आवश्यकतायें बढ़ाइये मत— घटाइए

October 1966

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आवश्यकताओं की अधिकता निश्चय ही अभावजन्य दुःख का कारण है। जिसकी आवश्यकताएँ जितनी सीमित एवं स्वल्प होती हैं, वह उतना ही अधिक सन्तुष्ट एवं सुखी रहता है। न जाने कितने द्वन्द्वों एवं संघर्षों में अपव्यय होने वाली अपनी सृजनात्मक शक्ति की रक्षा कर लेता है।

अपनी बढ़ी हुई आवश्यकताओं के बढ़े हुए वास से प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में पीड़ित रहता है। कुछ समय तो लोग बिना आगा-पीछा देखे, वेग से अपनी आवश्यकतायें बढ़ाते चले जाते हैं, कुछ उनको सन्तुष्ट करने का भी प्रयत्न करते हैं किन्तु शीघ्र ही उनका निश्चित परिणाम—अभाव एवं असन्तोष— उनके सामने आ जाता है और तब असह्य आवश्यकताओं से चाहते हुए भी पीछा नहीं छुड़ा पाते।

जीवन में सुख-शाँति के लिये बढ़ी हुई अथवा कृत्रिम अथवा निरर्थक आवश्यकताओं से पीछा छुड़ाना बहुत आवश्यक है। मनुष्य यदि ईमानदारी से इस उद्देश्य में सफल होना चाहता है तो इन उपायों को अपना कर कृतकृत्य हो सकता है, आवश्यकताओं को कम कर सकता है, उनसे मुक्त हो सकता है तथा वास्तविक एवं मितव्ययी सुख-शाँति का अधिकारी बन सकता है।

हमारी अनुकरण-वृत्ति भी अनेक निरर्थक आवश्यकताएँ बढ़ाने में बहुत सहायक होती है। हमें स्वभावतः जीवन में अनेक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं रहती, किन्तु हम दूसरों की देखा-देखी उन्हें अपने जीवन में स्थान दे देते हैं। जैसे एक साधारण से मकान में सामान्य साधनों द्वारा गुजर हो सकने पर भी बहुत से लोग अपने मित्रों, पास-पड़ौसियों तथा सम्बन्धियों की देखा-देखी स्थिति से बाहर तक का मकान ले लेते हैं और उसे रेडियो, सोफा सैटों तथा बिजली आदि से सजाने के लिये पैसा खर्च किया करते हैं। यदि वास्तव में जिसके लिये इन वस्तुओं तथा साधनों को कोई उपयोगिता नहीं है, तो यह सब चीजें उसके लिये कृत्रिम तथा निरर्थक आवश्यकतायें हैं। देखा-देखी नकल करने की आदत पर नियन्त्रण कर लेने से इन निरर्थक आवश्यकताओं से बचा जा सकता है। आदमी सोच सकता है, जब हमें इन चीजों की वास्तविक आवश्यकता नहीं है तो इन पर बेकार में पैसा क्यों फेंका जाये। क्यों न वह पैसा बचाकर किसी उपयोगी काम में लगाया अथवा आगे के लिये बचाया जाये। निरर्थक बातों पर पैसा गँवाना अक्लमन्दी नहीं है और सो भी किसी की देखादेखी। मनुष्य की यह हिर्स भावना बहुत कुछ आर्थिक ह्रास किया करती है।

रहन-सहन के साथ लोग खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में भी देखा-देखी करके अपनी निरर्थक ही नहीं, हानिकारक आवश्यकताएँ तक बढ़ा लेते हैं। पान, बीड़ी, सिगरेट, शराब, गाँजा, अफीम आदि की आदत इसी अनुकरण वृत्ति की देन होती है। खाने-पीने में चाय काफी, सोड़ा, लेमन आदि निरर्थक चीजों के शामिल हो जाने का कारण ‘देखा-देखी’ ही होती है। वह यह चीज खाता है तो मैं भी खाऊँगा, वह ऐसा पहनता है तो मैं भी क्यों न पहनूँ, वह इतने बार चाय पी सकता है क्या मैं नहीं पी सकता, आदि के विचार अनुकरण वृत्ति की ही प्रति ध्वनि होते हैं। अनुकरण वृत्ति के कारण लोग अनेक सवारियाँ तथा प्रसाधन-सामग्री की आवश्यकता बढ़ा लेते हैं। तेल, फुलेल, इत्र, स्नो, पाउडर, क्रीम तथा अन्य न जाने कितनी प्रसाधन सामग्री अनुकरण के कारण ही आवश्यकता बन जाती हैं। अनुकरण की ओछी वृत्ति छोड़ देने से मनुष्य बहुत सी नकली जरूरतों से बचा रह सकता है।

