प्रशंसा और प्रोत्साहन का महत्व

December 1962

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जिस प्रकार दूसरों को अपना समय, धन या सलाह देकर उनका कुछ न कुछ भला हम कर सकते हैं उसी प्रकार प्रोत्साहन देकर भी अनेकों की भलाई कर सकना संभव हो सकता है।

मनुष्य का मन सदा द्विविधा में डूबा रहता है। आशा-निराशा के झूले में झूलता हुआ वह आगे-पीछे होता रहता है। पाप और पुण्य की प्रवृत्तियाँ भी धूप छाँह की तरह उस पर काली-सफेद छाया डालती रहती हैं। सद्गुणों और दुर्गुणों के ज्वार भाटे भी आते रहते हैं। इन परस्पर, विरोधी वृत्तियों में जिसे आश्रय मिल जाता है वही जड़ पकड़ लेती है और जिसकी उपेक्षा होती है वह शान्त और समाप्त होने लगती है।

प्रोत्साहन की उपयोगिता

इन कोमल भावनाओं का विकास और विनाश दूसरों के प्रोत्साहन अथवा विरोध से बहुत कुछ संबंधित रहता है। साधारणतः लोग अपने बारे में कुछ ठीक विश्लेषण नहीं कर पाते। इसके लिए वे दूसरों की सम्मति पर अवलंबित रहते हैं। जब दूसरे लोग अपनी प्रशंसा करते हैं तो मन प्रफुल्लित होता है, गर्व अनुभव होता है और लगता है कि हम वस्तुतः प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं। पर जब औरों के मुँह से अपनी निन्दा, असफलता और तुच्छता की बात सुनते हैं तो दुःख होता है, मन टूटता है, निराशा आती है। प्रशंसा करने वाले के प्रति कृतज्ञता इसलिए मन में उठती है क्योंकि उसने हमारे सद्गुणों की चर्चा करके मानसिक उत्थान में भारी योग दिया है। वह हमें मित्र और प्रिय लगता है। पर जो लोग अपनी निन्दा करते हैं, वे शत्रु दीखते हैं, बुरे लगते हैं, क्योंकि उनने अपना बुरा पहलू सामने प्रस्तुत करके मन में निराशा और खिन्नता उत्पन्न कर दी। आत्म निरीक्षण की दृष्टि से अपने दोष, दुर्गुणों को ढूँढ़ना उचित है। किन्हीं घनिष्ठ मित्र को एकान्त में उनकी अनुपयुक्त गतिविधियों को सुधारने के लिए परामर्श देना भी उचित है। ऐसा करते समय हर हालत में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि व्यक्तित्व का निराशात्मक चित्रण न किया जाय। किसी को भी लगातार खराब, अयोग्य, पापी, दुर्गुणी, दुष्ट, मूर्ख कहा जाता रहेगा तो उसका अन्तर्मन धीरे−धीरे उन कहे जाने वालो बातों को सत्य स्वीकार करने लगेगा। यदि यह मान लिया जाय कि हम वस्तुतः अयोग्य हैं, बुरे हैं तो फिर मनोभूमि ऐसी ढलने लग जायगी कि जिसमें हिम्मत टूट जाती है, निराशा घेर लेती है, और कोई काम करते हुए मन भीतर ही भीतर सकपकाता रहता है कि कहीं काम बिगड़ न जाय और मूर्ख न बनना पड़े। इस सकपकाहट में हाथ-पैर फूल जाते हैं और बने काम भी बिगड़ने लगते हैं।

