यह सत्यानाशी सामाजिक कुरीतियाँ

December 1962

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मनुष्य अपनी भीतरी दुर्बलताओं के कारण ही चिन्तित, परेशान और दुखी रहता है। बाह्य जीवन की किस समस्या को कितना महत्व दिया जाय, उसे किस दृष्टिकोण से देखा जाय, और कैसे सुलझाया जाय, इसका उचित मार्ग न मिलने से साधारण−सी बातें बहुत बढ़ी−चढ़ी दीखती हैं, और उनके सुलझाने का ठीक तरीका मालूम न होने से उलटी उलझती चली जाती हैं। प्रसन्न और भार−विहीन जीवन बिताने के लिये जीवन−विद्या के आवश्यक तथ्यों से हमें परिचित रहना ही चाहिए।

बढ़ा चढ़ा सिर दर्द

हिन्दू समाज में एक बड़ा सिर दर्द सामाजिक कुरीतियों के कारण उत्पन्न हो गया है। कितनी ही प्रथाऐं ऐसी चल पड़ी हैं जो बहुत धन खर्च करने की माँग प्रस्तुत करती हैं। मध्यम श्रेणी का व्यक्ति ईमानदारी से उतना ही मुश्किल से कमा सकता है, जिसमें उसके परिवार का गुजारा किसी प्रकार हो सकता है। इस महँगाई के जमाने में लम्बी चौड़ी बचत कर सकना सर्वसाधारण के लिए संभव नहीं। आये दिन बहुत धन खर्च कराने की माँग करने वाली कुरीतियों का भी यदि मुँह भरना है तो कोई बेईमानी के तरीके अपनाये बिना और रास्ता नहीं मिलता। एक रास्ता यह भी है कि पेट पर पट्टी बाँध कर, साग सत्तू से गुजारा करते हुए, बच्चों के मुँह में जाने वाली दूध की बूँदें बचा कर कौड़ी−कौड़ी धन जोड़ा जाय और इन कुरीतियों की पिशाचिनी को तृप्त किया जाय। तीसरा तरीका है कि घर के बर्तन, किवाड़ बेच कर, मित्र रिश्तेदारों से कर्ज लेकर तत्काल का काम तो चला लिया जाय पर पीछे भारी अभाव और तिरस्कार का जीवन बिताया जाय। कर्ज का ब्याज सिर पर चढ़कर दौड़ता है। सीमित आमदनी में वह चुक नहीं पाती तो जलील होना पड़ता है और परेशानी भी उठानी होती है।

बेईमानी की विवशता

यह परिस्थितियाँ मनुष्य को इस बात के लिए विवश करती हैं कि वह किसी भी प्रकार, कहीं से भी धन कमाये और जो कुरीतियाँ गले में फाँसी के फन्दे की तरह जकड़ी हुई हैं उनकी आवश्यकता पूरी करे। बेईमानी करने का हुनर, चातुर्य और अवसर भी सब किसी को नहीं होता। कुछ लोग चाहते हुए भी वैसा नहीं जुटा पाते तो चिन्ता की आग में घुल−घुल कर अप्रत्यक्ष आत्महत्या करने के लिये मन्द गति से अकाल मृत्यु की ओर चलते रहते हैं। इतना सब होते हुए भी हमारी मानसिक दुर्बलता यह सोचने नहीं देती कि क्या यह सामाजिक कुरीतियाँ आवश्यक ही हैं? क्या इन्हें सुधारा और बदला नहीं जा सकता?

