आत्म साधना हेतु उपयुक्त वातावरण अनिवार्य

August 1992

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साधना के लिए सदैव उपयुक्त वातावरण की अपेक्षा रहती है। साधक की आन्तरिक मनःस्थिति एवं बाह्य परिस्थिति का अपना प्रभाव होता है, उससे वातावरण बनता है और प्रवाह-प्रभाव उत्पन्न होता है। आत्मोत्कर्ष के लिए की जाने वाली साधनाओं में तो उपयुक्त वातावरण की अत्यधिक आवश्यकता रहती है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कवि, कलाकार, शोधकर्त्ता, विद्यार्थी आदि बुद्धि कर्मियों के लिए एकाग्रता-पूर्वक अपने काम करने पड़ते हैं इसके लिए उन्हें विक्षोभ रहित एकान्त चाहिए। ठीक इसी स्तर का अति महत्वपूर्ण कार्य आत्म-निर्माण एवं आत्म-परिष्कार का भी है। इसके लिए वातावरण की अनुकूलता चाहिए। विक्षोभकारी वातावरण में कर्मकाण्ड तो हो सकते हैं। एक निष्ठा नहीं मिल पाती। क्षण-क्षण में सामने आने वाली समस्याएँ, आवश्यकताएँ एवं हलचलें एकाग्रता में विक्षेप उत्पन्न करती हैं और आधे-अधूरे मन से किये हुए साधनाकृत अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न कर सकने में सफल हो नहीं पाते। अस्तु यह आवश्यकता सदा से अनुभव की जाती रहीं है कि आत्मोत्कर्ष की-साधनाओं की क्रिया-प्रक्रिया पूर्ण करने के लिए उपयुक्त वातावरण भी तलाश किया जाय। इस दृष्टि से देव संस्कृति में हिमालय की महत्ता का आदिकाल से गुणगान होता आया है।

सफल साधकों ने जहाँ उपयोगी विधि-विधान अपनाये हैं-उपयुक्त मार्ग-दर्शन प्राप्त किये हैं वहाँ उनने इसके लिए उपयुक्त वातावरण भी तलाश किया है। साधना विज्ञान के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो पता चलता है कि सफल साधकों में से अधिकाँश ने हिमालय में डेरा डाला और वहाँ अपना निर्माण कार्य सम्पन्न किया है। इसके कितने ही कारण रहे हैं। सामान्य धरातल से ऊंचे स्थानों का वायुमण्डल शीतल रहता है। सर्वविदित है कि नीचे स्थानों में गर्मी भी अधिक रहती है और ऊपर से गिरने वाले अवाँछनीय रज-कण भी अधिक जमते हैं। इस धूलि के साथ धुआँ जैसे प्रदूषण और विक्षोभकारी विचार भी उतरते बरसते हैं। गर्मी में फैलाव की शक्ति रहती है। उसके संपर्क में जो भी आवेगा फैलेगा। नलीचे और गरम स्थानों की अपेक्षा ऊँचे और शीतल स्थान न केवल स्वास्थ्य संवर्धन के लिए उपयुक्त माने जाते हैं वरन् उनमें मानसिक स्वास्थ्य सन्तुलन बढ़ाने की क्षमता भी रहती है। गर्मी के दिनों साधन सम्पन्न लोग ऐसे लाभ पाने के लिए नैनीताल, मंसूरी, काश्मीर आदि स्थानों में अपने रहने की व्यवस्था बनाते हैं।

साधना के लिए भी ऐसे स्थान तलाश किये जाते हैं। आत्मिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए भी उपयोगी वातावरण मिल सके तो उसका विशेष लाभ होता है। तपस्वी पर्वतों की गुफाओं में निवास करने, कंदमूल जुटाने, वल्कल वस्त्र पहनने जैसे निर्वाह के साधन ढूँढ़ लेते हैं। धूनी जलाकर शीत निवारण की-लौकी, नारियल आदि के वर्तनों की-घास की चटाई बनाने की जैसी सुविधाएँ वहाँ मिल जाती हैं। तप-साधना के इतिहास में हिमालय की ऊँचाई और गंगातट की पवित्रता का लाभ उठाने वाले साधकों की संख्या अत्यधिक है। ऐतिहासिक तीर्थ तो अन्यत्र भी हैं, पर आत्म-साधना के तीर्थों की संख्या जितनी इस क्षेत्र में है उतनी अन्यत्र कहीं नहीं।

