संस्कृति की एक उपेक्षित सम्पदा-तंत्र विद्या

August 1992

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साँस्कृतिक विभूतियों-उपलब्धियों की गौरव कथा ‘तंत्र-विज्ञान’ के विवेचन-विश्लेषण के बिना आधी-अधूरी ही कही जायेगी। इस देश के ऋषियों ने अन्तः प्रकृति व बाह्य प्रकृति के क्षेत्र में जो कुछ बहुमूल्य प्रयोग किए-प्रक्रियाएँ विकसित की, तंत्र को उन सब में बेशकीमती ठहराया जा सकता है। इसे हतभाग्य के सिवा और क्या कहें-कि इस समर्थ विज्ञान को सदियों से अगणित भ्रान्तियों में जकड़े रहना पड़ा। भारतीय और पश्चिमी विद्वानों ने बिना समझे बूझे इसकी निन्दा के पुल बाँध दिये । उन्होंने यह भी इच्छा व्यक्त की कि जनसाधारण को कुमार्ग की ओर प्रवृत्त करने वाले इस साहित्य का लोप होना ही जनहित में है। विद्वान इसके अध्ययन से दूर रहे, जनसामान्य का इधर ध्यान नहीं गया । परिणाम स्वरूप इसका धीरे-धीरे लोप होता गया।

जनसाधारण में इसके व्यापक प्रचार न होने का एक कारण यह भी रहा कि तंत्रों के कुछ अंश समझने में इतने कठिन और गहन थे जो योग्य गुरु के बिना समझें नहीं जा सकते थे। अतः जनता का इनके प्रति अन्धकार में रहना स्वाभाविक था। तंत्र ज्ञान का अभाव ही भ्रम और शंकाओं का कारण बना। इसी का जिक्र करते हुए अँग्रेज मनीषी हर्बर्ट वी. गैन्थर ने अपने ग्रन्थ ‘युग-नाथा’ में लिखा है-संसार में शायद ही कोई अन्य साहित्य होगा। जिसकी इतनी अधिक निन्दा की गई हो। वह भी ऐसे लोगों के द्वारा जिन्होंने न तो उसकी एक उसकी एक भी पंक्ति पढ़ी और न उस पर गम्भीरतापूर्वक मनन किया । इसके महत्व को बताते हुए वह आगे कहते हैं-’वास्तविक तथ्य यह है कि तंत्रों में जीवन सम्बन्धी बड़े गम्भीर और स्वस्थ विचारों का समावेश है। पर जिस प्रकार हम अपने शरीर में स्थित गुर्दे की उपयोगिता तब तक नहीं समझ पाते जब तक कि जीवित शरीर की संचालन क्रिया में अन्य भागों के साथ उसके सम्बन्ध को न जान लें। उसी प्रकार समस्त मानव जीवन की महत्वपूर्ण क्रियाओं पर विचार किए बिना हम इसकी वास्तविकता नहीं जान सकते। जिनमें वास्तविकता जानने की ललक है वे तंत्र का मूल वेदों में खोज लेते हैं। हरित ऋषि के अनुसार-”श्रुतिश्च द्विविधा वैदिकी ताँत्रिकी,” अर्थात्-श्रुति के दो प्रकार हैं- वैदिकी और तान्त्रिकी । ऋग्वेद का देवी सूक्त, वैदिक ऋषि विश्वामित्र द्वारा किए गए बला-अतिबला सावित्री महाविद्या के प्रयोग इन ऋषियों की ताँत्रिक समर्थता और वेदों से इनकी अविच्छिन्नता का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। अथर्ववेद के प्रवर्तक महा अथर्वण की परम्परा तो इसका भरा-पूरा भण्डार है। तंत्र ग्रन्थों से अथर्ववेद में वर्णित प्रक्रियाएँ इतना अधिक साम्य उपस्थित करती हैं कि किसी भी अध्येयता को चकित रहना पड़ सकता है।

