स्वच्छता—एक आध्यात्मिक पुण्य प्रक्रिया

October 1966

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आध्यात्मिक प्रगति के लिये आन्तरिक स्वच्छता की अनिवार्य आवश्यकता है। जिसका मन मलीन है, जिसकी बुद्धि निर्विकार नहीं है, जिसका विवेक निर्मल नहीं है, वह व्यक्ति लाख पूजा-पाठ तथा जप-तप सब करने पर भी आध्यात्मिक लाभ नहीं पा सकता। आध्यात्मिक अभ्यास के लिए जिन नियम-संयमों का निर्देश किया गया है, उनके पालन का उद्देश्य अपनी आन्तरिक स्वच्छता करना ही है। जिसका अन्तर दर्पण की तरह निर्मल नहीं है उसके हृदय में ईश्वरीय प्रकाश का प्रतिबिम्ब अवतीर्ण नहीं हो सकता। व्रत, उपवास, पूजा-पाठ, योग, ध्यान, धारणा आदि सारे पुनीत कृत्य मनुष्य को आन्तरिक स्वच्छता की ओर ही ले जाते हैं। आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिये मनुष्य को पराकाष्ठा तक स्वच्छ एवं पवित्र रहना होगा। स्वच्छता परमात्मा का सान्निध्य है अथवा निर्मलता आत्मा का प्रकाश है आदि आध्यात्मिक सूक्तियाँ मनुष्य की स्वच्छता पवित्रता एवं निर्मलता की ओर संकेत करती हैं।

आन्तरिक स्वच्छता का आधार शारीरिक स्वच्छता ही है। जिस मनुष्य का शरीर पूर्ण रूप से पवित्र एवं स्वच्छ न होगा उसका मन पवित्र होगा ऐसी आशा नहीं की जा सकती। अपना आन्तरिक जीवन स्वच्छ एवं पवित्र बनाने के लिये आवश्यक है कि सबसे पहले अपने बाह्य जीवन को शुचि तथा निर्मल बनाया जाये। बाह्य-वातावरण अथवा रहन-सहन मनुष्य के आन्तरिक जीवन को प्रभावित किया करता है। मनुष्य अपने अन्तर को जिस प्रकार का बनाना चाहता है, पहले उसे ठीक उसी प्रकार अपने बाह्य जीवन को ढालना होगा। आन्तरिक शुचिता एवं स्वच्छता का अभ्यास बाह्य पवित्रता तथा स्वच्छता द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता है। अपना बाह्य जीवन शुद्ध किये बिना यदि कोई धार्मिक कृत्यों द्वारा अपने आन्तरिक जीवन को पवित्र बना लेना चाहता है तो उसका सारा प्रयास निष्फल चला जायेगा।

जो बाह्य स्वच्छता के सुकर संयम का निर्वाह नहीं कर सकता वह निर्बल व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकट विकारों एवं जड़ जमाये निकृष्ट संस्कारों को दूर करने के दुष्कर नियमों का निर्वाह किस प्रकार कर सकता है? लोग धर्म-कर्मों के आधार पर अपने आन्तरिक जीवन को निर्मल एवं उन्नत बना लेना चाहते हैं किन्तु यह नहीं सोच पाते कि धर्म के लक्षणों में शौच का प्रमुख स्थान है और स्वच्छता पवित्रता की पहली शर्त है। मनुष्य का शरीर, उसके वस्त्र अथवा उसका निवास स्थान भले ही तथाकथित अपवित्रताओं से मुक्त हों, उसमें अशुचिता का कोई कारण उपस्थित न किया गया हो, तब भी वह पवित्र नहीं माना जायेगा।

यदि उसका उपासनास्थल झाड़ा-बुहारा, लीपा-पोता या धोया हुआ नहीं है, नीराजना के उपकरण साफ-सुथरे नहीं है। दीपक में चीकट है, बत्ती गन्दगी से भरी है, आसन पर धूल जमी है, प्रतिमा मलीन है, निर्माल्य अथवा बासी फूलों का अंश पड़ा हुआ है तो निश्चय ही देव-प्रतिमा सहित उसका पूजा-स्थल अपवित्र है। ऐसी मलीन स्थिति में किया हुआ कोई भी धर्म-कर्म आध्यात्मिक विकास में सहायक नहीं हो सकता। आध्यात्मिक उन्नति के लिये स्वच्छता एवं शुचिता नितान्त आवश्यक हैं।

