जीवन उत्कृष्टता के साथ जिया जाय।

October 1966

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यह मनुष्य के अपने हाथ में है कि वह उत्कृष्ट कोटि का जीवन जीता है अथवा निकृष्ट कोटि का। कदाचित ही कोई ऐसा व्यक्ति इस संसार में हो जो उत्कृष्ट जीवन जीने की चाह न रखता हो। सभी समान रूप से यही चाहेंगे कि वे अच्छे से अच्छा और उच्च से उच्च जीन जिएँ किन्तु प्रायः देखा इसके प्रतिकूल जाता है। बहुत ही कम ऐसे व्यक्ति संसार में मिलेंगे जो उच्चकोटि का जीवन जी रहे हों। नहीं तो अधिकतर लोग उच्च स्थिति में भी निकृष्ट जीवन जीते दिखाई देते हैं।

इस प्रतिकूलता का कारण यही समझ में आता है कि ‘उत्कृष्ट कोटि’ का जीवन किसे कहते हैं इसको बहुत कम लोग जानते हैं। अधिकतर लोग ऊँचे दर्जे के रहन-सहन, आमोद-प्रमोद, हास-विलास और भोजन-भोग आदि की बहुतायत के साथ जीने को उत्कृष्ट कोटि का जीवन मानते हैं। जबकि ऐसा है नहीं। इस प्रकार की बहुतायत मिथ्यात्व से भरा बाहरी आडम्बर है। यह वास्तविक जीवन भी नहीं है तब उत्कृष्ट होने की तो बात ही नहीं रह जाती। वास्तविक जीवन बाह्य नहीं आन्तरिक होता है। जिसका अन्तर जितना ही स्वच्छ, पवित्र, परोपकारी, प्रेमपूर्ण तथा प्रसन्न है उसका जीवन उतना ही उत्कृष्ट माना जायेगा। इसके विपरीत जिसका हृदय मलीन, स्वार्थी, छली तथा असंतुष्ट है उसका जीवन उतना ही निकृष्ट कहा जायेगा फिर उसके पास क्यों न कुबेर का कोष हो और क्यों न वह इन्द्र जैसा भोग-विलास से पूर्ण विभ्रामक जीवन जी रहा हो। जीवन की उत्कृष्टता का मूल्याँकन बाह्य से नहीं अन्तर से ही किया जायेगा।

कर्म की प्रधानता और कामनाओं की नगण्यता पर निर्मित जीवन निश्चय ही उत्कृष्ट कोटि का होता है। जिस जीवन में कर्म की प्रधानता है निश्चय ही उसमें परिश्रम एवं पुरुषार्थ का पुण्य निवास करेगा। क्योंकि इन गुणों के अभाव में जीवन का कर्म-प्रधान हो सकना सम्भव नहीं। कर्म की प्रधानता के साथ जब कामनाओं की उपेक्षा भी की जाती है, उन्हें नगण्य ही रक्खा जाता है तब वह निष्काम कर्म, अलोलुप, पुरुषार्थ-परमार्थ—की श्रेणी में चला जाता है, जिसका परिणाम एक आन्तरिक एवं स्थायी सुख-शान्ति से भिन्न हो ही नहीं सकता। अहैतुक सुख-शान्तिपूर्ण जीवन ही उत्कृष्ट कोटि का जीवन है, मलीन, अशान्त तथा दुःखपूर्ण जीवन निश्चय ही निम्नकोटि का है और उच्चकोटि का जीवन कहा उसे भी नहीं जायेगा जिसका सुख संसार की नश्वर वस्तुओं पर निर्भर रहता हो अथवा पदार्थों के भावाभाव में आता जाता रहता हो। वस्तुओं पर निर्भर सुख की अनुभूति वास्तव में सुख नहीं होता वह वास्तव में ममता होती है जो वस्तुओं के अति संग से उत्पन्न दासता के कारण उत्पन्न होती है। ममत्व का सुख, सुख नहीं सुख की भ्रान्ति मात्र होती है जिसका आभास अज्ञान के कारण ही होता है।

कर्म के स्थान पर कामना प्रधान जीवन निकृष्ट कोटि का होता है। कामना प्रधान व्यक्ति जो कुछ करता है वह किसी कामना की पूर्ति के लिए ही करता है। उसकी रुचि-कर्म में नहीं बल्कि कामना की पूर्ति में ही रहती है। यही कारण है कि कर्म के माध्यम से जब उसकी कामना पूर्ति में कमी रह जाती है तब वह बहुत अधिक दुःखी तथा निराश होने लगता है। कामनायें जिनको कि लोग अज्ञानवश जीवन में प्रधानता दे देते हैं दुःख का मूलभूत कारण है। यह किसी भी सीमा में जाकर पूर्ण नहीं होतीं। इनका अस्तित्व अतृप्ति से अभिशप्त रहा करता है।

