असुरता से देवत्व की ओर!

December 1962

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असुर, मनुष्य और देवता देखने में एक ही आकृति के होते हैं, अन्तर उनकी प्रकृति में होता है। असुर वे हैं जो अपना छोटा स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का बड़े से बड़ा अहित कर सकते हैं। मनुष्य वे हैं जो अपना स्वार्थ तो साधते हैं पर उचित−अनुचित का ध्यान रखते हैं, पाप से डरते और अपनी नियत मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते। देवता वे हैं जो अपने अधिकारों को भूलकर कर्तव्य पालन का ही स्मरण रखते हैं। अपनी शक्तियों को परमार्थ और परोपकार में अधिक व्यय करते हैं और इसी में अपना सच्चा साधन मानते हैं। असुरों के दृष्टिकोण में दुष्टता, मनुष्यों के में मर्यादा एवं देवताओं में उदारता भरी रहती हैं। दृष्टिकोण के इस अन्तर के कारण ही उनके बुरे-भले कार्यों की शृंखला सामने आती है और इसी आधार पर वे निन्दा−प्रशंसा के पात्र बनते हैं। सद्गति और दुर्गति भी इन्हीं आधारों पर होती है।

असुरता का साम्राज्य

आज असुरता का साम्राज्य चारों ओर फैला है। सोचने का आम तरीका यह बनता जाता है कि अपना लाभ बढ़ाने के लिए दूसरों का कितना ही बड़ा अहित क्यों न होता हो उसकी परवा न करनी चाहिए, और जैसे भी बने वैसे अपना स्वार्थ साध लेना चाहिए। असुर होने का यही लक्षण है। लम्बे सींग, बड़े दाँत और काले चेहरे वाले राक्षस चित्रकारों की कल्पना का आलंकारिक चमत्कार मात्र है, वस्तुतः शकल-सूरत में असुर भी मानव प्राणियों के से ही होते हैं और उनकी शकल−सूरत भी हम से मिलती जुलती ही होती है। अविचारपूर्वक स्वार्थ साधने की पशुता के प्रतीक रूप में पर-पीड़न की बुराई के रूप में सींग लगाये गये हैं। अपना पेट भरने के लिए बहुत जल्दी बहुत कुछ उदरस्थ कर जाने को तृष्णा और लालसा के प्रतीक बड़े−बड़े दाँत हिंसक पशुओं जैसे बनाये गये हैं। और चूँकि आसुरी प्रवृत्ति वालों का जीवन कलंक-कालिमा से कलुषित बना होता है इसलिए उनका चेहरा काला चित्रित किया जाता है। यह चित्रण उनकी आन्तरिक स्थिति का आलंकारिक प्रदर्शन मात्र है। कलेवर तो सभी मनुष्यों का एक सा होता है। कई बार असुर लोग रंग रूप में और भी सुन्दर लगते हैं। व्यभिचारी और व्याभिचारिणी नर-नारी सदाचारी लोगों की अपेक्षा प्रायः अधिक रूपवान देखे जाते हैं। ठगों की वेशभूषा सज्जनों से बढ़कर होती है। धूर्तों के भाषण में अधिक मिठास रहती है। बाह्य आवरण की दृष्टि से असुर अधिक भी दीख पड़ सकते हैं। चित्रकार ने वह भयंकर रूप उनकी आन्तरिक स्थिति के दिग्दर्शन के रूप में ही किया है।

बढ़ती हुई अनीति

असुरता के लक्षण विशाल परिमाण में बढ़ते और पनपते देखे जा सकते हैं। माँसाहार की प्रवृत्ति दिन−दिन बढ़ रही है। पहले जितनी घृणा इस संबंध में लोगों को थी अब उतनी कहाँ है? जो नहीं खाते वे भी उससे घृणा नहीं करते। मछली का तेल तथा पशु−पक्षियों के अंग−प्रत्यंग चीर फाड़कर बनाई हुई औषधियों का आज डाक्टरों की दुकान में बाहुल्य है। लोग बिना संकोच उन्हें खाते−पीते हैं। इन वस्तुओं को प्राप्त करने में दूसरे प्राणियों को कितनी मर्मान्तक पीड़ा सहन करनी पड़ी है, इसका विचार भी लोगों को नहीं आता। हमारी स्वयं की हत्या इसी प्रकार इन्हीं प्रयोजनों के लिए कदाचित् दूसरे प्राणी करने लगते तो हम पर कैसी बीतती? इसका ध्यान तक लोगों को नहीं आता, निर्दयता और निष्ठुरता की पाषाण मूर्ति बन कर दूसरों का माँस खाते−पीते जिन्हें झिझक नहीं होती उनकी प्रवृत्तियों को किस संज्ञा में गिना जा सकता है?

