सद्गुण भी हमारे ध्यान में रहें

December 1962

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हमारा ध्यान जिस वस्तु पर अधिक जाता है वह प्रमुखता प्राप्त कर लेती है और जिस ओर उपेक्षा बरती जाती है वह बात गौण एवं महत्वहीन बन जाती है। जिधर अपनी अभिरुचि मुड़ती है, जो प्रिय लगता है, जिसे प्राप्त करने की इच्छा रहती है वह सब कितना ही महत्वहीन क्यों न हो पर प्रमुखता प्राप्त कर लेता है और मस्तिष्क का अधिकाँश भाग उसी विचार धारा में निमग्न रहता है। जिस दिशा में विचार चलेंगे वैसे ही काम होंगे और धीरे−धीरे सारा जीवन उसी ढाँचे में ढल जायेगा। जिनने अपने जीवन को स्थायी दिशा में विकसित किया है उधर उनका पूरा−पूरा ध्यान रहा है। उपेक्षित मार्ग में भी कभी कोई प्रगति कर सका हो, ऐसा देखने-सुनने में नहीं आता।

सबसे बड़ी सम्पत्ति

मनुष्य के पास सबसे बड़ी पूँजी सद्गुणों की है। जिसके पास जितने सद्गुण हैं वह उतना ही बड़ा अमीर है। रुपया के बदले बाजार में हर चीज से किसी भी दिशा में अभीष्ट प्रगति की जा सकती है। गुणहीन व्यक्ति अपनी व्यर्थता, निरर्थकता के कारण सब की दृष्टि में हीन और हेय बने रहते है, कोई उनकी पूछ नहीं करता, उसकी ओर ध्यान नहीं देता बेचारे अपनी जिंदगी जीते और अपनी मौत मरते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए किसी प्रकार जिन्दगी के दिन काट लेना ही पर्याप्त होता है। ये लोगों की दृष्टि में उपहास या दया के पात्र बने रहते हैं। किसी महत्व के कार्य में उनकी कोई पूछ नहीं होती, सदा पीछे ही धकेले जाते रहते हैं।

दुर्गुणी व्यक्ति बहुधा स्वार्थी होते हैं। वे दूसरों से चाहते तो बहुत हैं पर बदले में देने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता। इसलिए वे डरा धमका कर अपना प्रयोजन सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। गुण्डे, उद्दण्ड उच्छृंखल, चोर, डाकू, लुटेरे, झगड़ालू प्रकृति के लोग अपनी हानि पहुँचाने की क्षमता का प्रदर्शन करके दुर्बल मन वालों को आतंकित कर लेते हैं और फिर उनसे अपना स्वार्थ साधने की चेष्टा करते हैं। पर काठ की हाँड़ी देर तक नहीं चलती। सभी लोग उनके विरोधी होते हैं और घृणा के भाव रखते हैं। जब भी अवसर मिलता है प्रतिशोध ले लिया जाता है। यदि ये दुर्गुणी लोग किसी मुसीबत में फँस जाय तब तो हर कोई घी के दीपक जलाता है और यह प्रयत्न करता है कि इसे अधिक से अधिक मुसीबत उठानी पड़ें। दुर्गुणी का कभी कोई सच्चा मित्र नहीं हो सकता। क्योंकि किसी के मन में उस के प्रति श्रद्धा या सद्भावना नहीं होती, इसके बिना मैत्री की जड़ कभी नहीं हो सकती है।

प्रगति अपने बलबूते पर होती है। सच्ची मैत्री और सहानुभूति तो सद्गुणों में मिलती है दुर्गुणी तो वह सब कुछ खो बैठता है। डरा-धमकाकर एक बार किसी से कुछ काम करा भी लिया जाय तो भी वह निरन्तर कैसे संभव हो सकता है? दूसरों की सहानुभूति और सहायता से वंचित रहने के कारण ये लोग किसी महत्वपूर्ण सफलता के अधिकारी नहीं बन पाते। सब ओर से घृणा की वर्षा होने के कारण उनकी आत्मा भीतर ही भीतर दबा हुआ−से, मरा हुआ−सा, चोर की तरह भय और लज्जा से घिरा हुआ−सा बना रहता है। जिसका अतः करण लज्जा और संकोच के भार से दब गया है उसके लिए प्रगति के सभी द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं।

दुर्गुणों का दुष्परिणाम

अपनी ही बुराइयों के कारण दुर्गुणी व्यक्ति अपना सर्वनाश करता रहता है। अपव्ययी अपनी ही बुरी आदतों में अपनी सम्पत्ति गंवा बैठता है, और फिर दर−दर का भिखारी बना ठोकरें खाता फिरता है। व्यसनी अपना सारा समय निरर्थक के शौक पूरे करने में बर्बाद करता रहता है, जिस बहुमूल्य समय में वह कुछ कहने लायक काम कर सकता था वह तो व्यसन पूरे करने में ही चला जाता है। समय के अभाव में कोई महत्वपूर्ण कार्य उससे बन कब पड़ता है?

