सारे जीवन को यज्ञमय बनाती है,आर्य संस्कृति

August 1992

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हमारे पूर्वज ऋषिगणों ने गायत्री को देव संस्कृति की माता व यज्ञ को धर्म का पिता कहा है। दोनों का युग्म है। गायत्री अनुष्ठान जो संकल्प बद्ध होकर किया जाता है। उसकी पूर्ति यज्ञ का शताँश पूरा करने पर ही मानी जाती है। परम पूज्य गुरुदेव ने चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण संपन्न किए तथा उनकी विराट पूर्णाहुति पहले 1956 में 108 कुण्डी यज्ञ में तथा तत्पश्चात् 1958 के 1008 कुण्डी गायत्री महायज्ञ में संपन्न हुई है। गायत्री जहाँ सद्ज्ञान की, सद्बुद्धि की देवी है, वहाँ यज्ञ सत्कर्म का देवता है। परमार्थ प्रयोजन से किया गया सत्कर्म ही यज्ञ है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार “जो व्यष्टिगत एवं समष्टिगत जगत की व्यवस्था बिठाती व सामंजस्य स्थापित करती है, वही गायत्री है।” यज्ञ शब्द यज् धातु से बना है जिसका अर्थ पाणिनि धातु पाठ के अनुसार देव पूजन (व्यक्तित्व में देव शक्तियों का समावेश), संगति करण (संघबद्ध संगठनात्मक आदर्शवादी प्रयास) तथा दान (परमार्थ-परायणता, सदाशयता) के रूप में माना गया है।

भारतीय संस्कृति, वैदिक वाङ्मय में यज्ञ का विवरण इतना अधिक आता है कि ऐसा लगता है कि यज्ञ ही मानों वेदों का आर्ष वाङ्मय का पर्याय है। यज्ञ का व्यापक रूप समझने के लिए उसका मर्म समझना होगा। यज्ञ का दर्शन समझने के बाद यह समझना आसान होगा कि यज्ञ किया क्यों जाता है तथा वह मात्र अग्निहोत्र नहीं है। गीताकार ने तीसरे अध्याय के नौवें श्लोक में कहा है-

यज्ञार्थातकर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्त संगः समाचर॥

अर्थात्-”यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्म बंधन में बँधन में बँधता है। अतः हे अर्जुन! तू आसक्ति रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भाँति कर्तव्य कर्म कर।” इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य के सभी कर्म यज्ञ प्रयोजनों के निमित्त हों अर्थात्- परमार्थ-त्याग के उद्देश्य से किये गये हों। इसके अतिरिक्त सभी कर्म व्यक्ति को बंधन में बाँधते हैं व जन्म जन्मान्तरों तक प्रारब्ध बनकर व्यक्ति को उनका फल भोगना पड़ता है। आगे चलकर श्री कृष्ण यज्ञ का जो स्वरूप बताते हैं, उससे मन में भ्रान्ति हो सकती है कि संभवतः यज्ञ वैदिक धर्मानुष्ठान है। तीसरे अध्याय के दसवें से सोलहवें अध्याय में यही प्रकरण है।

सहयज्ञाः प्रजाः स्रष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दसस्यन्ते यज्ञीविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुड्क्ते स्तेन एव सः ॥

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुचयन्ते सर्वकिल्विषैः । भुञजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः। यज्ञाद्भवतिपर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्हमाक्षर समुद्भवम्॥ तस्मार्त्सवगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