विवाह-शादी का ही प्रश्न लीजिये। उसमें कितना पैसा खर्च होता है? धूमधाम, गाने, बजाने, आतिशबाजी, बरात, दावत, दहेज, जेवर आदि के लिये लोग इतना धन खर्च करते हैं जो उनकी हैसियत और औकात से बाहर होता है। तीन दिन के धूम−धमाके में जितने धन की होली जल जाती है, उतने धन को यदि लड़के-लड़की के स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवसाय या बचत पूँजी के लिए सम्भाल कर रखा गया होता तो उसका कैसा अच्छा उपयोग होता, कितना काम चलता। कुरीतियों की होली में जो गाढ़ी कमाई स्वाहा हो गई वह तो किसी के भी काम न आई फिर इस मूर्खतापूर्ण विडम्बना को खड़ा करने से क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ? यह विचारणीय बात है।

पैसे की होली फूँकना

यह धूम धमाके उन लोगों के यहाँ होते थे जिनके पास अनाप−शनाप पैसा भरा पड़ा था। कुछ दिन पहले जमींदारों, साहूकारों, राजा रईसों का बोलबाला था, वे अपने सामन्तवादी तरीकों से अशक्त और असंगठित जनता को आतंकित कर सहज ही अन्धा−धुन्ध धन एकत्रित कर लेते थे। इतना उदार हृदय था नहीं जो उस एकत्रित धन को किसी मानव सेवा में लगा दें। ऐसी बुद्धि होती तो वह धन एकत्रित ही कैसे हो पाता? इस एकत्रित पैसे का क्या उपयोग हो सकता था? दो ही मार्ग थे खाना और खुन्दरना। खाने के नाम पर हर प्रकार की ऐयाशी और खुन्दरना के नाम पर बिखेरना, होली जलाना। अपने बाल-बच्चों की विवाह-शादी के अवसरों पर यह लोग अन्धे होकर खर्च करते थे। रुपये पैसों को ठीकरी की तरह बखेरते भी थे। अब तो रिवाज कम हो गया है पर किसी जमाने में रुपये पैसों की बखेर भी विवाह-शादियों में खूब हुआ करती थी। लक्ष्मी का इस प्रकार तिरस्कार करने का उद्देश्य यही हो सकता था कि लोग यह अनुभव करें कि बखेर करने वाला इतना धनी है कि वह व्यर्थ पैसे को बखेरते फिरने में भी संकोच नहीं करता।

जिनके पास फालतू पैसा है वे जो चाहें वही कर सकते हैं। आज भी उनकी सामन्तवादी गतिविधियाँ चल रही हैं। उनकी रंग-रेलियाँ, चोचले और खूराफातें पहले भी चलती थीं और आगे भी चलेंगी। उन्हें कौन रोके? धन के समान वितरण और उपार्जन की समान सुविधा प्रस्तुत करने वाली कोई अर्थ-व्यवस्था बन सकी, तभी उन पर नियंत्रण होगा। पर जब तक ऐसा नहीं है तब तक भी इस बात की क्या जरूरत है कि हम गरीब लोग, उन अमीरों की नकल बनावें जिनके पास अनाप−शनाप लुटाने योग्य पैसा भरा पड़ा है।

अन्धानुकरण क्यों करें?

गरीब लोग जिनके पास गुजारे के लिये आवश्यक साधन नहीं, अमीरों की नकल करके उन्हीं का स्वाँग बनावें तो यह उनकी मानसिक दुर्बलता ही कही जायगी। इस दुर्बलता से पिण्ड छूटना कठिन है और जब तक यह कुरीतियाँ नष्ट न होंगी हमारी जीवन व्यवस्था अशान्ति में ही डूबी पड़ी रहेगी। बच्चे-बच्चियाँ हर गृहस्थ के घर में पैदा होने ही वाले हैं। जब पैदा होंगे तो उनका विवाह भी होगा। विवाह होगा तो धन चाहिये ही। धन चाहिये तो उसकी चिन्ता में निमग्न रहकर अनावश्यक बचत और अनुचित उपार्जन का मार्ग ग्रहण करना ही होगा। यदि इसमें भी सफलता न मिली और उपयुक्त साधन न जूट सके तो सारी आन्तरिक शान्ति खोकर दिन−रात चिन्ता में जलते−जलते, अप्रत्यक्ष आत्महत्या करनी ही होगी। कितना बड़ा कुचक्र है यह। इस कुचक्र में बँधा हुआ भारतीय जीवन किस प्रकार अस्त−व्यस्त हो रहा है यह विचार करते ही कलेजा टूटने लगता है और हृदय में एक हूक उठती है। हाय री, मानसिक दुर्बलता, काश हम तुझे छोड़ सके होते और यह विचार कर सके होते कि यदि यह कुरीतियाँ आवश्यक और उपयोगी नहीं, तो इन्हें छोड़ क्यों न दिया जाय, तो कितना अच्छा होता।

