परमात्मा की अनन्त अनुकम्पा और उसके दर्शन

December 1962

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भगवान् सदा सभी के साथ हैं, वह घट−घट वासी और सर्वव्यापक होने के कारण जहाँ भी हम रहते हैं वहाँ हमारे साथ ओत−प्रोत रहा हुआ होता है। इस विश्व में तिल−भर भी ऐसा नहीं जहाँ भगवान न हों। हमारी हर साँस के साथ वह भीतर जाता और बाहर निकलता है। रक्त की हर तरंग के साथ वह अंग−प्रत्यंगों पर प्रतिक्षण दौड़ता है, हृदय की हर धड़कन के साथ उसका ताल−वाद्य बजता रहता है। जब हम सो जाते हैं तब भी हमारी चौकसी के लिए जागता रहता है। माता की गोदी की तरह निद्रा की चादर से ढक कर वह हमें अपनी छाती से चिपका कर सुलाया करता है। जब सब ओर से जीव अशान्त और क्लान्त होकर थका हुआ चकनाचूर होता है तो निद्रा के रूप में परमात्मा की गोदी ही उसे विश्रान्ति प्रदान करती है। असमर्थ जीव को चिरनिद्रा में सुला कर क्लोरोफार्म देकर आपरेशन करने वाले और सड़ा अंग काटकर उसकी जगह नया अंग लगा देने वाले कुशल डाक्टर की तरह वही पुनर्जन्म की व्यवस्था करता है। मृत्यु और कुछ नहीं एक गहरी चिरनिद्रा मात्र होती है।

प्रभु का असीम अनुदान

प्रभु की अनन्त अनुकम्पा को हर घड़ी अनुभव किया जा सकता है। उसके इतने अनन्त अनुदान अपने को प्राप्त हैं कि एक−एक पर विचार करने से ऐसा लगता है मानो सृष्टि की सारी विभूति उसने अपने ही लिए बनाकर रख दी है और हर वस्तु का मनमाना उपभोग करने की पूरी−पूरी छूट दी हुई है। इठला कर बहती हुई नदियाँ, शान्ति के किलकते हुए सरोवर, मधुर मुसकाते हुए पुष्प, चहकते हुए पक्षी, उमड़−घुमड़कर गरजते-बरसते बादल, लहलहाती हरियाली, आकाश चूमने वाले पर्वत, जिधर भी दृष्टि डाली जाय उधर ही प्रकृति का अनन्त सौन्दर्य बिखरा पड़ा है और हर कोई मनचाही मात्रा में उसका पूरा−पूरा निर्बाध रसास्वादन करने में स्वतंत्र है।

जो शरीर हमें मिला है उसका एक−एक कल पुर्जा ऐसा कीमती है कि विज्ञान की उन्नति के इस युग में भी वैज्ञानिक लोग करोड़ों रुपया खर्च करके भी ऐसे कल पुर्जे नहीं बना सकते हैं वैसे इस देह में लगे हैं। आँखें जैसा स्पष्ट देखती है वैसा कैमरा कोई अब तक नहीं बना सका। मस्तिष्क की रचना ऐसी विलक्षण है कि उसके सूक्ष्म विद्युत संस्थान की छोटी−छोटी गतिविधियों को समझने का प्रयत्न करने मात्र में मानव बुद्धि थक जाती है। हाथ, पाँव, पाचन संस्थान, श्वाँस संस्थान, रक्त संस्थान, मल विसर्जन संस्थान की रचना और उपयोगिता ऐसी आश्चर्यजनक है कि उस वैज्ञानिक की, उस कलाकार की कृति को निहारते−निहारते यही लगता है कि इस रचनाकार की मानव शरीर में हुई अद्भुत रचना प्रक्रिया को समझ सकना भी कठिन है। समझने की आवश्यकता भी नहीं है।