इसे न समझ पाने के कारण कुछ विद्वान वेदों और तंत्रों को अलग-अलग ही नहीं परस्पर विरोधी मान बैठते हैं। जबकि यथार्थ में इस साहित्य में जो ज्ञान और योग का वर्णन है वह वैदिक सिद्धांतों से भिन्न नहीं, उनका विकास मात्र है। उदाहरण के लिए अंतर्जगत का विस्तृत विज्ञान वैदिक वाङ्मय में दस भागों में बँटा हुआ है। (1) उद्गीय विद्या (2) संवर्ण विद्या (3) मधुविद्या (4) पंचाग्नि विद्या (5) उपकोशल विद्या (6) शाँडिल्य विद्या (7) दहर विद्या (8) भूमा विद्या (9) गंध विद्या (10) दीर्घायुष्य विद्या। यह विद्याएँ ही ऋषियों की सम्पत्ति थीं। इन्हीं के द्वारा वे अपरिग्रही व निर्धन रहते हुए भी इस भूलोक में कुबेर भण्डारी बने हुए थे। तंत्र मार्ग में यही दस विद्याएँ अन्य नामों से उपलब्ध हैं। यद्यपि तंत्रोक्त विधान वैदिक से भिन्न है। फिर भी उनके द्वारा भी उन्हीं सिद्धियों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। तंत्र मार्ग में (1) इन्द्राणी (2) वैष्णवी (3) ब्रह्माणी (4) कौमारी (5) नरसिंही (6) बाराही (7) माहेश्वरी (8) भैरवी (9) चण्डी (10) आग्नेयी- इन दस नामों से दस महाविद्याओं की साधना की जाती है।

इसके विकास और विस्तार क्रम में नेपाल, कम्बोडिया, बाली, लाओस, थाईलैण्ड, वर्मा, हिन्द’-चीन, वियतनाम, जावा’-मंगोलिया शैव तंत्र से प्रभावित हुए। चीन, जापान, इंडोनेशिया तिब्बत में शाक्त तंत्र का प्रभाव पहुँचा। अन्वेषकों ने अरब में काफी संख्या में शिवलिंग पाए हैं। ऐसा कहा जाता है कि मक्का शरीफ में संग ए असबद नामक शिवलिंग को हज पर जाने वाले यात्री बड़ी श्रद्धा से चूमते हैं। दक्षिण अमेरिका के पेरु राज्य में शिवलिंग मिले हैं। ब्राजील के खण्डहरों से शिव प्रतिमाएँ मिली हैं । मिश्र में असिरिस और आइसिस नामक शिवलिंग की पूजा की प्रथा है। शिव की तरह असिरिस व्याघ्र चर्म ओढ़े गले में सर्प लपेटे हैं। उनका वाहन एपिस नाम का बैल है यूनान में बेकस और प्रियसस नाम से लिंग उपासना का भी कुछ ऐसा ही विस्तार हुआ। “मिथ आँव चाइना एण्ड जापान” में लिखा है चीन देवताओं की माता चुनी थीं। जो आदिम जल राशि अपस की देवी मानी जाती है। ‘इजिन्शियन मिथ एण्ड आई एजेण्ड ‘ में लिखा है मिश्र में आकाश की देवी का नाम नटु था जो अपने शरीर से ही समस्त प्राणियों को पैदा करती थी। यूरोप की आदिम जातियों में दसु को धर्म में शिव-शक्ति का प्रतिपादन इन शब्दों में किया है कि आकाश पिता है। पृथ्वी माता है। तिब्बत में शक्ति उपासना की देवी संसर्गिया सस्पियनमा है।