जालसाजी और ठगविद्या एक प्रकार से चतुरता और बुद्धिमता का अंग बनती चली जा रही है। व्यापार में धोखेबाजी का समन्वय अब एक आम बात बन रहा है। कहना कुछ, दिखाना कुछ, देना कुछ, यह तीन तरह का व्यवहार करना दुकानदारों की एक आम नीति है। खाद्य पदार्थों और औषधियों तक में जो घृणित प्रकार की मिलावटें होती हैं उससे उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य चौपट होता है तो इसकी परवा किये बिना व्यापारी निधड़क अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। न्याय की रक्षा के लिए बने हुए न्यायालयों के कर्मचारी किस प्रकार रिश्वत में अन्याय को प्रश्रय दिए हुए हैं, यह किससे छिपा है। पुलिस, रेलवे, कन्ट्रोल आदि विभिन्न सरकारी विभागों में कितनी रिश्वत चलती है, उसकी चर्चा करने से कुछ लाभ नहीं।

टूटे हुए पारस्परिक संबंध

नौकर और मालिक के बीच पिता−पुत्र का संबंध आज कहाँ है? मजदूर की दृष्टि कम से कम काम करने और अधिक कमाने और जहाँ घात लगे चोरी करने पर रहती है। मालिक का रिश्ता मजदूर से किसी मशीन के समान काम ले लेने मात्र का रहता है। उसके दुख-दर्द में हिस्सेदार बनने की, अपनी प्रगति और मुनाफा में उन्हें भागीदार बनाने की इच्छा उन्हें नहीं होती। मित्र−मित्र के बीच स्वार्थ साधन की शतरंज−चाल चली जाती रहती है। शत्रु और उदासीन को ठगना कठिन होता है, मित्र बनकर आसानी से विश्वासघात किया जा सकता है। इस दृष्टि से अब मित्रता भी विश्वासघात और धूर्तों की एक चाल बनती चली जा रही है। तोते की तरह लोग तभी तक मित्रता रखते हैं जब तक स्वार्थ सधता है, उसमें कमी आते ही आँखें बदल जाती है और जब दीखता है कि मित्र तंगी में आया और कुछ सहायता करनी पड़ सकती है तो लोग तुरन्त आँखें फेर लेते हैं। घर परिवार में भी यही नीति बरती जाती है। पिता−माता तभी तक अच्छे लगते हैं जब तक वे कमाते खिलाते हैं, जब वे अशक्त हो जाते हैं तो भार रूप लगते हैं। उनके मरने की, खर्च घटने की मनौती मानी जाती है।

दूसरों का धन, दूसरों का शील, सतीत्व हरण करने के लिए घात लगाये बैठे रहते हैं और जब जिसे जहाँ अवसर मिलता है अपना दाव चलाने में चूकता नहीं। दूसरे की कठिनाइयों और परिस्थितियों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की क्षमता घटती जा रही है। यह सोचना लोग छोड़ते चले जा रहे हैं कि दूसरों की परिस्थितियों में हम रहे होते तो क्या सोचा और क्या किया जाता। ऐसी परिस्थितियों में निष्ठुरता पनपे और मनुष्य पापी अपराधी एवं दुष्ट बनता चला जाय तो आश्चर्य की क्या बात है।

बढ़ती हुई विभीषिका

व्यापक बुराइयों की अधिक चर्चा करने से कुछ लाभ नहीं, वस्तुस्थिति को हम सब जानते भी हैं। इस चर्चा से चित्त में क्षोभ और सन्ताप ही उत्पन्न होता है। यों भले मनुष्यों का भी अभाव नहीं है वे प्रत्येक क्षेत्र में, बदनाम क्षेत्रों में भी मौजूद रहते हैं पर उनकी संख्या नगण्य है। असुरता का व्यापक विस्तार अपने कैसे कडुए और विषैले प्रतिफल उत्पन्न कर रहा है सो सामने प्रस्तुत ही है। सर्वत्र अशाँति, असंतोष, विक्षोभ, सन्ताप, द्वेष, क्लेश, रोग, शोक, दैन्य, अभाव एवं संघर्ष का उद्वेग भरा वातावरण मौजूद है। कहीं भी शाँति नहीं, किधर भी चैन नहीं, जो प्रगति हम करते जाते हैं वही विपत्ति बन कर गले में फाँसी के फन्दे की तरह जकड़ती चली जाती है। विज्ञान की उन्नति ने एटम युग में लाकर हमें खड़ा कर दिया है वहाँ मानव सभ्यता सर्वनाश के आधार पर खड़ी−खड़ी त्राहि−त्राहि पुकार रही है।

