पारिवारिक जीवन की समस्याएँ

December 1962

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मनुष्य स्वभावतः सामाजिक प्राणी है। उसे मिलजुल कर साथ−साथ रहने में ही सुविधा होती है और इसी में वह प्रसन्नता अनुभव करता है। जिनने परमात्मा को अपना जीवन सहचर और विश्व के प्रत्येक चर−अचर को अपना कुटुम्बी, आत्मीय मान लिया है उनका सूक्ष्म परिवार अत्यन्त विशाल हो जाता है। उन विरक्त, संत महात्माओं को बाह्य परिवार की आवश्यकता भले ही प्रतीत न हो पर सर्वसाधारण के लिए तो वह स्वाभाविक ही है और आवश्यक भी। विरक्त लोग भी अपने जैसे अन्य विरक्तों से ताल−मेल बिठाने और अखरने वाले सूनेपन को हटाने का प्रयत्न करते रहते हैं। सामान्य मनुष्यों के लिए तो इसके बिना जीवनयापन कर सकना ही कठिन हो जाता है।

आत्मविकास का राजमार्ग

आध्यात्मिक विकास, कर्तव्य पालन, त्याग, परमार्थ, स्नेह, कृतज्ञता, संयम आदि की वृत्तियों का जितना विकास सम्मिलित कुटुम्ब में होता है उतना पृथक रहने में संभव नहीं। घर में कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जो स्वयं उपार्जन नहीं कर सकते, जिन्हें परावलम्बी रहना होता है। ऐसे लोगों की सुव्यवस्था सम्मिलित कुटुम्ब में ही संभव है। बूढ़े पिता−माता, छोटे बहिन-भाई, विधवाऐं, उनके बच्चे आदि कई ऐसे लोग भी प्रत्येक घर में होते हैं जिनकी उपार्जन क्षमता या तो अभी विकसित नहीं हुई है या समाप्त हो चुकी है। हमारा दुर्भाग्य ही है कि रूढ़ियों ने नारी को अशक्त, अपंग और बन्दी बनाकर इस स्थिति में पटक दिया है कि वे उपार्जन की दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं बन पातीं। ऐसी दशा में यदि कमाऊ लोग, अपनी पत्नी को लेकर अलग रहने लगें तो इन बिना कमाऊ लोगों की भारी दुर्गति होती है। अपने आत्मीय जनों को कठिनाई में पड़ा छोड़कर जो लोग पति−पत्नी समेत मौज उड़ाने के लिए अलग हो जाते हैं उन्हें स्वार्थी और हृदयहीन ही कहा जायेगा।

सभ्य समाज के निर्माण का आधार यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता, कुशलता, शक्ति, ज्ञान और साधन सामग्री का लाभ अपने से पिछड़े हुए—जरूरतमंद दूसरे लोगों को प्रदान करे। इसी को पुण्य−परमार्थ, त्याग, दान, उदारता, सहृदयता, मानवता आदि श्रेष्ठ सम्मानित नामों से पुकारते हैं और ऐसे ही कार्यों की प्रशंसा की जाती है। सम्मिलित कुटुम्ब में कमाऊ व्यक्ति को अपने सारे परिवार के लिए त्याग और तप करना पड़ता है जिससे वह प्रशंसा, पुण्य, संतोष और गौरव सभी कुछ प्राप्त करता है। उसके प्रतिदान का सहारा पाकर अविकसित बच्चे विकसित होते हैं और न कमा सकने वाले सुविधापूर्वक जिन्दगी काट लेते हैं। दूसरों का सहारा बन कर जीना वस्तुतः एक बड़ी प्रशंसा की बात है और प्रसन्नता की भी। इसके विपरीत जो संकीर्ण स्वार्थ और सामयिक सुविधाओं से मनमाना लाभ उठाने के लिए पृथक रहने लगे हैं उन्हें वैसे ही घृणित लोगों की श्रेणी में गिना जायेगा जो अपने लाभ के आगे दूसरे किसी की सुविधा-असुविधा की बात नहीं सोचते। यह पशु प्रवृत्ति ही मनुष्य के आवरण में भी रहे तो फिर उसका कोई नैतिक आदर्श क्या माना जायेगा? अपना पेट पालने, अपना स्वार्थ साधन में तो सियार, बन्दर भी चतुर होते हैं। वही आदर्श यदि मनुष्य ने भी अपनाया तो फिर उसकी विशेषता ही क्या रह जायगी?

समाज सेवा का शुभारंभ

जिस प्रकार ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप पिण्ड (शरीर) होता है उसी प्रकार विस्तृत समाज का छोटा स्वरूप अपना परिवार है। परिवार को समुन्नत और सुसंस्कृत बनाना सारे समाज का उत्थान करने की एक छोटी प्रक्रिया है। उसको क्रियात्मक रूप देने की प्रयोगशाला परिवार है। सारा समाज हमारे नियंत्रण या अधिकार में नहीं है। उस पर अपना दबाव और प्रभाव भी नहीं रहता है पर कुटुम्ब के लोगों के साथ आत्मभाव का तारतम्य इतना गहरा होता है कि परिजनों के उत्थान और विकास के लिए, सुख और समृद्धि के लिए शिक्षा और दीक्षा के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। समाज सेवा का परिपूर्ण अवसर इस छोटे क्षेत्र में हर व्यक्ति को प्राप्त है। उसे अपने कौशल, ज्ञान और क्षमता का पूरा लाभ देकर समाज सेवा के अपने उत्तरदायित्व को हर व्यक्ति पूरा करता चले तो सहज ही सभ्य समाज की रचना का उद्देश्य पूरा हो सकता है।