यह पिशाचिनी पूतना

द्वापर युग में एक पूतना नाम की पिशाचिनी हुई थी। भागवत पुराण में वर्णन है कि वह बड़ी भयंकर और विकराल थी पर बाहर से बड़ा सुन्दर मायावी रूप बनाये फिरती थी। उसका काम था बालकों की हत्या करना, इसी में उसे आनन्द आता था, आखिर पिशाचिनी ही जो ठहरी। अन्त में उसका दमन कृष्ण भगवान ने किया और लोगों के सामने उसके विकराल भयंकर रूप का भंडाफोड़ किया। आज सामाजिक कुरीतियों की अनेक पिशाचिनी चौंसठ मसानियों की तरह खूनी खप्पर भर−भर कर नाच रही हैं। इन सब में प्रमुख है ‟विवाहोन्माद डाकिनी” यह देखने में बड़ी सुन्दर लगती है। शादी-विवाहों के दिनों बड़ी रौनक और धूम-धाम होती है। पर अन्त में जो दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है उसे हममें से प्रत्येक जानता है। वह जिस घर में घुसती है उसकी अर्थ-व्यवस्था का सारा रक्त पी जाती है।

दहेज की असमर्थता के कारण अगणित बच्चियों को कुमारी रहना पड़ता है, बूढ़े या अयोग्यों के गले बँधना पड़ता है, वैधव्य भोगना पड़ता है, आत्महत्या करनी होती है, जीवन भर जलते रहना पड़ता है और भी न जाने क्या−क्या करना पड़ता है। बच्चों को पत्थर पर पटक−पटक यह पिशाचिनी भले ही न मारती हो पर उनका भविष्य अन्धकारमय जरूर बना देती है। बच्चों को ही नहीं, बच्चों के अभिभावकों को भी यह एक दो दिन नहीं वर्षों तक चिन्ता और व्यग्रता के एकान्त में आँसू बहाते रहने के लिए विवश करती रहती है। दुख इसी बात का है कि इन पूतनाओं का छद्म वेश अभी हमारी समझ में नहीं आता, इन्हें अभी भी हम सुन्दर और ग्राह्य माने बैठे हैं।

दुख इस बात का भी है कि कोई ऐसा कृष्ण उत्पन्न नहीं होता जो पूतना−वध का वास्तविक अभिनय करे। यों रास लीलाओं में तो पूतना मरते हम रोज ही देखते हैं और कथा वार्ताओं में पूतना वध का प्रसंग सुनकर प्रसन्न भी होते हैं। पर असली पूतना तो हमारे चारों ओर नग्न नृत्य कर रही है। बालिकाओं की छाती उस वीभत्स नृत्य को देख−देख कर दिन रात सूखती, सकपकाती रहती है। न जाने यह हत्यारी कब मरेगी? न जाने इसे मारने वाला कब तक पैदा होगा? यही प्रश्न भारत की आत्मा हर घड़ी पूछती है पर अन्तरिक्ष से उत्तर कुछ नहीं मिलता।

