पाप के परिमार्जन हेतु प्रायश्चित का तप विधान

August 1992

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ऋषि मनीषा का यह मत रहा है कि संचित दुष्कर्मों को यथा स्थान छोड़कर-आत्मिक प्रगति की साधना कर सकना-उस दिव्य स्तर तक जा पहुँच सकना-किसी के लिये भी सम्भव नहीं। कक्षाएँ उत्तीर्ण करके ही विद्यार्थी स्नातक की उपाधि पाते-उच्च पदाधिकारी बनते हैं। छलाँगें भौतिक जगत में कई क्षेत्रों में लगाई जाती हैं और सफल भी होती हैं, पर आत्मिक क्षेत्र में ऐसी सुविधा नहीं है। संचित दुष्कर्मों से विनिर्मित प्रारब्ध न केवल विपत्तियों-असफलताओं का त्रास देता है, वरन् उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर चलने में भी अनेकों विघ्न उपस्थित करता है। रास्ते में अड़ी इन चट्टानों को हटाने-सरकाने के लिए साहसपूर्ण पराक्रम करना होता है। यही है वह प्रायश्चित प्रक्रिया जिसे तप साधना में वरिष्ठता-प्रमुखता दी गयी है।

कर्म फल की सम्भावना सुनिश्चित है। उसे विश्व व्यवस्था का एक अनिवार्य एवं अविच्छिन्न अंग ही समझा जाना चाहिए। इन संचयों को स्वयं ही भुगतना होता है। देव-दर्शन, नदी स्नान, पूजा, उपचार, कथा-वार्ता एवं छुटपुट कर्मकाण्डों का प्रयोजन इतना ही है कि उनसे परिशोधन, परिमार्जन की ओर ध्यान, मुड़े, महत्व समझने का अवसर मिले और वह साहस उभरे जिससे कर्मफल भुगतने का दूसरा विकल्प प्रायश्चित स्वेच्छापूर्वक बन पड़े। प्रायश्चित के लिए किये जाने वाले व्रत उपन्यासों के सामयिक प्रतिफल भी होते हैं, किन्तु वास्तविक एवं चिरस्थाई लाभ देने वाला तथ्य यह है कि दुष्कृत्यों के प्रति घृणा उभरे, भविष्य में वैसा न करने का संकल्प मचले साथ ही जो किया गया हो उसकी क्षतिपूर्ति करने की सदाशयता की खाई पाटने के लिए उत्साह उत्पन्न करें।

आज का जमाया हुआ दूध-कल दही बनता है-आज का बोया बीज बहुत समय में वृक्ष बनता है। आज का अध्ययन, व्यायाम, व्यवसाय, आज ही कहाँ फल देता है? परिणाम में देर लगने पर बालक निराश हो सकते हैं, पर विचारशील लोग अपनी निष्ठा विचलित नहीं होने देते और आशा विश्वास के साथ काम करते रहते हैं। असंयम बरतने पर उसी दिन शरीर रुग्ण नहीं हो जाता जिस दिन चोरी की जाय, उसी दिन जेल भुगतनी पड़े ऐसा कहाँ होता हैं? तो भी समझदारी सुझाती है कि कल नहीं, परसों परिणाम मिलकर ही रहेगा। यही दूरदर्शिता सत्कर्मों-दुष्कर्मों के सुनिश्चित परिणाम को ध्यान में रखते हुए अपनाई जानी चाहिए। पर लोग भ्रमग्रस्त होकर-कर्मफल के सम्बन्ध में विश्वास छोड़ बैठते हैं। इसी इनकारी को वास्तविक नास्तिकता कहना चाहिए।

