प्रसुप्ति मिटाकर देवमानव बनाने वाली विलक्षण साधना

August 1992

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परम पूज्य गुरुदेव ने जहाँ गायत्री को , पुनर्जीवन देकर राष्ट्र के घर-घर में उसे प्रतिष्ठित कर एक विराट स्तर की क्रान्ति की वहाँ सावित्री महाशक्ति संबंधी मार्गदर्शन कर कुण्डलिनी साधना जैसे गुह्य विषय संबंधी अनेकानेक भ्रांतियों का निवारण कर उनने वह कुहासा हटाया जो एक युग से इस साधना पर छाया हुआ था। एक अभूतपूर्व स्तर के ताँत्रिक के रूप में कुण्डलिनी शक्ति द्वारा प्रसुप्त का जागरण तथा व्यक्तित्व के परिष्कार में उसका सुनियोजन इस युगऋषि की विलक्षण स्थापना है। यह साधना सदा से ही व्यक्तिगत सिद्धियों के जागरण हेतु की जाती रही है । किन्तु इसे परम पूज्य गुरुदेव ने समष्टिगत मोड़ दिया। उनने कहा कि ब्रह्माण्ड-व्यापी सविता शक्ति का बीज-तत्व मानवी कायकलेवर में विद्यमान है । साधना प्रयोजनों द्वारा सामूहिक रूप से उस बीज को प्रसुप्ति से जाग्रति में लाकर साधक के “स्व” को “असीम” में बदला जा सकता है। इस माध्यम से उनने कल्पना की , कि विश्व की कुण्डलिनी जागरण की जो प्रक्रिया उनकी सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान शाँतिकुँज में चली है वह अगले दिनों विराट रूप ले लेगी।

भारतीय संस्कृति की इस अनुपम विधा कुण्डलिनी शक्ति का लाइफफोर्स “सरपेन्टा इन पॉवर” वायटल फायर के रूप में वर्णन सदा से होता रहा है। कुण्डलिनी शक्ति का एक नाम ‘जीवन अग्नि’ (फायर आफ लाइफ) भी है। जो कुछ भी चमक, तेजस्विता, आशा, उत्साह, उमंग, उल्लास दिखाई पड़ता है, उसे उस अग्नि का ही प्रभाव कहा जा सकता है। शरीरों में बलिष्ठता, निरोगता, स्फूर्ति क्रियाशीलता के रूप में और मस्तिष्क में तीव्र बुद्धि, दूरदर्शिता स्मरण शक्ति, सूझ-बूझ कल्पना आदि विशेषताओं के रूप में यही परिलक्षित होती हैं। आत्म-विश्वास और उत्कर्ष की अभिलाषा के रूप में धैर्य और साहस के रूप में इसी शक्ति का चमत्कार झाँकते हुए देखा जा सकता है। रोगों से लड़कर उन्हें परास्त करने और मृत्यु की सम्भावनाओं को हटाकर दीर्घ-जीवन का अवसर उत्पन्न करने वाली एक विशेष विद्युत-धारा जो मन में प्रवाहित होकर समस्त शरीर को सुरक्षा की अमित सामर्थ्य प्रदान करती है उसे कुण्डलिनी ही समझा जाना चाहिए। वस्तुतः प्रकृति का शक्ति का इस कुण्डलिनी केन्द्र , मूलाधार को भौतिक क्षमता का मानवी उद्गम कह सकते हैं जिस प्रकार ब्रह्म सत्ता का प्रत्यक्षीकरण ब्रह्म लोक में होता है ठीक उसी प्रकार प्रकृति की प्रचण्ड शक्ति का अनुभव इस जननेंद्रिय क्षेत्र के कुण्डलिनी केन्द्र में किया जा सकता है। शारीरिक समर्थता-मानसिक सजगता और संवेदनात्मक सरसता की तीन उपलब्धियाँ इसी शक्ति केन्द्र के अनुदानों द्वारा प्राप्त की जा सकती है।

विभूतियाँ आत्मिक होती हैं। वे ब्रह्मलोक से उपलब्ध होती है। उनके सहारे मनुष्य को सन्त, ऋषि, और देव बनने का अवसर मिलता है। आत्म बल के सहारे ही इन अनुदानों को प्राप्त किया जा सकता है। तपस्वी इसी का साधन जुटाते हैं। सिद्धियाँ भौतिक होती हैं। इन्हें संपदाएं , सुविधाएँ एवं सफलताएँ भी कहते हैं। इन्हें पाकर व्यक्ति सुसम्पन्न और समुचित बनता है। शरीरगत ओजस्विता और मनोगत मनस्विता के यह प्रतिफल हैं। यह दोनों ही क्षमताएँ भौतिक हैं, शरीर में प्रकृति शक्ति का-बहुलता का परिचय इसी रूप में मिलता है। इसी क्षमता को अध्यात्म विद्या के विज्ञानी कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। सामान्यतया यह प्रसुप्त पड़ी रहती है और निर्वाह के साधन जुटाने तथा संभोग रस लेने का ताना-बाना बुनने जैसे तुच्छ कामों में ही उसकी समाप्ति हो जाती है। विवेकवान उसे जगाकर अनेक गुनी प्रखर बनाते हैं ओर जागरण की उस प्रखरता का उपयोग व्यक्तित्व को प्रतिभा सम्पन्न बनाने तथा उच्चस्तरीय काम हाथ में लेने तथा उन्हें पूर्ण बनाने के लिए प्रयुक्त करते हैं।

