कुसंग से आत्मरक्षा की आवश्यकता

December 1962

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पौधे खाद और पानी देने से बढ़ते हैं। प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलने से वे पनपती हैं। भली और बुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियाँ अपने भीतर रहती हैं उनमें से जिन्हें विकसित होने का अवसर मिलता है वह बढ़ती और फलती−फूलती हैं। जिन्हें ऐसा अवसर नहीं मिलता वह मुरझाई रहती हैं और धीरे−धीरे मृतप्रायः अवस्था में जा पहुँचती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि जिन प्रवृत्तियों को हम उपयोगी एवं आवश्यक समझते हैं उनके प्रोत्साहन की व्यवस्था करें।

सम्पर्क का प्रभाव

दृढ़ निश्चयी और आत्म−विश्वासी कोई बिरले ही होते हैं। अधिकाँश मनुष्य ऐसे होते हैं जो निकटवर्ती व्यक्तियों और परिस्थितियों के आकर्षण एवं प्रोत्साहन से प्रभावित होकर अपनी गतिविधियाँ प्रस्तुत करते हैं। देखा गया है कि संगति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है उनके गुण-दोषों के प्रति भी सहानुभूति उत्पन्न होती है और उनका अनुकरण करने की इच्छा उठने लगती है। बुरे लोगों के सम्पर्क में आकर अनेकों भोले−भाले व्यक्ति अनेकों बुराइयाँ सीख लेते हैं और कुमार्ग पर चलने लगते हैं। नशेबाजी का आरंभ प्रायः ऐसे ही होता है। नशीली चीजें न तो स्वादिष्ट होती हैं और न उपयोगी। उनका जायका भी बुरा होता है और पैसा भी खर्च करना पड़ता है। किसी उपयोगिता के कारण लोग नशा पीना आरम्भ नहीं करते वरन् सौ में से निन्यानवे बार यार-दोस्तों के आग्रह से या उनकी देखा−देखी यह बुरी लत आरम्भ होती है और धीरे−धीरे वह आदत में इतनी गहराई तक उतर जाती है कि फिर छुड़ाये नहीं छूटती।

दुष्प्रवृत्तियों की छाया

जुआ खेलना, गाली देना, आलस में पड़े रहना, ताश, शतरंज, चौपड़, कैरम आदि में वक्त बर्बाद करना, बढ़−चढ़कर शेखी मारना, फैशन बनाना आदि कितनी ही बातें ऐसी हैं जो यार-दोस्तों के द्वारा ही उपहार में मिलती हैं। जिनके साथ दोस्ती होती है उनकी आदतों के साथ भी दोस्ती बढ़ने लगती है। उनकी इच्छा, अनुरोध एवं प्रवृत्ति के साथ−साथ चलने से दोस्ती पक्की होती दीखती है इसलिए प्रभावशाली व्यक्ति के सम्पर्क में आने वाले उसके गुण-दोषों को भी सीख लेते हैं।

व्यभिचार आमतौर से ऐसे ही पनपता है। आरंभिक जीवन में हर कोई सदाचारी होता है। पाप से विशेषतया व्यभिचार सम्बन्धी पाप से हर किसी को बहुत डर लगता है क्योंकि हमारी धार्मिक और सामाजिक मान्यताऐं इसका बहुत विरोध करती हैं। आन्तरिक और सामाजिक दोनों ही प्रकार के भय, संकोच एवं लज्जा के कारण मनोविकार रहते हुए भी इस कुमार्ग पर सहसा कदम उठा सकना कठिन होता है। पर कुसंग में वह झिझक छूट जाती है। प्रारंभ वार्ता में अश्लील बातों में रस लेने से होता है और अन्त पतन के गहन गर्त में गिरने के साथ होते देखा गया है। कुसंगति में ही यह पतन पनपता है। भोले बच्चे और बच्चियाँ दुष्ट दुराचारी लोगों के सम्पर्क में आकर अपना भविष्य अन्धकारमय बनाते हैं और छूत की बीमारी की तरह यह लत एक से दूसरे को लगती चली जाती है।