याद रखना चाहिए कि कपड़े को रंगने से पूर्व उसका धोना आवश्यक है। जप, भोजन, आरम्भ करने से पूर्व स्थान की जरूरत पड़ती है। भोजन से पूर्व हाथ मुँह धोने का औचित्य है। घाव पर मरहम चढ़ाने से पूर्व उसकी सफाई करनी पड़ती है। साधना’-उपासना करने से पूर्व सबसे प्रथम कदम इस जन्म में बन पड़े पाप कर्मों का प्रायश्चित किया जाना चाहिए। यों कुविचार भी हानिकारक हैं और कालान्तर में वे भी परिपक्व होकर दुर्गति के कारण बनते हैं। पर कुकर्म तो प्रत्यक्ष हैं, उनके तत्काल संस्कार बनते हैं और उनका ऐसा भला बुरा कर्मफल विनिर्मित होता है जिसे भुगते बिना और कोई मार्ग नहीं। कर्म की गति अति गहन है। श्रवण कुमार को तीर मारने के फलस्वरूप दशरथ को पुत्र शोक का शाप लगा था और उन्हें राम वनवास के अवसर पर बिलख-बिलख कर प्राण त्यागने पड़े थे। बालि को छिपकर बाण मारने का कर्मफल राम को कृष्णावतार के समय भुगतना पड़ा था और बालि ने बहेलिया बनकर कृष्ण के पैर में तीर मारकर उन्हें मृत्यु-मुख में पहुँचाया था। जब भगवान भी कर्मफल से नहीं बच सकते तो दूसरों की बात ही क्या है। पुण्यात्मा पुरुषों को भी पूर्वकृत पापों के फलस्वरूप दुस्सह-दुख सहने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

आयुर्वेद के प्रख्यात ग्रन्थ माधव निदान के प्रणेता माधवाचार्य अपने साधना काल में वृन्दावन रहकर समग्र तन्मयता के साथ गायत्री महापुरश्चरणों में संलग्न थे, उन्होंने पूर्ण विधि-विज्ञान के साथ लगातार ग्यारह वर्षों तक अपनी साधना जारी रखी। इतने पर भी उन्हें सिद्धि का कोई लक्षण प्रकट होते दिखाई न पड़ा। इस असफलता से उन्हें निराशा भी हुई और खिन्नता भी। सो उसे आगे और चलाने का विचार छोड़कर काशी चले गये।

काशी के गंगा तट पर वे बड़ी दुःखी मनःस्थिति में बैठे हुए थे कि उधर से एक अघोरी कापालिक आ निकला। साधक की वेश भूषा और छाई हुई खिन्नता जानने के लिए वह रुक गया और कारण पूछने लगा। माधवाचार्य ने अपनी व्यथा कह सुनाई। कापालिक ने आश्वासन दिया कि उसे भैरव की सिद्धि का विधान आता है। एक वर्श तक उसे नियमित रूप से करते रहने से सिद्धि निश्चित है। माधवाचार्य सहमत हो गये और कापालिक के बताये हुए विधान के साथ मणिकर्णिका घाट-श्मशान भूमि की परिधि में रहकर साधना करने लगे। बीच-बीच में कई डरावनी, लुभावनी, परीक्षायें होती रहीं। उनका धैर्य और साहस सुदृढ़ बना रहा। एक वर्श पूरा होते-होते ही भैरव प्रकट हुए और वरदान माँगने की बात कहने लगे।

माधवाचार्य ने आँख खोलकर चारों ओर देखा पर बोलने वाला कहीं दिखाई न पड़ा। उन्होंने कहा-यहाँ आये दिन भूत-पलीत ऐसी ही छेड़-खानी करने आया करते हैं और ऐसी ही चित्र-विचित्र वाणियाँ बोलते हैं। यदि आप सचमुच ही भैरव हैं तो सामने प्रकट हों आपके दर्शन करके चित्त का समाधान कर लूँ तो वरदान माँगू।” इसका उत्तर इतना ही मिला। “आप गायत्री उपासक रहे हैं। आपके मुख मण्डल पर इतना ब्रह्म तेज छाया हुआ है कि सामने प्रकट होकर अपने को संकट में डालने की हिम्मत नहीं है। जो माँगना हो ऐसे ही माँग लो।” माधवाचार्य असमंजस में पड़ गये यदि गायत्री पुरश्चरणों से इतना ही ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है तो उसकी कोई अनुभूति मुझे क्यों नहीं हुई? सिद्धि का आभास क्यों नहीं हुआ? यह प्रश्न बड़ा रहस्यमय था, जो भैरव के संवाद से ही उपजा था। उन्होंने समाधान भी उन्हीं से पूछा। कहा-”देव! यदि आप प्रकट नहीं हो सके और गायत्री उपासना को इतनी तेजस्वी पाते हैं तो कृपा कर यह बता दें कि मेरी इतनी निष्ठा भरी उपासना निष्फल कैसे हो गई? इतना समाधान करा देना ही आपका वरदान पर्याप्त होगा, जब आप गायत्री तेज के सम्मुख होने तक का साहस न कर सके तो आपसे अन्य वरदान क्या माँगू।

