मानव जीवन की सार्थकता

December 1962

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जीव के लिये मनुष्य शरीर एक अलभ्य अवसर है! इस का सदुपयोग करने से वह जीवन लक्ष्य को प्राप्त करता हुआ परम शान्ति का अधिकारी बन सकता है। किन्तु यदि वह इस अवसर का व्यर्थ गँवाता है अथवा दुरुपयोग करता है तो फिर नरक की यातनायें तैयार हैं और चौरासी लाख निकृष्ट योनियों में भ्रमण करने की विवशता सामने है। इन्द्रिय तृप्ति तो जीव अन्य योनियों में भी कर सकता है पर परम पद की प्राप्ति कर सकना केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। चिरकाल के पश्चात ही सुर दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त होता है, इसे निरर्थक न गँवाना चाहिये।

स्वयं शान्ति से रहना और दूसरों को शान्ति से रहने देना यही जीवन जीने की सर्वोत्तम नीति है। दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो हमें अपने लिये पसंद नहीं। सत्य ही बोलना चाहिये। सभी से प्रेम करना चाहिये और अन्याय के मार्ग पर एक कदम भी नहीं धरना चाहिये। श्रेष्ठ,सदाचारी और परमार्थ युक्त जीवन ही मनुष्य की उपयुक्त बुद्धिमत्ता कही जा सकती है।

—महामना मदन मोहन मालवीय

वर्ष-23 सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य अंक-12


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