अन्तःकरण का प्रकाश ही जीवन को ज्योतिर्मय करता है।

October 1966

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सच्चे सुख की कामना करने वाले को अपने अन्तःकरण का आधार लेना चाहिए। सच्चे सुख का निवास मनुष्य के अन्तःकरण में ही है। यदि मनुष्य का अन्तःकरण अवाँछनीय भावनाओं से अस्वस्थ है तो सुख के हजार साधन उपलब्ध रहने पर भी सुख का अंश मात्र भी प्राप्त होना असम्भव है।

जो मनीषी अपने अन्तःकरण को राग-द्वेष, क्रोध और मोह के विष बाणों से प्रभावित नहीं होने देता वह त्रिकालदर्शी बन जाता है। उसका अन्तःकरण एक ऐसे चमत्कारी दर्पण की भाँति सक्षम हो जाता है जिसमें भूत, भविष्यत्, वर्तमान स्वयं प्रतिबिम्बित होते रहते हैं।

जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशित होने के साथ-साथ अन्य दूसरी वस्तुओं को भी आलोकित एवं प्रत्यक्ष करता है, उसी प्रकार निर्विकार अन्तःकरण स्वयं प्रकाशित होकर संसार के सम्पूर्ण देशकाल को भी प्रत्यक्ष कर देता है। निर्मल अन्तःकरण में जब जो कुछ भी प्रतिबिम्बित होता है, वह सत्य होता है और विश्वास करने योग्य होता है।

—स्वामी शिवानन्द

—स्वामी शिवानन्द

निःस्वार्थ भाव से क्षेत्र में उतरने वाले माँगना कुछ नहीं चाहते किन्तु जीवन रक्षा के लिए साधारण भोजन-वस्त्र की आवश्यकता तो होती ही है। उनकी यह आवश्यकता उस पैसे से पूरी की जाती थी जो जनता मन्दिरों में दान के रूप में स्वेच्छा से चढ़ाया करती थी। मन्दिरों की सम्पत्ति ही रहती थी और उसका व्यय भी इस प्रकार से सार्वजनिक कार्यों में ही किया जाता था।

जब से मन्दिर-संस्था पूजा-पूजापा और दान-दक्षिणा लेने के सिवाय धर्म-प्रचार के अपने मूल प्रयोजन को छोड़ बैठी है, जनसाधारण के सच्चे धर्म से भटककर अंध-विश्वासों एवं आडम्बर को ओर चले गये हैं और वह मूढ़ता यहाँ तक बढ़ गई है कि लोग जीवन में कुछ भी कर्म-कुकर्म करते रहें पर समझते यह हैं कि मन्दिर में जाकर देवदर्शन कर लेने अथवा कुछ भेंट, पूजा चढ़ा देने भर से भगवान प्रसन्न होकर उन्हें अपराध मुक्त कर देगा। आज तीर्थों एवं मन्दिरों में देखी जाने वाली भीड़ का अधिकाँश भाग यही विश्वास लेकर आता है।

धार्मिक एवं नैतिक दृष्टि से समाज दिन-दिन गिरता चला जा रहा है। उसे उठाने, उन्नत बनाने और सन्मार्ग पर लाने की आवश्यकता है। यह आवश्यकता मन्दिरों के माध्यम से बड़ी आसानी से पूरी की जा सकती है। यों तो भारत में मन्दिरों की संख्या अगण्य है पर छह लाख मंदिर तो ऐसे हैं जिनमें पुजारी नियत हैं और नियमित रूप से पूजा-आरती की व्यवस्था है। इनमें से हजारों की संख्या में ऐसे भी हैं जिनमें पुजारियों के अतिरिक्त अन्य अनेक कामों के लिए सैकड़ों कर्मचारी लगे हुए हैं और जिनमें भोग, प्रसाद, पूजा, शृंगार, रोशनी आदि में लाखों रुपया प्रतिमास खर्च होता है। यदि मन्दिरों की औसत संख्या छह लाख ही मान ली जाये और उनका मासिक व्यय दो सौ रुपया भी रख लिया जाय तो इस प्रकार बारह करोड़ रुपया मासिक का खर्च मन्दिरों के पीछे आता है। इसी प्रकार यदि प्रति मन्दिर पीछे दो कर्मचारियों का औसत रख लिया जाय तो बारह लाख व्यक्तियों का समय एवं श्रम उनमें लगा हुआ है । यह सब मोटा तथा न्यूनतम खर्च ही है। इसके अतिरिक्त यदि मन्दिरों का मूल्य उनकी स्थायी सम्पत्ति एवं स्थिर कोष का हिसाब जोड़ लिया जाये तो यह धनराशि अरबों तक जा पहुँचेगी। किन्तु इस निश्चल धन और जनशक्ति का उपयोग जनसाधारण के लिए क्या होता है? यदि जनता को उठाने, उसे सही मार्ग पर लाने के लिए इस शक्ति का ठीक-ठीक उपयोग किया जाये तो देखते ही देखते समाज का कायाकल्प हो जाये।