भैरव ने उनकी इच्छापूर्ति की और पिछले ग्यारह जन्मों के दृश्य दिखाये। जिसमें अनेकों पाप-कृत्यों का समावेश था। भैरव ने कहा-’आपके एक-एक वर्श के गायत्री पुरश्चरण से एक-एक जन्मों के पाप कर्मों का परिशोधन हुआ है। ग्यारह जन्मों के संचित पाप प्रारब्धों के दुष्परिणाम इन ग्यारह वर्षों की तप−साधना से नष्ट हुए हैं। अब आप नये सिरे से फिर उसी उपासना को करें। संचित प्रारब्ध की निवृत्ति हो जाने से आपको अब के प्रयास में सफलता मिलेगी।

माधवाचार्य फिर वृन्दावन लौटे और बारहवाँ पुरश्चरण करने लगे। अबकी बार उन्हें प्रारंभ से ही साधना की सफलता के लक्षण प्रकट होने लगे और बारहवाँ वर्श पूरा होने पर इष्टदेव का साक्षात्कार हुआ। उन्हीं के अनुग्रह से वह प्रज्ञा प्रकट हुई जिसके सहारे “माधव-निदान” जैसा महान ग्रन्थ लिखकर अपना यश अमर करने और असंख्यों का हितसाधन कर सकने की उपलब्धि उन्हें मिली और जीव का लक्ष्य पूरा कर सकने में सफल हुए।

इस गाथा से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि साधना की सिद्धि में प्रधान बाधा क्या है? संचित दुष्कर्म ही उस मार्ग की सफलता में प्रधान रूप से बाधक होते हैं। यदि उनके निराकरण का उपाय सम्भव हो सके तो अभीष्ट सफलता सहज ही मिलती चली जायगी। प्रायश्चित्त का विधान इसी निमित्त निर्धारित किया गया है। इसकी प्रक्रिया इस प्रकार सम्पन्न होती है। (1) इस जन्म में अब तक बन पड़े पाप कर्मों की सूची बनाना। उसके लिए दुःख मनाना भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा करना। (2) किसी ऐसी उदात्त और विश्वस्त व्यक्ति के सामने अपने पाप कर्मों का विस्तृत वर्णन करने और प्रायश्चित्त विधान के लिए परामर्श लेना। (3) इस प्रयोजन के लिए शास्त्रानुमोदित व्रत, तप, तितिक्षा मौन, एकान्त सेवन, आदि शारीरिक मानसिक कष्टों का दण्ड उपचार सम्पन्न करना (4) पाप कर्मों द्वारा व्यक्तियों की या समाज की जो हानि की है उनके क्षति पूर्ति के लिए शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, अनुदान समाज को सुखी बनाने के लिए प्रस्तुत करना (5)अपने अनाचार से जिन लोगों को कष्ट सहना पड़ा उनसे सच्चे मन से क्षमा याचना करना।

यह पाँचों चरण मिला देने से ही प्रायश्चित का एक समग्र स्वरूप बनता है। इनमें से हलकी बातें पूरी कर लेना और भारी कन्नी काटना इस बात का प्रमाण नहीं है कि अपराधी को अपनी भूल पर वस्तुतः दुःख है और वह उसके निराकरण के लिए वस्तुतः इच्छुक है। चतुरता हर क्षेत्र में बरती जाती है । प्रायश्चित के नाम पर भी यत्किंचित् चिन्ह पूजा करके ऐसे ही बला टाली जा रही हो तो उतने भर से बात कुछ बनने वाली नहीं है। अन्तःकरण में दबे हुए अनौचित्य को उखाड़ने के लिए प्रायश्चित भी वजनदार होना चाहिए।