प्रेरणा का प्रभाव

कहते हैं कि एक बार कुछ चालाक लड़कों ने छुट्टी पाने के लिए षडयन्त्र रचा कि मास्टर को बीमार बनाया जाय और छुट्टी होने पर मस्ती की जाय। उनमें से एक ने मास्टर के पास जाकर गम्भीरता से कहा−‛गुरुजी आप बीमार मालूम पड़ते हैं।’ मास्टर ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। कुछ देर बाद दूसरे लड़के ने उनके पास जाकर चिन्ता व्यक्त की—‛आज तो आपका चेहरा बहुत उदास है, आँखें लाल हो रही हैं और बीमारी जैसे लक्षण प्रतीत होते हैं।’ इसी प्रकार एक−एक करके और लड़के भी आये और उनने भी वही बात दुहराई। बेचारे मास्टर के मन पर उनकी छाप पड़ी और वह सचमुच ही अपने आपको बीमार अनुभव करने लगा। और स्कूल की छुट्टी करके घर चला गया। लड़कों ने अपनी चालाकी से मनोरथ पूरा कर लिया।

विश्वास की शक्ति

जर्मनी के एक वैज्ञानिक ने दूसरों की बात का मनुष्य के मन पर किस हद तक बुरा प्रभाव पड़ सकता है इसका परीक्षण करने के लिए एक मृत्यु दण्ड वाले कैदी को प्राप्त किया और उसे विश्वास की शक्ति द्वारा मार डालने का प्रयोग किया। कैदी को एक मेज पर लिटा दिया गया। आँखों पर पट्टी बाँध दी गई। गले के पास एक जरा सी पिन चुभो दी गई। पानी की एक हलकी धारा गले को छूती हुई बहती रहे ऐसी नली सटा दी गई। नीचे टपकने वाले पानी को इकट्ठा करने के लिए एक बाल्टी रखी गई। कैदी को कहा गया कि उसके रक्त की एक आवश्यक कार्य के लिए जरूरत है, इसलिए मृत्यु दण्ड की यह व्यवस्था की गई है कि कष्ट भी कम हो, सारा रक्त निकल जाने से मृत्यु भी हो जाय और आवश्यक कार्य के लिए रक्त भी प्राप्त हो जाय। इसलिए वह चुपचाप लेटा रहे कुछ ही देर में उसकी मृत्यु शान्तिपूर्वक हो जायगी।

कैदी ने वैज्ञानिक की बात पर विश्वास कर लिया। गले के पास से नली द्वारा बहते हुए और नीचे बाल्टी में टपकते हुए पानी को वह अपना रक्त समझने लगा। डाक्टर लोग बार-बार उसकी नाड़ी देखते और झूठ-मूठ यह कहते कि इसका रक्त निकल चुका अब इतना और रहा है, इतनी देर में बेहोशी आने वाली है और इतनी देर में मृत्यु हो जायगी। कैदी डाक्टरों के कथन पर विश्वास करता गया अतः ठीक समय पर उसकी मृत्यु हो गई। तब वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि विश्वास के आधार पर किसी व्यक्ति को इतना प्रभावित किया जा सकता है कि उसकी मृत्यु तक हो जाय।

ठगी का षडयन्त्र

पंचतंत्र में एक कथा आती है कि एक व्यक्ति अपने कंधे पर बकरी लादे कहीं जा रहा था। ठगों ने उसे बहका कर बकरी प्राप्त करने का षडयंत्र बनाया। रास्ते में सब ठग दूर−दूर बिखर गये। एक ठग रास्ते में उस व्यक्ति को मिला, उसने कहा, “कंधे पर कुत्ता रख कर कहाँ लिये जा रहे हो?” पथिक ने उत्तर दिया, ‛यह तो बकरी है।’ ठग ने कहा−किसी जादूगर ने तुम्हें भ्रमित करके बकरी के बदले कुत्ता दे दिया मालूम पड़ता है। यदि तुम्हें संदेह हो तो आगे रास्ते में मिलने वाले यात्रियों से पूछना। पथिक के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। उसने कुछ दूर पर मिले यात्री से पूछा। मेरे कंधे पर क्या है? उस यात्री वेशी ठग ने पूर्व निश्चित षडयंत्र के अनुसार उत्तर दिया−कुत्ता। अब तो उसका संदेह और भी बढ़ा और सोचने लगा सचमुच मुझे जादू से भ्रमित करके बकरी के बदले कुत्ता दे दिया गया है। आगे कुछ−कुछ दूरी पर दूसरे और दो ठग मिले। उनसे पूछा तो उनने भी बकरी को कुत्ता बताया। अन्त में पथिक को विश्वास हो गया कि यह बकरी नहीं कुत्ता है। अन्ततः वह उसे रास्ते में ही छोड़कर चल दिया। ठगों ने वह छोड़ी हुई बकरी प्राप्त कर ली और अपनी मनोवैज्ञानिक चतुरता का लाभ उठाया।

