मृत्यु का सदा स्मरण रखें ताकि उससे डरना न पड़े

October 1966

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मृत्यु के विषय में निश्चिन्त सभी होते हैं किन्तु निश्चिंत कदाचित कोई-कोई ही होते हैं। वैसे मृत्यु की चिन्ता सभी होते को होती है।

मृत्यु की चिन्ता न करने वालों में वे ही बोध वान सत्पुरुष होते हैं जो उसके सम्मुख होने की तैयारी करते रहते हैं। इस अनायास आने वाली घटना का स्मरण रखने वाले व्यक्ति अपने जीवन का एक क्षण भी बरबाद नहीं करते। अपने जीवन के प्रत्येक कर्तव्य को तत्परता से पूरा करने में लगे हुए, इस बात का प्रयत्न किया करते हैं कि वे मृत्यु आने से पूर्व ही अपने सारे कर्तव्य का उत्तरदायित्व आपूर्ति की दशा में दबाव न डाल सके।

जिस प्रकार कर्तव्य परायण व्यक्ति जीवन में असत्कर्मों से बचा रहता है, उसी प्रकार कर्तव्यहीन व्यक्ति असत्कर्मों में ही लगा रहता है। असत्कर्मों द्वारा पाप का परिचय करते रहने वाले व्यक्ति का मृत्यु से भयभीत होना स्वाभाविक ही है। वह जानता है कि जिस समय मृत्यु कर उपस्थित होगी उस समय जीवन भर किये पापों के सर्वत्र सामने आ जायेंगे जिससे पश्चाताप की भयानक अग्नि में जलना होगा। एक असहनीय यंत्रणा के बीच शरीर का अन्त होगा। तब ऐसा कोई अवकाश शेष न रह जायेगा जिसमें उन असत्कर्मों का ताप सत्कर्मों से कम किया जा सके। यंत्रणा के बीच गर्हित अन्त होने से शरीरोपरान्त प्राप्त होने वाली गति भी गर्हित होगी, जिसे पता नहीं कितने युगों तक भोगना पड़े। इस भयानक सम्भावना से कर्तव्यवान का भयभीत होना स्वाभाविक ही है।

मनुष्य जीवन का एक-एक क्षण अमूल्य है। यह धर्म, अर्थ, काम-मोक्ष आदि पुरुषार्थों को प्राप्त कर लेने का सुअवसर है। केवल मनुष्य शरीर ही ऐसा साधन है जिससे भगवत् प्राप्ति का उपाय किया जा सकता है। अन्य सारी योनियाँ भोग योनियाँ है। उनमें भगवत्-प्राप्ति का उपाय नहीं किया जा सकता । इसको प्रमादवश नाना प्रकार के नरक दायक भोगों में नष्ट कर देना बहुत बड़ी हानि है।

जीवन-काल में जिन कार्यों, संस्कारों तथा वृत्तियों को अभ्यास द्वारा प्रमुख बनाया जाता है वही मृत्यु के समय चलचित्र की तरह मनुष्य के सम्मुख चक्कर लगाया करते हैं। उस समय मनुष्य उस स्मरण की भीड़भाड़ में अपने सत्कर्मों को ढूंढ़ने का प्रयत्न किया करता है। यदि उसने सुकृत किये रहे होते हैं तो वे उसके स्मृति-पटल पर आकर मित्र की तरह उसे सहारा दिया करते हैं। जिससे अनन्त पथ के यात्री को बड़ी सान्त्वना मिलती है और वह सुख शान्तिपूर्वक शरीर त्यागकर सदाचार के अनुसार सुन्दर लोक की प्राप्ति करता है।

इसके विपरीत जीवन के खाते में जिसने सत्कर्मों का संचय किया ही नहीं बड़े चाव से असत्कर्मों में ही लगा रहा है, खीजने पर उस असहाय काल में कोई सहारा किस प्रकार मिल सकता है? उसे अपने चारों ओर अपने असत्कर्म ही प्रेत-पिशाचों की तरह विकराल रूप रखकर नाचते और अट्टहास करते हुए दिखाई देंगे। उसे ऐसा लगेगा मानों उसके असत्कर्म उसे पर व्यंग करते हुए कह रहे हैं—”मूर्ख मनुष्य तूने हमको सुखदायी समझकर जो जीवन भर पाला है अपनी उस मूर्खता का परिणाम देख ले और युग-युगान्तरों के लिए जाकर नरक की यातना भोग।” निःसन्देह असत्कर्मों के लिए वह याम कितना भयानक रहा होता है। इसलिए सावधान पुरुष अपने जीवन के खाते में सत्कर्मों का ही संचय करने का प्रयास किया करते हैं जिससे अन्तिम काल में उन्हें भय-यातना से मुक्ति मिली रहे।