समाज की दशा देखते हुए अब मन्दिरों के इस प्रकार प्रमाद में पड़े रहने से काम न चलेगा। उन्हें जनोत्थान एवं सत्य धर्म प्रचार का अपना मुख्य प्रयोजन पूरा करना ही होगा। आवश्यकता है कि मन्दिर अपने यहाँ सत्संगों का नियमित क्रम चलायें। देश की अशिक्षा दूर करने में योगदान देने के लिए बाल एवं प्रौढ़ पाठशालाओं की व्यवस्था के साथ-साथ पुस्तकालयों की भी स्थापना करें। कथा वार्ता और कीर्तन का क्रम तो नित्यप्रति चलना ही चाहिए। परिव्राजक एवं धर्म प्रचारकों को प्रोत्साहित करना और उन्हें सहायता करना भी मंदिरों का काम होना चाहिए। मन्दिर जिस जनता से श्रद्धा तथा धन प्राप्त करते हैं, यदि उसके सुधार की और से उदासीन रहते हैं तो कोई ठीक नहीं कि विवेकवान व्यक्ति मन्दिरों की और से विस्मृत होने लगें।

कभी जो काम मन्दिरों का रहा है और जिसके कारण हिंदू-धर्म संसार में सर्वोच्च समझा जाता रहा है वही काम जब मस्जिदों तथा गिरजाघरों ने अपने अनुयायियों के बीच करना शुरू किया, दोनों धर्म संसार में हिन्दू-धर्म को पीछे कर आगे बढ़ गये। यदि संसार में अपने प्राचीन एवं सर्वोत्तम धर्म, सभ्यता, संस्कृति की रक्षा करनी है, उसे उसके उच्च गौरव पर पहुँचाना और विदेशी पर्यटकों द्वारा भ्रान्त धारणा बनाई जाना रोकना है तो मन्दिरों को अपना वर्तमान विकृत स्वरूप बदलकर पूर्वकालीन स्थिति प्राप्त करनी होगी। नहीं तो हिन्दू-धर्म के अनुयायी अन्ध-विश्वासी, मूढ़ तथा प्रस्तर प्रतिमा को भगवान मानकर पूजने वाले अंधसभ्य ही कहे जाते रहेंगे। संसार उनके सत्य-धर्म तथा मन्दिरों एवं मूर्ति पूजा के सूक्ष्म उद्देश्य को न समझ पायेगा।

डडडड से आत्मा की सेवा करना भूलकर हमने शरीर को ही सब कुछ समझ लिया है। जीवन की वास्तविक आवश्यकता एवं परम लक्ष्य आत्मा की मुक्ति की ओर तो हमारा ध्यान ही नहीं जाता। इन्द्रियों के भोग वासनाओं की तृप्ति तक ही हमने अपने प्रयत्नों को सीमित कर रखा है। जबकि हम जन्म-जन्मान्तरों से इनकी तृप्ति कर सकने में असफल ही रहे हैं और न कितने जन्म-जन्मान्तरों तक सफल हो सकेंगे। क्योंकि मन की विषय वासनाएँ अतृप्तिशीला होने के साथ-साथ मिथ्या-रंजिनी है। इनमें दीखने वाली सुख की छाया को तृप्त करने का प्रयास करना उसी प्रकार बाल-प्रयत्न है, जिस प्रकार आकाश में उड़ते पक्षी की, पृथ्वी पर पड़ती छाया को पकड़ना अथवा झरोखे से आती हुई प्रकाश किरणों को घड़े में भरना। छाया आखिर छाया ही है भ्रम से जीवन भर प्रयत्न करते रहने पर भी उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता। आज हम सब इसी बाल-बुद्धि के कारण सच्चिदानन्द स्वरूप मूल आत्मा को पाने का प्रयत्न न करके अपने बहुमूल्य मानव जीवन को निरर्थक एवं अमूल्यरकेनेष्टह्रक्कंघण यही समझ में बना रहे हैं।

