो। उपनिषद्कार कहता है कि -”नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः” बलहीनों को -प्राणशक्ति- क्षीण व्यक्तियों को न कभी आत्मा मिलता है, न परमात्मा। बात सही है। ऐसे व्यक्तियों को भौतिक जीवन में भी कुछ नहीं मिलता। जीवट, पराक्रम,प्राणशक्ति,मनोबल,आत्मबल का अभाव होने पर तो व्यक्ति निर्जीव वस्तु के समान है। जीवन की सार्थकता ही जीवट से है। जीवनीशक्ति युक्त को ही जीवित कह सकते हैं। इसके अभाव में तो वह जीवित मृतक, नरपामर, नरकीटक, मात्र है। गतिशील तो जीवाणु भी होते हैं, परन्तु उन्हें जीवितों की तरह-प्राणवानों की तरह सम्मान तो नहीं मिलता।

व्यक्ति रोजमर्रा के जीवन में बाधक बनने वाले-वातावरण में विद्यमान पतनोन्मुख कुसंस्कारों से जूझ सके, इसके लिए उसे प्राणशक्ति चाहिए। प्रगति के लिए, आवश्यक पुरुषार्थ का सम्पादन करने के लिए अभीष्ट साहस संचय हेतु भी उसे प्राणशक्ति चाहिए। आज की अधीरता, अशक्तता और कायरता की मनःस्थिति से जूझने हेतु भी प्राणशक्ति चाहिए। यह प्राण शक्ति साधनात्मक अवलम्बनों में ऋषिगणों द्वारा गायत्री साधन, सविता के ध्यान, तथा गायत्री जप के साथ जुड़े प्राणायाम से सर्वाधिक मात्रा में अर्जित होती बतायी गयी है। “चेतना क्षेत्र का यह पुरुषार्थ जितना सशक्तता से गायत्री साधना के माध्यम से संपन्न होता है तथा जिस प्रकार से मनःक्षेत्र पर छाए अवसाद- कुण्ठाएँ-हीनता-विक्षुब्धता आदि मनोविकारों का शमन इन आध्यात्मिक अवलम्बनों के माध्यम से होता है उतना संभवतः कोई और माध्यम से किसी अन्य साधना पद्धति में नहीं देखा जाता। अध्यात्म क्षेत्र में प्राण की परिभाषा चेतना की बलिष्ठता के रूप में की गयी है। प्राण से ऋषियों का तात्पर्य जीवात्मा की उस आँतरिक क्षमता से है जो शरीर में ओजस, चिन्तन में तेजस् और आस्थाओं में वर्चस् नाम से जानी जाती है। इस अंतरु “अतः क्षमता को -आत्म शक्ति को -प्राणतत्व को अधिकाधिक मात्रा में संचय करने हेतु जीवन का अधिकतम आनन्द लेने हेतु गायत्री महाशक्ति का आश्रय लेने की बात ही श्रुति कहती है।

प्रश्नोपनिषद् में ऋषि कहते हैं-”प्राणग्नय एवास्मिन ब्रह्मपुरे जागृति” अर्थात्-”इस ब्रह्मपुरी में प्राण की अग्नियाँ ही सदा जलती रहती हैं” तथा-