मान्यताओं का प्रभाव

भेड़ों के झुण्ड में पले हुए सिंह शावक की कथा प्रसिद्ध है जो अपने को भेड़ ही समझता था और घास खाता था। दूसरे सिंह द्वारा उद्बोधन करने पर ही उसे आत्मज्ञान हुआ था और तब वह पुनः अपने को सिंह समझने और वैसा ही आचरण करने में समर्थ हुआ था। हम सब इसी प्रकार की भेड़ें बने हुए हैं। जैसा हमने अपने को समझा है, दूसरों ने जैसा कुछ हमें हमारा स्वरूप समझाया है वैसे ही तो हम बने और ढले हैं। करोड़ों अछूत अपने से उच्च वर्ण वालों को छूने और उनके साथ बैठने में संकोच करते हैं, लोगों द्वारा उन्हें अछूत कहे जाने पर वे सचमुच अपने को वैसा ही समझने भी लगते हैं। भूत का भय ऐसी ही भ्रान्तियों पर निर्भर है। दूसरों से भूतों की कहानियाँ सुनते−सुनते लोग उस बात पर विश्वास करने लगते हैं। छोटी−मोटी बीमारी को भूत की करतूत मान लेते हैं और फिर स्याने ओझा जब भूत बाधा की पुष्टि करते हैं तो वह बात और भी गहराई तक मन में बैठ जाती है। फिर वह भूत प्राण लेकर ही पीछा छोड़ता है। विश्वास की शक्ति अपार है। दूसरों के कहने का मनुष्य पर यह प्रभाव पड़ता है कि वह अपने को सचमुच की वैसा मानने लगता है सूने मकानों में चूहों की खटपट में और सुनसान रात में झाड़ी की छाया में भूत नाचते दीखते हैं। उनसे डर कर कई तो बीमार होते और मरते तक देखे गये हैं। डर अपने आप में एक तथ्य है जो विष से कम नहीं अधिक ही घातक सिद्ध होता है।

बालकों की मनोदिशा

व्यक्ति अपने बारे में जैसी ही निन्दा−प्रशंसा की, छोटे या बड़े होने की, नर या नारी होने की बातें सुनता रहता है तो उसकी मान्यता अपने बारे में वैसी ही बन जाती है। बच्चे जन्म से यह नहीं जानते कि यह लड़की है या लड़का। पर जब घर वाले लड़की-लड़कों के बीच भिन्न प्रकार के वस्त्र व्यवहार एवं भाषा में बात करते हैं तब वे अपनी भिन्नता पर विश्वास कर लेते हैं। यदि उनके साथ यह भेद न बरता जाय और उन्हें अन्तर समझने का अवसर न मिले तो वे सब प्रकार समता का आचरण करने लगेंगे। अति प्यार और अति प्रशंसा से बालक जहाँ जिद्दी और अहंकारी बनते है वहाँ वे बार−बार निन्दा एवं तिरस्कार से अपनी दीनता और तुच्छता भी अनुभव करने लगते हैं। जिन बच्चों को आरंभिक जीवन में बार−बार बेवकूफ, नालायक, बदमाश आदि कहा जाता रहा है उनका व्यक्तित्व जीवन में प्रभावशाली बन न सकेगा। जिन बच्चों को बचपन में स्नेह और सम्मान नहीं मिल पाता वे बड़े होने पर निष्कृष्ट प्रवृत्तियों से ग्रसित बन जाते हैं। बच्चों के लिए जहाँ अच्छे लालन−पालन की, अच्छे आहार−विहार की आवश्यकता रहती है वहीं यह भी नितान्त आवश्यक होता है कि उन्हें स्नेह और सम्मान की मात्रा प्राप्त होती रहे। व्यक्तित्व का विकास और निखार प्रोत्साहन और प्रशंसा के आधार पर होता है। अन्न और जल जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए आवश्यक हैं उसी प्रकार मानसिक विकास के लिए प्रशंसा और प्रोत्साहन की उपयोगिता मानी गई है।

