धरती की शपथ (Kavita)

October 1966

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धरती की शपथ, अगर तुमको मैं नभ के गीत सुनाऊँ तो!

बादल की प्यास बुझाने वाला तो मेरा यह सागर है, ब्रह्माण्डों को उर में रखने वाला मेरा नटनागर है,

रवि-शशि-नक्षत्र सभी मेरे ही तप-बल से जगमगा रहे; मेरे ही समाधिस्थ शंकर दनुनों का जग डगमगा रहे! विश्वास-विष्णु से है मेरा अन्तराकाश यह आलोकित- श्रम-सृजन-ब्रह्म की शपथ, नई दुनिया यदि नहीं बसाऊँ तो!

धरती की शपथ, अगर तुमको मैं नभ के गीत सुनाऊँ तो!!

मेरी दशरथ-गति देख, मृत्यु की गति के रथ भी रुक जाते, मिट्टी के मानव-चरणों पर, देवों के मस्तक झुक जाते!

मत इठलाओ तुम स्वर्ग, कल्पनाओं के भ्रम को फैलाकर, मानव तुम पर कैसे ललचाएगा भू की अवहेला कर?

हर फूल यहाँ का नन्दन की सुषमा समेट कर हँसता है— इनके सौरभ की शपथ, अगर तुम पर मोहित हो जाऊँ तो!

धरती की शपथ, अगर तुमको मैं नभ के गीत सुनाऊँ तो!! मुझ में ही व्याप्त हुआ है आदर्श का विस्तृत महाकाश, इस शून्य गगन की ओर देखकर, क्यों होऊँ फिर मैं निराश?

आशाओं की फुलवारी में मेरे रखवाले राम खड़े, मेरे ही आँगन में भविष्य के दीपक ये घनश्याम खड़े!

मावस के मातम पर हँसने वाले नक्षत्रों सुन लेना— मुझको मिट्टी की शपथ, अगर मैं तुमको नहीं लजाऊँ तो!

धरती की शपथ, अगर तुमको मैं नभ के गीत सुनाऊँ तो!

—देवव्रत जोशी ‘देव’

*समाप्त*


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