यहाँ यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि पाप तो बहुत भारी किये हैं, उनके बदले में उतना पुण्य तो बन नहीं पड़ेगा। इसलिए थोड़ा करने से क्या लाभ ? तब न करना ही ठीक है। हमें सोचना चाहिए कि जितना चुक सके-उतना चुकाने के लिए तो पूरी ईमानदारी और पूरी शक्ति के साथ प्रयत्न किया ही जाय। यदि वस्तुतः विवशता ही होगी तो परमेश्वर परिस्थितियों को समझते हैं। वे भावना के अनुरूप निर्वाह भी कर सकते हैं। दिवालिये से एक अंश लेकर ही ऋण देने वाले उसका छुटकारा कर देते हैं। बैंकें भी अपनी पूँजी डूबती देखकर कर्जदार से समझौता करती हैं और कम लेकर भी झगड़ा समाप्त कर लेती हैं। साहूकार जब देखते थे कि आसामी के पास कुछ नहीं है तो जितना वह दे सके, लेकर छुटकारा लिख देते थे, ताकि भविष्य के लिए लेन देन फिर से शुरू हो सके। ऐसी व्यवस्था भगवान के यहाँ तथा समाज के विधान में भी है। यदि प्रायश्चित की क्षति पूर्ति के लिए सच्ची व्याकुलता है और ईमानदारी के साथ शक्ति भर प्रयास किया गया है तो उस सद्भावना की यथार्थता को परखते हुए विधि-विधान में भी इतनी लोच-लचक विद्यमान है कि उतने भर से पाप कृत्यों का समाधान हो सके और अन्तःकरण के परिमार्जन का वह लाभ मिल सके जो प्रायश्चित विधान का मूलभूत उद्देश्य है।

देव संस्कृति में पर्व प्रकरणों में श्रावणी पर्व को विशेष रूप से प्रायश्चित पर्व के रूप में मनाया जाता है। विगत एक वर्ष में जो भी कुछ अवाँछनीयताएँ स्वयं से बन पड़ी हों, उनका विधिवत् हेमाद्रि संकल्प के माध्यम से पूरा प्रायश्चित क्रम संपन्न करते हैं। यज्ञोपवीत का नवीनीकरण करने के पूर्व दस स्नान भस्म, मिट्टी गोबर गौमूत्र, गौ दुग्ध, गौ दधि , गौघृत सर्वोषधि कुश तथा मधु स्नान के माध्यम से लोक शिक्षण हेतु संपन्न होते हैं।

भस्म, स्नान का मर्म यह है कि शरीर एक दिन भस्मीभूत होना है। संभावित मृत्यु को हम स्मरण रखें मरणोत्तर जीवन की तैयारी शुभ कर्मों द्वारा करें। मिट्टी जब शरीर पर लगाते हैं तो मातृभूमि के ऋण को स्मरण कर राष्ट्र की सेवा का व्रत लेते हैं। गोबर खाद बनकर उपयोगी बनता है। हम भी इसके स्नान द्वारा शरीर को खाद बनाकर अपना जीवन आराधना प्रधान जियें। गौमूत्र कीटाणु नाशक है। हमारे चिंतन की दुष्प्रवृत्तियाँ इस प्रतीक स्नान द्वारा मिटें, यह भावना की जाती है। दुग्ध स्नान द्वारा जीवन को दुग्ध सा धवल, उज्ज्वल, निर्मल बनाने की तथा दधि स्नान पर अपना जीवन सुनियोजित , नियंत्रित व्यवस्थित बनाने की भावना करते हैं। घृत स्नान से भाव यह है कि जीवन में स्नेह-प्यार-शालीनता का समावेश करेंगे। सर्वोषधि (हरिद्रा) स्नान का अर्थ है। अवाँछनीयताओं , सामाजिक विभूतियों से संघर्ष कुशा स्पर्श करके भाव यह मन में आरोपित किया जाता कि अनीति के प्रति ऐसे ही तीक्ष्ण बने रहेंगे। मधु स्नान का अर्थ समग्र-मिठास सज्जनता, मधुर, भाषण। दसों स्नान वेद मंत्रों के साथ संपन्न किये जाते हैं। मंत्र के साथ जुड़ी प्रेरणाएँ व्यक्ति को नयी स्फूर्ति कर्म चेतना देती हैं। शाँतिकुँज में श्रावणी के अलावा वर्ष भर नौ दिवसीय संजीवनी मंत्रों में भी यह प्रक्रिया संपन्न होती है।

यह प्रक्रिया लोकोत्तर जीवन-कर्मों की गति से जुड़ी जीवन यात्रा में संभावित अवरोधों से जूझकर बंधनमुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाली है व अपने आप में अद्वितीय है।


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