जहाँ जिस स्तर के व्यक्ति रहते हैं-जहाँ जिस प्रकार की हलचलें होती रहती हैं वहाँ के सूक्ष्म संस्कार भी वैसी ही बन जाते हैं और वे बहुत समय तक अपना प्रभाव बनाये रहते हैं। तपस्वियों का प्राण उनके निवास स्थान के इर्द-गिर्द छाया रहता है। सिंह और गाय एक साथ ऋषि आश्रमों में प्रेमपूर्वक रहते थे। हिरन तथा दूसरे पशु-पक्षी वहाँ निर्भयतापूर्वक पालतू बन जाते थे। ऐसे वातावरण में सहज ही मानसिक विक्षोभ शान्त होते हैं और साधना के उपयुक्त मनःस्थिति स्वतः बन जाती है। इस दृष्टि से हिमालय की महत्ता असंदिग्ध है।

यह सब भली-भाँति जानते हैं कि देव संस्कृति ऋषि संस्कृति का उद्भव इसी ब्रह्मावर्त्त में हुआ जो हिमालय क्षेत्र में स्थित है। संस्कृति का प्रकाश यहीं से सारे विश्व में पहुँचा। श्रीमद्भागवत के बारहवें स्कन्ध में दूसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में हिमालय में दिव्य सिद्ध पुरुषों का निवास बताया गया है और उनके समवेत होने के केन्द्र को कलाप कहा गया है। 10 वें स्कन्ध के 87 वें अध्याय के 5, 6, 7 श्लोकों में भी ऐसा ही वर्णन है। थियोसॉफी सम्प्रदाय के क्षेत्र में सिद्ध पुरुषों की पार्लियामेण्ट वहाँ होने और अध्यात्म क्षेत्र के महत्वपूर्ण फैसले होते रहने की बात कही गई है। “ओटोबायो ग्राफी आफ योगी” ग्रन्थ में ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख है जिसमें हिमालय के सिद्ध योगियों के विलक्षण कर्तृत्वों का विवरण है। पाल ब्रिंटन और रम्पा जैसे शोधकर्त्ताओं ने इस क्षेत्र में समर्थ सिद्ध पुरुषों का अस्तित्व पाया है। दो सो वर्ष जीवित रहने वाले स्वामी कृष्णाश्रय ने हिन्दू विश्व विद्यालय की आधार शिला रखी थी। वे नग्न अवधूत की तरह हिम प्रदेश में निवास निर्वाह करते थे। जिन लोगों को भी ऐसी शरीरधारी और अशरीरी सिद्ध पुरुषों के साक्षात्कार यहाँ होते रहते हैं, जिनके उनके साथ संपर्क सधे हैं उनमें परम पूज्य गुरुदेव को सब भली प्रकार जानते हैं।

हिमालय में छोटे-बड़े जितने देवस्थान हैं उतने अन्यत्र मिलने कठिन हैं। अमरनाथ, ज्वालामुखी, हरिद्वार, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, पशुपतिनाथ तो प्रख्यात हैं हीं। इनके समीपवर्ती क्षेत्रों में छोटे-छोटे तीर्थों की तो शृंखला ही बिखरी पड़ी है। ऋषिकेश से बद्रीनाथ जाने के मार्ग में ही देव प्रयाग, नन्द प्रयाग, कर्ण प्रयाग आदि कितने ही प्रयाग तथा उत्तरकाशी, गुप्त काशी दिव्य काशी आदि कितने ही तीर्थ मिलते हैं। शिव और शक्ति के विभिन्न काम रूपों के देवस्थान थोड़ी-थोड़ी दूर पर ग्रामों के समीप एवं पर्वतीय घाटियों में सर्वत्र पाये जाते हैं सती के आत्म-विसर्जन का-पार्वती की तप साधना का यही स्थान है। शिव ताण्डव भी यहीं हुआ था। उस अवसर पर प्रयुक्त हुआ त्रिशूल उत्तरकाशी के एक प्राचीन स्थान में स्थापित बताया जाता है। जमदग्नि और परशुराम की तप-साधना उत्तरकाशी में सम्पन्न हुई थी।