जिस प्रकार बुरे एवं दुष्ट लोगों का संसर्ग किसी भी व्यक्ति के विचारों तथा आचरण का पतन कर देता है। ठीक उसी प्रकार अशुचि एवं अस्वच्छ वातावरण भी आचार-विचारों को अपवित्र एवं मलीन बना देता है। जब मनुष्य किसी गन्दी जगह पहुँच जाता है तो उसके मन में स्वाभाविक रूप से मलिनता का उद्रेक होने लगता है। उसके हृदय पर घृणा, ग्लानि, अरुचि तथा अप्रसन्नता की प्रतिक्रिया होती है। उतनी देर के लिये उसके सद्विचार, सद्भावनाएँ एवं सदाशयता गन्दगी से दब जाया करते हैं। इसके विपरीत जब वह किसी स्वच्छ, पवित्र अथवा मनोरम स्थान पर जाता है तब उसका मन मस्तिष्क प्रसन्न हो उठता है। वह अपने अन्दर एक उच्चता, स्वच्छता एवं पवित्रता अनुभव करता है। उसकी आत्मा में रोचकता एवं रम्यता का आविर्भाव होता है और जब तक वह उस पवित्र वातावरण में रहता है तब तक एक अनिवर्चनीय सुख-शान्ति का अनुभव करता है। मनुष्य की आत्मा पर यह पवित्र एवं अपवित्र प्रतिक्रिया आध्यात्मिक गति में बहुत बड़ा अर्थ रखती है। मनुष्य जितना स्वच्छ एवं पवित्र रहेगा उतना ही अध्यात्म-पथ पर आगे बढ़ेगा। इसके विपरित जितना मलीन, गन्दा तथा अपवित्र रहेगा उतना ही पीछे हटेगा। अस्तु, आवश्यक है कि आध्यात्मिक प्रगति चाहने वाले अधिक-से-अधिक स्वच्छ एवं पवित्र रहें।

बाह्य स्वच्छता आन्तरिक स्वच्छता का हेतु है। यदि हमारा शरीर मलीन एवं दुर्गन्धपूर्ण है, हमारे कपड़े मैले तथा कुवासित हैं, हमारा भोजन गन्दा, स्थान मलीन और रहन-सहन अनुपयुक्त है तो हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि हमारा मन, मस्तिष्क तथा आत्मा स्वच्छ रहेगी। हमारे विचार, हमारी भावनाएँ आध्यात्मिक पथ का अनुसरण कर सकेंगी। आन्तरिक ज्योति की पात्रता बाह्य स्थिति से ही समझी जा सकती है। ईश्वर परम पवित्र, शुचि तथा सुन्दर है। उसकी अनुभूति मलीन स्थिति में नहीं की जा सकती है। परमात्म-प्रकाश को पाने के लिये तो मनुष्य को गंगाजल की भाँति प्रसन्न एवं पवित्र बनना होगा।

जिसने अपने शरीर, भोजन, वस्त्र, घर-द्वार, परिवार, परिजनों तथा पड़ोस को स्वच्छ एवं पवित्र रखना सीख लिया है मानों उसने आध्यात्मिक प्रगति की बड़ी मञ्जिल पार कर ली है, आत्म-लाभ का मूल मन्त्र जान लिया है और परमात्म-प्रकाश के आगमन के लिये जीवन के आलोकायन खोल दिये हैं। अध्यात्म-अभ्यास द्वारा मनुष्य जिस उच्चस्तरीय दैवी जीवन को प्राप्त करना चाहता है, स्वच्छता एवं पवित्रता स्वयं में ही वह एक दिव्य जीवन है। सुख, शाँति, सन्तोष, समृद्धि, निर्मलता, विमलता आदि मधुरताओं की सिद्धि को ही दैवी-जीवन कहा जाता है। देवताओं के निवास-स्थान—जिस स्वर्ग की कल्पना की गई है उसमें इन्हीं सब समृद्धियों तथा स्वच्छता, शुचिता, सौंदर्य एवं निर्मलता आदि रम्यताओं की उपस्थिति विशेष रूप से मानी गई है। यदि मनुष्य अपनी तथा अपने पास-पड़ोस की गन्दगी दूर करके उसके स्थान पर स्वच्छता एवं पवित्रता को पूरी तरह से स्थापित कर ले तो उसको दिव्य जीवी कहने में किस को संकोच हो सकता है। काल्पनिक स्वर्ग के स्थान पर यदि हम स्वच्छता, पवित्रता एवं प्रयत्न करें तो अधिक उपयुक्त तथा समीचीन होगा।