धन की कामना, पुत्र और कलत्र की कामना, पूजा एवं प्रतिष्ठा की कामना, कोठी, कार और लम्बे-चौड़े कार-रोजगार की कामना वास्तव में वे काँटे हैं जो मनुष्य को अपने में उलझाकर आगे बढ़ने ही नहीं देते। उस उच्च भूमिका उस आत्मिक स्तर पर पहुँचने ही नहीं देते जो मानव जीवन का वास्तविक श्रेय है। ऐसी बात नहीं कि मनुष्य जीवन में इनका कोई स्थान नहीं हैं? इनका स्थान है, किन्तु अपनी सीमा एवं उपयोगिता तक ही। जब यही और इन जैसी अन्य साँसारिक कामनायें जीवन का लक्ष्य बन जाती हैं तब निश्चय ही यह जंजाल प्राप्त कर मनुष्य का जीवन निम्न कोटि का बना देती हैं। कामनाओं से प्रेरित होकर कर्म करने में वह उच्चता, वह उदात्तता, वह राजत्व और वह शहंशाहियत नहीं रहती जो निष्काम कर्म करने में रहती है। सकाम कर्म तो कामनाओं की गुलामी करना है। गुलामी का जीवन कभी उत्कृष्ट नहीं हो सकता वह निम्न एवं निकृष्ट ही माना जायेगा! संसार का लघु-गुरु कोई भी कर्म-कर्तव्य समझ कर, ईश्वर की आज्ञा पालन मानकर करना चाहिए और उसका फल भी उसी को समर्पित कर देना चाहिये। ऐसे उदार कर्म के परिणाम स्वरूप आने वाली सफलता-असफलता दोनों ही मनुष्य को समान हर्ष उल्लास एवं सन्तोष देती है। वह उसकी प्रतिक्रिया से प्रभावित होकर संतुलन नहीं होता और धीर गम्भीर व्यक्ति की गरिमा से गौरवान्वित रहा करता है! ऐसा गौरवपूर्ण जीवन ही वास्तव में उच्चकोटि का जीवन है न कि पल-पल पर सफलता-असफलता से आन्दोलित होने वाला असंतुलित जीवन!

मनुष्य को उद्दात्त एवं उत्कृष्ट जीवन की प्राप्ति आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही हो सकती है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण मनुष्य को भौतिक के निम्न स्तर से उठा कर आत्मा की उन्नत भूमिका में पहुँचा देता है। आध्यात्मिक दृष्ट कोण में साँसारिक वासनाओं, कामनाओं, तृष्णाओं एवं स्वार्थों का उतना भी मूल्य नहीं होता जितना कूड़ा-करकट का। मनुष्य की इन वितृष्णाओं से मोह, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट तथा वाद-विवाद आदि विकारों का जन्म होता है जो कि मनुष्य के जीवन को लीन, दीन, हीन, क्षुद्र तथा पापपूर्ण बना देते हैं। अविकार एवं विशाल आध्यात्मिक दृष्टि में इन निकृष्टताओं के स्थान कहाँ। जहाँ निकृष्टता नहीं, वहाँ हीनता और विनता भी नहीं। वहाँ उच्चता एवं उदात्तता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है!

महानता का निवास वस्तुओं की बहुलता अथवा बहुमूल्यता में नहीं। उसका निवास मनुष्य की भावनाओं, विचारों तथा कर्मों में ही होता है! भावनाओं एवं विचारों की उन्नति आत्मा की उन्नति पर निर्भर है और आत्मा की उन्नति आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर ही अवलम्बित रहा करती है। संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर एवं सारहीन है। जो नश्वर है, सारहीन है, उसमें उत्कृष्टता की कल्पना करना अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है! वस्तुओं का अपना एक उपयोग है। उनका महत्व उनकी उपयोगिता तक ही सीमित रखना बुद्धिमानी है। उन्हें जीवन का सर्वस्व मान लेना अथवा जीवन को उनके अधीन कर देना निष्कृष्ट का साथ कर स्वयं को निकृष्ट बना लेने की भाँति हेय है! जीवन वस्तुओं के लिए नहीं, बल्कि वस्तुयें ही जीवन सेविकाएं हैं। इन्हें सेविकाओं के स्थान तक ही सीमित रखना ठीक है। जीवन को इन पर अवलम्बित कर देना और जीवन में इन्हें सर्वोपरि स्थान दे देना अपने को सेविका के अधीन बना देना है, जो कि स्वयं में ही एक निकृष्टतम परिस्थिति है! आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति नश्वर वस्तुओं का मूल्य ठीक-ठीक जानता-मानता और तदनुसार ही उनका सेवन भी करता है!

मानव जीवन में यदि कोई तत्त्व सारपूर्ण एवं शाश्वत है तो वह है आत्मा। अध्यात्मवादी व्यक्ति का विशाल दृष्टिकोण पंच भौतिक शरीर को भी अधिक महत्व नहीं देता। वह उसे आत्मा का वाहन अथवा उसका निवास कक्ष जानकर उसका उतना और वैसा ही पालन पोषण करता है; जितना कि आवश्यक एवं समीचीन होता है। वह उसके स्वामी आत्मा की उपेक्षा करके उसके वाहन की सेवा में ही बहुमूल्य जीवन को नहीं लगा देता! आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति अपना जीवन सम्बन्ध आत्मा से स्थापित करता है इस नश्वर शरीर से नहीं। संसार की सर्वोच्च सत्ता से सम्बन्ध स्थापित करने वाला स्वतः ही उच्च एवं उत्कृष्ट होता जायेगा। विराट, अमर, एवं अक्ष्यशील आत्मा का सम्बन्ध मनुष्य को निश्चय ही संसार की तुच्छताओं से निकाल कर विराट् एवं अविनाशी बना देगा। आत्मा का संग ही वह शुभ एवं सौभाग्यपूर्ण सत्संग है जो मनुष्य जीवन को अक्षय एवं अहैतुक सुख-शान्ति से भर देता है! आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति इस रहस्य को भली-भाँति जानता है और अपने ज्ञान का पूरा-पूरा लाभ उठा कर एक उद्दात्त एवं उत्कृष्ट जीवन प्राप्त करता है!

“हम शरीर हैं, शरीर की आवश्यकतायें पूरी करना


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