कुण्डलिनी योग को भौतिक और आत्मिक प्रखरता प्राप्त करने की समर्थ साधना माना जाता है। पृथ्वी मूलाधार स्थित शरीरगत शक्ति-सूर्य ब्रह्म रंध्र स्थित सहस्र दल कमल-इन दोनों के परस्पर सुयोग संयोग का नाम ही कुण्डलिनी जागरण है। साधनात्मक कर्म-काण्ड के आधार पर अभ्यासी लोग इन दोनों को जोड़ने के लिए प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का, षट्चक्र बेधन का, हठयोग का, मन्त्र साधना का, सहारा लेते हैं। यदि यह क्रिया-कलाप मात्र हलचल एवं क्रिया कृत्य ही बने रहे तो काम नहीं चलेगा। भावनात्मक स्तर पर भी अनुकूलता एवं अनुरूपता विनिर्मित करनी पड़ेगी । पृथ्वी अर्थात्-भौतिक सम्पदा-अहंता-सूर्य अर्थात् आत्मिक सत्ता-ब्रह्म चेतना इन दोनों को जो जितना जोड़ सकता है उसे कुण्डलिनी जागरण के साथ जुड़ी विभूतियाँ मिलती हैं। स्वार्थ को परमार्थ से जोड़ने का, शारीरिक वासनाओं को आत्मिक उल्लासों में घुला देने का नाम ही आत्म समर्पण है। इसी को साधना क्षेत्र में पृथ्वी और सूर्य का संयोग कहते हैं। कुण्डलिनी साधना इसी केन्द्र बिन्दु पर पहुँचने की चेष्टा को कह सकते हैं।

इतना समझ लेने के बाद कुण्डलिनी शक्ति के जागरण-तत्संबंधी मान्यतायें-उसका आधार -साधना का स्वरूप समझने में सुविधा हो सकती है। व्यक्तिगत जीवन में मनुष्य कलेवर में परा प्रकृति के चेतन प्रवाह का केन्द्र स्थान मस्तिष्क के मध्य अवस्थित ब्रह्मरंध्र-सहस्रार कमल है। इसी को कैलाशवासी शिव या शेषशायी विष्णु एवं कालाग्नि कहते हैं। दूसरा केन्द्र जननेन्द्रिय के मूल गह्वर में है। उसे अपरा प्रकृति का केन्द्र कहना चाहिए । इसे शक्ति, पार्वती-एवं कुण्डलिनी जीवाग्नि कहते हैं।

इन दोनों को धन और ऋण विद्युत भी कहा जा सकता है । मानवीय शरीर को-पिण्ड को-इस दृश्य ब्रह्मांड का -विश्व विराट का एक छोटा नमूना ही कह सकते हैं। जितनी भी शक्तियाँ इस विश्व ब्रह्माण्ड में कहीं भी विद्यमान हैं उन सबका अस्तित्व इस शरीर में भी मौजूद है। जिस प्रकार वैज्ञानिक जानकारी प्रयोग विधि और यन्त्र व्यवस्था के आधार पर विद्युत ईथर आदि शक्तियों से प्रत्यक्ष लाभ उठाया जाता है ठीक उसी प्रकार योग साधना के वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा शरीरगत अपरा प्रकृति की प्रचण्ड शक्तियों का उद्भव किया जा सकता है। इसी को योगियों के दिव्य कर्तव्य के रूप में देखा जा सकता है। अलौकिकतायें-सिद्धियाँ चमत्कार एवं असाधारण किया कृत्यों की जो क्षमता साधना विज्ञान द्वारा विकसित की जाती हैं उसे शरीरगत अपरा प्रकृति का विकास ही समझना चाहिए और उस निर्झर का मूल उद्गम जननेन्द्रिय मूल-कुण्ड कुण्डलिनी को ही जानना चाहिए।

