मन्दिर अपना प्रयोजन पूर्ण करें

October 1966

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मन्दिरों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य जन-मानस में आस्तिक भावना एवं धर्म-निष्ठा को जाग्रत रखना ही रहा है। यह बात सही है कि मंदिरों ने जनता की भक्ति-भावना में वाँछित वृद्धि की है और आज भारतीय जनजीवन में जो भी धार्मिकता ओत-प्रोत दिखाई दे रही है उसमें मन्दिरों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। चौबीसों घन्टों के व्यस्त जीवन, जंजालों तथा समस्याओं में भूले जनसाधारण की आस्तिकता मन्दिर देखते ही जाग उठती है। उसे याद आ जाता है कि संसार में भगवान की सत्ता है, हम उसके जन हैं, संसार में पड़कर उसे भुला देना ठीक नहीं और फलस्वरूप उसका मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है। उसकी आत्मा को क्षणिक सिहरन, शक्ति और आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त हो जाती है। नित्यप्रति आते-जाते ऐसा होते रहने से उसकी आस्तिकता अक्षुण्ण रहती है जो व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिये कल्याणकारी है। यदि मन्दिरों के रूप में यह धार्मिक प्रतीक न रहे होते तो सम्भव था संसार भार से दबा हुआ जनसामान्य भगवान को भूल जाता और जब कभी कोई उसकी याद दिलाता तब तक उसकी आस्था काफी हद तक हिल चुकी होती। मनुष्य की यह क्षति बहुत बड़ी होती।

यह सब कुछ आवश्यक है किन्तु पर्याप्त नहीं कि जिसके लिए हजारों-लाखों रुपये लगाकर मन्दिर खड़े किये जायें और जनता से करोड़ों की सम्पत्ति संचय की जाये। मन्दिर एक वृहद् संस्था है और उनके लिए करोड़ों का धन और लाखों की जनशक्ति व्यय की जाती है। मन्दिर समग्र समाज के आध्यात्मिक विकास के आशा केन्द्र हैं। यदि उनका लाभ मात्र उतना ही है तो कहना पड़ेगा कि बहुत बड़े व्यय पर बहुत कम पाया जा रहा है।

मन्दिरों का उद्देश्य आस्तिकता की रक्षा करना है। किन्तु आस्तिकता का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि मन्दिर अथवा मूर्ति को सिर झुका दिया जाये, कुछ फूल-पत्री अथवा दान-दक्षिणा चढ़ा दी जाये, प्रतिमाओं के सामने कुछ देर बैठकर जप कर लिया जाये अथवा उनको नहला-धुलाकर कुछ सेवा कर ली जाये। आस्तिकता का अर्थ ईश्वर में अखण्ड विश्वास और उसके दिये हुए धर्म का ठीक-ठीक पालन करना है। ऊपरी पूजा, पाठ, जप, ध्यान आदि की क्रियायें धार्मिकता की स्थूल अभिव्यक्ति हो सकती हैं किन्तु वास्तविक धर्म का पालन करने का अर्थ है अपनी आध्यात्मिक उन्नति करना। यदि मनुष्य की आत्मा उज्ज्वल नहीं होती, उसके गुण-कर्म, स्वभाव में ऊँचाई नहीं आती उसकी चेतना ऊर्ध्वगमन नहीं करती तो भजन-पूजन, जप, तप आदि का सारा धार्मिक क्रिया-कलाप निरर्थक ही कहा जायगा।

मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति देवदर्शन अथवा प्रतिमा पूजन मात्र से नहीं हो सकती। इसके लिए मनुष्य को अपने भीतर भरे हुए कुविचारों, दुर्भावों एवं दुष्प्रवृत्तियों को दूर करना होगा। दुष्कर्मों को छोड़कर सुकर्मों को अपनाना होगा। मनुष्य ज्यों-ज्यों इस आन्तरिक उत्कृष्टता में उन्नति करता जायेगा त्यों-त्यों आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ता जायेगा। धर्म-धारण का तात्पर्य यही तो है कि मनुष्य इस तपश्चर्या में अपने को लगाये।

मन्दिरों की स्थापना का मूल उद्देश्य यही रहा है कि वे मनुष्य को वास्तविक धर्म की ओर उन्मुख होने के लिए प्रेरित करें। इसीलिए पूर्वकाल में उनमें आरती वन्दन के साथ कथा, कीर्तन, उपदेश, प्रवचन आदि के कार्यक्रम चलते थे। स्थानीय पुजारी तो नित्यप्रति कोई न कोई प्रसंग चलाया और लोगों को सत्संग का लाभ दिया ही करते थे साथ ही लोक-मंगल एवं मानवीय चरित्र में सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करने के मन्तव्य से प्रवचन करने वाले लोकसेवी साधु, सन्त भी आते ही रहते थे। उनकी भोजन व्यवस्था करने के लिए ही भगवान के नाम पर जनता से कुछ दान-दक्षिणा इकट्ठी करने का भी प्रचलन था। धर्म-प्रचारक, साधु, ब्राह्मण किसी संस्था अथवा व्यक्ति के वेतनभोगी कर्मचारी न होते थे। ये वे ही व्यक्ति होते थे जो धर्म-प्रचार को अपना जीवनोद्देश्य समझकर निःस्वार्थ भाव से लोकसेवा के लिए अपने को समर्पित कर दिया करते थे।


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