अपनों से अपनी बात- - परिवार घटने का असमंजस और खेद

October 1966

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बढ़े हुए परिवार को घटाने की हमारी ‘छटनी योजना’ का एक उद्देश्य जहाँ उत्कृष्ट का चुनाव करके महत्वपूर्ण आयोजन के उपयुक्त व्यक्तियों का चुनाव करना है वहाँ दूसरा कारण यह भी है कि हम अपनी अयोग्यता को स्वीकार कर उतने ही दायरे में सीमित हो जायें जितने के कि हम वस्तुतः अधिकारी हैं।

परिवार बनाने और बढ़ाने की प्रक्रिया उत्तरदायित्वों से भरी हुई है। कोई व्यक्ति अपना कुटुम्ब बढ़ाता जाय पर उसे सुयोग्य, सुशिक्षित, सुसंस्कृत न बना सके तो उसका यह निर्माण कार्य अनुचित माना जायगा। इसी दृष्टि से आज परिवार नियोजन आन्दोलन चल रहा है। अब यह अनुमान किया जा रहा है कि सन्तान उतनी ही बढ़ाई जाये जिनकी सुव्यवस्था कर सकने के अपने साधन हों। संख्या बढ़ाने की अपेक्षा उत्कृष्टता का स्तर बढ़ाने की बात दूरदर्शितापूर्ण भी है और विवेकसंगत भी।

व्यक्तिगत रूप से हम एक विशुद्ध साधक हैं। जीवन साधना के द्वारा अपना ही नहीं दूसरों का भी कल्याण किया जा सकता है इस तथ्य पर हमारा अटूट विश्वास है। जीवन का अधिकाँश भाग हमने इसी प्रयोग परीक्षण में लगाया भी है। इस अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया से भिन्न प्रकार का कार्य—परिवार का निर्माण—हमें हमारे मार्ग दर्शक ने इस उद्देश्य से सौंपा था कि जिन व्यक्तियों से संपर्क बने उनका आन्तरिक स्तर इतना उठाने का प्रयत्न किया जाय कि वे अपने निज के जीवन में सफल समृद्ध और सामाजिक जीवन में नव निर्माण के प्रकाश स्तम्भ सिद्ध हो सकें। अपनी तुच्छ सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार वह कार्य हमने आरम्भ किया और गत 16 वर्षों में उसने असाधारण रूप से विस्तार भी पाया। 24 लाख सदस्यों वाला गायत्री परिवार अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी। इतना बड़ा संगठन एक व्यक्ति ने किया हो इसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिलती । इतने व्यक्तियों को गायत्री उपासना में लगाया गया उनमें से सभी 1 माला प्रतिदिन और अनेक अधिक संख्या में जप करने लगे। मथुरा में सम्पन्न हुए सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ के अतिरिक्त 23 हजार कुण्डों के गायत्री यज्ञ देश भर में कराए गए थे। उसमें बहुत जन-शक्ति और धन-शक्ति लगनी थी। वह भी इन सदस्यों ने जुटायी। दस हजार शाखाओं में वह संगठन संगठित भी हो गया और साप्ताहिक हवन सत्संग आदि के छोटे-छोटे कार्य उन्हें सौंपे गए थे वे भी होने लगे। यह बहिरंग प्रक्रिया सम्पन्न हुई। इसके पीछे अतिरिक्त उद्देश्य यह छुपा हुआ था कि सदस्यगण हमारी नव निर्माण की युग परिवर्तन की विचार धारा के संपर्क में आवें, उसे समझें और कार्यान्वित करें ताकि इस संगठन के मूल में सन्निहित उद्देश्य पूरा होने की व्यवस्था बने। पर वैसा हो न सका। गायत्री परिवार के सदस्य कुछ मालायें घुमाने के बाद बड़ी-बड़ी सिद्ध सिद्धियाँ पाने की बात सोचने लगे और हमारे विचारों का महत्व समझने के स्थान पर आशीर्वाद पाने के लिये चक्कर काटने लगे।

