समाज में फैली हुई अन्धता, मूढ़ता तथा कुरीतियों का कारण अज्ञान है। अज्ञान में अन्धकार जैसा ही दोष होता है। अन्धकार में भ्रम होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार अँधेरे में वस्तु स्थिति का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता, आस-पास रखी हुई चीज का स्वरूप यथावत दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार अज्ञान के दोष से स्थिति, विषय का ठीक आभास नहीं होता। वस्तु स्थिति के ठीक न होने के अभाव में कुछ-का-कुछ सूझने और होने लगता है विचार और उनसे प्रेरित कार्य के गलत हो जाने पर विपत्ति, संकट अथवा भ्रम में पड़कर अपनी जान जोखिम कर लेना स्वाभाविक ही है।
अन्धकार के समान अज्ञान में भी अनजान भय लगा रहता है। रात के अन्धकार में रास्ता चलने वालों को डाकू, भूत-प्रेत आदि से दिखाई देने लगते हैं। अन्धकार में भी जो चीज दिखाई देगी वह शंका जनक ही होगी, उत्साहजनक नहीं। घर में रात के समय पेशाब शौच आदि के लिये आने-जाने वाले अपने मात-पिता बेटे-बेटियाँ तक अन्धकाराच्छन्न होने के कारण चोर, भूत, चुड़ैल जैसे भान होने लगते हैं ओर कई बार तो लोग उनको पहचान न सकने के कारण टोक उठते हैं तो भय से चीख मार बैठते हैं। यद्यपि उनके वे स्वजन आगे चलने पर न भूत-चुड़ैल अथवा चोर-डाकू निकले और पहचान से पूर्व ही थे किन्तु अन्धकार के दोष से वे भय एवं शंका के विषय बनें। भय का निवास वास्तव में न तो अन्धकार में होता है और न वस्तु में, उसका डडडड होता है उस अज्ञान में जो अंधेरे के कारण वस्तु-स्थिति का ज्ञान नहीं होने देता।
ज्ञान के अभाव में जन-साधारण भ्राँतिपूर्ण एवं निराधार बातों को उसी प्रकार समझ लेता है जिस प्रकार हिरन मरु-मरीचिका में जल विश्वास कर लेता है और निरर्थक ही उसके पीछे दौड़-दौड़कर जान तक गंवा देता है। अज्ञान का परिणाम बड़ा ही अनर्थकारी होता है। अज्ञान के कारण ही समाज में अनेकों अन्धविश्वास फैल जाते हैं। स्वार्थी लोग किसी अन्ध-परम्परा को चलाकर जनता में यह भय उत्पन्न कर देते हैं कि यदि वे उक्त परम्परा अथवा प्रथा को नहीं मानेंगे तो उन्हें पाप लगेगा जिसके फलस्वरूप उन्हें लोक में अनर्थ और परलोक में दुर्गति का भागी बनना पड़ेगा। अज्ञानी लोग ‘भय से प्रीति’ होने के सिद्धान्तानुसार उक्त प्रथा-परम्परा में विश्वास एवं आस्था करने लगते हैं और तब उसकी हानि देखते हुए भी अज्ञान एवं आशंका के कारण उसे छोड़ने को तैयार नहीं होते। मनुष्य आँखों देखी हानि अथवा संकट से उतना नहीं डरते जितना कि अनागत आशंका से। अज्ञानजन्य भ्रम जंजाल में फंसे हुए मनुष्य का दीन-दुःखी रहना स्वाभाविक ही है।
यही कारण है कि ऋषियों ने “तमसो मा ज्योति र्गमय” का सन्देश देते हुए मनुष्यों को अज्ञान की यातना से निकलने के लिये ज्ञान-प्राप्ति का पुरुषार्थ करने के लिये कहा है। भारत का अध्यात्म-दर्शन ज्ञान-प्राप्ति के उपायों का प्रतिपादक है। अज्ञानी व्यक्ति को शास्त्रकारों ने अंधे की उपमा दी है। जिस प्रकार बाह्य-नेत्रों के नष्ट हो जाने से मनुष्य भौतिक जगत का स्वरूप जानने में असमर्थ रहता है उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में बौद्धिक अथवा विचार-जगत की निर्भरता की जानकारी नहीं हो पाती। बाह्य-जगत के समान मनुष्य का एक आत्मिक जगत भी है, जो कि ज्ञान के अभाव में वैसे ही अँधेरा रहता है जैसे आँखों के अभाव में यह संसार।