अपडर से न डरें

विवाहों में होने वाला अपव्यय, मृत्यु भोज में बाप-दादों के नाम पर लम्बी-चौड़ी दावतों का आयोजन, तीज-त्यौहारों पर रिश्तेदारी में भेजे जाने वाले अलन−चलन कितने खर्चीले सिद्ध होते हैं, इसे हर कोई जानता है। जनेऊ, मुण्डन, दस्टौन आदि के नाम पर लोग लम्बी-चौड़ी दावतें देने और उपहार बाँटने में अपनी सामर्थ्य से बाहर शेखीखोरी दिखाते हैं। वातावरण कुछ ऐसा बन गया है कि न किया जाय तो यह डर लगता है कि दूसरे लोग हमें गरीब या कन्जूस मानेंगे। यह अपडर सर्वथा निरर्थक और भ्रमपूर्ण है। आज परिस्थिति यह है कि हर कोई इन बुराइयों से परेशान है और चाहता है कि ये जितनी जल्दी मिटें उतना ही अच्छा है। पर आश्चर्य तो यह है कि वह ऐसा सोचता है कि मैं अकेला ही इसके विरुद्ध हूँ अन्य लोग पक्ष में हैं। जबकि सही बात इससे उलटी है। हर आदमी इन्हें समाप्त करने की इच्छा रखते हुए भी स्वयं पहल नहीं करना चाहता। इसमें उसे लगता है कि उसी को निन्दा और विरोध का पात्र बनना पड़ेगा। वास्तविकता यह है कि जो अपने विरोध को चरितार्थ करेगा उसे आज नहीं तो कल समाज का उद्धारक, त्राता और मार्ग−दर्शक माना जायेगा। प्रश्न पहल करने का है। पीप से भरा हुआ फोड़ा पूरी तरह पीला पड़ गया है और पिलपिला रहा है, अब जरा सा छेद करना बाकी हैं। उसी में झिझक हो रही है। कोई साहसी आगे बढ़कर पहल करने लगे तो यह सारी सड़न भरी पीप निकल बाहर हो और हमारा सामाजिक शरीर शुद्ध और स्वच्छ बन जाय।

विभिन्न प्रथा परम्पराएँ

धर्म और परम्परा की दुहाई देना बेकार है। हिन्दू समाज में आज भी इतनी परस्पर विरोधी प्रथाएँ चल रही हैं जिनको देखते हुए इन रीति-रिवाजों को केवल क्षेत्रीय रस्म-रिवाज और भेड़िया−धसान मात्र कहा जा सकता है। राजस्थान के राजपूतों तथा उत्तर प्रदेश तथा मध्यप्रदेश के कुछ रईस किस्म के लोगों में आज भी लम्बा घूँघट काड़ने और पर्दे में स्त्रियों को बन्द रखने की प्रथा मौजूद है पर पंजाब, गुजरात महाराष्ट्र, बंगाल, दक्षिण भारत में पर्दा का कहीं नाम निशान भी नहीं है। हिन्दू सभी हैं हिन्दू धर्म सभी मानते हैं। फिर पर्दा हिन्दू धर्म का अंग कैसे कहा जायेगा? मध्यप्रदेश तथा राजस्थान की मीना आदि अविकसित जातियों में अभी भी चार−चार, छः−छः वर्ष के बच्चों के विवाह होते हैं जबकि पंजाब और महाराष्ट्र में आमतौर से वयस्क होने पर ही विवाह होते हैं। बाल विवाह या वयस्क विवाह को धर्म-अधर्म की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता।

उत्तर प्रदेश, बंगाल आदि में दहेज का लेन−देन बहुत है। लड़की का विवाह बिना बहुत दहेज दिये अच्छे घरों में नहीं हो सकता। पर राजस्थान की कई जातियों में तथा पंजाब में जहाँ लड़कियों की कमी है बदले में लड़की देकर परस्पर विवाहों की व्यवस्था बनती है। गोंड, भीलों और भ्रमणशील जन-जातियों में लड़कियों का मूल्य लड़के वाले को देना पड़ता है। हिमालय की तराई में लड़कों को लड़की का इतना अधिक मूल्य कर्ज लेकर चुकाना पड़ता है कि प्रायः सारे जीवन उन्हें उस कर्ज में ही मजदूरी करनी पड़ती है। ऐसी दशा में यह कैसे माना जाय कि दहेज सनातन है, धर्मसम्मत है। यह तो प्रथा परम्परा मात्र हैं जो जहाँ जिस प्रकार चल पड़ीं चलने लगीं। इन्हें तोड़ते हुए सामाजिक विरोध का डर लोगों को लगा रहता है। यह डर निकल जाय और विवेक एवं उपयोगिता के आधार पर प्रथा परम्पराओं का मानना छोड़ा जाने लगे तो हमारी आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं का एक अत्यन्त सुखद हल निकल सकता है। लोकमत से डरना पाप और दुष्कर्म के लिए तो ठीक है पर अज्ञान और अविवेक की बातों का तो निराकरण ही वीरता है।