चटोरे, जिह्वा लोलुप लोग स्वाद के पीछे पागल बने दिन भर सटर−पटर खाते रहते हैं और फिर बेमौत मरते हैं। बीमारियाँ घेरती चली जाती है, दवाओं से उन्हें मिटाने की कोशिश में पैसा तो गँवाते हैं पर अपनी आदतों पर काबू नहीं नहीं करते। ऐसी दशा में इलाज में पैसे लगा कर भी उन्हें अस्वस्थता से छुटकारा नहीं मिलता। काम वासना में अपना शरीर, स्वास्थ और सौन्दर्य खो बैठने वालों की एक बड़ी संख्या चाहे जहाँ देखी जा सकती है। वे भोगों को भोग कर मौज-मजा लूटना चाहते है, पर गरीब स्वयं ही लुट जाते हैं। पाते तो कुछ नहीं, खो सब कुछ बैठते हैं। क्रोधी भी क्या कुछ लाभ में रहता है? उत्तेजना और आवेश में अपना खून जलाता है, न कहने योग्य कह बैठने से अपनों को पराया बना लेता है और घृणा द्वेष की कँटीली दीवारें अपने लिये चारों ओर खड़ी करता है।

ईर्ष्यालु, निन्दक, चुगलखोर सब की आँखों में अपना सम्मान खो बैठते हैं। उन्हें अविश्वास, अप्रमाणिक और ओछी तबियत का समझा जाता है। कोई उनसे घुलता-मिलता नहीं सभी सशंक बने रहते हैं। ऐसे लोग भीतर ही भीतर अपनी स्थिति पर असंतुष्ट, उद्विग्न और खिन्न भी रहते हैं। उनका शरीर और मन अधःपतन की दिशा में ही गिरता चला जाता है। दुर्गुणों की वृद्धि होना मानव जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। वस्तुतः यही सबसे बुरी किस्म की कुरुपता है जिसे देखकर हर ओर घृणा और तिरस्कार का वातावरण उठ खड़ा होता है।

सच्ची दौलत और अमीरी

धन को धन नहीं मानना चाहिए। वह तो आता और चला जाता है। परिस्थितियों के झटके बड़े−बड़े धनी मानियों को नीचा करवा देते हैं। गरीब के अमीर बनने में देर लग सकती है पर लगातार के दो चार थपेड़े लगने मात्र से अमीर की स्थिति गरीब से भी दयनीय हो जाती है। व्यापार में हानि, चैन, दुर्घटना, कुसमय मुकदमा, बीमारी, फूट आदि कितने ही ऐसे कारण हैं जो अच्छी आर्थिक स्थिति को उलट−पलट कर रख देते हैं। ऐसी दशा में गुण−हीन व्यक्ति निर्धन हो जाने पर पुनः उठ खड़ा होने में असमर्थ ही रहता है। पर जिसके भीतर सद्गुणों की पूँजी भरी पड़ी है वह पुनः अपना खोया हुआ वैभव प्राप्त कर लेता है। आत्मबल और आत्म−विश्वास उसे दैवी सहायता की तरह सदा प्रगति का मार्ग दिखाते हैं। अपने मधुर स्वभाव के कारण वह जहाँ भी जाता है वहीं अपना स्थान बना लेता है। अपनी विशेषताओं से वह सभी को प्रभावित करता है और सभी की सहानुभूति पाता है। दूसरों को प्रभावित करने की ओर उसकी सफलता का प्रधान कारण तो अपने सद्गुण ही होते हैं। जिसके पास यह विशेषता होगी उसके लिए पराये अपने बन जायेंगे और शत्रुओं के मित्र बनने में देर न लगेगी।

जीवन के आधार स्तम्भ सद्गुण हैं। अपने गुण कर्म, स्वभाव को श्रेष्ठ बना लेना, अपनी आदतों को श्रेष्ठ सज्जनों की तरह ढाल लेना वस्तुतः ऐसी बड़ी सफलता है जिसकी तुलना किसी भी अन्य साँसारिक लाभ से नहीं की जा सकती। इसलिए सब से अधिक ध्यान हमें इस बात पर देना चाहिए कि हम गुणहीन ही न बने रहें, सद्गुणों की शक्ति और विशेषताओं से अपने को सुसज्जित करने का निरन्तर प्रयत्न करें। दुर्गुणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर खोजें और उन्हें खटमलों की तरह अपने सम्पर्क से दूर हटाने की सदैव चेष्टा करते रहें।