मृत्यु के भय से बचने का एक सीधा सरल-सा उपाय है, सत्कर्मों का संचय करना। शास्त्रोक्त एवं लोकोक्त अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना ही सुकृत्य माने गये हैं। इनका ज्ञान मनुष्य को सहज ही हो जाता है। किसी को दुःख न देकर यथा सम्भव सुख देना संसार के सभी सत्कर्मों का मूलाधार है। इसका अभ्यास करते रहने से जीवन के खाते में सत्कर्मों की पूँजी इकट्ठी होती रहती है जो कि कठिन काल में एक विशाल सम्बल बनकर मनुष्य को निस्तार किया करती है।

सामान्यतः सुख समझकर जो अबोध व्यक्ति भोग परायण बने रहते हैं वे बड़ी भूल करते हैं। मनुष्य जीवन की विशेषता है भगवद्चिन्तन परायण रहना। भोगों के चिन्तन अथवा प्राप्त करने के उपायों में लगा हुआ मनुष्य अपनी वृत्तियों को दूषित कर देता है, संस्कार बिगाड़ लेता है जिससे उसका चित्त सत्कर्म परायण न रहकर भोगों में ही निरत रहता है वह शरीर से मनुष्य होता हुआ भी गुण, कर्म, स्वभाव से पशु ही होता है। मनुष्य की भोगपरक पशु प्रवृत्तियाँ उसके पतन एवं विनाश का कारण बनती हैं। भोग प्रवृत्तियों के पोषण से मनुष्य मृत्यु के उपरान्त निकृष्ट योनियों में भ्रमण करता हुआ नारकीय यातना पाया करता है। जिस पुण्य पूंजी से वह मनुष्य शरीर का अधिकारी बना होता है वह नष्ट हो जाती है फलतः वह निकृष्ट गतियों में जा गिरता है। मनुष्येत्तर योनियों के जीव कर्म के अधिकारी नहीं होते। उन्हें हठात् उन योनियों का भोग करना पड़ता है। कर्म का अधिकारी न होने से उसे किसी प्रकार का कर्म दोष लगने का प्रश्न ही नहीं उठता । अस्तु वह स्वभावतः एक योनि से दूसरी योनि में जाता हुआ चौरासी लाख चक्करों को पार करता हुआ अन्त में मनुष्य योनि के उस अन्तिम अवसर में आ पाता है जिसमें वह कर्मों का अधिकारी होकर अपनी मुक्ति का प्रयास कर सकता है। इसी सुविधा के कारण वह अन्य पशु-पक्षियों की तरह कर्मफल से मुक्त नहीं होता। अब यह मनुष्य के अपने हाथ की बात है कि वह सुकर्मों द्वारा अपनी मुक्ति का प्रयत्न करे अथवा कुकर्मों में पड़कर पुनः चौरासी लाख के चक्कर में लौट जाये। इस प्रकार मानवेत्तर योनियों का भ्रमण जीव की प्रगति का सूचक है जिसकी कि पराकाष्ठा मानव-योनि की प्राप्ति है। जबकि मानव की मृत्यु उसकी मुक्ति अथवा अधर्म योनियों में पुनर्पतन का हेतु होती है तो मनुष्य योनि में आकर जीव या तो अपने सत्कर्मों द्वारा भगवान को प्राप्तकर मुक्त हो सकेगा अथवा असत् कर्मों द्वारा गिरकर फिर अधोगति में चला जायेगा। इस प्रकार मनुष्येत्तर प्राणियों की मृत्यु साधारण प्रगति मात्र होती है और मनुष्य की मृत्यु या तो उसके चरमोत्थान का हेतु बनेगी अथवा परम पतन की।

मृत्यु से डरना एक लज्जाजनक कायरता है। इस कायरता का समावेश होता उन्हीं में है जो इस दुर्लभ मानव-जीवन का सदुपयोग नहीं करते, इसे अकर्तव्य कर्मों तथा भोग लिप्सा में नष्ट किया करते हैं। जो बोधवान व्यक्ति मानव-जीवन की दुर्लभता तथा उसके मूल्य महत्व को समझते हुए सत्कर्मों में इसका सदुपयोग किया करते हैं उन्हें मृत्यु का स्मरण आनन्ददायक होता है। उन्हें अपने सत्कर्मों के बल पर यह विश्वास रहा करता है कि जिस पुण्य-पूँजी को उन्होंने संचित किया है वह भवसागर की उतराई के लिये पर्याप्त है। अपने पुण्यों के बल पर वे इस भव् सिन्धु को पार कर अपने अन्तिम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति कर लेंगे और यदि इस पुण्य-पूँजी में कुछ कमी रह गई है तो पुराना वस्त्र छोड़कर नये वस्त्र धारण करने के समान पुनः नया जीवन नया शरीर धारण करेंगे और आज के अधिक उन्नति एवं परिष्कृत। अपने अगले शरीर के अवसर पर वे और अधिक साधना करके अपने लक्ष्य को अवश्य पा लेंगे। इस प्रकार पुण्यात्मा पुरुष को मृत्यु की कल्पना से भय तो क्या एक आनन्द पुलक की ही प्राप्ति होती है।