तंत्र उपासना की पद्धतियों का क्षेत्र व्यापक और विस्तृत होने के साथ इनमें भ्रान्तियाँ भी पनपती गई। जो तत्व अलंकारिक विवरण में अपने किसी गुह्य उद्देश्य और रहस्य को छुपाए थे उनके शब्दशः अर्थ लिये जाने लगे। सर्वाधिक भ्रम पंच मकारों के संदर्भ में हुआ है मद्य, माँस, मौन, मुद्रा, मैथुन के रहस्य को न जानकर-इसके यथावत् उपयोग में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गई । जबकि तन्त्र शास्त्रों के अनुसार-व्योमं पंकजानित्यत्वं-सुधापान रतो भवेत्। मद्यपानामिदं प्रोक्तामितरे मद्यपायिनः ॥ ब्रह्म रन्ध्र सहस्रदल से जो स्रवित होता है उसका पान करना ही मद्यपान है। इसी प्रकार-माशष्दा द्रसना ज्ञेया तदंशान रसयपाप्रिये। सदा यो भक्षयेद्देवि स एव माँस साधकः॥ हे रसना प्रिये! मारसना-शब्द का नामान्तर है वाक्य का भक्षण करता है। अर्थात्-जो वाक् संयम करके मौन रहता है वही माँस साधक है। मत्स्य का रहस्य बताते हुए तंत्र ग्रन्थ कहते है-गंगा यमुनोर्मध्ये मत्स्यो द्वौचरतः सदा। तौ मत्स्यो भक्षयेद् यस्तु स भवेन्मत्स्यः साधकः॥ गंगा यमुना (इड़ा-पिंगला) के भीतर, दो मत्स्य (श्वास-प्रश्वास) विचरण करते हैं। (प्राणायाम के द्वारा) जो इनका भक्षण करता है। इसी तरह मुद्रा का अर्थ नवयुवती नहीं। आशा तृष्णा महामुद्रा, ब्रह्माग्नौ परिपाचिता (कैलाशतन्त्र 80 पटल) आशा तृष्णा महामुद्रा ब्रह्माग्नि परिपाचित करें । मैथुन के संदर्भ में योगिनी तंत्र का वचन है- सहस्रारों परिविन्दों कुण्डल्या मेलन शिवे । मैथुनं शयनं दिव्यं यतीनाँ परिकीर्तितम्॥

हे शिवे! सहस्र पदमोपरि बिंदु में जो कुल कुण्डलिनी का मिलन है वही यतियों का परम मैथुन कहा गया है। कितने दिव्य अर्थ हैं पंच मकार के इन्हें जानकार किसे तंत्र शास्त्र पर श्रद्धा न होगी। पंच मकार की ही भाँति पशु भाव की बलि । महानिर्वाण तंत्र के अनुसार-

कामः क्रोधौ द्वौ पशु इमामेव मनसा बलि समर्पयेत। कामः क्रोधौ विघ्नकृतो बलि दत्वा जपं चरेत्॥

काम और क्रोध विघ्नकारी दो पशु हैं । इनकी बलि देकर जप में तन्मय हो जाय। एक अन्य स्थान पर कहा है-’इन्द्रियाणि पशूनहत्वा’-अर्थात्-इन्द्रिय रूप पशु का वध करें । इन्हीं भावों को ग्रहण करके अपने देश में महान तंत्र साधक होते हैं। निर्विशेष ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाले आदि गुरु शंकराचार्य शक्तितत्त्व के रहस्यवेत्ता भी थे , उन्होंने तिब्बत के गुह्य स्थानों उरुंग मठ तवाँग मठ जाकर अनेकों तंत्र साधनाएँ सम्पन्न कीं। उनके द्वारा लिखा गया सौंदर्य लहरी नामक ग्रन्थ तंत्र ग्रन्थों में अपना अद्वितीय स्थान रखता है। इसकी पैंतीस टीकाएँ प्राप्त हैं जिसमें लक्ष्मीधर टीका उत्तम मानी गई है।

शंकर की ही भाँति कीनाराम, वामाखेपा, कमलाकान्त, रामप्रसाद, दक्षिणेश्वर के सन्त रामकृष्ण परमहंस तंत्र की गुह्य प्रक्रियाओं में निष्णात् थे। श्री रामकृष्ण देव ने इस संदर्भ में एक ऐसे रहस्य का उद्घाटन किया है जिसे विचित्र किन्तु सत्य कहा जा सके। उनके अनुसार तंत्र शक्ति का उपार्जन किए बगैर धर्म स्थापन का महान कार्य सम्भव नहीं । इस कथन के पीछे उनकी स्वयं की अनुभूति थी ।