इसी प्रकार व्यक्तित्व गुण कर्म स्वभाव, संस्कार , दृष्टिकोण, विवेक, प्रभाव , प्रतिभा, मनोबल, आत्मबल आदि की जो विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं उन्हें चेतना तत्व से भाव संवेदन की उपलब्धि माननी चाहिए। इसका केन्द्र मस्तिष्क स्थित ज्ञान केन्द्र सहस्रार कमल है। कालाग्नि यहीं शिव स्वरूप विद्यमान है। आत्म विद्या के दो लाभ बताये गये हैं (1) व्यक्तित्व की भावनात्मक चेतनात्मक प्रखरता (2) शरीर की असामान्य क्रियाशीलता। इन्हीं को विभूतियाँ और सिद्धियाँ कहते हैं। विभूतियाँ मस्तिष्क के केन्द्र से ज्ञान संस्थान से भाव ब्रह्म से प्रसृत होती हैं और सिद्धियाँ काम से शक्ति निर्झर से कुण्ड कुण्डलिनी से प्रादुर्भूत होती हैं। इन दोनों शक्ति केन्द्रों को मानवीय अस्तित्व के दो ध्रुव हैं ठीक इसी प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क केन्द्र उत्तरी ध्रुव कहा जा सकता है। उन दोनों की असीम एवं अनन्त जानकारी प्राप्त करने और सामर्थ्यों को जीवन विकास के अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्रों में ठीक तरह प्रयोग कर सकने की विद्या का नाम ही कुण्डलिनी विज्ञान है।

कुण्डलिनी को ‘सार्वभौमिक जीवन तत्व’ भी कहते हैं। इसके भीतर आकर्षण (अट्रेक्शन) और विकर्षण (रिपल्शन) की दोनों ही धाराएँ विद्यमान हैं। भौतिक विज्ञान की दृष्टि से उन प्रवाहों को जैवीय विद्युत एवं चुम्बकत्व वायो ‘इलेक्ट्रिसिटी एण्ड मैगनेटिज्म’ कह सकते हैं। दार्शनिक हवर्ट स्पेन्सर के अनुसार इसे जीवन-सार ‘एसेन्स आफ लाइफ’ कहा जा सकता है। बाइबिल के अनुसार यही तत्व महान सर्प है। अध्यात्म शास्त्र इसे ब्रह्माग्नि कहते हैं और उसका केन्द्र संस्थान ब्रह्मरंध्र को मानते हैं । वहाँ से वह मूलाधार की ओर दौड़ती और वापस आती है। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी को अपने आसन से नीचे की जल राशि तक कमल नाल के सहारे असंख्य बार चढ़ना-उतरना पड़ा तब सृष्टि बनी। इस गाथा में सहस्रार शक्ति मूलाधार तक आते-जाते रहने का संकेत समझा जा सकता है । वही परा शक्ति है। कुण्डलिनी शक्ति भी शास्त्रों में इसे ही कहा गया है। इसका उद्दीपन-जागरण मार्ग सुषुम्ना अवस्थित चक्र-संस्थान है।

‘चक्र’ शक्ति संचरण के एक व्यवस्थित, सुनिश्चित क्रम को कहते हैं। वैज्ञानिक क्षेत्र में विद्युत, ध्वनि, प्रकाश सभी रूपों में शक्ति के संचार क्रम की व्याख्या चक्रों (साइकिल्स) के माध्यम से ही की जाती है। इन सभी रूपों में शक्ति का संचार, तरंगों के माध्यम से होता है। एक पूरी तरंग बनने के क्रम को एक चक्र (साइकिल) कहते हैं। एक के बाद एक तरंग एक के बाद एक चक्र (साइकिल) बनने का क्रम चलता रहता है और शक्ति संचरण होता रहता है। शक्ति की प्रकृति (नेचर) का निर्धारण इन्हीं चक्रों के क्रम के आधार पर किया जाता है। औद्योगिक क्षेत्र में प्रयुक्त विद्युत के लिए अन्तर्राष्ट्रीय नियम है कि वह 50 साइकिल्स प्रति सेकेंड के चक्र की होनी चाहिए। विद्युत की मोटरों एवं अन्य यन्त्रों को उसी प्रकृति की बिजली के अनुरूप बनाया जाता है। इसीलिए उन पर हार्सपावर वोल्टेज आदि के साथ 50 साइकिल्स भी लिखा रहता है। अस्तु शक्ति संचरण के साथ ‘चक्र’ प्रक्रिया जुड़ी ही रहती है। वह चाहे स्थूल विद्युत शक्ति हो अथवा सूक्ष्म जैवीय विद्युत शक्ति।

नदी प्रवाह में कभी-कभी कहीं भँवर पड़ जाते हैं। उनकी शक्ति अद्भुत होती है। उनमें फँसकर नौकाएँ अपना सन्तुलन खो बैठती हैं और एक ही झटके में उलटी डूबती दृष्टिगोचर होती हैं। सामान्य नदी प्रवाह की तुलना में इन भँवरों की प्रचंडता सैकड़ों गुनी अधिक होती हैं। शरीरगत विद्युत प्रवाह को एक बहती हुई नदी के सदृश माना जा सकता है और उसमें जहाँ तहाँ पाये जाने वाले चक्रों की ‘भँवरों’ से तुलना की जा सकती है।