य एवं विद्वान् प्राणं वेद रहस्या प्रज्ञा हीयतेऽमृतो भवति तयेवश्लोकः ( प्रश्नों. 3/11 ) अर्थात्- जो बुद्धिमान इस प्राण रहस्य को जान लेता है वह अमर बन जाता है उसकी परम्परा कभी नष्ट नहीं होती।” साँख्यायन आरण्यक का ऋषि कहता है कि “मैं ही प्राणरूप प्रज्ञा हूँ। मुझे ही आयु और अमृत मानकर उपासना करो। प्राण ही जीवन है। इस लोक में अमरत्व की प्राप्ति का आधार प्राण ही है।” वस्तुतः प्राण ही प्रत्यक्ष ब्रह्म भी है गायत्री उसका प्रतिनिधित्व करने वाली शक्ति है। यदि गायत्री का तत्वदर्शन जीवन में उतर जाए, सूर्य की साधना द्वारा व्यक्ति अपने विचारों में मन को स्नान करा सके तो यह प्राण शक्ति उसके रोम-रोम में उतरकर उसे ब्रह्मवर्चस सम्पन्न बना देती है। आप्त वचनों के अनुसार ‘गा’ कारो गतिदः प्रोक्त, ’य’ कारो शक्ति दायिनी। ‘त्र’ त्राताच, ‘ई’ कार स्वयं परम्। गा अर्थात् गति, य अर्थात् गति, य अर्थात्-शक्ति, त्र अर्थात् त्राता ई अर्थात् परब्रह्म। इसका मतलब हुआ गायत्री वह परमसत्ता है- पर ब्रह्म की प्रत्यक्ष सत्ता है जो मानव जीवन में प्राण का संचार करती है उसको गति प्रदान करती है, शक्ति देती है, उसकी रक्षा करती है, निर्भय बनाती है, प्रकारान्तर से मनोबल-आत्मबल से अभिपूरित कर उसे ब्रह्मवर्चस् संपन्न बना देती है।

गायत्री महासत्ता की उपासना करते हुए वरदान रूप में ब्रह्मवर्चस् को प्राप्त कर सकने वाला हर क्षेत्र में विभूतिवान बनता चला जाता है। छान्दोग्योपनिषद् का ऋषि अथर्ववेद की सूक्ति “आयुः प्राणं प्रजाँ पशुँ कीर्ति द्रविणम्- ब्रह्मवर्चसम् मह्यम् दत्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम्” को इस रूप में कहता है- “स य एवमेतद् गायत्रं प्राणेषु प्रोक्तं वेद प्राणी भवति सर्दमायुरेति ज्योग्जीवति महान्पव्रजया पशुर्भिभवति महान्कीर्त्या महामनः स्यात्तद्द्रतम्” ( 2/10/2) अर्थात्-”यह गायत्री तत्व समस्त प्राणों में विद्यमान है। जो इसकी उपासना करता है, वह विद्वान-प्राणवान-दीर्घजीवी यशस्वी-सुसंपन्न-उदार और महामनस्वी बनता है। “ यह सभी महामत्य जो बताए गये हैं, अकारण नहीं हैं। वस्तुतः स्थूल काय किन्तु तेजरहित दुर्बल मनः स्थिति का व्यक्ति बलवान नहीं कहा जा सकता है, न दूसरों की। नीति वाक्य है- तेजोयस्य विराजते सबलवान, स्थूलेषु कः प्रत्ययः “ अर्थात्-जिनमें तेज है, वही बलवान है। स्थूल काया के पुष्ट होने से क्या प्रयोजन सधता है ?” दुर्भाग्यवश आज औषधि उपचारों से लेकर आधुनिक विज्ञान के सारे प्रयास बहिरंग पर ही केन्द्रित हैं। अंतरंग की दृष्टि से तो व्यक्ति निताँत जर्जर दुर्बल होता दीखता है। ऋषियों की कल्पना थी कि वैश्वप्राण के क्षरण होते रहने से ऐसी स्थिति आ सकती है, आधुनिक प्रगति व्यक्ति को आत्मघाती स्थिति में भी पहुँचा सकती है। इसलिए उनने प्राणों की रक्षा किये जाने की-प्राणों का निग्रह करने की उन्हें धारण किये जाने की महत्ता योग साधनाओं के माध्यम से स्थान-स्थान पर प्रतिपादित की।