मानव जीवन की सुख-सुविधाऐं

इस मानव शरीर में जो सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं उन्हीं का विश्लेषण करें और अन्य जीव−जन्तुओं की तुलना में उनकी श्रेष्ठता का अनुभव करें तो हृदय कृतज्ञता से भर जाता है। परमात्मा का अनन्त अनुदान इतना बड़ा है कि एक−एक उपलब्धि का वह अनुभव करे, उस पर सन्तोष व्यक्त करे और प्रभु का आभार माने तो यह सारा जीवन इस एक कार्य को पूरा करने में भी पर्याप्त नहीं हो सकता। बाह्य जीवन में जो उपलब्धियाँ हमें प्राप्त हैं वे अद्भुत हैं। बोलने की, लिखने की, पढ़ने की, सोचने की जो विशेषता जितनी मात्रा में किसी भी जीव को नहीं मिल सकी वह हमें प्राप्त है। परिवार की रचना उसकी कैसी मंगलमय व्यवस्था है कि उसके सहारे हँसते-खेलते जिन्दगी कट जाती है और जो पुण्य−परमार्थ प्राप्त करना लक्ष था वह भी उस छोटी बगीची के सींचने में पूरा हो जाता है। आनन्द और उल्लास का कितना श्रेष्ठ समन्वय परिवार रचना के साथ संबन्धित है उस पर विचार करते हैं तो लगता है पूरी आनन्दानुभूति का एक बहुत ही मनोरम व्यवस्थाक्रम बनाकर हमारे साथ जोड़ दिया गया है। मनोरंजन की परिपूर्ण व्यवस्था रख दी गई है और कर्तव्य पालन एवं आत्म विकास का भरपूर अवसर उसमें मौजूद है।

संसार की बाह्य परिस्थितियों में भगवान का कैसा कडुआ-मीठा स्वाद सन्निहित किया हुआ है कि एक के संबंध से दूसरे की महत्ता बढ़ती है। रात का अंधकार दिन के प्रकाश का महत्व बढ़ाता है और दिन का प्रकाश रात्रि के अन्धकार को श्रेय प्रदान करता है। गरीबी की उपस्थिति से अमीरी का गौरव टिका हुआ है और अमीरी से खिन्न हुए लोग गरीबी—संन्यास की शरण में शाँति खोजते हैं। रोग से आरोग्य का महत्व समझ में आता है, पाप को देखकर पुण्य की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। दुरात्माओं की उपस्थिति से महात्माओं का सम्मान होता है। यदि सब कुछ एक सा ही रहा होता—व्यक्तियों और परिस्थितियों में अन्तर न रहता तो मनुष्य की सूझ-बूझ का ही कोई महत्व न रहता? वह कुंठित पड़ी रहती और जो हलचल चारों ओर दिखाई पड़ती है उसके स्थान पर सन्नाटा छाया होता। जिन बातों को हम परमात्मा की भूल, अकृपा एवं अव्यवस्था समझते हैं उसमें वस्तुतः उसकी सुव्यवस्था सन्निहित रहती है।

सत्प्रयत्न और सदुद्देश्य

जो परिस्थितियाँ हमें अपने लिए प्रतिकूल, अप्रिय, अखरने वाली, कष्टकारक लगती हैं उनमें भी परमात्मा का सत्प्रयत्न और सदुद्देश्य छिपा रहता है, पढ़ने के लिए ताड़ना करने वाला अध्यापक, सड़े अंग का आपरेशन करने वाला डाक्टर, उद्दण्डता के लिए क्रोध प्रकट करने वाला पिता, अपराध के लिए दण्ड देने वाला न्यायाधीश उन्हें बुरे लगते हैं जिन्हें उनके व्यवहार से कष्ट पहुँचता है। पर कष्ट पहुँचाना सदा अकृपा में ही नहीं होता। माता को प्रजनन का कष्ट भुगतना पड़ता है पर क्या यह किसी के क्रोध या दुर्भाव का प्रतिफल होता है? ईश्वर का प्रेम और अनुग्रह कई बार माता के दूध पिलाने की तरह मधुर और कई बार कान ऐंठने की तरह कडुआ होता है। बालक नहीं माता ही जानती है कि इन दोनों में केवल बालक के कल्याण और सुख का ही ध्यान रखा गया है।

वह परमात्मा हमारे प्रतिक्षण साथ रहता है पर उसकी उपस्थिति से जो लाभ मिलना चाहिए उसे कोई विरले ही उठा पाते हैं। घर की जमीन में गड़ा धन, यदि अपनी जानकारी में न हो तो उससे क्या लाभ मिलेगा? गले में पड़े हुए हीरे के कण्ठा को यदि हमने काँच जितना ही समझ लिया हो तो उससे क्या लाभ अपने को प्राप्त होगा? परमात्मा की अपार और अत्यन्त शक्ति एवं अनुकम्पा हर घड़ी अपने साथ है पर उसका परिपूर्ण लाभ उठा सकना अनजानों के लिए कठिन है। जिस जानकारी के आधार पर परमात्मा के सहचर होने का समुचित सत्परिणाम प्राप्त किया जा सकता है उसे ही सद्ज्ञान या अध्यात्म कहते हैं।