बच्चे हों या बड़े यह आवश्यकता सभी में समान रूप से बनी रहती है। ऐसे मनस्वी तो कोई−कोई ही देखे जाते हैं जो दूसरों की प्रशंसा का ध्यान न करके अपने प्रबल आत्मविश्वास के आधार पर अपना उत्कर्ष स्वयं करते हैं और विपन्न परिस्थितियों में भी साहस को बनाये रहते हैं। साधारणतः तो यही परम्परा चलती है कि प्रेरणा और प्रशंसा से प्रोत्साहित होकर लोग अपने मन को बढ़ाते और घटाते रहते हैं।

अच्छाइयाँ ढूँढ़ें प्रशंसा करें

हमें अपने सभी स्वजन संबंधियों की, परिचित− अपरिचितों की सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। ढूँढ़ने पर हर किसी में कुछ गुण मिलते हैं, अच्छाइयों से रहित इस धरती पर कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ। जिसमें जो सद्गुण दीख पड़े उनकी चर्चा उस व्यक्ति के सामने की जाय कि वह इन गुणों को बढ़ाते हुए एक दिन बहुत उन्नतिशील बन सकता है, तो निश्चय ही इस प्रशंसा का प्रभाव उस पर पड़े बिना न रहेगा। प्रशंसक बनकर हम हर व्यक्ति के मित्र बन सकते हैं। उसे समझाने और सुधारने में भी सफल हो सकते हैं। पर यदि निन्दा और भर्त्सना करना ही हमने सीखा है तो सब कोई अपने शत्रु बनते जायेंगे और अपनी सीख को भी दुर्भावना मान कर उसके प्रतिकूल आचरण करेंगे। सुधार की दृष्टि से कभी−कभी मधुर शब्दों में दोषों को बहुत ही आत्मीयता से एकांत में बता देना भी उन्हें सुधारने की बात की जा सकती है और यह सब बहुत ही सावधानी से आत्मीयता और सौजन्य के वातावरण में कहा जान चाहिये और समझाने के बाद अन्त में फिर एक बार अपनी सद्भावना और आत्मीयता की सफाई दे देनी चाहिए कारण यह है कि कोई व्यक्ति यह मान ले कि अमुक व्यक्ति मुझसे घृणा करता है तो फिर वह उसके प्रति शत्रुता जैसी दुर्भावना रखने लगता है। तब उसकी सलाह को भी वह दो कौड़ी का महत्व देता है। इसलिए सुधारात्मक, आलोचनात्मक चर्चा बहुत ही सावधानी से, नपे तुले और स्नेह शिष्टाचार मिश्रित मधुर शब्दों में ही करनी चाहिए और ऐसे अवसर कभी−कभी ही आने देने चाहिए।

हम निन्दक नहीं, प्रशंसक बनें

आमतौर से हमें प्रशंसक की ही भूमिका प्रस्तुत करते रहना चाहिये जिससे उनके सद्गुण बढ़ें। साहस और आत्मविश्वास बढ़ा कर ही किसी को श्रेष्ठता के कठिन सन्मार्ग पर चलाया जाना संभव हो सकता है। दमन और दंड से, निन्दा और तिरस्कार से कोई दुर्गुण दब तो जाते हैं पर अवसर मिलने पर वे प्रतिहिंसा के साथ और भी भयंकर रूप में प्रकट होते हैं। दोषों का उन्मूलन तो गुणों की वृद्धि से ही संभव है। गुणों को बढ़ाने में प्रोत्साहन और प्रशंसा का मार्ग सर्वश्रेष्ठ है। स्वच्छ वायु फेफड़ों में भरने से पुरानी गंदी वायु को बाहर निकालना ही पड़ता है। सद्भावनाएँ बढ़ने से दुर्भावनाएँ घटती ही हैं। सुधार का यही मार्ग अधिक प्रामाणिक और सुनिश्चित सिद्ध होता है।