सत्संगति का सत्परिणाम

अच्छी संगति का भी प्रभाव होता ही है। प्रभावशाली व्यक्तित्व अपने समीपवर्ती लोगों पर असर जरूर छोड़ते हैं। ऋषियों के आश्रमों में सिंह व गाय एक घाट पानी पिया करते थे इसका कारण यही था कि प्रेम, अहिंसा और सद्भावना से भरा हुआ जो प्रबल भावना प्रवाह वहाँ बहता था। उससे हिंस्र पशु भी प्रभावित हुए बिना न रहते थे। चंदन के समीपवर्ती छोटे−बड़े अन्य पेड़ पौधे भी सुगन्धित हो जाते हैं। फूल टूट− टूटकर जिस भूमि पर गिरते रहते हैं उस मिट्टी में भी खुशबू आने लगती है, फिर सद्गुणी और सज्जनों के सम्पर्क में आने वालों पर वैसा ही प्रभाव क्यों न पड़ेगा? सुसंगति को पारस की उपमा दी गई है। लोहा पारस मणि को छूकर सोना हो जाता है, सज्जनों के सम्पर्क में साधारण व्यक्ति भी महत्ता को प्राप्त करते देखे गये हैं। सत्पुरुषों के सम्पर्क -------से मनुष्य की सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं। सूर्यमुखी का फूल उधर ही मुड़ता रहता है जिधर सूरज घूमता है। प्रभात होते ही कमल की कली का मुख खुल जाता है। श्रेष्ठ व्यक्तियों का प्रभाव पड़ते ही मनुष्य की अन्तरात्मा में छिपी हुई सत्प्रवृत्तियाँ भी उसी प्रकार खिलने और विकसित होने लगती हैं।

बुरे वातावरण से दूर रहें

व्यक्तियों के द्वारा व्यक्तियों पर पड़ने वाले प्रभाव की महत्ता को समझते हुए हमें निरन्तर ध्यान रखना चाहिए कि अपना सम्पर्क बुरी आदत वाले लोगों के साथ न रखें। वे प्रत्यक्ष कुछ भी न कहें पर परोक्ष रूप से उनका प्रभाव अपने ऊपर पड़ता है। कम से कम जो बुराई उनमें हैं उनसे घृणा तो तुरन्त ही घट जाती है। शराब से अभी अपने को घोर घृणा है पर यदि अपने दो घनिष्ठ मित्र शराब के आदी और उनकी वह आदत अपने सामने ही चरितार्थ होती रहेगी तो अपने मन में जो घोर घृणा थी वह थोड़े ही दिनों में समाप्त हो जायगी। इतना ही नहीं शराब को उठाने, धरने, खरीदने लाने की भी झिझक जाती रहेगी और एक दिन उसे पीने लगने का भी अवसर आ सकता है। भले ही वे दोस्त उसके लिए कुछ भी आग्रह न करें पर दोस्ती और सम्पर्क के फलस्वरूप इतना प्रभाव तो अपने आप ही पड़ता है।

अच्छे व्यक्ति चाहे कुछ भी न कहें, कोई शिक्षा या आदेश भी न दें, पर उनके जीवन की स्वच्छता, शान्ति, पवित्रता एवं महत्ता स्वयमेव समीपवर्ती लोगों को यह सिखाती है कि इस मार्ग पर चलते हुए आदर्श एवं श्रेष्ठ जीवन व्यतीत किया जा सकता है। अच्छे लोगों के निकट का जो उत्कृष्ट वातावरण रहता है उसमें अच्छाइयाँ पनपती हैं। श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की और बुराइयाँ छोड़ देने की इच्छायें स्वयमेव उठने लगती हैं। कितने ही दोष-दुर्गुण तो उस उत्तम वातावरण के कारण अपने आप ही छूट जाते हैं, उसके कारण अपने को स्वयं ही लज्जा और ग्लानि होने लगती है, जिससे उन्हें छोड़ देने के लिए ही अग्रसर होना पड़ता है।

तीर्थ यात्रा का उद्देश्य

प्राचीनकाल में तीर्थ यात्रा का एक प्रमुख उद्देश्य यह था कि उत्कृष्ट चरित्र के, आदर्श जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुष, ऋषि, तपस्वी जहाँ रहते हैं, वहाँ चलकर उनके सान्निध्य में श्रेष्ठ वातावरण का लाभ उठाया जाय। तीर्थ वह स्थान थे जहाँ महा−मानव निवास करते थे और आगन्तुकों को उत्कृष्ट जीवन की प्रेरणा प्रदान किया करते थे। इसी लाभ की आशा से सुदूर प्रदेशों की कठिन यात्रा करके लोग उन तीर्थों में पहुँचते थे और वहाँ के नदी सरोवरों में स्नान, देवालयों के दर्शन करने के अतिरिक्त देवत्व की सजीव प्रतिमाओं का ज्ञान गंगा में अन्तःकरण को नहलाने का भी लाभ प्राप्त करते थे। आज वह परिस्थितियाँ नहीं रहीं। तीर्थ केवल जलाशयों और देवालयों के बाह्य उपकरणों तक सीमित रह गये। फिर भी लोग बड़ी संख्या में अभी भी वहाँ पहुँचते हैं, इससे प्रतीत होता है कि सत्संग की पुण्य परम्परा को किसी समय कितना अधिक महत्व मिला हुआ था जिसकी रूढ़ि भी आज इतने समय पश्चात् भी, इतने विशाल परिमाण में विद्यमान है।