अन्धकार से प्रकाश और अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने में मनुष्य का प्रमुख पुरुषार्थ माना गया है। जिस प्रकार आलस्यवश दीपक न जलाकर अन्धकार में पड़े रहने वाले व्यक्ति को मूर्ख कहा जायेगा उसी प्रकार प्रमादवश अज्ञान दूर कर ज्ञान न पाने के लिये प्रयत्न न करने वाले को भी मूर्ख ही कहा जायेगा। भारतवर्ष की महिमामयी संस्कृति अपने अनुयायियों को विवेकशील बनने का सन्देश देती है मूढ़ अथवा अन्धविश्वासी नहीं।
ज्ञानवान् अथवा विवेकशील बनने के लिए मनुष्य को अपने मन-मस्तिष्क को साफ-सुथरा बनाना होगा, उनका परिष्कार करना होगा। जिस खेत में कंकड़, पत्थर तथा खर-पतवार भरा होगा उसमें अन्न के दाने कभी भी खेत से झाड़-झंखाड़ और कूड़ा-करकट साफ करके दाने बोये जायेंगे। उसी प्रकार मनुष्य में ज्ञान के बीज तब तक जड़ नहीं पकड़ सकते जब तक कि मानसिक एवं नैतिक धरातल उपयुक्त न बना लिया जायेगा।
हमारे मन-मस्तिष्कों में इसी जन्म की ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों की विकृतियाँ भरी रहती हैं। न जाने कितने कुविचार, कुवृत्तियाँ एवं मूढ़ मान्यतायें हमारे मन-मस्तिष्क को घेरे रहती हैं। ज्ञान पाने अथवा विवेक जाग्रत करने के लिये आवश्यक है कि पहले हम अपने विचारों एवं संस्कारों को परिष्कृत करें। विचार एवं संस्कार परिष्करण के अभाव में ज्ञान के लिये की हुई साधना निष्फल ही चली जायेगी।
विचार-परिष्कार का अमोघ उपाय अध्ययन एवं सत्संग को ही बतलाया गया है। विचारों में संक्रमण एवं ग्रहणशीलता रहती है। जब मनुष्य अध्ययन में निरन्तर संलग्न रहता है तब उसको अपने विचारों द्वारा विद्वानों के विचारों के बीच से बार-बार गुजरना पड़ता है। पुस्तक में लिखें विचार अविचल एवं स्थिर होते हैं। उनके प्रभावित होने अथवा बदलने का प्रश्न ही नहीं उठता। स्वाभाविक है कि अध्ययन कर्त्ता के ही विचार, प्रभाव ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार के विचारों की पुस्तक पढ़ी जायेगी अध्येता के विचार उसी प्रकार ढलने लगेंगे। इसलिये अध्ययन के साथ यह प्रतिबन्ध भी लगा दिया गया है कि अध्येता उन्हीं ग्रन्थों का अध्ययन करें जो प्रामाणिक एवं सुलझे हुए विचारों वाले हों। विचार-परिष्कार अथवा ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से पढ़ने वालों को एकमात्र जीवन एवं निर्माण सम्बन्धी साहित्य का ही अध्ययन करना चाहिये। उन्हें निठल्ले एवं निकम्मे लोगों की तरह निम्न मनोरथ वाले उपन्यास, कहानी, नाटक तथा कविता आदि नहीं पढ़ना चाहिए। अश्लील, अनैतिक, वासनापूर्ण अथवा जासूसी आदि से भरे उपन्यास पढ़ने से लाभ तो कुछ नहीं ही होना है उल्टे बहुत अधिक हानि ही होगी। अयुक्त साहित्य पढ़ने से विचारों की वह थोड़ी-बहुत उदात्तता भी चली जायेगी, जो उनमें रही होगी। अध्ययन का तात्पर्य सत्यं, शिवं एवं सुन्दरं साहित्य पढ़ने से है। सद्विचारों तथा सदुद्देश्य से पूर्ण साहित्य ही पढ़ने योग्य होता है। वेद, शास्त्र, गीता, उपनिषद् आध्यात्मिक एवं धार्मिक साहित्य ही ऐसा साहित्य हो सकता है जो अध्ययन के प्रयोजन को पूरा कर सकता है। इसके विपरीत अनुपयुक्त एवं अवाँछनीय साहित्य का पठन-पाठन विचारों को इस सीमा तक दूषित कर देगा कि फिर उनका पूर्ण परिष्कार एक समस्या बन जायेगा। आत्मोद्धारक ज्ञान प्राप्त करने के जिज्ञासु व्यक्तियों को तो सत्साहित्य के सिवाय अवाँछनीय साहित्य को हाथ भी न लगाना चाहिए। सच्ची बात तो यह है कि अमुक अवाँछनीय