आयुर्वेद, रसायन विद्या, अस्त्र संचालन, साहित्य सृजन, योगानुसंधान जैसे महत्वपूर्ण प्रयोग हिमालय क्षेत्र की सुविस्तृत प्रयोगशाला में होते रहे हैं। सप्त ऋषियों के महामनीषी देव मानवों के कार्यक्षेत्र इसी भूमि में रहे हैं। छात्रों के लिए गुरुकुल और श्रेयार्थियों के लिए आरण्यक यहीं थे। राजतंत्रों के सूत्र संचालक वशिष्ठ जैसे धर्माध्यक्षों के निवास इसी भूति में थे। प्रायः सभी महत्वपूर्ण ऋषिकल्प देवात्माओं की विविध-विधि गतिविधियाँ हिमालय की सुरम्य घाटियों और कन्दराओं में सुविकसित होती रही हैं। उन प्रयोगों से लाभान्वित होकर विशाल भारत के 33 करोड़ निवासी तेतीस कोटि देवता कहलाते रहे हैं। भौतिक और आत्मिक प्रगति की उच्चस्तरीय वीतियों से भरी-पूरी होने के कारण भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है। गरीयसी न सही स्वर्ग तो वह रही ही है। यह अनुदान हिमालय क्षेत्र से ही अवतरित होता रहा है। जलधार वाली भागीरथी ही नहीं देव लोक की ज्ञान-गंगा का अवतरण एवं प्रवाह भी इसी क्षेत्र से आरम्भ होता रहा है।

दिव्यदर्शियों का कथन है कि ब्रह्माण्ड की सघन अध्यात्म चेतना का धरती पर विशिष्ट अवतरण इसी क्षेत्र में होता है। भौतिक शक्तियों के धरती पर अवतरण का केन्द्रबिन्दु विज्ञान जगत में ध्रुव प्रदेश को माना जाता है। अध्यात्म जगत में वैसी ही मान्यता इस हिमालय के हृदय के सम्बन्ध में है। यह स्वर्ग क्षेत्र ब्रह्माण्ड-व्यापी दिव्य-चेतनाओं का अवतरण केन्द्र है जहाँ शोध करते हुए, तप करते हुए, महामनीषी अपने को देव शक्तियों से सुसज्जित करते थे। अभी भी उस क्षेत्र में स्थूल और सूक्ष्म शरीरधारी दिव्य सत्ताओं के अस्तित्व पाये जाते हैं। वे अपने क्रिया-कलाप से समस्त भूमण्डल को प्रभावित करते रहे हैं।

इन्द्र देवता की सहायता के लिए दशरथ जी अपना रथ लेकर गये थे। पहिया गड़बड़ाने लगा तो कैकेयी ने अपनी उँगली लगाकर उस विपत्ति का समाधान किया था। ठीक इसी प्रकार का एक और वर्णन यह मिलता है कि अर्जुन इन्द्र की सहायता करने गये थे, प्रसन्न होकर इन्द्र ने अर्जुन को रूपसी, उर्वशी का उपहार दिया था जिसे उसने अस्वीकार कर दिया था। जहाँ मनुष्यों का आवागमन सम्भव हो सके ऐसा स्वर्ग धरती पर ही हो सकता है। इन्द्र और चन्द्र देवताओं का गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से छल करना धरती पर ही सम्भव है। दधीचि ने अपनी अस्थियाँ याचक देवताओं को प्रदान की थीं आदि-आदि अगणित उपाख्यान ऐसे हैं जिसमें देवताओं और मनुष्यों के पारस्परिक घनिष्ठ सहयोग की चर्चा है। इन पर विवेचनात्मक दृष्टि से विचार करें तो उसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि स्वर्ग कहीं भूमि पर ही होना चाहिए और “देवता” मनुष्यों का कोई वर्ग विशेष ही होना चाहिए। यह क्षेत्र उत्तराखण्ड देवात्मा हिमालय का हृदय क्षेत्र ही है।