अज्ञान का आवरण

कपड़े के झीने पर्दे की आड़ में बैठे हुए दो व्यक्ति एक दूसरे को देख नहीं सकते यद्यपि यह अनुभव करते हैं कि कोई पर्दे के उधर बैठा है। हम यह तो जानते हैं कि परमात्मा हमारे समीप है, भीतर ही है पर उसकी उपस्थिति से वह आनन्द और लाभ नहीं उठा पाते जो सान्निध्य सहचरत्व से मिलना चाहिए। राजा, रईस, अमीर, अधिकारी, योद्धा, विद्वान कलाकार आदि श्रेष्ठ लोगों की मित्रता और समीपता से जब लोग बहुत लाभ उठा लेते हैं तो इतने उदार और अनुग्रही परमात्मा के निरन्तर साथ रहते हुए भी कुछ लाभ न उठा सकें तो यह अपना दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

अज्ञान का आवरण उस पर्दे के समान है जो पास बैठे हुए व्यक्तियों को भी दूरस्थ जैसी स्थिति में बनाए रहता है। जमीन में गड़ा धन और गले में पड़ा कंठा अज्ञान के कारण ही उपयोग में नहीं आता। अज्ञान इस संसार का एक बड़ा अभाव और दुर्भाग्य है, उसे हटाने के लिए समुचित प्रयत्न किया ही जाना चाहिए।

प्रभु से प्रतिकूलता

तृष्णा और वासना के वशीभूत होकर मनुष्य परमात्मा की आज्ञाओं, मर्यादाओं और इच्छाओं का उल्लंघन करता है और सोचता है कि इस प्रकार वह अधिक जल्दी, अधिक मात्रा में सुख साधन प्राप्त कर लेगा। अज्ञान का यह सब से बड़ा लक्षण है। सुख का एकमात्र उपाय है पुण्य, दुःख का एकमात्र कारण है पाप। पापों के प्रतिफल से परमात्मा ही दुख और पुण्य के फलस्वरूप सुख की व्यवस्था करता है। जो महत्वपूर्ण उपकरण सर्वसाधारण को मिले हैं वे इतने पर्याप्त हैं कि उनके आधार पर आनन्दमय जीवन व्यतीत किया जा सकता है। हमें क्या सोचना और क्या करना चाहिए इसकी सुनिश्चित धर्म-मर्यादाऐं बनी हुई हैं। सद्विचार और सत्आचरण का पालन करते हुए परमात्मा के अनुग्रह को अधिकाधिक अनुभव किया जा सकता है। प्रभु की समीपता का श्रेष्ठ उपाय यह है कि उसे सर्वव्यापक मानकर अपने विचारों और आचरणों को इस योग्य बनावें कि प्रभु की प्रसन्नता और अनुकम्पा निर्बाध गति से प्राप्त होने लगे। सूर्य की धूप, गर्मी और रोशनी उन्हें प्राप्त होती है जो खुले आकाश के नीचे बैठते हैं। छाया में बैठने वाले को धूप से वंचित रहना पड़ता है। पाप और कुविचारों की छाया में बैठा हुआ मनुष्य भी दिन में सूर्य की धूप से वंचित रहने वाले की तरह परमात्मा की उस विशेष कृपा से वंचित रह जाता है जिसे आत्मिक प्रगति, श्रेष्ठता, देवत्व, जीवन मुक्ति और ब्रह्मानन्द का महान लाभ कहते हैं। पाप, स्वार्थ और संकीर्णता का आवरण हमें निकटवर्ती परमात्मा से दूरवर्ती बनाए रहता है।

