नकली स्वर्ण छोड़कर वास्तविक सम्पदा प्राप्त करें-
अवंती देश के कुररधर नगर में भिक्षु कोटि कर्ण का अमृत-उपदेश चल रहा था। भिक्षु कोटि कर्ण अनन्त धन-वैभव का त्यागकर परिव्राजक बने थे। वे इतने धनवान थे कि कानों में एक करोड़ रु. मूल्य के कुण्डल पहना करते थे। जनता उन त्याग मूर्ति भिक्षु का उपदेश बड़ी तल्लीनता से सुन रही थी। श्रोताओं में श्राविका कार्तियानी भी बैठी थी। संध्या हो चली थी। उसने दासी को घर में दीप बाती कर आने के लिये भेजा। दासी ने घर जाकर देखा कि चोरों ने सेंध लगा दी है और वे सारा स्वर्ण निकाल-निकाल कर बाँध रहे हैं। दासी डरकर स्वामिनी के पास भागी। चोरों का सरदार उसे मारने के लिए पीछे से दौड़ा।
दासी श्राविका कार्तियानी के पास पहुँच गई और उसे घटना बताई, किन्तु वह उपदेशामृत में इतनी मग्न थी कि दासी की बात न सुन सकी। दासी ने उसका कन्धा हिलाकर फिर कहा—’स्वामिनी, चोरों ने घर में सेंध काट दी है और वे सब स्वर्ण लूटे लिये जा रहे हैं।’ श्राविका ने दुःखी होकर कहा—’तू मुझे क्यों व्यर्थ में दुःख दे रही है। चोरों को स्वर्ण भूषण ले जाने दे, वह स्वर्ण नकली है। देखती नहीं कि मैं दोनों हाथों वास्तविक स्वर्ण-वैभव बटोर रही हूँ, वह जिसे कोटि कर्ण महाराज ने असंख्यों का वैभव त्यागकर पाया है।’
यह सुनकर चोरों के सरदार के ज्ञान-चक्षु खुल गये। वापिस आकर साथियों से कहा कि यह नकली स्वर्ण यहीं पड़ा रहने दो। चलो, भिक्षु कोटि कर्ण द्वारा बाँटी जा रही धर्म की वास्तविक सम्पदा प्राप्त करें जिसके लिए श्राविका ने इस स्वर्ण की उपेक्षा कर दी है। सब चोर कुटी पर पहुँचकर और भिक्षु कोटि कर्ण का उपेशा मृत सुनकर कृतार्थ हो गये।