मितव्ययिता और आर्थिक सन्तुलन

December 1962

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जीवनोपयोगी वस्तुओं को प्राप्त करने एवं विकास, मनोरंजन के साधन जुटाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। मानव−समाज जैसे−जैसे संबद्ध, व्यस्त, दुर्बल, विलासी और विज्ञान पर निर्भर होता चला जा रहा है वैसे−वैसे उसे धन की आवश्यकता और अधिक अनुभव होती जाती है। आर्थिक गोरखधन्धे ने महँगाई बुरी तरह बढ़ा दी है। साधारण जीवनयापन भी अब बहुत महँगा हो गया है। ऐसी दशा में अधिक धन की आवश्यकता हर किसी को अनुभव होती है। जिसके पास प्रचुरता है उसे अधिक सुविधा रहती है और जिसके पास कमी है वह अभाव एवं कठिनाई अनुभव करता है। सभी यह चाहते हैं कि आर्थिक स्थिति ठीक रहे, गरीबी और तंगी का कष्ट न भोगना पड़े। तृष्णा से प्रेरित होकर अनावश्यक धन जमा करते जाना और महल, जायदाद बढ़ाते चलना अर्थ−विषमता एवं समाज संकट पैदा करने वाला कहा जा सकता है, पर जीवनोपयोगी कार्यों के लिए उचित मात्रा में धन की आवश्यकता तो विरक्त महात्माओं से लेकर अशक्त अपंगों तक और गृहस्थों से लेकर बालकों तक सभी को बनी रहती है। अर्थ समस्या का समाधान होने से एक बड़ी चिन्ता दूर हो जाती है।

सन्तुलन बिगड़ने न दिया जाय

इस समस्या का हल दो प्रकार से सम्भव है- एक आमदनी बढ़ना, दूसरा खर्च घटना। दोनों का सन्तुलन ठीक रखने से यह चिंता सहज ही दूर हो जाती है। यदि इन दोनों में असंतुलन बना रहे तो गड़बड़ी उत्पन्न होती रहेगी। यदि आमदनी बहुत हो और खर्च कम हो तो धन जमा होता चला जायेगा। इस संग्रह के फलस्वरूप उत्तराधिकारियों में लालच, चोर, डाकू, उधार के नाम पर हड़पने के आकांक्षी, शत्रु, ईर्ष्यालु बहुत बढ़ेंगे और अपने में भी कंजूसी, तृष्णा, व्यसन, व्यभिचार, अहंकार आदि कितने ही दोष-दुर्गुण पैदा होंगे। इसके विपरीत यदि खर्च बढ़ा हुआ रहेगा तो सदा अभावग्रस्तता, गरीबी, कठिनाई अनुभव होती रहेगी और कर्जदारी का कलंक सिर पर चढ़ने लगेगा। इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि अर्थ समस्या सुलझी रखने के लिए आमदनी और खर्च का संतुलन ठीक रखा जाय।

आमदनी बढ़ाने के लिए स्वभावतः हर व्यक्ति इच्छुक और चिन्तित रहता है। इसके लिए उसे जो सूझ पड़ता है, वह करता भी है। आज का राजनैतिक और आर्थिक ढाँचा ऐसा है जिसमें अमीरों को अधिक अमीर और गरीबों को अधिक गरीब बनने की सम्भावना अधिक है। फिर भी अपनी बुद्धि, सुविधा और परिस्थिति के अनुसार हर आदमी आमदनी बढ़ाने की चेष्टा करता रहता है। कौन व्यक्ति, किस स्थान पर, क्या करके, कितना धन कमा सकता है इसका कोई ठीक मार्गदर्शन किया जाना सम्भव नहीं। परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं, और सूझ−बूझ भी सदा बिलकुल ठीक ही उतरे ऐसा भी नहीं होता। ऐसी दशा में व्यापार या कारोबार संबन्धी सुझाव देना तो सामयिक, स्थानीय एवं व्यक्तिगत परिस्थितियों पर विचार करने से ही संभव हो सकता है, पर मोटे तौर से इतना कहा जा सकता है कि ईमानदारी, सज्जनता, श्रम शीलता, सावधानी और सूझबूझ से काम लेने पर वह बाधाएँ हट जाती हैं जिनके कारण परिस्थितियों के अनुरूप लाभ उठाने में भी बाधा पड़ती है।