प्रश्न यह है कि क्या इस बढ़ती हुई असुरता को इसी रूप में बढ़ने दिया जाय, और सर्वनाश की घड़ी के लिये निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करते रहा जाय? अथवा स्थिति को सुधारने के लिए कुछ प्रयत्न किया जाय? विवेक, कर्तव्य−धर्म और पुरुषार्थ की चुनौती यह है कि निष्क्रियता उचित नहीं। शान्ति का सन्तुलन बनाये रखने के लिए, धर्म और कल्याण की रक्षा के लिए, मानवीय महत्ता को नष्ट न होने देने के लिए हमें कुछ करना ही चाहिए। जिस दिशा में अपने कदम अब तक तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं उसी सर्वनाश की ओर अब इस दौड़ को बन्द किया ही जाना चाहिए। असुरता के विरुद्ध विवेक की इसी प्रतिक्रिया का नाम है, “युग निर्माण योजना।”

प्रतिरोध और उन्मूलन के लिए

प्रस्तुत योजना के अन्तर्गत हमें मानव जीवन का उद्देश्य, आदर्श, तत्वज्ञान और व्यवहार सीखना पड़ेगा। फूहड़पन से जिन्दगी जीना कोई बुद्धिमान की बात नहीं। चौरासी लाख योनियों में करोड़ों वर्षों बाद मिले हुए इस अलभ्य अवसर को यों ही गन्दे-सन्दे ढंग से जी डालना, यह भी कोई समझदारी की बात है? जब थोड़ी भी उपयोगी और कीमती चीजों को सँभाल कर रखने और ठीक उपयोग करने की बात सोची जाती है तो मानव जीवन जैसे सुरदुर्लभ अवसर को ऐसी उपेक्षा और अस्त-व्यस्तता के साथ क्यों जिया जाना चाहिए? उचित यही है कि हम जीवन विद्या को सीखें और जिन्दगी का स्वरूप समझने और उसके सदुपयोग का प्रयत्न करें।

असुरता का व्यापक साम्राज्यवाद अब हटना ही चाहिए। देवत्व की ओर बढ़ने के लिये हमें मानवता को तो अपनाना ही पड़ेगा। दृष्टिकोण में इतना परिवर्तन होना तो आवश्यक ही है कि हमारे स्वार्थों की सीमा अत्यन्त संकुचित न रह कर उनका क्षेत्र कुछ बढ़े और विस्तृत हो। हम तृष्णा और वासना के, लोभ और मोह के, काम और क्रोध के ही बन्धनों में जकड़े न पड़े रहें वरन् धर्म और कर्तव्य का, आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का भी कुछ आस्वादन करें। बन्धन से मुक्ति की ओर बढ़ने का एक ही मार्ग तो है कि संकुचित स्वार्थों की संकीर्णता की कीचड़ से अपने आपको निकालने का प्रयत्न करें। मानवता की निर्मल सुरसरी में अपने मल आवरण और विक्षेपों को धोवें और उस दिशा में कदम बढ़ायें जिधर देवत्व का मंगलमयी मलय मारुत प्रवाहित होता है। असुरता से मानवीय चेतन को विमुख करके देवत्व की ओर उन्मुख करना यही युग निर्माण योजना है, इसी को जीवन विद्या या संजीवन विद्या कह सकते हैं।