जिसे आज की भाषा में तंत्र कहा जाता है वह कुछ छुट’-पुट टोना-टोटका भर है। कभी-कभी मृतात्माओं के आह्वान-आवेश को भी तंत्र की संबा दी जाती है। अपने को ताँत्रिक कहने समझने वाले ऐसे बाजीगरों-व्यापारियों की इन दिनों कमी नहीं है। उनके द्वारा किए जाने वाले प्रयोग कितने ही चमत्कारी क्यों न लगे गुह्य विद्या की प्रक्रिया और सीमाओं का भेद समझ लिया जाय। इन दोनों की शुरुआत प्राण प्रकृति से होती है इतने साम्य के बावजूद गुह्य विद्या की उच्चस्तरीय क्षेत्रों में गति नहीं। यह प्राण और भौतिक सत्ता पर अपने कुछ चमत्कार अधिकार का प्रदर्शन कर मौन साध लेती है। जब की तंत्र साधना की गति निम्न और उच्च दोनों स्तरों में अव्याप्त है। इसका उद्देश्य आत्मलाभ, परमशिव, चित् शक्ति की अवस्था की प्राप्ति है।

आधुनिक युग में धर्म स्थापना का युगाँतरीय कार्य करने वाले परम पूज्य गुरुदेव को श्रेष्ठतम तंत्र साधक अनुभव किया जा सकता है। इस क्षेत्र में किए गए उनके अलौकिक प्रयास गुह्य साधनाएँ अभी सर्व-सामान्य की जानकारी से अछूती हैं। निकट भविष्य में अखण्ड-ज्योति के पृष्ठ इन गुह्य और गहन पर्तों को खोलने वाले सिद्ध होंगे। लोक जीवन उनके तंत्र उद्धारक स्वरूप से परिचय प्राप्त कर सकेगा।

तन्त्र की गुह्यताओं के अन्वेषक युग ऋषि ने जहाँ अपने-जीवन में गुह्य विद्या के रहस्यों, शारदा तिलक, महानिर्वाण, कुलार्णव आदि ग्रन्थों में वर्णित साधना रहस्यों की अनुभूति की। वहीं कुछ ऐसे विशिष्ट प्रयोग किए जो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के बाद दुबारा कभी सम्पन्न नहीं हुए। सावित्री साधना के नाम से बताए गए इस प्रयोग का उद्देश्य मनुष्य मात्र की आन्तरिक प्रकृति और बाह्य प्रकृति की अस्त-व्यस्तता को सुधारना-सँवारना रहा है। इसे तंत्र का उत्कृष्टतम प्रयोग कहा जा सकता है। जिसकी परिणति विश्व राष्ट्र की कुण्डलिनी के रूप में सामने आयी।

सावित्री साधना क्या ? जिज्ञासुओं का यह प्रश्न अस्वाभाविक होने पर असाधारण तो है ही। इसका उत्तर संकेत में ही समझ कर सन्तुष्ट हो जाना चाहिए। पौराणिक आख्यान के अनुसार ब्रह्माजी की दो पत्नियाँ हैं गायत्री और सावित्री । इस अलंकारिक भाषा के तत्व अपरा प्रकृति समझा जाना चाहिए। परा प्रकृति के अंतर्गत मन-बुद्धि, चित्त, अहंकार चतुष्ट्य ऋतम्भरा प्रज्ञा आदि ज्ञान का क्षेत्र आता है। अपरा प्रकृति चेतना जड़ प्रकृति है। पदार्थों की समस्त हलचलें गतिविधियाँ उसी पर निर्भर हैं। परमाणुओं की भ्रमणशीलता रसायनों की प्रभाविकता, विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, ईथर आदि उसी के भाग हैं।