कहना न होगा कि गन्दगी पशुता का लक्षण है। पशु अपने शरीर की स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते, वे जहाँ रहते, उठते-बैठते या चलते-फिरते हैं वहीं मल-मूत्र त्याग कर देते हैं। उन्हें अपनी इन मलीन क्रियाओं एवं स्थान की संगति का जरा भी विचार नहीं रहता। विवेक रहित होने से उन्हें उनकी इन अवाँछनीय क्रियाओं के लिए किसी हद तक क्षमा किया जा सकता है किन्तु मनुष्य तो विवेकशील प्राणी है उसे इस दोष के लिये किसी प्रकार भी क्षमा नहीं किया जा सकता। उसका गन्दा रहना किसी प्रकार भी शोभनीय नहीं है। जो गन्दा रहता अथवा गन्दगी को सहता है निश्चय ही वह अपने पाशविक संस्कारों को दूर नहीं कर पाया है। आध्यात्मिक प्रयास करके देवता बनने से पूर्व अच्छा है कि पहले हम पूर्ण मनुष्य बनने का प्रयत्न करें। आध्यात्मिक उपलब्धि का यथार्थ क्रम भी यही है कि पहले मनुष्य अपने कुसंस्कारों से मुक्त होकर ठीक-ठीक मनुष्य बने। मनुष्यों की तरह ही साफ-सुथरा तथा पवित्र बने। इस प्रकार मनुष्यता प्राप्त करने के बाद ही यदि वह देवत्व की ओर बढ़ने की आकाँक्षा करे तो उसकी इच्छा उपयुक्त ही कही जायेगी। जो पशुता से देवत्व तक पहुँचने में बीच में मनुष्यता को छोड़ कर सीधे ऊँची छलाँग मारना चाहता है उसका साहस बाल-विनोद से अधिक कुछ नहीं समझा जा सकता है। मनुष्यता की परि वक्ता ही देवत्व का द्वार है। जिसने पशुता का परित्याग कर अपने को पूर्ण एवं सच्चा मनुष्य बना लिया है उसने मानों देवत्व प्राप्त करने का पथ-निर्माण कर लिया है। मनुष्य-शरीर से देवताओं की श्रेणी में पहुँचने वाले सारे महापुरुषों ने पहले मनुष्यता की ही सिद्धि की है। मनुष्यता की चरम उपलब्धि ही देवत्व है, इसमें कोई सन्देह नहीं। अस्तु, मनुष्य को चाहिये कि वह अपने आध्यात्मिक प्रयास को मनुष्यता के रूप में सार्थक एवं चरितार्थ करे। स्वच्छता एवं पवित्रता की पराकाष्ठा ही वह मनुष्यता है जिसकी परिणिति देवत्व में होना असंदिग्ध है।

किसी को कष्ट पहुँचाना, दुःख देना अथवा प्रसन्नता हरना अध्यात्म-पथ में बहुत बड़ा अवरोध—पाप है। गन्दा आदमी दूसरों को कितना कष्ट पहुँचाता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। जब शरीर, वस्त्र तथा आकार-प्रकार से गन्दा आदमी किसी के संपर्क में आता है तब उस आदमी की आत्मा पर बड़ी ही प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है। उसे घृणा अथवा ग्लानि का दुःख सहन करना पड़ता है। गन्दे पैरों अथवा थूक खासकर किसी का स्थान गन्दा करना —किसी को कितना दुःख पहुँचाना है? यह एक साधारण आदमी भी समझ सकता है। गन्दगी एक अस्वास्थ्यकर स्वभाव है। जो स्वयं गन्दा रहता है अथवा मलीन वातावरण में निवास करता है वह अवश्य ही किसी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रोग का शिकार होता है। ऐसी स्थिति में किसी के संपर्क में आना अन्य को रोगी बनाने का उपक्रम करना है। जो स्वयं गन्दे रहते हैं, अपने वस्त्रों को गन्दा रखते हैं, घर-द्वार अथवा पास-पड़ौस को किसी प्रकार गन्दा रखते हैं, किन्हीं सार्वजनिक स्थानों को गन्दा बनाने में संकोच नहीं करते वे निश्चित रूप में राष्ट्र एवं समाज को कलंकित करने के साथ अस्वस्थ बनाने, सामूहिक रूप में लोगों को कष्ट देने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा गन्दा, निकृष्ट तथा अधो वृत्ति वाला सामाजिक दोषी व्यक्ति कोई आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है— ऐसा कहना अपनी अल्प बुद्धिता का परिचय देना है।

अध्यात्म-जिज्ञासुओं को शपथपूर्वक अपनी सारी गन्दगी को धोना ही होगा। जितना समय जप-तप एवं पूजा-पाठ में दिया जायें यदि उतना समय अपनी, अपने तथा पास-पड़ौस की गन्दगी दूर करने में लगाया जाये तो मनुष्य दोहरी आध्यात्मिक प्रगति कर सकता है।

स्वच्छता ईश्वर का स्वाभाविक सान्निध्य है। इसे प्राप्त करके मनुष्य सहज ही ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है। शरीर, वस्त्र, घर-द्वार, पास-पड़ौस, आचार-विचार एवं आहार-विहार की स्वच्छता एवं पवित्रता, सुख-शाँति, सन्तोष, प्रसन्नता एवं परमार्थ के पावन द्वार है। स्वच्छता एवं समृद्धि का निकट सम्बन्ध है—कहते हैं कि जो मनुष्य गन्दा रहता है उसे लक्ष्मी अवश्य ही त्याग देती है फिर चाहे वह साक्षात् विष्णु ही क्यों न हों। सदा स्वच्छ एवं पवित्र रहिए साथ ही कहीं पर गन्दगी न करिये और दूसरों को स्वच्छता के लिए प्रेरित करिये तो यह एक परम पवित्र परमार्थ पुण्य होगा जो आपकी अध्यात्कि उन्नति में सहायक होगा। जहाँ स्वच्छता ईश्वर के प्रति प्रेम की द्योतक है, वहाँ गन्दगी उसके प्रति विद्रोह है। गन्दे रहकर परम पवित्र एवं सुन्दर के प्रति विद्रोह न करिये बल्कि स्वच्छ, स्वस्थ, सुन्दर तथा पवित्र बनकर उसका सान्निध्य प्राप्त करिये।

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