एवं निम्न मनोरंजनार्थ किये गये ‘लिपि-लेखन’ को साहित्य कहा ही नहीं जाना चाहिये। यह तो साहित्य के नाम पर लिखा गया कूड़ा-करकट होता है, जिसे समाज के हित-अहित से मतलब न रखने वाले कुछ स्वार्थी लेखक उसी प्रकार लिखकर पैसा कमाते हैं जिस प्रकार कोई भ्रष्टाचारी खाने-पीने की चीजों में अवाँछनीय चीजें मिलाकर लाभ कमाते हैं। व्यावसायिक भ्रष्टाचारी जहाँ राष्ट्र का शारीरिक स्वास्थ्य नष्ट करते हैं वहाँ अशिव लेखक राष्ट्र का मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक स्वास्थ्य नष्ट करते हैं। मनुष्य की चारित्रिक अथवा आध्यात्मिक क्षति शारीरिक क्षति की अपेक्षा कहीं अधिक भयंकर एवं असहनीय होती है।
सत्संग से भी उसी उद्देश्य की पूर्ति होती है जो अध्ययन से। विद्वान् एवं सन्तजनों से प्रत्यक्ष संपर्क में आने से उनको सुनने तथा समझने एवं अनुकरण करने का अवसर मिलता है जिससे विचार-परिष्कार की प्रक्रिया और शीघ्र प्रारम्भ हो जाती है। किन्तु आज के समय में प्रामाणिक एवं श्रेष्ठ सन्त-पुरुषों का अभाव ही दीखता है। ऐसे महामानव मिलना सहज नहीं, जिनके विचार तेजस्वी एवं सार्थक हों, जिनका व्यक्तित्व निष्कलंक और आचरण आदर्शपूर्ण हो। हाँ, बकने-झकने और प्रवचन करने वाले विद्वान् जगह-जगह मिल जायेंगे जिनके कथन में न तो कोई सत्य सार होगा और जो बिना सिर-पैर के उपदेशों से जनता को पथ-भ्रान्त करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। ऐसे तथाकथित सन्तों के समागम से तो लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक हो सकती है।
कहीं किन्हीं दूर प्रदेशों में कोई सच्चे सन्तजन रहते भी हों जो सद्ज्ञान एवं जीवन-निर्माण की सही शिक्षा दे सकते हों—तो सबका जल्दी-जल्दी उनके पास पहुँच सकना सम्भव नहीं। आज के व्यस्त एवं विपन्न जीवन में इतना धन एवं समय किसके पास हो सकता है जो दूरस्थ महापुरुषों के पास जाकर काफी समय तक रह सकें और सत्संग का लाभ उठा सके। साथ ही सच्चे सत्पुरुषों के पास स्वयं भी तो इतना समय नहीं होता कि वे आत्मकल्याण की साधना को सर्वथा त्यागकर आगन्तुकों को पूरा समय दे सकें। इस प्रकार साक्षात सत्संग की सम्भावनायें एवं अवसर आज नहीं के बराबर ही रह गये हैं।
मनुष्य के लिये विचार-परिष्कार एवं ज्ञानोपार्जन के लिए यदि कोई मार्ग रह जाता है तो वह अध्ययन ही है। पुस्तकों के माध्यम से किसी भी सत्पुरुष, विद्वान् अथवा महापुरुष के विचारों के संपर्क में आया और लाभ उठाया जा सकता है। सत्संग का तात्पर्य वस्तुतः विचार-संपर्क है जो उसकी पुस्तकों से सहज ही प्राप्त किया जा सकता है।
जीवन का अन्धकार दूर करना और प्रकाशपूर्ण स्थिति पाकर निर्द्वन्द्व एवं निर्भर रहना यदि वाँछित है तो समयानुसार अध्ययन में निमग्न रहना भी नितान्त आवश्यक है। अध्ययन के बिना विचार-परिष्कार नहीं, विचार-परिष्कार के बिना विवेक और विवेक के बिना ज्ञान नहीं। जहाँ ज्ञान नहीं वहाँ अन्धकार होना स्वाभाविक ही है और अँधेरा जीवन शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार के भयों को उत्पन्न करने वाला है जिससे अज्ञानी न केवल इस जन्म में ही बल्कि जन्म-जन्मान्तरों तक, जब तक कि वह ज्ञान का आलोक नहीं पा लेता त्रिविधि तापों की यातना सहता रहेगा। जीवनोद्धार के उपायों में अध्ययन का उपाय सबसे श्रेष्ठ, सरल, सुगम एवं सुलभ है। आत्मवान् व्यक्ति को इसे ग्रहण कर भौतिक अज्ञान-यातना से मुक्त होना ही चाहिये।