दुर्गुणों के कारण दरिद्रता

बेईमान, अशिष्ट, अयोग्य, आलसी, लापरवाह और मन्दबुद्धि व्यक्ति अच्छी परिस्थितियाँ रहते हुए भी घाटे में रहते और तंगी भुगतते हैं। उनके सहयोगी घट जाते हैं और विरोधी बढ़ जाते हैं, फलस्वरूप क्षेत्र छोटा होते जाने से आमदनी भी सिकुड़ती है। जिसका व्यक्तित्व जितना विकसित होगा, जिसके परिचित मित्र और प्रशंसक जितने बढ़ेंगे किसी न किसी प्रकार उसकी आमदनी भी बढ़ेगी। आजकल लोग इस दृष्टि से भी अपने को लोकसेवी बनाने का आवरण चढ़ाते हैं, ताकि उनके प्रशंसक और परिचित बढ़ें और उसका प्रभाव आमदनी पर भी पड़े।

सार्वजनिक संस्थाओं में बहुधा वकीलों, डाक्टरों तथा ऐसे ही अन्य लोगों की संख्या बहुत देखने में आती है। इनमें से सभी लोकसेवी एवं परमार्थी नहीं होते। उनमें से कितने ही अपना व्यक्तित्व दूसरों की आँखों में अच्छा प्रदर्शित करने और फलस्वरूप अधिक ग्राहक प्राप्त करने का उद्देश्य भी लिये होते हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिलती है। जबकि दिखावटी सदाचार एवं परमार्थ से लोग लाभ उठा लेते हैं तो वास्तविकता होने पर तो वह लाभ और भी स्थायी एवं विस्तृत हो सकता है। जिनने अपनी ईमानदारी और सचाई की छाप दूसरों के मन पर डाल ली उनको उपयुक्त सहायक मिलते रहते हैं और फिर अन्य समस्याओं के साथ−साथ जन सहयोग के कारण आर्थिक तंगी का भी समाधान होता रहता है।

सद्गुण और सम्पन्नता

मेहनती, अध्यवसायी, ईमानदार, पूरी दिलचस्पी से काम करने वाले, स्वच्छता रखने वाले, मधुर बोलने और शिष्टता बरतने वाले लोग कदाचित कभी−कभी ही दुर्भाग्यवश असफल होते हैं अन्यथा दूसरों की तुलना में उनका पलड़ा सदा भारी रहता है। उनका काम और व्यवहार सन्तोषजनक होने से जो एक बार सम्पर्क में आता है सदा के लिये स्थायी ग्राहक बन जाता है। वफादार और खरा काम करने वाले कर्मचारी अपने मालिकों की लिए कुछ उठा नहीं रखते। आर्थिक तंगी के कारण से जहाँ परिस्थितियाँ, दूसरे व्यक्ति या कारण बाधक होते हैं वहाँ सबसे बड़ी बाधा अपने अपने संकीर्ण, उद्धत और आलसी स्वभाव की होती है। बाहरी परिस्थितियों या व्यक्तियों को अपने अनुकूल बना लेना कठिन होता है पर अपनी आदतों में हेर-फेर तो थोड़े ही प्रयत्न से हो सकता है और उस परिवर्तन के साथ−साथ वह आधार बनना तुरन्त आरम्भ हो जाता है जिस पर आर्थिक उन्नति बहुत कुछ निर्भर रहती है।

यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि आमदनी से खर्च कम रखा जाय। आमदनी बढ़ाना सदा अपने हाथ में नहीं रहता। जितनी अपनी इच्छा या आवश्यकता है उतनी कमाई हो ही जायगी इसका कुछ निश्चय नहीं। ईमानदार आदमियों को आरंभ में तो बेईमानों के अपेक्षा कुछ तंगी होती रहती है। ईमानदारी बरगद के पेड़ के समान है जो देर में बढ़ती किन्तु चिरस्थायी रहती है। बेईमानी कागज की नाव की तरह है जो आरम्भ में बहुत सुन्दर, बहुत हलकी और बहुत तेज दौड़ने वाली दीखती है पर कुछ ही देर में उसका वह चमत्कार जड़मूल से नष्ट हो जाता है। कागज गलते ही नाव डूबती है और फिर उसका कुछ अता−पता नहीं मिलता। काठ की हाँडी बारबार कहाँ चढ़ती है, पर धातु के बर्तन मुद्दतों काम देते हैं। ईमानदारी के फल तो मधुर भी, बड़े भी, बहुमूल्य भी होते हैं पर पकते देर में हैं। उतावले लोग अ‍धीर होकर उसे छोड़ बैठते हैं। जो नहीं भी छोड़ बैठते उन्हें आरम्भिक दिनों में चालाक लोगों की तुलना में कुछ तंगी का ही सामना करना पड़ता है।

खर्च बढ़ने न दिया जाय

इन परिस्थितियों में खर्च पर संतुलन रखना ही एकमात्र ऐसा उपाय रह जाता है जिससे तंगी की समस्या हल हो सके। यह सोचना ठीक नहीं कि अमुक प्रकार का हमारा ‘स्टेंडर्ड’ बन गया है अब इसमें कटौती नहीं हो सकती। इस भ्रम को छोड़ देना चाहिये और देखना चाहिये कि इस संसार में सभी प्रकार के आर्थिक भार वाले लोग रहते हैं और अपनी हैसियत, औकात एवं परिस्थिति के अनुरूप खर्च का बजट बनाते हैं। फिर हम भी वैसा ही क्यों न करें।

कम आमदनी वाले लोग सस्ते उपकरणों से अपना काम चलाते हैं, अत्यन्त आवश्यक वस्तुओं से ही गुजर करते हैं। दूसरों से काम कराने की अपेक्षा बहुत कुछ अपने हाथ से ही कर लेते हैं। इस प्रकार उनका पहिया आनन्दपूर्वक लुढ़कता रहता है और गरीबी, गरीबी नहीं लगती। कम पैसे में भी कितने ही लोग अमीरी का आनन्द उठाते देखे गये हैं। यह वे लोग हैं जिन्होंने अपनी आमदनी के अनुरूप स्तर बनाया हुआ है। स्तर के अनुरूप आमदनी चाहने वालों को चिन्ता सताती रह सकती है पर जिनने आमदनी के अनुरूप स्तर बनाना सीख लिया उन्हें क्यों आर्थिक तंगी देखनी पड़ेगी?

मितव्ययिता सरल है

संसार में जौ−बाजरा खाने वाले, मोटा−झोटा कपड़ा पहनने वाले, थोड़े से सस्ते उपकरणों से काम चलाने वाले, सिलाई-धुलाई, हजामत, मकान की सफाई, सफेदी, वस्तुओं की मरम्मत करके अनावश्यक खर्च बचा लेने वाले असंख्य लोग मौजूद हैं, फिर हमारे लिये ही यह सब बातें क्यों कठिन प्रतीत होनी चाहिएं? स्त्रियाँ एक घण्टा सबेरे जल्दी उठकर चक्की पीस लिया करें, तीसरे पहर एक घण्टा चरखा कात लिया करें या फटे पुराने या नये कपड़ों की मरम्मत कर लिया करें तो इस एक−दो घण्टे के श्रम से पैसा भी बचे, स्वास्थ्य भी ठीक रहे, आलस्य भी दूर हो और कलात्मक प्रतिभा का विकास भी हो। इसमें झिझक और संकोच करने की क्या बात है?