आत्म रक्षा के लिए उपेक्षा

हर साल रावण का पुतला जलाने और रामचंद्र जी को गद्दी पर बिठाने की रामलीला जगह−जगह होती है। इसका तात्पर्य यह है कि बुरे व्यक्तियों से दूर रहने और अच्छों के सम्पर्क में आने की हमारी प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती रहे। सम्पर्क बढ़ाते समय हमें सदा ही यह स्मरण रखना चाहिए कि यह व्यक्ति गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से किस श्रेणी का है। यदि उसमें बुराइयाँ अधिक और अच्छाइयाँ कम दिखाई दें तो अच्छा यही है कि उससे घनिष्ठता न बढ़ने दें। स्त्री−बच्चों को तो विशेषतया उनके सम्पर्क में आने से रोकें। क्योंकि वे बहुत भावुक एवं भोले होते हैं। चतुर, चालाक व्यक्ति आसानी से उन्हें बहका सकते हैं और उनमें अपनी बुरी आदतें प्रविष्ट कर सकते हैं। शिष्टाचार निबाहना बात दूसरी है। जरूरत पड़ने पर काम की बात भलमनसाहत के साथ हर किसी से करनी चाहिए। यह तो शिष्टाचार की माँग है। पर इतने से अधिक आगे यदि घनिष्ठता की ओर कदम बढ़ाते हैं तो सौ बार सोचना चाहिए कि वह व्यक्ति इसके उपयुक्त भी है या नहीं। अकेले बैठे रहना अच्छा है, समय को अच्छी पुस्तकें पढ़ कर या हरे जंगलों में घूम कर निकाल लेना अच्छा है, पर निकम्मे लोगों के साथ हा-हा, हू-हू करते हुए चाण्डाल चौकड़ी जमाना ठीक नहीं हैं। बुराई से बचने के लिए यह जरूरी है कि हम बुरे लोगों से बचे रहें।

स्त्री−बच्चों को सुरक्षा

आज की एक अत्यन्त विषम समस्या यह है कि हम बुरे लोगों के द्वारा निरन्तर फेंके जाने वाले दुष्प्रभाव से अपनी और अपने बच्चों की रक्षा कैसे करें? वयस्क व्यक्ति तो समझदार भी होते हैं, अपना भला बुरा सोच भी सकते हैं, पर स्त्री-बच्चों में यह बुद्धि भी ठीक तरह विकसित नहीं हो पाती, उनके लिए कुसंग विष की तरह घातक सिद्ध होता है। सभ्य घरानों के अनेकों बच्चे कुसंग में बिगड़ते हैं और वे ऐसे बिगड़ते है कि अपना और अपने परिवार का सर्वनाश ही कर बैठते हैं। घर से पैसे चुराकर मटरगश्ती के लिए दोस्तों के साथ भाग खड़े होने को अगणित घटनाऐं आये दिन सुनने में आती रहती हैं। घर में छोटी-मोटी कहा सुनी हो जाने पर भाग खड़े होना तो एक बहाना होता है, वस्तुतः पहले से ही दोस्त लोग स्वेच्छाचार की शिक्षा उन्हें देते रहते हैं और कोई छोटी-मोटी नाराजी का कारण प्रस्तुत होते ही वह शिक्षा सार्थक हो जाती है। कितने ही लड़के घर रहते हुए भी आवारागर्दी में दिन बिताते हैं। दूसरे आवारा लड़कों का साथ ही इसका प्रमुख कारण होता है। स्त्रियों का सम्पर्क यदि ऐसी नीच औरतों में रहे तो वे घर में ईर्ष्या द्वेष के बीज बोती रहती हैं। असंतोष उत्पन्न करने वालों, कलह भड़काने वालों, निराशा एवं खिन्नता उत्पन्न करने वालों के तौर तरीके ऐसे होते हैं जिनके कारण बने घर बिगड़ते देखे गये हैं। बिच्छू और काँतर से जिस प्रकार सावधान रहा जाता है उसी प्रकार कुसंग से भी बचाव रखा जाना चाहिए।