पढ़ें, सुनें, कहें और सोचें

सद्गुणों के विकास का उचित मार्ग यह है कि उन्हीं के संबंध में विशेष रूप से विचार किया करें, वैसा ही पढ़े, वैसा ही सुनें, वैसा ही कहें, वैसा ही सोचें जो सद्गुणों के बढ़ाने में, सत्प्रवृत्तियों को ऊँचा उठाने में सहायक हो। सद्गुणों को अपनाने से अपने उत्थान और आनन्द का मार्ग कितना प्रशस्त हो सकता है, इसका चिन्तन और मनन निरन्तर करना चाहिए। किसी वस्तु के लाभ सोचने से उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है और यदि उसी से जो हानि हो सकती है उसका विचार आरंभ कर दिया जाय तो वही बहुत बुरी और त्याज्य प्रतीत होने लगेगी। किसी व्यक्ति की अच्छाइयों पर यदि विचार करें तो वही देवता दिखाई देगा, पर यदि उसकी बुराइयाँ ढूँढ़ने लगें तो वह भी इतनी अधिक मिल जावेंगी कि साक्षात् शैतान की तरह वह दीखने लगेगा।

विवेकशीलता के आधार पर जिसे भी हम उपयोगी पावें, जिसे प्राप्त करना आवश्यक समझें, उसकी उपयोगिता का अधिकाधिक चिन्तन करें। महात्म्यों का वर्णन इसीलिए किया जाता है कि किसी कार्य के अच्छे पहलू अपनी समझ में आवें और अभिरुचि उत्पन्न हो। कथावार्ता का सारा आधार यही तो होता है कि आध्यात्मिक विषयों की उपयोगिता और उनसे प्राप्त होने वाले लाभों को समझने से प्रवृत्तियाँ उस ओर झुकें। जहाँ भी मनुष्य लाभ देखता है, जिधर भी उसे आकर्षण दीखता है, उधर ही मन झुकने लगता है। सद्गुणों के महात्म्य को हम जितनी गंभीरता से सोचेंगे, उनके सत्परिणामों पर जितना अधिक विचार करेंगे, उतना ही उन्हें प्राप्त करने की आकाँक्षा प्रबल होगी। इस प्रबलता को प्रकान्तर से आत्मकल्याण की, जीवन विकास की, प्रेरणा भी कह सकते हैं। इसी पर हमारे भविष्य की उज्ज्वलता बहुत कुछ निर्भर रहती है।

बीजांकुरों को खोजें और सींचें

अपने अन्दर सद्गुणों के जितने बीजांकुर दिखाई पड़े, जो अच्छाइयाँ और सत्प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ें, उन्हें खोजते रहना चाहिए। जो मिलें उन पर प्रसन्न होना चाहिए, और उन्हें सींचने-बढ़ाने में लग जाना चाहिए। घास−पात के बीच यदि कोई अच्छा पेड़ पौधा उगा होता है, तो उसे देखकर चतुर किसान प्रसन्न होता है, और उसकी सुरक्षा तथा अभिवृद्धि की व्यवस्था जुटाता है, ताकि इस छोटे पौधे के विशाल वृक्ष बन जाने से उपलब्ध होने वाले लाभों से वह लाभान्वित हो सके। हमें भी अपने सद्गुणों को इसी प्रकार खोजना चाहिए। जो अंकुर उगा हुआ है यदि उसकी आवश्यक देख−भाल की जाती रहे तो वह जरूर बढ़ेगा, और एक दिन पुष्प−पल्लवों से हरा−भरा होकर चित्त में आह्लाद उत्पन्न करेगा।

सदा अपने दोष दुर्गुण ही ढूँढ़ते रहना बहुत बुरी बात है। ठीक है कि अपनी त्रुटियों से बेखबर न रहें, उन्हें खोजें और निकाल बाहर करें। पर निरन्तर केवल उसी दिशा में मस्तिष्क को लगाये रहा जायेगा तो अगणित बुराइयाँ ही बुराइयाँ अपने अन्दर सूझ पड़ती रहेंगी। तब चित्त में निराशा उपजेगी और अपने को दुष्ट−दुराचारी मान बैठने की भावना जड़ पकड़ेगी। जिस प्रकार अपने आपको शिवोऽहम्, सच्चिदानन्दोऽहम्, सोऽहम् आदि की उच्च ब्रह्म−भावना करने से आत्मा स्वसंकेतों के आधार पर ब्राह्मी स्थिति में अवस्थित होकर अपने आपको निरन्तर पापी, दुष्ट, दुराचारी मानते रहने से उसी के प्रमाण खोज−खोज कर अपनी निकृष्टता की ओर दृष्टि करते रहने से आत्मिक स्तर गिरता है। जैसा हम सोचते हैं वैसे ही बनते और ढलते हैं यदि अपनी बुराइयों को ही सोचते रहा जायेगा तो धीरे−धीरे अपना रूप वैसा ही बनता जायेगा।

सावधानी की आवश्यकता

आत्म शोधन का कार्य बड़ी सावधानी और सन्तुलित मनःस्थिति से ही किया जाना चाहिए। एकांगी आलोचना उचित नहीं। न केवल दोष ही देखें और न केवल गुणों का ही विचार करें। वरन् दृष्टि यह रखें कि जो बुराइयाँ दीखें उनके लिए अपनी ताड़ना करें और जो अच्छाइयाँ सूझ पड़े, उनसे प्रसन्नता अनुभव करें —प्रोत्साहन प्राप्त करें और संतोष व्यक्त करें। अच्छाइयों के बढ़ाते चलने से बुराई स्वतः घटती है। केवल बुराई को छोड़ने भर की बात सोची जाय और अच्छाई बढ़ाने की ओर ध्यान न हो तो प्रयोजन सिद्ध न होगा। पानी से भरे बर्तन में यदि कंकड़ पत्थर डाल दिये जायें तो उतना ही पानी बर्तन से बाहर निकल जायेगा। मन रूपी बर्तन में सद्गुणों की जितनी प्रतिष्ठापना होती चलेगी उतने ही दोष दुर्गुण अपने आप समाप्त होते चलेंगे।

व्यभिचार छोड़ेंगे यह सोचने की अपेक्षा यह कहना अच्छा है कि ब्रह्मचर्य पालन करेंगे। चोरी छोड़ेंगे यह कहने के अपेक्षा यों सोचना चाहिए कि ईमानदारी का पवित्र जीवन बितायेंगे। आलस में न पड़े रहेंगे यों न कह कर यों कहना चाहिए कि स्फूर्ति और श्रमशीलता का वरण करेंगे। बात एक ही है पर निषेधात्मक पक्ष को मनःक्षेत्र में स्थान देने की अपेक्षा यह उत्तम है कि रचनात्मक पक्ष की विचारधारा से मस्तिष्क को प्रभावित किया जाय। दुष्टता का उन्मूलन करेंगे, यों सोचने के उन्मूलन के लिए जिस क्रोध, विनाश, विध्वंस की आवश्यकता है, उसकी तैयारी में मन लगेगा। पर यदि सज्जनता का प्रसार करेंगे, यह अपना लक्ष हो तो सज्जनता के उपयुक्त , शिष्टाचार, प्रेम उदारता, मधुरता, त्याग, सहिष्णुता आदि के भाव मन में भ्रमण करेंगे। एक ही बात के भले और बुरे दो पहलू होते हैं। उन दोनों में से हमें बुरा नहीं, भला पहलू ही अपने लिए चुनने का प्रयत्न करना चाहिए।

श्रेष्ठताओं को बढ़ाया जाय

हम सज्जन बनेंगे, श्रेष्ठतायें बढ़ावेंगे, सद्गुणों का विकास करेंगे यही अपनी आकांक्षायें रहनी चाहिएं। सद्गुण यदि थोड़ी मात्रा में भी अपने अन्दर मौजूद हैं तो भविष्य में उनका विकास होने पर अपना भाग्य और भविष्य बहुत ही उज्ज्वल होने की कोशिश सहज ही की जा सकती है। माना कि आज अपने अन्दर सद्गुण कम हैं, छोटे हैं, दुर्बल हैं पर यही क्या कम है कि वे मौजूद हैं और यह क्या कम है कि हम उन्हें बढ़ाने की बात सोचते हैं। पौधा नन्हा सही पर चतुर माली यदि तत्परतापूर्वक उसकी सेवा करेगा तो वह आज न सही कल सही विशाल वृक्ष बनने ही वाला है। संसार में कोई विभूति ऐसी नहीं जो तीव्र आकाँक्षा और प्रबल पुरुषार्थ के आधार पर प्राप्त न की जा सकती हो। सद्गुणों की बहुमूल्य सम्पत्ति मानव जीवन की सब से बड़ी विभूति मानी जाती है। उसे प्राप्त करना कठिन तो है पर कठिनाई उन्हीं के लिए है जो उधर ध्यान नहीं देते। जिसने अपने मन और मस्तिष्क को श्रेष्ठता का महत्व समझने और उसे प्राप्त करने के लिए अभिमुख कर रखा है उन्हें उनका लक्ष प्राप्त होगा ही। वे श्रेष्ठ सज्जन बन कर अपने को परम सौभाग्यशाली अनुभव करेंगे ही।


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