दूसरे अमीर लोग ऐसे छोटे काम नहीं करते इसलिए हम करेंगे तो गरीब समझे जायेंगे? यह झिझक अनेकों को मार डालती है। इस झूठे भ्रम को छोड़ देना चाहिए। कल नहीं तो परसों वह वक्त आने वाला है जब अमीरी, फिजूलखर्ची और आरामतलबी एक सामाजिक अपराध की तरह घृणित मानी जायेगी और ईमानदार, मेहनतकश लोग पूरा−पूरा सामाजिक सम्मान प्राप्त करेंगे। गरीब होना कोई बुरी बात नहीं। बुरी बात है फिजूलखर्ची, विलासिता, हरामखोरी। यदि आज लोगों की आँखें गलत देख रही हैं, यदि लोगों के दिमाग आज गलत सोच रहे हैं तो हमें इसकी रत्ती भर भी परवाह न करनी चाहिए। ईमानदार और नेक व्यक्तित्व का विकास करने के लिये हमें मितव्ययिता को अपनाना ही होगा।

फिजूलखर्ची और दुश्चरित्रता

फिजूलखर्ची तो दुश्चरित्रता की सगी बहिन है। बढ़े हुए खर्चे पूरे करने के लिए आदमी को बेईमानी का रास्ता अपनाने के लिए विवश होना ही पड़ता है। जिनके खर्च आमदनी की तुलना में घटे हुए नहीं रह सकते उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उनकी यह बढ़ोतरी उनके धर्म ईमान और व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को नष्ट करके ही पूरी हो सकेगी। जिन्हें अपनी आत्मा को बेचकर फिजूलखर्ची को अपनाये रहना मंजूर है वे चाहे जो करें, उन्हें रोकने वाला कौन है? दण्ड तो समयानुसार ही मिलता है, आज तो छूट का लाभ वे उठा ही सकते हैं।

कटौती की दृष्टि से सर्वेक्षण किया जाय तो हमें अपने कितने ही खर्चे ऐसे दीख पड़ेंगे जिनमें तुरन्त बिना किसी कठिनाई के कमी की जा सकती है। चाय, पान, तमाखू का खर्चा हर घर में पाया जाता है। यह निरर्थक ही नहीं शरीर और मन को खराब करने वाला भी है। इनसे बीमारियाँ पैदा होती हैं और आयु घटती है, साथ ही पैसा भी बर्बाद होता है। इन मूर्खतापूर्ण आदतों को क्यों अपनाये रहा जाय? नशा छोड़ने में दो−चार दिन हुड़क उठती है। उसे ही कमजोर तबियत वाले लोग कब्ज, सुस्ती आदि न जाने क्या−क्या नाम दे देते हैं। लाखों मनुष्यों से नशा छुड़ाने का हमारा अनुभव है। इस आधार पर हम पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि दो−चार दिन की थोड़ी मानसिक परेशानी के अतिरिक्त नशा छोड़ने में किसी को कोई हानि नहीं होती। यह छोटी दीखने वाली नशेबाजी की रकम यदि बचत में जमा करते रहा जाय तो कुछ ही वर्षों में उसका घर की आर्थिक स्थिति पर बहुत अच्छा एवं अनुकूल प्रभाव दृष्टिगोचर हो सकता है।

खर्चे में कटौती

भोजनालय में पूड़ी-पकवान, अचार-मुरब्बे, चटनी आदि कई तरह की चीजें बनाने में जो खर्च होता है उसमें काफी कटौती की गुंजाइश रहती है। सादा सीधा भोजन सस्ता भी होता है और पचता जल्दी है। सात्विकता तो उसमें रहती ही है जिससे विचारों और भावनाओं में सतोगुण बढ़ने से जीवनक्रम का पहिया शान्ति और सदाचार की ओर घूमने लगता है।