शत्रुओं की संख्या घटाने और मित्रों की संख्या बढ़ाने का सबसे सरल और सबसे प्रभावशाली तरीका यह है कि हम दूसरों के गुणों को देखें, अच्छाइयों की चर्चा करें और अपनी प्रसन्नता एवं भविष्य में और प्रगति की आशा व्यक्त करें। यह स्वभाव बना लेने पर हम दूसरों को अच्छाई के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ा सकते हैं, बहुत सुधार सकते हैं और उनके मनोबल में भारी अभिवृद्धि कर सकते हैं। बिना कौड़ी, छदाम खर्च किये दूसरों का भारी उपकार कर सकने का यह गुण यदि अपने में विकसित हो जाय तो परमार्थ का बहुत पुण्य प्राप्त हो, साथ ही अपने मित्रों की संख्या अत्यधिक हो जाने से उन्नति, प्रगति, सहयोग और सम्मान का मार्ग भी प्रशस्त बने। अपने स्वभाव, दृष्टिकोण और संभाषण में हमें इतना सुधार तो कर ही लेना चाहिए। जीवन विद्या के इस अत्यधिक महत्वपूर्ण तथ्य को हमें हृदयंगम कर ही लेना चाहिए।

शत्रुता की मित्रता में परिणित

कथा है कि विश्वामित्र ने वशिष्ठ के पुत्रों को मार डाला और वे छिपकर यह सुनने लगे कि देखें वशिष्ठ मेरे बारे में क्या कहते हैं। वशिष्ठ जी अपनी धर्मपत्नी के शोक को शान्त करते हुए यही समझा रहे थे कि ‘विश्वामित्र बड़े तपस्वी हैं। यह दुष्कर्म तो वे किसी आवेश में कर बैठे हैं। हमें उनसे प्रतिशोध नहीं लेना चाहिए। उनकी श्रेष्ठता कभी−न−कभी निखरेगी और उससे संसार का बड़ा हित साधन होगा। राज्य त्याग कर तपस्या में प्रवृत्त होने वाले विश्वामित्र स्वभावतः दुष्ट नहीं हो सकते। यह दुष्कर्म तो उनसे भूल में ही बना होगा।” कुटिया के पीछे छिपे विश्वामित्र ने जब वशिष्ठ के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनी तो वे पानी−पानी हो गये और वशिष्ठ के चरणों पर गिर कर अपनी भूल के लिए फूट−फूट कर रोने लगे। सुधार का यही सबसे प्रभावशाली तरीका है।

अपने घर के स्त्री, बच्चों में, भाई-भतीजों में जो भी सद्गुण हमें दीखें उनकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करनी चाहिए। प्रोत्साहन और प्रशंसा करने में जिसकी जीभ रुकती है वह सबसे निकृष्ट कोटि का कंजूस है। जेब से पैसा खर्च नहीं कर सकते, समय लगा कर सेवा नहीं कर सकते तो जबान हिला कर अच्छी, उत्साह भरी, चित्त को सान्त्वना और साहस प्रदान करने वाली बातें तो कह ही सकते हैं। हमारा यही रवैया होना चाहिए। गुण देखें, गुणों की चर्चा करें, गुणवानों को प्रोत्साहित करें तो अपना यह स्वभाव दूसरों के लिए ही नहीं अपने लिए भी परम मंगलमय सिद्ध हो सकता है।


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