सृष्टि के आदि में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ के साथ प्रजा की सृष्टि की और कहा-इस यज्ञ के द्वारा तुम लोग उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करो, यह यज्ञ तुम लोगों को मनोवाँछित फल प्रदान करे। इसके द्वारा तुम लोग देवताओं का संवर्धन करो और देवता तुम लोगों को संवर्धित करें, इस प्रकार पारस्परिक संवर्धन से तुम लोग परम मंगल प्राप्त करोगे। यज्ञ के द्वारा संवर्धित होकर देवता तुम लोगों को अभीष्ट भोग प्रदान करेंगे, इस देवदत्त भोग को प्राप्त करके जो व्यक्ति देवताओं को प्रदान न करके स्वयं भोग करता है वह चोर है। जो लोग यज्ञावशेष अन्न भोजन करते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो लोग केवल अपने लिये रसोई बनाते हैं, वे पापिष्ठ पाप ही भोजन करते हैं। अन्न से शरीर उत्पन्न होता है। मेघों से जल बरसने से अन्न पैदा होता है एवं यज्ञ से मेघ और कर्म से यज्ञ उत्पन्न होता है। कर्म को ब्रह्म से उत्पन्न जानो, ब्रह्म अक्षर से उत्पन्न है, अतएव सर्वव्यापी ब्रह्म, यज्ञ में प्रतिष्ठित है। इस लोक में, इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का जो अनुसरण नहीं करता है, हे पार्थ! वह पापमय जीवन बिताने वाला व्यक्ति वृथा जीवित रहता है।’ इन श्लोकों के शब्दों को देखने से तो यही मालूम होता है कि यहाँ पर यज्ञ का अर्थ वेदानुमोदित धर्मानुष्ठान से शायद है। किन्तु बड़ा स्पष्ट हो जाता है चौथे अध्याय में जब श्री कृष्ण अर्जुन को यज्ञ का मर्म समझाते हैं। वे बताते हैं कि यज्ञ की क्रिया, यज्ञ की सामग्री, यज्ञ का कर्त्ता-ग्रहीता, यज्ञ का लक्ष्य और उद्देश्य सब वही एक ब्रह्म है। (गीता 4/24)। वे कहते हैं कि यज्ञ की अग्नि भौतिक अग्नि नहीं है, ब्रह्माग्नि है। संयम ही अग्नि है। शुद्ध इन्द्रिय क्रिया ही अग्नि है। प्राणायाम के द्वारा नियमित प्राण शक्ति ही अग्नि है तथा आत्मज्ञान ही श्रेष्ठ अग्नि है। यज्ञावशिष्ट अन्न अमृत है। इसे प्राप्त करने वाले सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ ही संसार की नीति है। जो यज्ञ नहीं करता उसके लिये यह लोक नहीं है, परलोक तो दूर की बात है। अतएव ये समस्त यज्ञ और अन्यान्य प्रकार के यज्ञ ब्रह्माग्नि में अर्पित होते हैं (4/32 गीता)।

यज्ञों के भी गीता में भिन्न-भिन्न स्तर बताये गये हैं। द्वव्य यज्ञ सबसे निम्न स्तर का है, ज्ञान यज्ञ सबसे उच्च स्तर का है। उच्चतम ज्ञान में-ब्रह्मज्ञान में ही सारे कर्मों की परिसमाप्ति है।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप । सर्वंकर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ 4/33 गीता।

वस्तुतः वासना का आधिपत्य कम कर उच्चस्तरीय शक्तियों को प्रतिष्ठित करके, यज्ञार्थ कर्म करके हम ज्ञान प्राप्त करते हैं और तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शान्ति व लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं (ज्ञानं लब्ध्वा पराँ शान्तिमचिरेणाधिगच्छति) यही है यज्ञ का मर्म। सारे कर्मकाण्ड गौण हैं यदि यज्ञ का भावनात्मक पक्ष इस उद्देश्य से ओतप्रोत नहीं है।

गायत्री व यज्ञ एक दूसरे के पूरक हैं। गायत्री से जहाँ देवत्व मिलता है, वहाँ यज्ञ से द्विजत्व मिलता है। (महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मी यं क्रियते तनुः)। द्विजत्व अर्थात् नया जन्म -व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन। यज्ञ से व्यक्ति का एक प्रकार से कायाकल्प हो जाता है व यह प्रक्रिया सूक्ष्म चेतन ऊर्जा द्वारा संपन्न होती है।

ऋषियों के अनुसार गायत्री व यज्ञ दोनों सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद के समन्वित रूप के कारण परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। सामवेद में याज्ञिक कर्मकाण्ड की नहीं, वरन् सूक्ष्मता की महत्ता है। यहाँ स्थूल हवि के स्थान पर भावनात्मक धरातल पर सूक्ष्म शब्द ऊर्जा से अभिपूरित मानसिक हवि का प्रयोग होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में शास्त्रकारों ने इस सूक्ष्मीकरण की बड़ी महत्वपूर्ण फलश्रुतियाँ बतायी एवं गायत्री यज्ञ की महत्ता का प्रतिपादन इसी वैज्ञानिक रूप में किया है। यज्ञ अपने आप में एक सूक्ष्म स्तर का विज्ञान है। अध्यात्म-सूक्ष्म को-चेतना को, कहते हैं। इसलिए उसका विज्ञान भी चेतनात्मक ही होना चाहिए। जड़ पदार्थ विज्ञान से तो सभी परिचित हैं। भौतिक विज्ञान को आजकल पाँचवीं कक्षा में पढ़ाया जाता है। उसे आवश्यक विषय माना गया है। यदि किसी को अध्यात्म विज्ञान को जानना हो तो उसकी शुरुआत यज्ञ से करनी होगी। यज्ञ में भौतिक विज्ञान के साथ-साथ जड़ का सूक्ष्मीकरण भी सम्मिलित है।