कन्या और पुत्र का अन्तर

कन्या और पुत्र में अन्तर किये जाने, लड़कियों को व्यर्थ और लड़कों को उपयोगी माना जाने की घृणित एवं पक्षपातपूर्ण मान्यता भी दहेज जन्य कठिनाई का एक कारण हो सकती है। लड़कों की कमाई खाने की मृगतृष्णा भी कई बार पुत्र को अधिक महत्व देती है। पिण्ड-तर्पण मिलने, वंश चलने जैसी बेकार बातें तो अब कोई−कोई ही मानते हैं पर लड़की से लड़के को श्रेष्ठ मानने की अन्याय दृष्टि अभी भी अपनी जड़ जमाये हुए है। शिक्षा, खानपान, जेबखर्च, वस्त्र आदि सभी में लड़कियों के साथ अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण रखा जाता है। जबकि वस्तुतः दोनों का महत्व समान है, दोनों का विकास समान रूप से आवश्यक है, दोनों की समान प्रसन्नता हमें होनी चाहिए। पर लड़का के होने से प्रसन्न होना या लड़की का जन्म दुर्भाग्य माना जाना ऐसा गलत विचार है जिसके कारण नारी का विकास बुरी तरह रुका हुआ है और हमारा आधा समाज पर्दे के भीतर कैदियों−सा, अविकसित, अशिक्षित एवं अपंग जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो रहा है। विवाह-शादियों पर होने वाला खर्च यदि लड़कियों की शिक्षा एवं विकास में लगाया जाय तो वे ही लड़कियाँ भी लड़कों के समान ही उपयोगी और महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती हैं।

जीवन को सुविकसित और शान्तिमय बनाने के लिए हमें सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध भी लोहा लेना होगा। इनके रहते हम न तो चिंतामुक्त हो सकते हैं और न ईमानदार रह सकते हैं। अनावश्यक कार्यों में विपुल धन खर्च करना पड़े तो उसे जुटाने में सारी प्रतिभा और सारी मानसिक शक्ति खर्च करनी पड़ेगी, ईमानदारी भी खोनी पड़ेगी। ऐसी दशा में वह श्रेष्ठ जीवन कैसे प्राप्त हो सकेगा जो शान्ति और प्रगति के लिए आवश्यक है?

व्यवस्थित जीवन की माँग

जीवन−विद्या की आरंभिक शिक्षा यह है कि हम पेट पालने और गृहस्थ चलाने के कार्यक्रम से कुछ समय, मन और धन बचा कर उन कार्यों में लगायें जो बौद्धिक विकास के लिए, आत्मिक प्रगति के लिए, लोकहित के लिए आवश्यक हैं। शिक्षा, स्वाध्याय, सत्संग, कला-कौशल, सामूहिक विकास, परमार्थ एवं सत्कर्मों के लिए हमारी शक्तियाँ लगें और हमारी कमाई का एक अंश इन कार्यों के लिए भी सुनिश्चित रहे। पर सामाजिक कुरीतियों का भार इतना अधिक हो जाता है कि उसे वहन करने में ही सारी शक्ति समाप्त हो जाती है । इस अपव्यय को रोकना होगा। हमारी अर्थ-व्यवस्था को नष्ट−भ्रष्ट करने का भारी उत्तरदायित्व इन खर्चीली कुरीतियों को है। अर्थ संतुलन जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसे हल करने के लिए जहाँ व्यक्ति गत रूप से आमदनी बढ़ाना और खर्च घटाना आवश्यक है वहाँ यह भी अनिवार्य है कि इन खर्चीली, मूर्खतापूर्ण, हानिकारक, विडम्बनामयी, बेकार सामाजिक कुरीतियों को ठोकर मार−मार कर दूर हटा दिया जाय। इसके बिना शान्तिमय जीवन की आकाँक्षा एक कल्पना मात्र ही बनी रहेगी।


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