जेवर और कपड़ों में कितना पैसा नष्ट होता है यह विचारणीय प्रश्न है। नाक, कान जैसे कोमल अंगों को छेद कर उनकी स्वच्छता को स्पष्ट आघात पहुँचाना भला यह भी कोई फैशन है। शरीर में सुई से गोदने गुदा कर उसमें रंग भर देना किसी जमाने में सौंदर्य का चिह्न समझा जाता होगा पर अब तो वह सब उपहास और आश्चर्य की बातें ही रह गई हैं। नाक, कान के छिद्रों में स्वच्छ वायु को प्रवेश रोकने वाले, उनमें गन्दगी जमा करने वाले, जेवर आज न सही कल उपहासास्पद बनेंगे। इन्हें आगे भी मनुष्य जाति छोड़ेगी ही, हम अभी से छोड़ दें तो क्या हर्ज है? उँगलियों की सक्रियता में बाधा पहुँचाने वाली, नसों पर दबाव डालकर रक्त−संचार घटाने वाली अँगूठियों की क्या उपयोगिता हो सकती है, यह विचारणीय प्रश्न है। जेवरों के नीचे जो अंग ढके रहते हैं उनकी सफाई नहीं हो पाती, वहाँ पसीना भरता है, रोम छिद्र बन्द होने लगते हैं तथा अनावश्यक दबाव पड़ने से रक्त−संचार में स्वास्थ्य बिगाड़ने वाली गड़बड़ी उत्पन्न होती है। पैसा उपयोगी कामों में न लग कर अवरुद्ध होता है और टाँके, बट्टे, पालिश, गढ़ाई, खोट, मिलावट, टूट−फूट आदि का जो नुकसान होता है उससे आर्थिक हानि−ही हानि है। जेवरों पर होने वाला खर्चा यदि फिजूलखर्ची न कही जाय तो फिर उसे और क्या कहें?

उद्धतता का भोंड़ा प्रदर्शन

कपड़े शरीर ढकने के लिए, सर्दी-गर्मी से बचने के लिए आवश्यक हैं। वे सीधे−सादे और साधारण मूल्य के बनाये जा सकते हैं। सादगी सब में बड़ा फैशन है, स्वच्छता का समन्वय होने से तो वह पूरी तरह चमक उठती है। सादा सफेद कपड़ा धुला हुआ करीने से सिला और पहना गया हो तो पहनने वाले की सज्जनता और शालीनता प्रकट करता है। रंग−बिरंगे, चमक−दमक भरे, रेशमी, कीमती, बेढंगे फैशन के सिले कपड़े पहनने वाले का ओछापन, बचपन और बालकपन प्रकट करते हैं। चंचल, अस्थिर, विलासी, उद्धत और घटिया मानसिक स्तर के लोग दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप डालने के लिए वेश-विन्यास और उद्धत शृंगार बना कर सजधज कर ‘जोकर’ के समान लगते हैं। विचारवान लोगों की दृष्टि में यह न तो कोई फैशन है और न बड़प्पन, इसे विशुद्ध रूप में ओछापन कहा जायेगा। आज कितने ही नर नारी ऐसा ही ओछा शृंगार और वेश-विन्यास बनाये अपने उच्छृंखल व्यक्तित्व की घोषणा करते फिरते हैं।

मुँह−हाथ, पैर, होठ, नाखून रंगे हुए व्यक्ति तो बहुत ही विलक्षण लगते हैं। यह अपने स्वाभाविक स्वरूप को छिपा कर नकली चीज लोगों को दिखाते फिरने की प्रवंचना है। रामलीला में कागज के चेहरे मुँह पर बाँध कर बन्दर, राक्षस आदि का स्वाँग किया जाता है। रंगों से चेहरा होठ और नाखून पोतना लगभग कागज का चेहरा बाँधने के समान है। जिसे हर कोई ताड़ ले वह क्या धोखेबाजी? वह तो फूहड़पन ही कहा जायेगा। अपने को अधिक सुन्दर दिखाने के लिए यह बनाई हुई बनावटों की कलई जब देखने वाले को आँखों में खुल ही गई लोगों ने उन अंगों को सचमुच ही सुन्दर नहीं माना तो फिर “गुनाह बेलज्जत” करने से लाभ क्या? पैसा भी गया, मूर्ख भी बने, दुहरी हानि क्यों उठाई जाय?

