आलस में समय न गवावें

December 1962

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हीरा मूल्यवान होते हुए भी उसकी ठीक कीमत जौहरी की दुकान पर ही प्राप्त होती है। बच्चों के खेल-खिलौनों में वह काँच के एक टुकड़े की तरह पड़ा रह सकता है पर उसका कोई गौरव और महत्व वहाँ प्रकट नहीं होता। मनुष्य का जीवन मूल्यवान होते हुए भी उसकी कदर तब खुलती है जब उसका मूल्यांकन किये हुए कार्यों के आधार पर किया जाता है। किसी प्रकार दिन काट लेना और साँसें पूरी कर लेना एक बात है, यदि जीवन का पूरा लाभ उठा लें तो दूसरी। जिसे अपना जीवन व्यर्थ नहीं गवाँना है, भार की तरह जिन्दगी का बोझ किसी प्रकार ढोते ही रहना नहीं है, उसे यह प्रयत्न करना होता है कि मानव जीवन के बहुमूल्य क्षणों का समुचित सदुपयोग कर लिया जाय।

तेजी और चमक का माध्यम

हथियारों की धार तब तेज होती है जब शान के पत्थर पर घिस कर उन पर धार धरी जाती है। रगड़ के बिना चमक नहीं आती। मैले कुचैले बर्तनों को मिट्टी से माँजकर स्वच्छ और चमकदार बनाया जाता है। मनुष्य का जीवन भी परिश्रम की धार धरने से ही चमकदार बनता है। लोहे के मामूली टुकड़े खराद पर खरादे जाने से बहुमूल्य उपयोग पुर्जे बन जाते हैं जो किसी मशीन के अंग बन कर बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं। मनुष्य जीवन लोहे का टुकड़ा कहा जाय तो परिश्रम को खराद मानना पड़ता है। जो जितना परिश्रमी है वह उतना ही अपने जीवन को सार्थक बना लेता है।

तामसिक प्रकृति का प्रधान लक्षण क्रोध नहीं आलस है। क्रोध को तमोगुणी कहते हैं। पर गहराई से विचार किया जाय तो क्रोध की अपेक्षा आलस की हानि अधिक है। क्रोध से रक्त सूखता है, द्वेष बढ़ता है, अस्त-व्यस्तता उत्पन्न होती है आदि अनेकों हानियाँ हैं, पर सजीवता बने रहने का एक उपयोग तो उसमें भी है। किन्तु आलस में तो वह भी नहीं है। जिसे श्रम से अरुचि है वह तो एक प्रकार का मुर्दा ही कहा जायेगा। जीवन के चिह्न है प्रेरणा, स्फूर्ति, उत्साह, लगन, प्रसन्नता आदि। जिसमें से यह तत्व घट गये हैं, काम करने की बात सुनकर जिसका जी दुखी होता है, जिसे पड़े रहना और किसी प्रकार वक्त गुजारते रहना प्रिय है उस आलसी को जीवितमृत ही कहा जायेगा।

समय काटा न जाय

यों समय काटने के लिए निकम्मे और निठल्ले आदमी भी कुछ न कुछ काम निकालते हैं। गप्पें हाँकने, मटरगश्ती करने, ताश खेलने, सिनेमा देखने, बेकार काम में चौधरी बनने, दूसरों के कामों में अकारण टाँग अड़ाने की, यारबाजी की आदत आलसी लोगों में पाई जाती है। उन्हीं के जैसे अन्य निठल्ले लोग चौकड़ी जमाकर बैठ जाते हैं और यारबाजी के शुगल चलने लगते हैं। उस चौकड़ी में प्रेम, सिद्धान्त, कार्यक्रम एवं कारण का कोई आधार तो होता नहीं, समय काटने के लिए ही इकट्ठे होते हैं। बेकार की बातों में, व्यसनों में इस सम्मिलिन से वृद्धि ही होती है। इस प्रकार की चौकड़ी जमना इन निठल्लों के दोष और दुर्गुणों को बढ़ाने में ही सहायक होता है।

बेकारी अर्थात् बर्बादी

कहावत है—‟खाली दिमाग शैतान की दुकान।” जो बेकार रहेगा उसे शैतानी सूझेगी। कुछ दिन पहले इस देश में राजा, रईस, अमीर, उमराव, जमींदार साहूकार, महंत, मठाधीश बहुत थे। उनके पास आमदनी बहुत थी और नौकर चाकरों के बलबूते पर उनका व्यापार चलता रहता था। इस बचे हुए समय का उपयोग आमतौर से खुराफातों में होता था। बहुत कम लोग इन वर्गों में ऐसे थे जो अपने समय को किसी मूल्यवान कार्य में लगाते थे। अब यह वर्ग घट रहे हैं। परिस्थितियों ने उन्हें श्रम करने और सुधरने के लिए विवश किया है। यह विवशता उपयोगी भी है और आवश्यक भी। बेकारी की समस्या इसीलिए खतरनाक नहीं मानी जाती कि उन दिनों आदमी कमाता नहीं वरन् मुख्यतया इसलिए उसे भयंकर मानते हैं कि बेकार आदमी को उत्पात ही सूझेंगे। बुरे विचार उसके मस्तिष्क में उठेंगे और बुरे कामों की ओर अग्रसर होगा। बुराई का आज चारों ओर बाहुल्य है। उसी का प्रसार एवं आकर्षण भी प्रबल है, बेकार आदमी सहज ही उस ओर आकर्षित होते हैं। कार्यव्यस्त व्यक्ति फुरसत न मिलने के कारण बुराइयों से बचा रहता है। पर बेकार आदमी के लिए तो सर्वनाश का द्वार खुला पड़ा रहता है।

आलस से विनाश

बेकारी का कारण सदा काम का अभाव ही नहीं, बहुधा आलस भी होता है। नौकरी के लिए दर−दर ठोकरें खाते फिरने वालों में से अधिकाँश वे होते हैं जो ऊँची आमदनी की, कुर्सी पंखे की, बिना मेहनत की नौकरी चाहते हैं, श्रम करने में जिनका जी दुखता है, मेहनत मजूरी से जिन्हें अपनी शान और इज्जत घटती मालूम पड़ती है। उनके लिए बाबूगीरी की नौकरियाँ मिलना मुश्किल हो सकती हैं, पर परिश्रम करने वाले के लिए काम की कहीं कमी नहीं है। ज्यादा पैसे का नहीं, बड़ा न सही हर आदमी को हर जगह काम मिल सकता है। और बहुत न सही थोड़ा तो वह कमा ही सकता है। थोड़ी भी कमाई न हो तो समय की बेकारी तो किसी काम में लगे रहने से बच ही जाती है। खुराफात में मन दौड़ने का अवसर नहीं मिलता, यह भी क्या कुछ कम लाभ है। पुरानी कहावत है कि —‟कुछ न कुछ किया कर। कुछ न हो तो पाजामा उधेड़ कर सिया कर।” बेकारी का वक्त बेकार बातों में गँवाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि पाजामा उधेड़ने और सीने की कला का अभ्यास होता रहे और उस कार्य में हाथ सध जायँ।

पाकिस्तान के बटवारे के समय लाखों पंजाबी, सिन्धी बे-घरबार हुए। वे देश के विभिन्न भागों में फैले और बसे। उनके पास तत्काल कोई काम न था। पर उन्होंने अपनी सूझ-बूझ और उद्योगशीलता के आधार पर हर जगह काम प्राप्त कर लिया। आरम्भ छोटे से किया, पीछे अपनी मेहनत और बुद्धिमता के आधार पर अच्छी स्थिति प्राप्त कर ली। न तो उन्होंने किसी के आगे हाथ पसारा और न कहीं नौकरी के लिए ठोकरें खाई। कारीगरों की हर क्षेत्र में आवश्यकता है। देश में उद्योग धंधे बढ़ रहे हैं, उनके लिए कुशल कारीगरों की भारी कमी रहती है। उन्हें आजीविका भी अच्छी मिलती है और स्वास्थ भी ठीक रहता है। बाबूगीरी की अपेक्षा लोग मेहनतकश बनने को तैयार हों तो उनकी शान शेखी में ही थोड़ी कमी हो सकती है पर लाभ उन्हें भी होगा और सारे समाज को भी।