प्राचीन काल में देव-मानव इसी क्षेत्र में निवास करते रहे हैं। भौतिक और आध्यात्मिक वातावरण उन्हें हर दृष्टि से उपयुक्त लगा होगा और वे यहीं निवास करने लगे होंगे। यहाँ रहकर वे शान्त चित्त से धर्म-तन्त्र की उपलब्धियों से समस्त विश्व को लाभान्वित बनाने की विविध-विधि योजनाएँ बनाते थे, तैयारियाँ करते थे और साधन जुटाते थे। इन कष्टसाध्य महाप्रयासों का नाम ही तप था। तपस्वी देवता एक प्रकार के अध्यात्म विज्ञान के शोधकर्त्ता और विभूति उत्पादक कहे जा सकते हैं। यह क्षेत्र ऐसी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं से भरा पड़ा था जिनमें शरीर यन्त्र और मन तन्त्र के भीतर छिपे हुए शक्तिशाली रहस्यों का अधिकाधिक अनावरण सम्भव हो सके। शास्त्रों का सृजन, योगाभ्यास की उपलब्धियाँ, अध्यात्म दर्शन का विकास, स्वास्थ्य, चिकित्सा, शिक्षा शास्त्र, रसायन, शिल्पकला आदि की भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियाँ इसी क्षेत्र से निकल कर आती थीं और उनसे लाभान्वित होने वाले उसे स्वर्ग निवासी देवताओं का वरदान कहकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते थे।

देवार्चन हर मनुष्य का कर्तव्य था ताकि उस क्षेत्र में किसी प्रकार का अभाव अनुभव न हो। गीता में यज्ञ से देवताओं की पुष्टि की बात कही गई है, इसे सर्वसाधारण द्वारा देव प्रयोजनों के लिए विविध-विधि अनुदान प्रस्तुत करना ही समझा जाना चाहिए। यज्ञ का सीधा अर्थ दान, त्याग, एवं बलिदान है। देव प्रयोजनों के लिए श्रम, समय, मन, धन आदि से सहयोग करते रहना है। “यज्ञ से पूजित देवतागण मनुष्यों पर सुख-शान्ति बरसाते हैं और यज्ञ न करने वाले विपत्ति में फँसते हैं”। इस गीता वचन में सामान्य प्रजाजनों को, देव वर्ग को, देव कर्म को, समुचित सहयोग प्रदान करते रहने की अनिवार्य आवश्यकता का उद्बोधन कराता है। यह देवता और कोई नहीं-उस समय स्वर्ग क्षेत्र में निवास करके धर्म प्रेरणा के भावनात्मक परिष्कार के विविध-विधि आधारों का निर्माण करने वाले महामानव ही थे। समस्त धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण करने के लिए उनका महाप्रयास, जन-साधारण को देव वन्दन एवं देव पूजन के लिए अनायास ही प्रेरित करता था।

हिमालय की शोभा का वर्णन करते हुए तत्वज्ञानी कवि कहता है-

देव सेव्यं च तत्स्थानं दैवतानाँ च दुर्लभम् । महा पुण्य महोपुण्य पूरषैरव लौकितम् ॥

नैतत् केवल मक्षाणाँ सदैवल्हादकं मुने । सर्व पुण्य महातीर्थ मूर्द्ध भूषेति विद्धितम्1 ॥

यह स्थान देवताओं द्वारा सेवनीय, परम दुर्लभ और महान् पुण्यप्रद है। इसका पुण्यात्मा लोग ही अवलोकन करते हैं। हे नारद! यह स्थान केवल इंद्रियों को सुख प्रदान करने वाला ही नहीं, किन्तु उसे समस्त महान् तीर्थों का शिरोमणि जानो।”