आपत्तिग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करना भी धर्म है। फिर जिसने कोई कुटुम्ब बनाया हो उस कुलपति का उत्तरदायित्व तो और भी अधिक है। गायत्री परिवार के परिजनों की भौतिक एवं आत्मिक कठिनाइयों के समाधान में हम अपनी तुच्छ सामर्थ्य का पुरा-पुरा उपयोग करते रहे। कहने वालों का कहना है कि इससे लाखों व्यक्तियों को असाधारण लाभ पहुँचा होगा।—पर हमें उससे कुछ अधिक सन्तोष नहीं हुआ। हम चाहते थे कि वह माला जपने वाले लोग—हमारे शरीर से नहीं विचारों से प्रेम करें। स्वाध्यायशील बनें, मनन-चिन्तन करें, अपने भावनात्मक स्तर को ऊँचा उठावें और उत्कृष्ट मानव निर्माण करके भारतीय समाज को देव समाज के रूप में परिणत करने के हमारे उद्देश्य को पूरा करें। पर वैसा न हो सका। अधिकाँश लोग चमत्कारवादी निकले। वे न तो आत्मनिर्माण पर विश्वास कर सके और न लोकनिर्माण में। आध्यात्मिक व्यक्तियों का जो उत्तरदायित्व होता है उसे अनुभव न कर सके। हम हर परिजन से बार-बार, हर बार अपना प्रयोजन कहते रहे, पर उसे बहुत कम लोगों ने सुना समझा। मन्त्र का जादू देखने के लिये वे लालायित रहे, हम उनमें से काम के आदमी देखते रहे। इस खींचतान को बहुत दिन देख लिया तो हमें निराशा भी उपजी और झल्लाहट भी हुई। मनोकामना पूर्ण करने का जंजाल अपने या गायत्री माता के गले बाँधना हमारा उद्देश्य कदापि न था। उपासना की वैज्ञानिक विधि व्यवस्था अपनाकर आत्मोन्नति के पथ पर क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ते चला जाना यही हमें अपने स्वजन परिजनों से आशा थी, पर वे उस कठिन दीखने वाले काम को झंझट समझ कर कतराते रहे। ऐसे लोगों से हमारा क्या प्रयोजन पूरा होता?

बहुत दिन विचार करने के बाद यह सोचा कि जो अपने मूल मन्तव्य को सुनने-समझने तक के लिए तैयार नहीं हैं, केवल मन्त्र शक्ति का चमत्कार बिना उसका उचित मुख्य चुकाये देखने को आतुर हैं, इन पर शक्ति का अपव्यय न करके इस विशाल संसार में से उन लोगों को ढूँढ़ा जाय जो विचार, भावना, आदर्श और उद्देश्य का मूल्य महत्व समझते हों, अखण्ड ज्योति में व्यक्त हमारे विचारों के प्रति अभिरुचि एवं आस्था रखते हों। इस कसौटी पर 40 हजार व्यक्ति खरे उतरे। उन्होंने शरीर के प्रति आदर अभिवादन व्यक्त करने की अपेक्षा हमारे विचारों की शक्ति, उपयोगिता एवं आवश्यकता को समझा। 24 लाख की तुलना में 40 हजार की संख्या बहुत छोटी है। फिर भी यह सन्तोष किया गया कि जो आज हमारे विचारों के प्रति आस्था रखता है, आगे चलकर वह हमारी बताई हुई कार्य पद्धति को अपना लेगा। बहुत करके ऐसा हुआ भी है। अखण्ड-ज्योति की प्रखर प्रेरणा ने करोड़ों नहीं तो लाखों मनुष्यों की जीवन दिशा में आशाजनक मोड़ दिया है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।

किन्तु इस प्रकार का कुछ-कुछ सुधार अपने व्यक्तिगत जीवन में कर लेने से हमारा वह प्रयोजन पूरा न हो पा रहा था जो हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने हमको सौंपा है। युग परिवर्तन के लिए—देश, धर्म, समाज और संस्कृति का पुनरुत्थान करने के लिए लोगों की सक्रियता, सेवा भावना और परमार्थ वृत्ति की नितान्त आवश्यकता है। यह तत्त्व जिनके अन्दर विकसित न हो सके वे अपने व्यक्तिगत जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख-सुविधा ‘अखण्ड ज्योति’ की विचारधारा के प्रभाव में भले ही उपलब्ध कर लें, वह लक्ष्य तो पूरा करने में सहायक नहीं हो सकेंगे, जिसके लिए हम जीवित और कार्य संलग्न हैं। यदि भावनात्मक नव निर्माण का प्रयोजन हमारे सामने न होता—हमारे कंधों पर वह उत्तरदायित्व न आया होता— तो आज हमें इस प्रकार की न तो चिन्ता करनी पड़ती और न उखाड़-पछाड़। अपनी स्वाभाविक और सहज प्रवृत्ति के अनुरूप हम कहीं ब्राह्मणोचित तपश्चरण कर रहे होते और उससे उत्पन्न आत्मिक शक्ति से भी समाज को लाभान्वित कर रहे होते। पर किया क्या जाय, विवशता हमारे सामने भी है। लोकमान्य तिलक एक अच्छे कीर्तनकार बनना चाहते थे पर किसी अज्ञात शक्ति ने उन्हें राजनीति में ला पटका। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ है। मूल प्रवृत्ति से भिन्न प्रकार के—संगठन और निर्माण कार्य में—किसी शक्ति ने हमें जोत दिया तो अब भगोड़े सैनिक की तरह अपने कर्तव्य से इन्कार भी नहीं कर सकते।