प्रदर्शन-वृत्ति तो आवश्यकताओं की बीजिका ही है। यह न जाने कितनी नित्य नई एवं निरर्थक आवश्यकताओं को जन्म देती रहती है। संसार के सारे फैशन और दिखावा व साज-बाज इसी वृत्ति की विकृति है। घरों में सामानों के अम्बार, आवश्यकताओं से अधिक चीजों की संख्या, तड़क-भड़क, चमक-दमक, शान-शौकत, बहुतायत तथा बहुमूल्यता इसी प्रदर्शन-वृत्ति की देन है। एक बार जो प्रदर्शन वश अपना रहन-सहन अनावश्यक रूप से समाज में अपने को बड़ा आदमी दिखाने के लिए उठा देता है तो फिर लाज-लिहाज, उपहास अथवा अपवाद के डर से वह उसकी आवश्यकता बन जाती है, जिसके पूरा करने में लोगों को कर्जदार तक बन जाना पड़ता है।

दिखावा एक ओछी वृत्ति है, बचकाना स्वभाव है। हम जो नहीं हैं वह दिखाने की कोशिश करना मिथ्या दम्भ है। इस दम्भ से बचकर चलने वालों के जीवन में कृत्रिम-आवश्यकताओं का अभिशाप बढ़ने नहीं पाता। अपने को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना कोई अच्छा स्वभाव नहीं है। इससे समाज में प्रतिष्ठा बढ़ने का स्वप्न देखने वाले बड़े भ्रम में रहते हैं। मिथ्या प्रदर्शन करना वास्तव में अपनी आर्थिक नींव पर फावड़ा चलाना है। प्रदर्शनवाद का रोग लगाकर अपनी कृत्रिम आवश्यकताओं को बढ़ा लेने वालों को गम्भीरता से विचार करके इस बात का लेखा-जोखा लेना चाहिये कि वे दिखावे पर जो इतना खर्च कर रहे हैं उससे क्या समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गई है? ध्यानपूर्वक विचार करने से उन्हें पता चल जायेगा कि प्रतिष्ठा के लोभ में उन्होंने जो प्रदर्शनवाद को अपने जीवन में स्थान दे दिया है वह उनकी भूल थी, जिसके कारण उन्होंने अब तक बहुत हानि उठाई है। सादी जिन्दगी की सहायता से वे अपनी इस हानि को बचाकर समाज में कोई ऐसा काम कर सकते थे जिससे उनका मान-सम्मान अवश्य बढ़ जाता और यदि वे ऐसा न भी कर पाते तो साधारण, सरल एक सादी जिन्दगी यापन करना स्वयं एक प्रतिष्ठापूर्ण कार्य है। ऐसा करने से उनके पीछे ऐसी कृत्रिम आवश्यकतायें नहीं लगतीं जिनके कारण उन्हें चिन्तित एवं व्यग्र रहना पड़ रहा है।

मनुष्य को बिना कुछ सोचे अपनी प्रदर्शन- वृत्ति को अविलम्ब समाप्त कर देना चाहिये। ‘अब यदि ऐसा नहीं करता, यदि सादा रहन-सहन अपनाता हूँ तो समाज में लोग मुझ पर हंसेंगे, मेरी पोल खुल जायेगी और मुझे लज्जित होना पड़ेगा’—इस प्रकार के भाव मानसिक दुर्बलता के द्योतक हैं। आगे-पीछे अपनी भूल सुधार कर लेने पर कभी कोई भी भला आदमी उपहास नहीं कर सकता और यदि ओछे, उथले अथवा अविचारवान व्यक्ति हँसते अथवा इंगित करते हैं तो उनके उस उपहास का कोई मूल्य नहीं है। लोगों की हँसी की परवाह किये बिना अपनी भूल सुधारिये। प्रदर्शन से पैदा होने वाली दर्शक आवश्यकताओं को काटकर फेंक दीजिए। समझ लीजिए कि आपके इस परिवर्तन पर होने वाली हँसी उस गलती का खामियाजा है जो आप दिखावे के रूप में करते रहे हैं। समझदार लोगों को समाज के निरर्थक एवं बाल-बुद्धि वाले लोगों की हँसी की ओर ध्यान देने से पहले अपने अच्छे-बुरे तथा हानि-लाभ की ओर ध्यान देना चाहिए।

अपनी स्थिति से अधिक ऊँची तथा सम्पन्न व्यक्तियों के साथ अनावश्यक रूप से घुलने-मिलने अथवा उनका सान्निध्य पाने के लोभी व्यक्ति की बहुत सी ऐसी आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं जिनके बिना उनका काम बखूबी चल सकता है। बड़े लोगों के साथ उठने-बैठने और घूमने-फिरने में बड़प्पन की बेड़ी पहनने वालों को बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है। यदि बड़े आदमियों का संग करना ही हो तो ‘सादा जीवन उच्च विचार’ वाले बड़े लोगों का साथ करना चाहिये। ‘कृत्रिम जीवन तुच्छ विचार’ वाले बड़े लोगों का संग कृत्रिम आवश्यकताओं के रूप में बड़ा महंगा पड़ता है। उनकी साथ-शोभा के लिये स्वयं को भी उसी प्रकार का बनाना पड़ेगा। बेजरूरत की न जाने कितनी चीजें खरीदनी और रखनी होंगी। बड़प्पनवादी मित्रों की आव-भगत के लिये न जाने ऐसी कितनी चीजों का प्रबन्ध करना पड़ेगा जिनके बिना सब काम आसानी से चल सकता है।