हिमालय की छाया-गंगा की गोद और वहाँ का भाव भरा वातावरण-साथ ही यदि शक्तिशाली संरक्षण मार्ग दर्शन मिलता हो तो उसे साधना का सुअवसर एवं साधक का सौभाग्य ही माना जाना चाहिए। ऐसे ही वातावरण में निवास करने का स्वर्गीय दिव्य आनन्द प्राप्त करने के लिए राजा भर्तृहरि बेचैन थे। इसके लिए उन्होंने राजपाट का सारा जंजाल त्यागा और योगी का देव जीवन अपना कर उच्चस्तरीय मनोरथ पूरा करने में सफल हुए। जब तक यह स्थिति न आई तब तक वे उसी के मनोरम सपने देखते रहे। साधना की दृष्टि से गंगा सान्निध्य का महत्व शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताया है कूर्मपुराण में ऋषि कहते हैं।

यत्र गंगा महाभागा स देशस्ततपोवनम् सिद्धक्षेत्रन्तु तज्ज्ञेय गंगातीरं समाश्रितम् ॥

अर्थात्- “जहाँ पर यह महाभागा गंगा है वह देश उसका तपोवन होता है। उसको सिद्ध क्षेत्र जानना चाहिए।”

स्नातानाँ तत्र पयसि गाँगे ये नियतात्मनाम् । तुष्टीवति या पुँसाँ न सा क्रतुशतैरपि ॥

अर्थात्-”गंगा के जल में स्नान किये हुए नियत आत्मा वाले पुरुषों को जो तुष्टि होती है वह सौ वसन्त ऋतुओं से भी नहीं होती है।” (पद्म पुराण)

हिमालय को भारतीय संस्कृति का प्रत्यक्ष उद्गम स्रोत कहा जाय, तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी। इतिहासकारों के अनुसार आर्य लोग मध्य एशिया में इसी क्षेत्र में हिमालय क्षेत्र में पहले बसे और इसके उपरान्त भारत के मैदानी प्रदेश में उतरे थे।

स्वर्ग का वर्णन पुराणों में आता है। उसकी प्रायः सूक्ष्म व्याख्या में उदात्त दृष्टिकोण और उत्कृष्ट भाव अभिव्यंजना के रूप में व्याख्या होती है, जो उचित भी है। पर यदि उसका भौगोलिक स्वरूप ढूँढ़ना हो, और सौंदर्य वातावरण को परखना हो तो वह किसी ग्रह नक्षत्र में नहीं वरन् अपनी धरती पर ही परिलक्षित होता है। उपाख्यानों के आधार पर हिमालय को धरती का स्वर्ग कहा जा सकता है, देवताओं, ऋषियों, तपस्वियों का यह क्रीड़ा प्राँगण है। इसी से भगवान ने गीता में हिमालय को अपना प्रतीक बताया है-”स्थावरणाँ हिमालयोहम्” अर्थात् “स्थविरों में हिमालय मैं ही हूँ।”

हिमालय देखने भर में निर्जीव पाषाण खण्ड प्रतीत होता है, तात्विक दृष्टि से पर्ववेक्षण्पा करने पर वह एक प्रत्यक्ष देव है। जीवन उसके कण-कण में है। हिम की शीतलता अपने दिव्य प्रभाव से उस क्षेत्र में जा पहुँचने ताले प्राणियों के अन्तरंग में प्रवेश करके शान्ति ही प्रदान करती है। आत्म साधना की दृष्टि से इस क्षेत्र का सर्वोपरि महत्व प्राचीन काल की तरह अभी भी बना हुआ है और सम्भवतः सदा ही बना रहेगा। ब्रह्मवर्चस् शाँतिकुँज की स्थापना हिमालय की छाया में उपयुक्त वातावरण को ध्यान में रख कर ही की गई है। यहाँ आकर रहना ही एक उच्चस्तरीय तप है। यदि साधना की जाय तो निश्चित ही अभीष्ट की प्राप्ति होती है, यह एक अनुभूत सत्य है।


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