अखरने वाला सूनापन

साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह सदा अकेला नहीं रह सकता। उसे जन-सम्पर्क से ही सुख मिलता है और सूनापन अखरता है इसलिए अन्य जीवनोपयोगी आवश्यक साधन जुटाने के समान ही सुसंगति का भी आयोजन करना चाहिए। व्यस्त जीवन वाले व्यक्तियों ने इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए क्लबों की पद्धति निकाली है। समान विचारों और समान स्तर के लोग अपना एक संघ एवं क्लब बनाते हैं। नियत समय पर सब लोग इकट्ठे होकर मनोरंजन एवं ज्ञान वर्धन करते हैं। इस प्रकार सूनापन भी नहीं अखरता और संगति का लाभ भी मिलता रहता है। धार्मिक दृष्टि से जहाँ−तहाँ सत्संगों का आयोजन रहता है। प्राचीन काल में गुरु और शिष्य सत्संग भी करते थे। गुरुकुलों में केवल पढ़ना−लिखना ही नहीं सिखाया जाता था वरन् जीवनोपयोगी महत्वपूर्ण विषयों पर मार्मिक विचार−विनिमय भी होता था। शिक्षा के साथ सत्संग का समावेश होने से प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली सफल होती थी। अब केवल मात्र पढ़ने की व्यवस्था विद्यालयों से रह जाने से बालकों के आन्तरिक विकास की एक भारी कमी रह ही जाती है।

व्यस्तता आज हर आदमी को परेशान रखे हुए है। समय का सभी को अभाव है। दुर्गुणी लोग तो निठल्ले रह भी सकते हैं पर सद्गुणी लोग तो एक−एक क्षण को बहुमूल्य समझ कर निरन्तर कार्य व्यस्त रहते हैं। इसलिए कुसंग की अपेक्षा सत्संग प्राप्त करना आज अत्यधिक कठिन हो रहा है फिर भी इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए और जब भी जितना भी अवसर मिल सकता हो श्रेष्ठ पुरुषों की संगति का लाभ उठाना चाहिए। सभा सम्मेलनों के माध्यम से यदा-कदा सद्-विचारों की प्राप्ति होती रहती है। यद्यपि उतने मात्र से वक्ताओं से व्यक्तिगत सम्पर्क में आकर उनका चारित्रिक प्रभाव ग्रहण करने का अवसर नहीं मिल पाता तो भी विचारों का कुछ लाभ तो मिलता ही है। जिन सभा सम्मेलनों में जीवन विकास का उपयोगी शिक्षण प्राप्त होने की संभावना हो उनमें सम्मिलित होने का भी प्रयत्न करते रहने चाहिए।

सज्जनता से सम्पर्क बढ़े

यह एक तथ्य है कि कुसंग से बचना और सत्संग का लाभ उठाना दुष्प्रवृत्तियों के शमन और सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। इस ओर उपेक्षा तनिक भी नहीं करनी चाहिए। यदि अपना सम्पर्क दुष्ट दुराचारी लोगों के साथ बन गया है तो उसे शिथिल करते चलना चाहिए और यदि सत्पुरुषों से अपना थोड़ा भी परिचय है तो उसे घनिष्ठता की दिशा में विकसित करना चाहिए। सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले प्रभाव से हम अपरिचित न रहें, आज की परिस्थितियों में जबकि दोष−दुर्गुणों का ही चारों ओर साम्राज्य छाया हुआ है इस सम्बन्ध में सतर्क रहने की आवश्यकता है।

आत्म विश्वास और दृढ़ चरित्र की ऐसी मजबूत नींव अपनी मनोभूमि में जमानी चाहिए कि बुरे लोगों की बुराई उससे टकरा कर उसी प्रकार विफल हो जाय जैसे गैंडे की खाल से बनी ढाल से टकरा कर तलवार का वार विफल हो जाता है। विवेकशीलता और आत्मगौरव का ध्यान न रखते हुए सभी दुष्प्रभावों को निरस्त करते रहना चाहिए जो चारों ओर से निरन्तर अपने ऊपर हमला करते रहते हैं। उनकी ओर घृणा और तुच्छता के भाव रखकर हेय व्यक्तियों के दुष्कर्मों का हमें तिरस्कार करते रहना चाहिए। कभी भी उनके सामने आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए। पाप के प्रति घृणा और पुण्य के प्रति श्रद्धा रखकर हम अपनी सत्प्रवृत्तियाँ को विकसित करते रह सकते हैं और साथ ही दुष्प्रवृत्तियों से आत्मरक्षा कर सकने में समर्थ भी हो सकते हैं।


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