यज्ञ की सूक्ष्म प्रक्रिया का प्रतिपादन

यजुर्वेद की इस ऋचा में देखा जा सकता है-”यजमानः स्वर्ग लोकं याति” अर्थात्-यज्ञ से यजमान (श्रेष्ठ आत्मा) स्वर्ग लोक को (अमरत्व को) प्राप्त होता है। वस्तुतः जीव के शुभाशुभ कर्म एवं गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार ही आत्मा को फलोपभोग प्रदान करते हैं। अग्नि में यजन किया गया या नहीं, यह स्थल कर्मकाण्ड हुआ या नहीं, इस पर नहीं, अपितु यजनकर्त्ताओं का व्यक्तित्व एवं यज्ञ का प्रयोजन प्रयुक्त साधनों का संस्कारी करण एवं सामूहिकता द्वारा बहुलीकरण की भावना जब तक न हो, यज्ञ को सम्पन्न हुआ नहीं माना जाना चाहिए।

यही बात मन्त्रों के सम्बन्ध में है। मंत्र वही होते हैं जो प्रेस में कर्मचारियों द्वारा किताबों में छापे जाते हैं। उन छपे अक्षरों को कोई भी साक्षर संस्कृत समझने वाला व्यक्ति पढ़ता चला जा सकता है किन्तु यदि सिद्ध मन्त्र बोलना है तो सिद्ध व्यक्तित्व सम्पन्न उद्गाता होना चाहिए। तब ही वह प्रभाव उत्पन्न हो सकेगा, जिसके बारे में शास्त्रों में शाप’-वरदान इत्यादि सन्दर्भों के रूप में वर्णन मिलता है। न केवल उद्गाता वरन् ब्रह्मा, अध्वर्यु आचार्य, उद्गाता की पूरी टीम सामर्थ्य सम्पन्न होनी चाहिए ताकि सूक्ष्मीकृत प्रभावोत्पादकता उत्पन्न हो। शब्द शक्ति के परा, पश्यन्ति, मध्यमा, बैखरी के चार रूप प्रख्यात हैं किन्तु प्रवक्ता के लिये जो दो शर्तें जरूरी है, जिनसे सचमुच वाक् सिद्धि हुई मानी जाती है वे है कायकलेवर की तप संयम से परिष्कृत एवं व्यक्तित्व में निखारने योग्य शब्द ऊर्जा की उपलब्धि।

यज्ञ के सूत्र संचालकों में चार नाम ऊपर बताये गए। (1)ब्रह्मा (2) आर्ध्वयु (3)उद्गाता (4)होता। बड़े आयोजनों में प्रत्येक को अपने तीन-तीन सहायक नियुक्त करने की छूट दी गयी है। ब्रह्मा यज्ञ का प्रधान संरक्षक, अध्यक्ष व अधिष्ठाता है। कहीं कहीं उसे अथर्वा भी कहा गया है। इस श्रेणी के ‘अंगिरस’ नामक कुल के ब्रह्मागणों का कभी विशेष मान था। इनका निजी जीवन भी ब्रह्म-निष्ठ होता है व यज्ञ कृत्य संपूर्ण कराने में ये कुशल कहे जाते हैं। ब्रह्मा के सहायक ब्राह्मणच्चसि, आग्नीध्र, होता कहलाते थे। उद्गाता वे थे जो देवताओं के स्तुति मंत्रों को गाते थे। यज्ञ का प्रधान पुरोहित होता कहलाता था तथा उसके निर्देशानुसार यज्ञ कली क्रियाएँ संपन्न करने वाला अध्वर्यु कहलाता था। ब्रह्मा व उद्गाता प्रजापति के मुख से तथा होता व अध्वर्यु उनकी बाहुओं से उत्पन्न बताये गये हैं। आर्ध्वयु के सहायक प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा व उन्नेता तीन थे तो उद्गाता के सहायक प्रस्तोता, प्रतिहर्त्ता व सुब्रह्मण्य। होता के भी तीन सहायक थे प्रशस्ता, अच्छावा ग्रावस्तोता। उद्गाता सामगान का विशेषज्ञ था तो होता ऋग्वेद वेत्ता कहलाता था। वस्तुतः यज्ञ प्रयोजनों में वाक् शक्ति का, मंत्रशक्ति के प्रखर प्रयोक्ताओं का अत्यधिक महत्व है।