मृत्यु अवश्यम्भावी है। सत्कर्मों का सहारा लेकर ही इसके त्रास से बचा जा सकता है। यह क्षण भंगुर मानव-जीवन प्रतिपल मृत्यु के प्रवाह में बहता चला जा रहा है। मनुष्य जिस क्षण से जन्म लेता है उसी क्षण से मृत्यु की और बढ़ने लगता है। जीवन की बढ़ोतरी तथा आयु की वृद्धि मृत्यु की निकटता ही है। पता नहीं किस समय वह अवश्यम्भावी अन्तिम घड़ी आ जाये। इसलिये मनुष्य को प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने जीवन का अनुक्षण सत्कर्मों में ही लगाते रहना चाहिये।

प्रथम तो मृत्यु का भय एक अनुचित त्रास है। तब भी यदि उसका भय सताता ही है तो बुद्धिमत्तापूर्वक उसका लाभ भी उठाया जा सकता है। जैसे अपने अधिकारी से डरने वाला व्यक्ति अपने को अधिक से अधिक अनुशासित, आज्ञापालक तथा कार्यदक्ष बनाने का प्रयत्न किया है, उसी प्रकार मृत्यु से भयभीत व्यक्ति यदि चाहे तो भय के कारण दुष्ट दुष्कर्मों को छोड़कर सत्कर्मों में संलग्न हो सकता है। लोग मृत्यु से डरते तो हैं लेकिन सच पूछा जाए तो वे सच्चाई के साथ उससे नहीं डरते। यदि उनके हृदय में मृत्यु के प्रति सच्चा भय रहे तो निश्चय ही पाप कर्मों की ओर से विमुख होकर पुण्य कर्मों की ओर अग्रसर हो उठें।

जिसे लोग प्रायः मृत्यु का भय कहते हैं वह वास्तव भोगों के छूट जाने की चिन्ता ही होती है, दुनिया छूट जाने का मोह ही होता है, लोग वास्तव में यह सोचकर दुखी होते हैं कि जब हम मर जायेंगे तो हमारी यह पत्नी-बच्चे और यह धन दौलत सब छूट जायेगी। और हम एकाकी न जाने कहाँ-कहाँ भटकते रहेंगे। यह सब हमारे प्रियजन तथा धन सम्पत्ति हमें फिर कहाँ मिलेगी? अच्छा होता मृत्यु न आती और हम सदा सर्वदा इनके संपर्क का सुख उठा सकते। इस प्रकार की मोह भावना ही विधा मृत्यु का भय बनकर सामने आया करती है। ऐसे व्यक्ति कम ही होते हैं जिन्हें मृत्यु का भय अपनी अज्ञात रक्षा की चिन्ता के कारण सताता हो।

निःसन्देह मृत्यु का मोहजन्य भय बड़ी ही निकृष्ट भावना है। यह अकारण ही आत्मा के बन्धन कड़े कर दिया करता है, संसार तो सभी को एक दिन छोड़ना पड़ता है। सम्पत्ति एवं प्रियजन सबके ही छूटते हैं। इस भवितव्यता में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं पड़ सकता। इस अवश्यम्भाव्य के प्रति निरर्थक मोह करना सबसे बड़ी मूर्खता है।

जो व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम आदि की प्राप्ति के लिये पुण्य पूर्वक प्रयत्न किया करता है उसको इनके प्रति निकृष्ट मोह भी नहीं होता है, वह इन सब की प्राप्ति भोग सुख के लिये नहीं केवल मानव कर्तव्य समझकर ही करता है। जिस प्रकार कर्तव्य पूरा हो जाने पर मनुष्य को कार्य के प्रति मोह न रहकर आत्म सन्तोष होता है उसी प्रकार कर्तव्य पूर्वक लौकिक उपलब्धियों का सुख ही रहता है उसके प्रति मोह नहीं। जिस प्रकार वह उन्हें पुण्य पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करता है उसी प्रकार साहसपूर्वक छोड़ भी देता है।

मोहजन्य अथवा अकृत जन्य मृत्यु का भय निरर्थक निकृष्ट एवं निम्न वाहक है। मनुष्य को इससे बचे रहने का लाभ उठाकर सत्कर्मों द्वारा मृत्यु से मोर्चा लेने की तैयारी कर लेनी चाहिए।


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