कृत्रिम आवश्यकता बढ़ाने वाले निरुपयोगी सम्पर्कों को तत्काल त्याग देना चाहिए। समाज में समान एवं सादे व्यक्तियों से ही संपर्क रखिये। बड़े आदमियों के साथ से बड़प्पन की तृष्णा बुझाने वाले, अपनी हीन भावना का परिचय देते हैं। बड़प्पन बड़े आदमियों के संपर्क से नहीं, अपने गुण-कर्म-स्वभाव की निर्मलता से मिला करता है।

चटोरी आदत वाले व्यक्तियों की भी आवश्यकतायें बहुत बड़ी रहती हैं। अपने चटोरेपन के कारण वे जो भी खाने-पीने की चीजें देखते हैं उसी के लिये राल बहाने लगते हैं। स्वादों की दासता में रहने वालों के लिये खटाई, मिठाई, मिर्च-मसाले, चाट- पकौड़ी, पूड़ी, पकवान आदि ना जाने कितनी चीजें जरूरत बन जाया करती हैं। जब तक वे इस प्रकार की चीजें खा-पी नहीं लेते तब तक न तो उनका पेट भरता है और न तृप्ति होती है। भोजन के बाद भी अनेक चटोरे लोगों की चाट मिठाई आदि खाना एक आवश्यकताएँ हैं जो स्वाद-वृत्ति के कारण बढ़ जाती हैं वैसे जीवन के लिये इन निरर्थक चीजों को भोजन में कोई स्थान नहीं है। यह इन्द्रिय लोलुपता है जो मनुष्य के हल्केपन का प्रमाण है। कृत्रिम आवश्यकताओं के संकट से छूटने के इच्छुक व्यक्तियों को स्वाद जन्य लोलुपता त्याग कर देनी चाहिये। उन्हें अपने अनुभव, अध्ययन एवं बुद्धिमानों के कथनों के आधार पर कृत्रिम भोजन की हानियाँ तथा सरल, साधारण एवं सामान्य भोजन के लाभों पर विश्वास करना चाहिये। स्वाद-रंजन के लिये विविध व्यंजनों को जीवन की आवश्यकता बना लेना भारी भूल है। इसका ठीक-ठीक अर्थ है—पैसा खर्च करके अस्वास्थ्य को खरीदना। कृत्रिम स्वादों की अपेक्षा आरोग्य का महत्व अधिक है।

बहुत से लोग आराम के विचार से तमाम अच्चाशियों की आवश्यकता पैदा कर लेते हैं। वे अधिक-से-अधिक आराम पाने के लिये नित्य नई चीजें खरीदते रहते हैं। शरीर को बहुत अधिक सुविधाओं के बीच रखने से कर्मठता कम होती है, आलस्य एवं विलासिता की वृद्धि होती है। जमकर काम करने के लिये मिले हुए शरीर को पलंग-पालने का अभ्यस्त बना देने वाले अकर्मण्य हो जाते हैं। शीघ्र ही उनकी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं और वृत्तियाँ परावलम्बिनी बन जाती हैं जिससे सेवकों, सहायकों तथा अधिकाधिक सुविधा-साधनों की आवश्यकतायें बढ़ जाती है। शरीर को केवल उतना ही आराम देना चाहिये जो उसकी क्लान्ति दूर कर नवस्फूर्ति तो दे किन्तु आलसी और विलासी न बना दे। विलासपूर्ण सुविधा-साधनों की कृत्रिम आवश्यकताओं से होने वाली हानियों को समझकर उनका त्याग कर देने में ही बुद्धिमानी है।

अधिक आवश्यकताओं के अभिशाप से बचने के लिये मनुष्य को सन्तों, महात्माओं एवं महापुरुषों के सरल, सादे एवं संक्षिप्त साधनों के बीच उनके सन्तोष सुख एवं सानुकूलता से प्रेरणा लेनी चाहिये। अपनी इन्द्रियों के साथ मन की चंचलता पर नियन्त्रण करने का अभ्यास करना चाहिए। सच्चे सुख, सन्तोष, शान्ति एवं सम्पन्नता का मूल मन्त्र आवश्यकताओं की संक्षिप्तता ही है। आवश्यकताओं की बहुतायत जीवन को जटिलताओं से पूर्ण बना देती है।


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