यज्ञ में जो अग्नि प्रयुक्त होती है उसमें तथा सामान्य अग्नि में क्या अंतर है, यह भी समझ लेना चाहिए। यज्ञ चेतना जगत के विज्ञान अध्यात्म का एक अंग है। यह विज्ञान अन्यान्य विज्ञानों से वरिष्ठ स्तर का है। अग्नि पूजा यज्ञ का उपचार स्वरूप अवश्य है किन्तु वह यहीं तक सीमित नहीं है। यह अध्यात्म क्षेत्र की, चेतना जगत की, अति प्रभावशाली धुरी है, नाभिक है जिसके सहारे परोक्ष से संपर्क स्थापित किया जा सकता है। श्रुति में विश्व का नाभिक ध्रुव केन्द्र पूछे जाने पर ऋषि जवाब देते हैं “अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः” इस ब्रह्मांड की नाभि ध्रुव केन्द्र जैसी आधार भूत सत्ता यज्ञ में सन्निहित है। इस प्रकार यह सामान्य अग्नि वाली अग्निहोत्र प्रक्रिया भर नहीं है। ऋषियों ने तीन प्रकार की अग्नियाँ बतायी है। पहली पावक वह जो चूल्हा जलाने जैसे लौकिक प्रयोजनों में काम आती है। दूसरी पदमान वह जो मानवीकाया में निवास करती है तथा भोजन पचाने से लेकर गतिशीलता तक के अनेक क्रियाकलापों में काम आती है। तप-संयम से इसी को प्रखर किया जाता है। तीसरी शुचि वह जो अदृश्य जगत को अनुकूल बनाती है, वातावरण को प्रभावित कर विश्व व्यवस्था को ठीक करती है।

संक्षेप में अग्नि के तीन क्षेत्र ऊर्जा प्रखरता एवं विश्व नियामक शक्ति के रूप में जाने जाते हैं। यज्ञाग्नि का स्वरूप ऐसा बनाया जाता है कि उसके द्वारा पवमान और शुचि की भूमिका संपन्न की जा सके। ऋषियों के अनुसार अध्यात्म क्षेत्र की सभी गतिविधियाँ यज्ञतत्व की परिधि में आ जाती हैं जैसा कि श्रीमद्भगवद् गीता में (4/28) उल्लेख है-

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥

यज्ञों के कई प्रकार हैं-द्रव्य यज्ञ (अग्निहोत्र), तप यज्ञ, योगयज्ञ तथा स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ।

यज्ञ की अग्नि के प्रसंग में ऋषिगणों ने देवोपम अग्नि के तीन भेद और किए हैं। व्यक्तिगत प्रखरता के लिए आह्वनीय अग्नि की स्थापना, पारिवारिक उत्कृष्टता के लिए गार्हपत्य अग्नि तथा सर्वजनीन सारे विश्व व समाज की प्रगति के लिए दक्षिणाग्नि की स्थापना होती है। ये प्रेरणा प्रतीक हैं जो व्रतशीलता का संदेश देती हैं। मनुस्मृति ने गार्हपत्य को पिता, दक्षिणाग्नि को माता तथा आह्वनीय को आचार्य माना है। यज्ञ में अग्नि प्रज्ज्वलन प्रसंग जहाँ भी आया है, वहाँ यह समझा जाना चाहिए कि प्रत्यक्ष प्रक्रिया के साथ उच्च स्तरीय भावनाओं का समावेश है कि नहीं, यज्ञाग्नि पदार्थ जैसी दीखती भर है किन्तु उसमें उच्चस्तरीय प्राण ऊर्जा का समावेश ही चमत्कारी प्रभाविकता उत्पन्न कर पाता है। यज्ञ प्रसंग देव संस्कृति में जहाँ भी आया है, उसके भावनात्मक पहलू इतने सशक्त है कि उनके ही कारण यह प्रक्रिया हमारे आध्यात्मिक उपचारों का मेरुदण्ड बन गयी है। इसी परिप्रेक्ष्य में इन्हें समझा व हृदयंगम करना चाहिए।


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