जिस प्रकार पंचतत्वों की हेरफेर से शरीर में विविध प्रकार के परिवर्तन होते हैं, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में प्राण की स्थिति में हेरफेर से शरीर में विविध प्रकार के परिवर्तन होते हैं, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में प्राण की स्थिति में हेरफेर होने से मनोभूमि में महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, अनेक जन्मों के संग्रहित कुसंस्कारों के कारण मन में विकृतियाँ भरती चली जाती हैं तथा सतत् साधक को पथ-भ्रष्ट करने के लिए निरन्तर दुरभि सन्धियाँ रचती रहती हैं। मनका उचटना, जहाँ तहाँ घूमना निर्दिष्ट लक्ष्य पर स्थिर न होना, कुसंस्कारों का कुमार्ग पर चलने को मन को , ललचाना, वासना प्रधान चिन्तन में रस लेने की प्रवृत्ति बढ़ाना-ये सभी वे विघ्न हैं, जिन्हें नियंत्रित करने का सुनिश्चित विधान प्राण-निरोध-प्राण संयम-प्राणधारण-प्राणायाम-सविता के ध्यान तथा गायत्री के जप द्वारा संपन्न होता बताया गया है। मनोभूमि का शोधन व चिर संचित कुसंस्कारों का उन्मूलन कर प्राणधारण की साधना व्यक्तित्व का सुनियोजन करती है तथा उसे मनःशक्ति आत्मबल संपन्न बनाती है।

गायत्री की साधना प्रमुख लाभ व्यक्ति को प्राण शक्ति उपलब्ध कराना है। प्रसुप्त अंतः शक्तियों का जागरण कर वह ब्रह्म तेज का संवर्धन करती है। देवी भागवत का सारा आख्यान, गायत्री की इसी महिमा से भरा पड़ा है। शास्त्रकार इस ग्रन्थ में कहता है-”ब्रह्मण्य तेजो रूपा च सर्व संस्कार रूपिणी पवित्र रूपा सावित्री वाँछतिह्यात्म शुद्धये”। अर्थात्- गायत्री ब्रह्मतेज रूप है। पवित्रता एवं संस्कार रूपिणी है। इससे आत्मशुद्धि होती है।” सबसे बड़ी उपलब्धि है पवित्रता-पापों का काटना तथा परमात्म सत्ता से साक्षात्कार हेतु पात्रता अर्जित होना। पवित्रता का दूसरा फलितार्थ है-मनोविकारों का शमन -उत्तेजना, अवसाद, तनाव, भय, जैसी मनःस्थिति से छुटकारा व पवित्र श्रेष्ठ विचारों का उद्भव मन की शान्ति व व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सामंजस्य स्थापित हो जाना।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है-”अमृत सु वै प्राणः” यह प्राण ही निश्चित रूप से अमृत है। गायत्री मंत्र की साधना, सूर्य का ध्यान, प्राण

धारण हेतु किया गया प्राणायाम व्यक्ति को अमरत्व प्रदान करता है तथा उसे ओजस्वी, तेजस्वी , मनस्वी बनाता है। सावित्री-गायत्री प्राणवान सविता देवता की अधिष्ठात्री शक्ति हैं तथा अनन्त प्राण शक्ति के स्रोत के रूप में सन्निहित प्राणशक्ति वस्तुतः परमब्रह्म परमात्मा का ब्रह्मतेज “भर्ग” ही है। पापनाशक यह तेज जब अंतरात्मा में स्थित होता है तो व्यक्ति को पापमुक्त कर पवित्र बना उसे आत्मबल संपन्न बना देता है।

वर्चस् की आत्मबल की आवश्यकता हर क्षेत्र में है भौतिक किन्तु आध्यात्मिक। आत्मबल जिस प्राणशक्ति के संचय से संपादित होता है। वह गायत्री महाशक्ति का अवलम्बन लेकर अर्जित की जा सकती है। गायत्री की प्रेरणा से आत्मबल ब्रह्मवर्चस् इसी तरह उभरता है, जैसे कि सौर मण्डल के ग्रह-उपग्रह सूर्य की आभा से प्रकाशवान दिखाई देते हैं। जीवन को जीवितों की तरह प्राणवानों की तरह जीना हो-उसमें कुछ रस लेना हो आनन्द लेना हो, सोद्देश्य जीवन जीकर अर्जित करना हो तो आत्मबल ही संपादित किया जाना चाहिए। बलिष्ठता की अनुगामिनी ही संपन्नता है। अस्तु, बलों में परमबल आत्मबल के उपार्जन को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए हम’वर्चस्’ की उपासना करें, गायत्री का ब्रह्मतेज धारण कर प्राणवान बनें, इसी में दूरदर्शिता है।


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