गुरुदेव ने गायत्री की विशिष्ट योग साधनाएँ सम्पन्न कर मानव मन के विक्षोभों के शान्त कर सुप्त देवत्व को जाग्रत करने की पृष्ठभूमि तैयार की है। लेकिन बाह्य प्रकृति के विक्षोभ जो प्रदूषण महामारी, खनिजों के घटने, सौर-कलंक, ओजोन की परतों के टूटने के रूप में प्रकट हो रहे हैं उनका क्या किया जाय ? समूची प्रकृति आज क्षुब्ध एवं क्रुद्ध है। उसी का क्रोध-अकाल, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि बनकर बरस रहा है। मौसम का क्रम अस्त व्यस्त है। ऋतुओं को अपनी पहचान भूल चुकी है। इन्हें फिर से व्यवस्थित करना अब न तो वैज्ञानिकों के बूते की बात रही और न राजनेताओं की। अपने को मनीषी कहने का दम्भ भरने वालों की अकल सब देख सुनकर चकराई हुई है।

इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने तीन वर्ष एकान्त में रहकर सावित्री साधना के द्वारा विश्वराष्ट्र की कुण्डलिनी का जागरण सम्पन्न किया। सामान्यतया कुण्डलिनी के नाम पर व्यक्तिगत अर्जन की बात सोची समझी जाती है। परन्तु युगावतार के जीवन में तो व्यक्तिगत शब्द जैसी कभी रही ही नहीं। उनके द्वारा किया गया यह प्रयोग पुरातन काल में विश्वामित्र द्वारा सम्पन्न हुआ था उस बार भी विश्व वसुधा का कायाकल्प हुआ था। इस बार भी वैसा ही होने जा रहा है ।

इस तंत्र साधना का परिणाम उन्हीं के शब्दों में कहें तो विश्व की राष्ट्र की कुण्डलिनी जाग्रत होने का प्रभाव इस रूप में देखा जा सकेगा कि उससे पदार्थ, जीवधारी, मनुष्य एवं परिस्थितियों के प्रवाह प्रभावित होंगे। मृतिका की उर्वरता बढ़ेगी, खनिजों के भण्डार तथा , उत्खनन का अनुपात बढ़ेगा। धातुएँ मनुष्य की आवश्यकताओं से अधिक उत्पन्न होंगी। खनिज तेलों की कमी न पड़ेगी। रसायनें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होंगी। वृक्ष-वनस्पति उगाने के लिए मनुष्य को अधिक प्रयास न करना पड़ेगा। जलाशयों की कमी न पड़ेगी। वनौषधियाँ प्राचीनकाल की भाँति गुण कारक होंगी। उपयोगी प्राणी बढ़ेंगे और दीर्घकाल तक जीवित रहेंगे। हानिकारिकों की वंशवृद्धि रुक जाएगी , वे जहाँ तहाँ अपना अस्तित्व बचाते दीख पड़ेंगे। जलवायु में पोषकतत्व बढ़ेंगे और वे प्रदूषण को परास्त करेंगे। मलिनता घटेगी शुद्धता अनायास बढ़ेगी। प्रकृति-प्रकोपों के समाचार यदा कदा ही सुनने को मिलेंगे। बाढ़-सूखा, अकाल महामारी, भूकम्प, ओलावृष्टि, टिड्डी, आदि हानिकारक उपद्रव प्रकृति के अनुकूलन से सहज ही समाप्त होते चले जाएँगे।

सावित्री साधना के इन प्रभावों की अनुभूति इस सदी के अन्त तक भली प्रकार की जा सकेगी। तंत्र का पुनरुद्धार करने वाले युग ऋषि साधकों का मार्गदर्शन करने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं। उन्हीं के शब्दों में किसी सत्पात्र को यह अनुभव होने दिया जायेगा कि लिखने वाले के अभाव में आत्मिक प्रगति की उचित आवश्यकता कुण्डलिनी जागरण का विधान न मालूम होने के कारण इच्छा पूर्ति न हो सकी। बस आवश्यकता स्वयं में संयम, साहस, श्रद्धा, निष्ठा तथा लोकहित के लिए समर्पित भाव की हो । युगऋषि के मार्गदर्शन में ऐसे साधक ही साधना रहस्यों के निष्णात् होकर सुख-सन्तोष से भरी-पूरी परिस्थितियों को जन्म देंगे। ज्ञान की इस अनूठी विधा का गौरव पुनः प्रकट हो सकेगा।


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