जिन्दगी और मौत क्षितिज की ओर में बैठी बातें कर रही थीं। बातों-बातों में एक दूसरे के महत्व पर बात चल पड़ी। जिन्दगी बोली—मैं तुम से बड़ी हूँ। संसार में मेरा ही महत्व है। तुम तो हर चीज को नष्ट करती रहती हो। तुम ध्वंस की दूती हो, निर्माण के देवता से तुम्हारा परिचय भी नहीं है। नष्ट करने वाले का संसार में महत्व हो ही कब सकता है?
मौत ने जिन्दगी की बात का बुरा नहीं माना। वह हँसती हुई बोली-”मैं जो कुछ भी करती हूँ; सब तुम्हारे हित के लिए। एक मेरे ही कारण संसार में तुम्हारी महत्ता है। यदि मैं न होऊँ तो तुम्हारी कद्र कौड़ी मोल हो जाय।” मौत की बात सुनकर के जिन्दगी को क्रोध आया और उसकी अवमानना करने लगी मौत खिन्न हुई और रूठकर चली गई।
दुनिया के लोगों को जब पता चला कि जिन्दगी का मौत से सम्बन्ध टूट गया है, तब मौत जिन्दगी को प्यार करने लगे। जिन्दगी अपनी जड़ गति से घबराकर दौड़ी-दौड़ी मौत के पास गई और उसे यह कह कर मना लाई चलो हम तुम दोनों ही एक दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं।