यह करने के लिए हम कटिबद्ध हो जायँ

December 1962

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

युग निर्माण योजना कागजी या कल्पनात्मक जल्पना नहीं है। वह समय की पुकार, जन मानस की गुहार और दैवी इच्छा की प्रत्यक्ष प्रक्रिया है। इसे साकार होना ही है। इसको आरम्भ करने का श्रेय ‘अखण्ड−ज्योति’ परिवार को मिल रहा है तो इस सौभाग्य के लिए हममें से प्रत्येक को प्रसन्न होना चाहिये और गर्व अनुभव करना चाहिये। योजना का स्वरूप इस वर्ष के अंकों में पाठकों के सामने भली प्रकार प्रस्तुत किया जा चुका है, अब उसको व्यावहारिक स्वरूप दिया जाना है। उसे प्रत्यक्ष कर दिखाया जाना है। इसके लिए बिना समय नष्ट किये हमें अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिये। आलस्य और उपेक्षा करने वालों को पश्चाताप ही हाथ रह जायेगा।

अखण्ड ज्योति परिवार का प्रारम्भिक संगठन कार्य सन् 62 में पूरा हो जाना चाहिए। पत्रिका के जो ग्राहक इन दिनों हैं उन्हें संगठन सूत्र में जल्दी ही आबद्ध हो जाना चाहिए। सितम्बर अंक में जो फार्म लगा था वह अभी तक जिनने भरकर नहीं भेजा है उन्हें उसे तुरन्त ही भरकर मथुरा भेज देना चाहिये। इस कार्य में विलम्ब लगाना, आलस या उपेक्षा करना अनुचित है। जिन्हें शाखा संचालक नियुक्त कर दिया है, वे अपने सम्बद्ध दस व्यक्तियों को प्रेरणा देते रहने का उत्तरदायित्व उत्साहपूर्वक निबाहें। धर्मफेरी, धर्म चर्चा एवं विचार गोष्ठियों का कार्यक्रम चलाने लगें। जिनके सम्बद्ध दस सदस्य पूरे नहीं हो पाये वे उस संख्या को जल्दी ही पूरा कर लें। जिन संचालकों के संबद्ध सदस्यों में से कुछ दूर रहते हैं वे उन्हें पत्र व्यवहार द्वारा आवश्यक प्रेरणाऐं देते रहें।

अपने तक ही सीमित न रहें

युग निर्माण योजना की पृष्ठभूमि तथा भावनाओं से अधिकाधिक लोगों का परिचित कराया जाना आवश्यक है। विचार ही बीज है। मस्तिष्क में जब वह ठीक तरह बोया जाता है तो उसके अंकुर उगते और पौधे के रूप में उगकर विशाल वृक्ष बनते हैं। विचारों से ही परिपक्वरूप कार्य बनता है। यदि हम संसार में सत्कर्मों की फसल फली-फूली देखना चाहते हैं तो इसका एक ही उपाय है कि सद्विचारों का क्षेत्र अधिकाधिक विस्तृत हो। इस पुनीत प्रक्रिया में हम सबको पूरी शक्ति और तत्परता के साथ लग जाना चाहिये।

‘अखण्ड ज्योति’ जिनके भी पास पहुँचती हो वे उसे पत्रिका मात्र न समझें वरन् आदि से अन्त तक दो बार पढ़ें। सरसरी नजर से एक बार पन्ने उलटकर पत्रिका को एक तरफ रख देने से काम न चलेगा। हमारी चिट्ठी, वाणी, प्रेरणा, भावना और आकाँक्षा का मूर्तरूप ‘अखण्ड ज्योति’ ही है। इसे भावना और ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिये और इन पत्रों के साथ लिपटी हुई प्रेरणाओं को मनन और चिन्तनपूर्वक हृदयंगम करना चाहिये। हमारी आत्मा से अपनी आत्मा को जोड़ने और भावना के साथ भावना का स्पर्श करने का यही तरीका है। हमारे सान्निध्य और सत्संग की जिन्हें उपयोगिता प्रतीत होती हो उन्हें आदि से अन्त तक ‘अखण्ड ज्योति’ पढ़ते रहना चाहिये। एक महीने में हमने जो कुछ सोचा, विचारा, पढ़ा, मनन किया, समझा और चाहा है, उसका साराँश पत्रिका की पंक्तियों में मिल जायेगा। इस सत्संग की उपेक्षा को हम अपनी उपेक्षा ही समझते हैं और प्रत्येक प्रेमी से यह आशा करते हैं कि वह हमें, हमारी भावना, आकाँक्षा और गतिविधियों को समझने के लिये पत्रिका को उसी मनोयोग से पढ़ें जैसे हमारे पास बैठकर हमारी बातों को सुना जाता है।

परिवार सबसे पहले

अपने घर का कोई शिक्षित व्यक्ति ऐसा न बचे जो घर में आने वाली पत्रिका को पढ़ता न हो। स्वयं पड़ लेना पर्याप्त नहीं। वरन् घर के प्रत्येक सदस्य को इन विचारों के सम्पर्क में लाना परिवार निर्माण की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। ऐसे साहित्य को पढ़ने में आमतौर से रुचि नहीं होती, यह रुचि पैदा करनी पड़ेगी। यह कार्य अपने घर से ही होना चाहिये। अपने भाई, भतीजे, बच्चे, बुजुर्ग जो भी पढ़ना जानते हों उन्हें आग्रहपूर्वक पत्रिका पढ़ानी चाहिये। जो पढ़े न हों उन्हें सप्ताह में एक दिन एक डेढ़ घण्टे का सत्संग लगाकर ‘अखण्ड ज्योति’ के लेखों को सुनाना चाहिए। चार से लेकर छह घण्टे में पत्रिका पूरी पढ़कर सुनाई जा सकती है। सप्ताह में एक दिन अवकाश का रखकर उस दिन परिवार के सब लोग इकट्ठे किये जायँ और उन्हें एक डेढ़ घण्टे का यह लाभ दिया जाय। इस प्रकार महीने के चार सत्संगों में पूरी पत्रिका सुनाई जा सकती है। इसी सत्संग में थोड़ा भजन कीर्तन, जप, पाठ, हवन आदि भी करते जाना चाहिये। इन प्रकार के पारिवारिक सत्संग हर घर में चलने चाहियें।

एक से दस बनें

‛एक से दस’ की नीति अपनाकर ही हम युग निर्माण योजना को विश्वव्यापी बना सकेंगे। अपने पास प्रचार के वे साधन नहीं हैं जिनके द्वारा दूर−दूर तक अगणित लोगों को अपनी विचारधारा से परिचित कराया जाना सम्भव होता है। जिन संस्थाओं के पास बहुत धन साधन हैं वे अपने विचार थोड़े ही समय में व्यापक क्षेत्र में फैला सकती हैं। पर अपने साधन अत्यन्त स्वल्प होने के कारण “एक से दस” की नीति द्वारा ही अपना प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। हममें से प्रत्येक को यह प्रयत्न करना चाहिये कि अपने घर से बाहर कम से कम 10 व्यक्तियों को इस विचारधारा से परिचित कराया जाता रहे। इस कार्य के लिए नित्य एक घण्टा समय निकालना चाहिये। जिन लोगों में थोड़ी धर्म रुचि और विचारशीलता के अंकुर मौजूद हों ऐसे अपने प्रियजनों, मित्रों, परिचितों के नाम नोट कर लेने चाहिए। धर्म-फेरी के लिए नियत किया हुआ एक घण्टा उनके घर जाकर योजना सम्बन्धी चर्चा करने तथा अपनी पत्रिका उन्हें देकर पढ़ने की प्रेरणा देने में लगाना चाहिए। एक दिन में एक व्यक्ति से मिलने का कार्यक्रम बनाया जाय तो महीने में तीस व्यक्तियों से मिलने और धर्म चर्चा करने वाली बात आसानी से बन सकती है। इतना न हो सकता हो तो भी दस व्यक्तियों से हर महीने मिलने−जुलने और “अखण्ड ज्योति” पढ़ने तथा निर्धारित विषयों पर धर्म चर्चा करने का कार्य तो बहुत ही सरलतापूर्वक किया ही जा सकता है।

सप्ताह में एक दिन की छुट्टी का समय मिलता है, उसी में से कुछ घण्टे धर्म-फेरी के लिए रख लिए जायँ और प्रति सप्ताह दो तीन व्यक्तियों से मिलते रहा जाय तो भी दस व्यक्तियों से मिलने का लक्ष पूरा होता रह सकता है।

ज्ञान गोष्ठियों का विस्तार

अपने सम्पर्क के इन दस व्यक्ति यो को सप्ताह में एक दिन कहीं इकट्ठा भी करना चाहिए। क्रमशः एक−एक के यहाँ इकट्ठे होकर सत्संग करते रहें तो यह दस व्यक्तियों का सत्संग दस सप्ताह तक तो नय- नये घरों में होता रहेगा। वर्ष में 5 बार हर सदस्य के घर यह ज्ञान गोष्ठी होती रहे तो इन दस व्यक्तियों में परस्पर परिचय और प्रेम भाव भी बढ़ेगा और संगठन सुदृढ़ होने से योजना के कार्यान्वित होने में भी सरलता होगी। यह विचार−गोष्ठी−सत्संग—जहाँ हो वहाँ दसों व्यक्ति यह प्रयत्न करें कि कुछ नये व्यक्ति भी उसमें सम्मिलित हों, जिसके घर पर हो वह तो अपने पड़ौसियों और घर वालों को आसानी से इकट्ठे कर सकते हैं। इन सत्संगों में युग निर्माण विचारधारा के विभिन्न पहलुओं पर भाषण, प्रवचन, शंका समाधान, विचार−विनिमय हों और साथ ही भजन, कीर्तन, जप, पूजा, हवन आदि का भी थोड़ा कार्यक्रम रहे। जिन नगरों में ऐसी कई शाखाऐं हों, उन सबको महीने में एक बार सबका सम्मिलित सत्संग करना चाहिए। इस प्रकार संगठन और विचार विस्तार का महत्वपूर्ण कार्यक्रम उत्साह−पूर्वक प्रगति करता रह सकता है।

सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर सन् 62 के चारों अंक युग निर्माण योजना एवं पंचकोशी साधना की दृष्टि से अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं। इन्हें अतिरिक्त संख्या में भी छपा लिया गया है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि यह चार अंकों का सैट एक रुपया मूल्य लेकर विचारशील व्यक्तियों में बेचा जाय, ज्ञानदान के रूप में उपहार दिया जाय। अथवा इन अंकों के कुछ सैट अपने पास रखकर उन्हें दूसरों को पढ़ाते रहने के काम में लाया जाय। चार अंकों का यह सैट अपनी योजना एवं भावनाओं की ठीक अभिव्यक्ति कर सकता है। इसलिए इसके प्रसार में उदारता और तत्परतापूर्वक प्रयत्न किया जाय। योजना का स्वरूप सर्व साधारण को समझाने के लिए इन चार अंकों को अधिकाधिक जनता पढ़े ऐसा प्रयत्न करना आवश्यक है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118