परोपकार एवं लोक कल्याण के लिए शरीर धारण करने वाले ऋषि-मुनियों ने मनुष्य की मूल सत्ता आत्मा की बन्धन-मुक्ति को समझा और चिरंतन उसी आधार पर उसका हल भी निकाल लिया। अपने तप एवं योगबल से जान लिया कि आत्मा परमात्मा एक ही तत्व के स्थानीय दो नाम हैं। परम सत्ता जो अंश, घट में आकाश खण्ड की भाँति शरीर में विद्यमान है वह आत्मा और उसका मुक्त , विभु, विराट एवं अपरम्पार परिसार की संज्ञा से परिपूर्ण है। आत्मा अथवा परमात्मा किसी का भी सान्निध्य अथवा साक्षात्कार आत्मा की मुक्ति का आधार है।

निष्काम भावना के साथ कि हुई उपासना चमत्कार चमत्कार उत्पन्न करती और फलवती होती है। भावना को परमात्मा में पूर्ण आयोजित करके कुछ देर की, की हुई उपासना जीवन पर एक स्थायी प्रभाव डालती है जो कि उत्कृष्ट विचारों, निर्विकार स्वभाव तथा सत्कर्मों के रूप में परिलक्षित होता है। उपासना करता हुआ भी जो व्यक्ति गुण, कर्म स्वभाव एवं मन वचन कर्म से उत्कृष्ट नहीं बना तो यही मानना होगा उसने उपासना की ही नहीं केवल वैसा करने का नाटक किया है।

भजन-पूजन अथवा जाप-कीर्तन करने के समय तक भी मनुष्य अपने पास अपने हृदय अथवा अपनी चेतना में परमात्मा की समीपता, आनन्द एवं उत्साह के रूप में दिन-भर अनुभव होती रह सकती है। उपासना के समय जितनी-जितनी गहराई के साथ अपनी मानसिक भावना को परमात्मा में संयोजित किया जायेगा यह अनुभव उतनी-उतनी ही गहराई से जीवन में उतरता और स्थिर होता जायेगा और एक दिन ऐसा आ जायेगा कि मनुष्य अपने में तथा अपने से बाहर उस परमपिता को हर समय ओत-प्रोत देखने लगे।

ऐसी स्थिति आ जाने पर मनुष्य का आत्मोद्धार निश्चित है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव परमात्मा जैसे पावन प्रभु के सामीप्य के योग्य, उत्कृष्ट एवं पवित्र हो उसे असंदिग्ध विश्वास हो जायेगा कि ‘परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है’ कोई भी प्रच्छत्र अथवा प्रकट स्थान उससे रहित नहीं है। वह अन्तर्यामी और घट-घट को जानने वाला है। परमात्मा की उपस्थिति का विश्वास होने पर प्रथम तो मनुष्य स्वाभाविक रूप से बुरा करेगा ही नहीं और यदि फिर भी धृष्टता पूर्वक ऐसा करता है तो उसे अपने इस जघन्य अपराध का कितना और कैसा यातना पूर्ण दण्ड मिलेगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

उपासना का उद्देश्य केवल इतना ही है कि उसके द्वारा परमात्मा का अधिकाधिक सान्निध्य प्राप्त किया जाये जिससे कि उस परमपिता की वह कृपा पाई जा सके जो हमारी आत्मा की मुक्ति का हेतु बन सके और ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब हमारी उपासना निर्लोभ एवं निष्काम हो और हमारे जीवन की रीति-नीति एवं गतिविधि उपासना के अनुरूप ही महान एवं पावन हो।


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