आवश्यकता बनाम तृष्णा

जीवन की वास्तविक आवश्यकताऐं वस्तुतः इतनी कम हैं कि कम बुद्धि और स्वल्प योग्यता वाले व्यक्ति भी अपना निर्वाह बड़े सन्तोष और आनन्द−पूर्वक कर सकते हैं। मनुष्य की अपेक्षा कई गुना आहार करने वाले और बुद्धि एवं क्षमता में, साधन और सुविधा में बहुत पिछड़े होने पर भी जब पशुओं तक को अपने निर्वाह में कुछ असुविधा नहीं होती तो मनुष्य को जरा−सा आहार, जरा−सा निवास जरा−सा कपड़ा चाहिए, वह कहाँ कम पड़ने वाला है? तृष्णा और वासनाओं की हविस ही उसे न जाने कितना जोड़ने, न जाने कितना भोगने की लिप्सा उत्पन्न करती है और उसी अतृप्ति में भटकता हुआ लोभ-मोह में ग्रस्त प्राणी उतावली में अकर्म करने पर उतारू हो जाता है। यह स्थिति परमात्मा से विमुख करने वाली है। परमात्मा की इच्छा और आज्ञा की अवज्ञा करते रहना और पूजा के नाम पर चावल (अक्षत) छोड़ते रहना, विडम्बना मात्र ही है।

उपासना की निस्संदेह बड़ी आवश्यकता है। उसकी उपयोगिता, महत्ता, शक्ति और संभावना बहुत है पर उस मार्ग में सफलता केवल उन्हें ही मिलती है जो परमात्मा से विमुख नहीं है, उसके बताये हुए मार्ग का उल्लंघन नहीं करते। गुलाब के बगीचे के पास रहने वाले सुगंधित वायु का रसास्वादन करते हैं और दुर्गन्धित गंदे नाले की समीपता से बदबू और बीमारी के शिकार होते हैं। वायु एक ही है पर वह सुगंधित और दुर्गन्धित पदार्थों के संसर्ग से हमारे लिए लाभदायक और हानिकारक बनती है। सद्−विचारों और सत्कर्मों को छूकर परमात्मा की जो कृपा वायु हमारे समीप आती है उसमें सुख−शान्ति का भण्डार भरा होता है, किन्तु हमारे पाप और दुर्भावों को छूकर प्रभू की दृष्टि टेढ़ी दुर्गन्धपूर्ण बन जाती है, उसमें अभिशाप, क्रोध और नरक का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। शीतल वायु के समान परमात्मा की निरन्तर बरसती रहने वाली स्वास्थ्यवर्द्धक शीत कृपा भी हमारे पाप और अज्ञान के कारण विकारों निमोनिया, कफ, खाँसी आदि के समान कष्टकर प्रतिक्रिया उपस्थित करने लगती है।

परमात्मा का सान्निध्य और साक्षात्कार

परमात्मा को हम अपने समीप देखें तो वह हमारे बिलकुल पास, रोम−रोम में ओत−प्रोत दीखेगा जिधर भी दृष्टि दौड़ाई जाय उधर ही उसका महान दान बिखरा पड़ा दृष्टिगोचर होगा। पर जब हम उसकी ओर से विमुख होकर तृष्णा और वासना के पीछे, माया के पीछे, दौड़ने लगते हैं तो लगता है कि परमात्मा सोगया, कुपित है, अन्याय कर रहा है, सुनता नहीं, निष्ठुर है। जब अपनी चाल सीधी हो जाती है तो प्रस्तुत कठिनाइयों के पीछे भी आशाजनक भविष्य निर्माण की मंगलमयी व्यवस्था दीखती है और वर्तमान कष्ट प्रसव−वेदना के समान अगले ही क्षण मंगलमय परिणाम प्रस्तुत करने वाले लगते हैं।

प्रेम और विश्वास के आधार पर प्रभु को प्राप्त कर सकना हर किसी के लिए सरल है। वे सच्ची भावना से की गई थोड़ी उपासना से भी प्रसन्न हो जाते हैं जब कि आडम्बर की तरह बहुत तोता रटंत का भी कोई विशेष परिणाम नहीं निकलता। हमारी भक्ति भावना पूर्ण होनी चाहिए। भजन के साथ आत्मशोधन की प्रक्रिया भी सम्मिलित रहे। आरती के साथ अन्तर्दीप्ति भी प्रकाशित हो। नैवेद्य (प्रसाद) चढ़ाने के साथ यह भी ध्यान रहे कि मानव जीवन की सार्थकता परमार्थ में है। व्रत के साथ इन्द्रिय संयम का होना जरूरी है। भक्ति का, पूजा का बाह्य कलेवर भावनापूर्ण हो पर साथ ही भीतरी शुद्धता की प्रक्रिया चलती रहे। अज्ञान और पाप का पर्दा जितना ही फटता जायेगा परमात्मा का दर्शन और उनका अनुग्रह उतना ही सरल होता जायेगा।


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