अनुत्साह और अरुचि

आलस में हमारा आधे से अधिक समय बर्बाद होता है। अनुत्साह और अरुचिपूर्वक किया हुआ कोई भी काम दूना समय लेता है और परिणाम में आधा पूरा हो पाता है। जेल के कैदी की मनोवृत्ति से किया हुआ काम कुछ−कुछ तभी अच्छा रह सकता है जब उस पर दण्ड की कठोर व्यवस्था रहे। अन्यथा वह सब कार्य ढीला पोला और काना कुबड़ा ही बन सकेगा। शारीरिक आलस, वस्तुतः मानसिक आलस की उपज होता है। जो लोग खिच−खिच−खिच−खिच करते तो सारे दिन हैं पर कार्य का परिमाण जरा सा दिखाई देता है उन्हें अनुत्साही और आलसी ही कहा जायेगा। कितने ही लोग बहुत काम होने और फुरसत न मिलने का रोना रोया करते हैं। वस्तुतः उन्हें काम की ठीक व्यवस्था नहीं आती। यदि समय का ठीक विभाग करके, उचित समय में उचित कार्य किया जाय तो अब की अपेक्षा हम दूना-चौगुना काम कर सकते हैं। विश्व के श्रम संगठन की रिपोर्ट है कि भारतीय मजदूर की अपेक्षा अमरीकी मजदूर प्रायः साढ़े तीन गुना अधिक काम करता है। पूरे परिश्रम से काम करने पर परिणाम भी अधिक होता है और उसका लाभ श्रमिक तथा कराने वाले दोनों को ही मिलता है। काम की गति मंद कर देने में दोनों को ही हानि होती है।

जड़ता की ओर न बढ़ें

सरकारी दफ्तरों में काम की गति मंद कर देने का इन दिनों एक नया फैशन चला है। बाबू लोग इस कोशिश में रहते हैं कि उन्हें कम से कम काम करना पड़े। जानकारों का कथन है कि बीस वर्ष पूर्व जितना काम एक बाबू निबटाता था अब दो भी उतना नहीं करते। इस प्रकार जड़ता की ओर अन्य वर्ग भी चल रहे हैं। इसका परिणाम न व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर है न राष्ट्र के लिए। पारिश्रमिक अधिक लिया या दिया जाना चाहिए पर श्रम में जड़ता उत्पन्न करना प्रत्येक दृष्टि से अनुपयुक्त है।

जिन लोगों ने जीवन में कोई महत्वपूर्ण कार्य किये हैं उनने समय और श्रम का महत्व पहचाना है। एक क्षण भी बिना बेकार गँवाये वे पुरुषार्थ में संलग्न रहे हैं। यह सोचना गलत है कि पड़े रहने से स्वास्थ्य बनता और श्रम करने से बिगड़ता है। सही बात इससे बिलकुल उलटी है। परिश्रमी ज्यादा दिन जीते हैं अधिक निरोग रहते हैं जब कि आलसी के अंग-प्रत्यंगों में जड़ता का प्रवेश हो जाने से जीवनीशक्ति घटती और दुर्बलता, बीमारी और अकाल मृत्यु की संभावना तेजी से बढ़ती है। स्त्रियों में जब तक चक्की पीसने, पानी खींचने, गोबर थापने आदि का परिश्रम करने की आदत बनी रही तब तक उनका स्वास्थ्य काफी अच्छा रहता था और प्रसव हँसते खेलते हो जाता था। अब जब कि उन कामों को महिलायें अपनी शान के खिलाफ समझती हैं तो बीमारियों की शिकार बनी रहती हैं, प्रसव बहुत ही कष्टदायक और कई बार तो प्राणघातक होते हैं। इस प्रकार आलस का उन्हें महँगा मूल्य चुकाना पड़ रहा है। हर काम के लिए कुली और हर कदम के लिए सवारी ढूँढ़ने वाले “बड़े आदमी” भी इसी प्रकार अपने स्वास्थ्य को बुरी तरह नष्ट करते चले जा रहे हैं।

बुढ़ापा अकर्मण्यता के लिए नहीं

बुढ़ापे का बहाना लेकर काम से जी चुराना यह बुरी और भोंड़ी आदत है। बुढ़ापे में कठोर काम करने में बेशक कठिनाई होती है पर हलके काम तो मरते दम तक करते रहा जा सकता है। गाँधी जी की मृत्यु 80 वर्ष की आयु में हुई है, वे उन दिनों भी पूरे समय काम करते थे। विनोबा की आयु इस समय 70 वर्ष की है वे देश के कोने−कोने में नैतिक क्रान्ति का सन्देश लिए घूम रहे हैं। राजगोपालाचार्य 80 वर्ष के हैं वे काँग्रेस को पलटाने का हौंसला दिखा रहे हैं। पंडित नेहरू 72 वर्ष की आयु में नौजवानों की तरह अठारह घण्टा अभी भी काम कर रहे हैं। संसार में सभी विचारशील व्यक्ति जिन्हें जीवन का मूल्य और महत्व मालूम है बिना जवानी-बुढ़ापे का ख्याल किये निरन्तर कार्य संलग्न रहते हैं। श्रम किस प्रकार का हो यह शारीरिक और मानसिक स्थिति को देखते हुए बदला जा सकता है पर नियमित रूप से कुछ उपयोगी काम तो मरते समय तक करते ही रहना चाहिए। बेकारी से बड़ी विपत्ति दूसरी नहीं है। यह सोचना नितान्त मूर्खता है कि जो बैठे रहते हैं, जिनके दिन आराम से कटते हैं, वे भाग्यवान हैं। वस्तुतः उन्हें अभागे ही कहना चाहिए क्योंकि समय और सामर्थ्य रहते हुए भी वे श्रम जैसे मित्र का तिरस्कार करके जीवन के बहुमूल्य क्षणों को व्यर्थ गँवा रहे हैं, उनका कोई भी लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।

आमतौर से हमें जितना काम करना पड़ता है यदि उसे उत्साह और व्यवस्था के वातावरण में किया जाय तो वह अब की अपेक्षा आधे समय में पूरा हो सकता है। उत्साह और मनोयोग के साथ जो कार्य किया जाता है वह मनोरंजन ही बन जाता है और उसमें थकान नहीं आती। खिलाड़ी लोग गेंद खेलने में कितनी भाग−दौड़ करते हैं पर उन्हें थकान नहीं आती। जो भी काम भार समझ कर न किया जायेगा, मनोरंजन की तरह निपटाया जायेगा वह आनंद प्रदान करेगा और उत्साह भी, थकान तो उससे आवेगी ही नहीं। यदि मनोरंजन के लिए, खेल-कूद के लिए कोई समय निकालना हो तो वह भी निर्धारित और निश्चित होना चाहिए। थोड़े समय का मनोरंजन लाभदायक हो सकता है, पर खेल-कूद और मनोरंजन की बात ही सदा सोचते रहना और शरीर एवं मस्तिष्क को परिश्रम से बचाये फिरना अबुद्धिमत्तापूर्ण ही कहा जायेगा।

जीवन का सदुपयोग

आजीविका उपार्जन के लिए नियमित समय के अतिरिक्त हर आदमी के पास काफी समय बचता है। उसे अध्ययन में, अपनी योग्यता बढ़ाने में, व्यवस्था में, सफाई में, सेवा कार्यों में परमार्थ में या ऐसे ही अन्य उपयोगी कार्यों में लगाया जा सकता है। एकमात्र आजीविका कमाना ही समय का सदुपयोग नहीं है। अपने में वे अन्य विशेषताऐं भी उत्पन्न करनी चाहिएं जो आत्मिक दृष्टि से हमें उच्च कोटि के सत्पुरुषों की श्रेणी में पहुँचाती हैं। अगले जन्म के लिए श्रेष्ठ संस्कार धारण करके जाने से ही अपने उत्कर्ष की प्रक्रिया आगे चलती रह सकती है। इसकी तैयारी श्रेष्ठ कर्मों को अपनाये रहने से ही होती है। निरालस्य होकर हमें उस प्रकार के कार्यों में भी अपना समय लगाते रहना चाहिए। समय ही मानव जीवन की सच्ची सम्पत्ति है। जिस प्रकार हम अपना एक आना भी व्यर्थ नहीं खोते उसी प्रकार समय की भी पूरी सँभाल रखनी चाहिए और हर क्षण का उचित लाभ उठाने के लिए उसे श्रम के साथ संलग्न रखे रहना चाहिये।


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