हमारी जन संपर्क कार्य पद्धति का अन्त अति निकट है। केवल पाँच वर्ष ही संगठनात्मक और रचनात्मक क्रिया अपनाते रहने का अवसर है। यह समय बहुत ही स्वल्प है। पाँच वर्ष एक-एक करके बात की बात में समाप्त हो जाते हैं। इस थोड़ी-सी अवधि में कुछ अधिक ऊँचे स्तर के साथी ढूँढ़ने हैं जिनके हाथों में उस मशाल को सौंपा जा सके जो आज हमारे हाथ में है। इसके लिए अधिक मजबूत, अधिक साहसी और अधिक सच्चे आदमी चाहिये। अखण्ड ज्योति परिवार पर जब नजर डालते हैं तो उनमें से अधिक ‘पढ़ाकू’ लोग दीखते हैं। पढ़ना भी एक व्यसन है। अच्छी वस्तुयें पढ़ने को अच्छा व्यसन कहा जा सकता है। ऐसे विद्या व्यसनी लोग अभी हमारा साहित्य रुचि से पढ़ते हैं, पीछे अपनी रुचि की चीजें कहीं अन्यत्र से प्राप्त कर लेंगे। उनकी गाड़ी तो चलती रहेगी पर हमारी गाड़ी रुक जायगी। जो उच्च विचारों को पढ़ते तो हैं पर उन्हें गले से नीचे नहीं उतारते, उन्हें व्यवहारिक जीवन में स्थान नहीं देना चाहते, ऐसे लोगों से कोई बड़ी आशा किस प्रकार की जाय? हमें कर्मठ और प्रबुद्ध साथी चाहिए ऐसे जो युग निर्माण की भूमिका प्रस्तुत करने के लिए, अपने तुच्छ स्वार्थों की उपेक्षा, अवहेलना कर सकें, जो निजी समस्याओं में उलझे रहकर ही जिन्दगी व्यतीत कर डालने की व्यर्थता और भारतीय आदर्शों के लिए कुछ त्याग और बलिदान की साध अपने भीतर सँजो सकें।

वर्तमान ‘छटनी कार्यक्रम’ इसी प्रयोजन के लिये है। गायत्री परिवार के 24 लाख सदस्यों से जब यह कहा गया था कि हमारे विचारों को भी पढ़े-समझें तो उनमें से केवल 40 हजार रह गए ओर शेष भाग खड़े हुए। अब 40 हजार से यह कहा जा रहा है कि वे अपने निजी आवश्यकताओं में से युग निर्माण को भी एक छोटे कार्यक्रम के रूप में सम्मिलित कर लें और उसके लिए भी कुछ समय-पैसे खर्च करते रहें। बात बहुत छोटी और नगण्य सी है। उतनी ही सरल जितनी गायत्री परिवार के लोगों के लिये यह सरल था कि वे अखण्ड-ज्योति पढ़ा करें। पर अपना मन ही तो है—मन में जो बात न जमे उसके लिए हजार बहाने बन जाते हैं। किसी की आर्थिक स्थिति खराब हो गई तो किसी को फुरसत न मिली, यह झूँठे और बेबुनियाद बहाने हैं। इस महंगाई के जमाने में जो व्यक्ति रोटी खाता और कपड़े पहनता है तो उसी में से कोई बचत कर अखण्ड-ज्योति मंगाई जा सकती है और दस-बीस मिनट रोज पढ़ा जाय तो एक महीने में उसके सब लेख पढ़े जा सकते हैं। भला ऐसा भी कोई अभावग्रस्त हो सकता है जो इतना न कर पाये। बात तुच्छ सी थी पर जिन्हें भागना था—भाग खड़े हुए। और 24 लाख में 40 हजार रह गए। अब कुछ और 36 हजार का भाग खड़े होना सम्भव है। नव निर्माण की विचार-धारा को अपने निजी परिवार तथा मित्र सम्बन्धियों को पढ़ने-सुनाने की धारणा देने में एक घण्टा समय लगा देना क्या कोई बड़ी बात है? उनका स्वभाव बदले तो क्या अपने लिए कुछ कम लाभ होगा? फिर भी ऐसे लोग हो सकते हैं जो ऐसे उपयोगी एवं आवश्यक कार्य के लिए फुरसत न मिलने का बहाना करें। इसी प्रकार डेड़ छटाँक अन्न प्रतिदिन खर्च करके अपने घर में एक उत्कृष्ट स्तर का ज्ञान मन्दिर—नव निर्माण पुस्तकालय—स्थापित करके भावी पीढ़ियों तक के लिए अमूल्य निधि छोड़ जाने वाली बात क्या इतनी अशक्य है जिसे निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी वहन न कर सके। बात राई रत्ती जैसी है, पर जिनकी आस्था दुर्बल है, उनके लिए तिल भर बोझ भी पर्वत जैसा भारी पड़ेगा। ऐसे लोगों से किस प्रकार आशा करें कि वे हमारे प्रयोजन में दो-चार कदम चलने का साथ देंगे जो हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। व्यक्ति और समाज की उत्कृष्टता—साँस्कृतिक एवं भौतिक पुनरुत्थान-भावनात्मक नव निर्माण आज के युग की महानतम माँग है। प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए इन उत्तरदायित्वों से विमुख होना या इनकार कर सकना अशक्य है। हमें स्वयं इसी दिशा में जिस सत्ता ने बलपूर्वक लगाया है, वह अन्यान्य भावनाशील लोगों के अन्तःकरण में भी वैसी ही प्रेरणा कर रही है और वे सच्चे आध्यात्मिक व्यक्तियों की तरह इसके लिए कटिबद्ध हो रहे हैं। पर जिन्हें यह सब कुछ व्यर्थ दीखता है, जिन्हें इतने महत्वपूर्ण कार्य में कोई आकर्षण, कोई उत्साह, कोई साहस उत्पन्न नहीं हो रहा है, उनके सम्बन्ध में हमें निराशा हो सकती है।