चक्रों के जागरण का प्रभाव मनुष्य के गुण, कर्म स्वभाव, पर असामान्य रूप से पड़ता है। स्वाधिष्ठान की जाग्रति से साधक अपने अन्दर नवशक्ति संचार का अनुभव करता है। उत्साह एवं स्फूर्ति शरीर में सदा बनी रहती है। मणिपुर चक्र के जागरण से साहस एवं पराक्रमी बनता है। मनोविकार घटने लगते तथा सत्प्रयोजनों के परमार्थ में रस और आनन्द आने लगता है। अनाहत चक्र की महिमा ईसाई घरों में भी विशेष रूप से गाई गयी है। ईसाई धर्म के योगी हृदय स्थान पर गुलाब के फूल की भावना करते और उसे प्रभु ईसा के प्रतीक ‘ आइचिन कनक कमल मानते हैं। भारतीय योग ग्रन्थों में उसे भाव संस्थान कहा गया है। कलात्मक उमंगे यहीं से उठती हैं। संवेदनाओं का मर्मस्थल यही है। विवेकशीलता का प्रादुर्भाव अनाहत चक्र से होता है। विशुद्धि चक्र की विशेषता है बहिरंग स्वच्छता एवं अन्तरंग की पवित्रता। अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ प्रसुप्त रूप में विद्यमान रहती है। इसे अतीन्द्रिय सामर्थ्य का आधार माना जा सकता है। विशुद्ध चक्र चित्त को प्रभावित करता है। नादयोग से दिव्य श्रवण जैसी परोक्षानुभूतियाँ इसी माध्यम से होती हैं । सहस्रार को ब्रह्माण्डीय चेतना का रिसीविंग सेन्टर माना जा सकता है। यह शक्ति संचय में एरियल की भूमिका सम्पन्न करता है। मस्तिष्क के मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार को ब्रह्मलोक कहा गया है।

शरीरगत विद्युत शक्ति का सामान्य प्रवाह यों सन्तुलित ही रहता है पर कहीं-कहीं उसमें उग्रता एवं वक्रता भी देखी जाती है। हवा कभी-कभी बाँस आदि के झुरमुटों से टकरा कर कई तरह की विचित्र आवाजें उत्पन्न करती है, रेलगाड़ी, मोटर और द्रुतगामी वाहनों के पीछे दौड़ने वाली हवा को भी अन्धड़ की चाल चलते देखा जा सकता है। नदी का जल कई जगह ऊपर से नीचे गिरता है-चट्टानों से टकराता है तो वहाँ प्रवाह में व्यक्तिक्रम, उछाल, गर्जन-तर्जन की भयंकरता दृष्टिगोचर, होती है। शरीरगत सूक्ष्म चक्रों की विशेष स्थिति भी इसी प्रकार की है। यों नाड़ी गुच्छकों-प्लेक्ससों में भी विद्युत संचार और रक्त प्रवाह के गतिक्रम में कुछ विशेषता पाई जाती है। किन्तु सूक्ष्म शरीर में तो वह व्यक्तिक्रम कहीं अधिक उग्र दिखाई पड़ता है। पवन प्रवाह पर नियन्त्रण करने के लिए नावों पर पतवार बाँधें जाते हैं उनके नाव की दिशा और गति में अभीष्ट फेर कर लिया जाता है। पन चक्की के पंखों को गति देकर आटा पीसने, जल कल चलाने आदि काम लिये जाते हैं। जल प्रपात जहाँ ऊपर से नीचे गिरता है वहाँ उस प्रपात तीव्रता के वेग को बिजली बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। समुद्री ज्वार भाटों से भी बिजली बनाने का काम लिया जा रहा है। ठीक इसी प्रकार शरीर के विद्युत प्रवाह में जहाँ चक्र बनते हैं वहाँ उत्पन्न उग्रता को कितने ही अध्यात्म प्रयोजनों के काम में लाया जाता है। स्थूल शरीर में यही बलिष्ठता, समर्थता, स्वस्थता के रूप में सामने आती है, सूक्ष्म शरीर में चिन्तन क्षेत्र की परिष्कृत के रूप में जबकि कारण शरीर में जब यह उभार आता है, तो वह अन्तराल की भाव-संवेदना के रूप में फट पड़ता है। यह सब प्रकारान्तर से जीवन ऊर्जा के ही प्राकट्य की प्रभाव -परिणति है, जिसकी जानकारी भारतीय साधकों को थी । यही कुण्डलिनी शक्ति है और उसके जागरण की फलश्रुति भी। देव संस्कृति तथा संस्कृति की विश्व मात्र के लिए यह सबसे बड़ी देन है।


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