नकलची न बनें

विचार करने पर ऐसी−ऐसी अनेकों छोटी−बड़ी बातें दृष्टिगोचर हो सकती हैं जो सर्वथा अपव्यय ही हैं। अमीरों की नकल करना व्यर्थ है। इस संसार में इतने बड़े अमीर पड़े हैं कि उनके कुत्तों की बराबरी में भी हम शौक मौज नहीं कर सकते। ऊपर को देखने की अपेक्षा हमें नीचे को क्यों न देखना चाहिए? यदि तुलना ही करनी हो तो अपने से गरीबों के साथ तुलना क्यों न करें? जो हमसे कम आमदनी होने पर भी मितव्ययिता के साथ आनन्द और सन्तोष का जीवन व्यतीत करते हैं। दृष्टिकोण में थोड़ा हेर−फेर कर लेने पर, मितव्ययिता को जीवन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य स्वीकार कर लेने पर आर्थिक तंगी की समस्या बहुत हद तक हल हो जाती है।

कर्ज का विषपान

कर्ज लेना विष खाने के समान है। आकस्मिक आपत्ति के समय या व्यापारिक उद्देश्य के लिए उधार लेकर काम चलाया जाय यह बात दूसरी है। पर दैनिक खर्चों के असंतुलन को पूरा करने के लिए कर्ज लेना, दुकानदारों के यहाँ उधार खाते खोलना अपनी आर्थिक बर्बादी का चिन्ह है। उधार लेने की आदत से वे अनावश्यक चीजें अधिक मात्रा में खरीद ली जाती हैं जो यदि नकद खर्च करना पड़ता तो शायद न खरीदी जातीं। कर्ज लेना दूसरों के सामने अपने स्वाभिमान को बेचने के समान, दूसरों की तुलना में अपने को दीन−हीन घोषित करने के समान है। जिसे अपना भविष्य अन्धकारमय बनाना हो, दूसरों की आँखों में जलील, बेईमान और अविश्वासी बनना हो उन्हें छोड़कर और सब को कर्ज से बचना चाहिए। यदि कारणवश ले ही लिया गया हो तो उसे घी, दूध, तरकारी छोड़कर, नमक रोटी खाते हुए ,नये कपड़े छोड़ कर फटे पुराने चिथड़ों से काम चलाते हुए जल्दी से जल्दी चुकाने का प्रयत्न करना चाहिए। जो लोग जुआ, मनोरंजन, दावत, सैर−सपाटा आदि के लिए कर्ज लेते हैं उन्हें तो एक प्रकार से निर्लज्ज ही कहना चाहिए, जो अपनी जेब में पैसा न होते हुए भी दूसरों के आगे अपना सम्मान बेचकर तुच्छ कामों के लिए हाथ पसारने की जलीलता सिर पर ओढ़ने में संकोच नहीं करते।

अपनी सौड़ जितनी लम्बी हो उतने पैर पसारने चाहिए। आमदनी से बाहर तभी खर्च करना चाहिए जब कोई आकस्मिक आपत्ति ही सिर पर आ जाय। ऐसे अवसरों के लिए भी हर विचारशील व्यक्ति को कुछ बचत करते चलना चाहिये जो अपनी या दूसरों की आवश्यकता के समय काम आ सके।

खर्च करने की बुद्धिमानी

जिन्दगी जीने की कला का एक महत्वपूर्ण अंग है आर्थिक संतुलन। अपने साधन और सद्गुण बढ़ाते हुए आर्थिक उन्नति करने के लिए प्रयत्न करना उचित है और आवश्यक भी। पर उससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि अपने खर्चे आमदनी से अधिक बढ़े हुए न हों। किसी आदमी की बुद्धिमत्ता उसकी कमाई से नहीं खर्च करने की पद्धति से परखी जा सकती है। आमदनी तो अनायास भी हो सकती है। उत्तराधिकार में किसी को बड़ी सम्पत्ति भी मिल सकती है पर खर्च को उचित रीति से उचित मात्रा में कर सकना केवल बुद्धिमानों और दूरदर्शियों के लिए ही संभव हो सकता है। जो पैसा उड़ाता है उसे मूर्ख ही कहेंगे। मितव्ययिता और पैसे का श्रेष्ठतम सदुपयोग जिसे आता है वस्तुतः वही अपना और अपने परिवार का जीवन सुख शान्तिपूर्वक बिता सकता है। समाज की सुस्थिरता भी मितव्ययिता पर निर्भर रहती है। सरकारों और संस्थाओं के लिए भी यही मार्ग उचित है। सार्वजनिक कार्यों में तो इस प्रकार की सावधानी अधिकाधिक बरती जानी चाहिए।


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