अपनी तपश्चरण और ईमानदारी में कहीं कोई कमी ही होगी जिसके कारण जिन व्यक्तियों के साथ पिछले ढेरों वर्षों से सम्बन्ध बनाया, उनमें कोई आध्यात्मिक साहस उत्पन्न न हो सका। वह भजन किस काम का, जिसके फलस्वरूप आत्मनिर्माण एवं परमार्थ के लिए उत्साह उत्पन्न न हो । किन्हीं को हमने भजन में लगा भी दिया है पर उनमें भजन का प्रभाव बताने वाले उपरोक्त दो लक्षण उत्पन्न न हुए हों तो हम कैसे माने कि उन्हें सार्थक भजन करने की प्रक्रिया समझाई जा सकी? हमारा परिवार संगठन तभी सफल कहा जा सकता था जब उसमें ये सम्मिलित व्यक्ति उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की कसौटी पर खरे सिद्ध होते चलते। अन्यथा संख्या वृद्धि की विडम्बना से झूँठा मन बहलाव करने से क्या कुछ बनेगा?

समय और धन खर्च करने की एक बहुत ही छोटी—नगण्य सी शर्त—अभी हमने अखण्ड-ज्योति परिजनों के सामने रखी है—दस नया पैसा और एक घण्टा समय का अनुदान—सो भी अपने निजी संबंधियों के लिए, किसी को क्यों भार लगना चाहिये, खास तौर से तब जबकि उसका पूरा-पूरा लाभ अपने परिवार और मित्रों के लिए ही मिलने वाला है। यह शर्तें किसी भावनाशील व्यक्ति को भारी नहीं हो सकतीं यह सोच कर युग निर्माण परिवार में ऐसे ही लोग लिए जा रहे हैं जो अपनी निष्ठा का कम से कम इतना तो परिचय दे सकें।

एक बार हमने अपने को असफल तब माना था जब 24 लाख में से 40 हजार रह गए थे और अब भी लगभग वैसी हो मनोदशा जाग्रत चल रही है जबकि 40 हजार में से केवल 4 हजार की आशा रह गई है। इसमें दोष किन्हीं दूसरों का नहीं, यह हमारी तपश्चरण की कमी का ही परिणाम है। जो अन्त तक साथ बने रहेंगे उन 4 हजार के बारे में यही समझना चाहिये कि उनकी संचित मनोभूमि की उत्कृष्टता इसका कारण थी, अथवा कुछ प्रेरक मित्रों ने अपना कुछ विशेष आग्रह व्यक्त करने के लिए उनके अन्तः करण में भी ऐसी प्रेरणा भर दी कि वे भी हमारी ही तरह ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति में त्रेता के रीछ-वानरों की तरह और द्वापर के गोप-ग्वालों की तरह सार्थक जीवन की एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकें।

छटनी योजना में अपने परिवार को छोटा होते देख कर हमें दुःख है, पर वह किसी दूसरे पर दोषारोपण करते हुए नहीं, केवल अपनी दुर्बलता पर ही क्षोभ है जिसके कारण जीवन के 27 वर्ष संगठनात्मक कार्य में लगाने के उपरान्त लाखों से संपर्क बनाने और करोड़ों का द्वार खटखटाने के उपराँत केवल 4000 ऐसे व्यक्ति हाथ लगे, जिन पर हमारी और इस पिछड़े युग की अन्तरात्मा आशाभरी दृष्टि से देखते हुए, संतोष की एक हलकी सी साँस ले सकती है।


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