परिवर्तन का केन्द्र बिन्दु

दृष्टिकोण का परिवर्तन ही व्यक्ति परिवर्तन कहा जाता है। बाहरी कामों, व्यवस्थाओं, गतिविधियों को, परिस्थितियों को तो बलपूर्वक भी बदला जा सकता है। भय, दण्ड, या प्रलोभन के वशीभूत होकर लोग वह कार्य करते हैं जो वस्तुतः उन्हें करने नहीं होते। दिखावट, ढोंग, लोक-लाज या दबाव से कितने ही कार्य इस संसार में अनिच्छापूर्वक भी होते रहते हैं पर उनमें कोई स्थायित्व नहीं होता। सरकारी कानून, सामाजिक प्रतिबन्धों या भावुकता को उभार कर, जोश आवेश में बुराइयों की रोकथाम की जा सकती है किन्तु होती वह अस्थायी ही है। बाहरी दबाव जैसे ही कम हुआ वे दुष्प्रवृत्तियाँ उसी या वैसे ही अन्य किसी रूप में पुनः उभर आती हैं। वास्तविक उन्मूलन तो तभी संभव है जब अन्तःकरण बदलें, हृदय परिवर्तन हो और दृष्टिकोण सुधार हो। इसी में स्थिरता भी सान्निहित है और वास्तविकता भी।

आत्मा शुद्ध स्फटिक मणि के समान है, दर्पण के सामने जो भी वस्तु आती है उसमें वैसी ही छाया दीखने लगती है। स्फटिक मणि के सामने जिस रंग की वस्तुएँ रखी होंगी वह उसी रंग की दीखने लगेंगी। आज असुरता की परिस्थितियाँ फल−फूल रही हैं तो मानव का स्वरूप दुष्ट, दुराचारी, अज्ञानी और असुर जैसा दीख रहा है। पर जैसे ही स्थिति में परिवर्तन होगा परिस्थितियाँ मानवता, नैतिकता, धार्मिकता एवं सज्जनता के अनुकूल बनती जायेंगी, दुष्कर्म का स्थान सत्कर्म ग्रहण करेंगे, दुर्घटनाओं के स्थान पर सद्भावनाओं की स्थिति दिखाई देगी। ऐसी परिस्थितियों में वही मानव प्राणी जो आज असुर दिखाई देता है मानवता के उच्च आदर्शों में ओत-प्रोत होकर देवत्व की ओर तेजी से बढ़ता हुआ दिखाई देगा।

संकीर्णता से महानता की ओर

दृष्टिकोण का परिवर्तन ही सबसे बड़ा परिवर्तन है। अपने सीमा के संकीर्ण दायरे को बढ़ाकर विशाल क्षेत्र तक विकसित करने का नाम ही विकास है। वासना और तृष्णा की क्षुद्रता की मोह निद्रा की उपेक्षा करते हुए कर्तव्य का पालन और परमार्थ की आकांक्षाएँ जागृत करना यही जागरण है। कुविचारों और दुर्भावनाओं के, काम, क्रोध, लोभ, मोह के बन्धनों को तोड़ डालना इसी का नाम मुक्ति है। सन्तोष, संयम और सचाई, सज्जनता और शाँति की सन्तुलित मनोभूमि बनाये रखना यही स्वर्ग है। यह अपनी धरती स्वर्ग से श्रेष्ठ है, यह अपना मानव शरीर देवताओं से उत्तम है। यह मनुष्य जन्म ईश्वर का हमें सबसे बड़ा अनुग्रह और वरदान है। इस अलभ्य अवसर का, इस परम सौभाग्य का समुचित सदुपयोग करते हुए वह करना चाहिए जो करने योग्य है, वह सोचना चाहिए जो सोचने योग्य है, वह चाहना चाहिए जो चाहने योग्य है। उस मार्ग पर चलना चाहिए जो चलने योग्य है।

हमें अपनी असुरता को देवत्व में परिणित करने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि नारकीय अन्तःद्वन्दों और शोक-संतापों से छुटकारा पाकर शान्ति एवं सन्तोष का स्वर्गोपम सुख निरन्तर उपलब्ध करते रह सकना संभव हो सके। दृष्टिकोण बदलने से जीवन बदल जाता है, संसार बदल जाता और युग बदल जाता है। असुरता देवत्व में बदल सकती है, नरक को स्वर्ग में परिणत किया जा सकता है यदि हमारा दृष्टिकोण बदले। इस बदलने की विशाल कार्य पद्धति को लेकर आध्यात्मिक, बौद्धिक एवं नैतिक क्रान्ति का बिगुल बजाते हुए हम युग निर्माण के लिए अग्रसर होते हैं। आज हम थोड़े लोग इधर बढ़ें तो कल इन्हीं पद चिन्हों पर सभी दुनियाँ को चलना पड़ेगा।


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