अनेक दृष्टियों से विश्लेषण

अर्थ विज्ञान के सिद्धान्तों ने भी अध्यात्म विज्ञान की मान्यताओं को ही पुष्ट किया है। व्यक्तिवाद को, अलगाव की प्रवृत्ति को, स्वार्थपरता को आर्थिक आदर्शों के विपरीत बताया जा रहा है और एक विस्तृत दर्शन शास्त्र के द्वारा यह समझाया जा रहा है कि मिलजुल कर रहने, काम करने, श्रम, पुरुषार्थ करने और बाँट कर खाने में ही समाज की प्रगति सम्भव है। इसी दर्शनशास्त्र का नाम समाजवाद है। सहकारिता आन्दोलन को महत्व इसी दृष्टि से दिया जा रहा है। सामूहिक और सम्मिलित प्रयत्नों के लिए ही संस्थाऐं बनती हैं। प्रजातन्त्र का ढाँचा ही सामूहिकता और सहकारिता पर खड़ा होता है। इसी आधार पर सरकार बनती और राजकाजी चुने जाते हैं। अमीरों पर अधिकाधिक टैक्स लगते जाना और गरीबों को अधिकाधिक सुविधा प्रदान करना सरकारी नीति होती है। सम्मिलित परिवार ऐसा ही प्रजातन्त्र है, जिसमें अधिक कमाने वाले को टैक्स के रूप में न कमाने वालों के लिए अपनी कमाई छोड़नी पड़ती है।

आर्थिक दृष्टि से भी लाभ इसी में है। दस व्यक्ति इकट्ठे रहें तो उन पर जितना खर्च आता है उसकी अपेक्षा दसों के अलग−अलग रहने पर कहीं अधिक खर्च आवेगा। सम्मिलित कुटुम्ब में हारी−बीमारी तथा सुविधा-असुविधा में परस्पर सेवा सहायता का काम तथा उत्तरदायित्व बाँट लेने की जो सुविधा रहती है वह अलग रहने पर कैसे सम्भव हो सकती है? बहुएँ जब तीन−चार छोटे−छोटे बच्चों की माता बन जाती हैं तो अलग घर बसाने पर नये प्रसव के समय कितनी असुविधा होती है यह वे ही जानती हैं। सम्मिलित कुटुम्ब में बच्चों का भार माता पर बहुत ही कम आता है। भरे−पूरे कुटुम्ब में वे ऐसे ही साथ−साथ खाते-खेलते-बढ़ते और पलते रहते हैं जब कि अलग घर में बहु को उन बच्चे से ही किसी प्रकार फुरसत नहीं मिलती। हारी−बीमारी के दिनों में सम्मिलित कुटुम्ब का जो सुख है वह अकेलेपन में कहाँ है? हँसते−बोलते साथ−साथ सामूहिक जीवन में जिन्दगी देखते−देखते बीत जाती है। पर अकेलेपन में एक−एक दिन भारी पड़ता है।

स्वेच्छाचार पर नियन्त्रण

आत्म-संयम और इन्द्रिय निग्रह का जितना अवसर सम्मिलित कुटुम्ब में रहता है उतना अकेले रहने में कहाँ है? सबकी रुचि में अपनी रुचि मिलाकर आहार−विहार का कार्यक्रम, दिनचर्या की व्यवस्था बनानी पड़ती है। उच्छृंखलता और स्वेच्छाचार पर वहाँ पूरा नियन्त्रण रहता है। ऐसे वातावरण में युवावस्था वाली बुरी संगति से सहज ही बच जाते हैं। अकर्म करने का अवसर ही जब न मिलेगा तब पतन की गुंजाइश ही कहाँ रहेगी? भरे−पूरे घरों की लड़कियों और लड़कों को शिष्टाचार बरतना सीखना पड़ता है। बड़ा परिवार सदा से प्रतिष्ठा का सूचक माना जाता है। अभिभावकों के न रहने पर भी विधवाऐं तथा बच्चे अपने को अनाथ अनुभव नहीं करते।

भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ का प्रमुख उद्योग कृषि है। उस धन्धे में कई व्यक्ति घर के हों और सब मिलकर काम करें तो ही लाभ हो सकता है। बँटवारा करके छोटी−छोटी जोत, छोटे−छोटे परिवारों द्वारा कमाई जायँ तो उनमें क्या लाभ रहेगा? अन्य व्यापारों में भी ऐसा ही है कि घर के कई आदमी सच्चे मन से मिल-जुलकर काम करें तो उसे जो लाभ होगा वह नौकर रखकर या अकेले−अकेले में नहीं हो सकता। बच्चों में शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता एवं मिलजुल कर काम करने की जो महत्वपूर्ण प्रवृत्ति विकसित होती है वह अकेलेपन में रहते हुए सम्भव नहीं होती।

कर्तव्य−पालन के अवसर

पिता−माता की सेवा करके उनका आशीर्वाद लेने का, भाई बहिनों की सेवा सहायता करने का, बच्चों के साथ खेलने-खिलाने का, मिलजुलकर खाने-बैठने का, एक दूसरे के प्रेम और विश्वास का जो लाभ इकट्ठे रहने में मिलता है वह अकेले रहने वाले को कहाँ मिलेगा? मरघट के पीपल की तरह वह बेखटक खड़ा तो रहता है पर सूनेपन में उसे मानसिक दृष्टि से भारी अभाव ही बना रहता है। उलझनों और जिम्मेदारियों का बोझ भी अकेले रहने वाले को अकेले ही भुगतना पड़ता है, जो कई बार अलग जीवन की सुविधा की अपेक्षा बहुत अधिक चिन्ता और कष्ट का कारण बनता है।

आचार संहिता की आवश्यकता

कई लोग जहाँ इकट्ठे रहेंगे वहाँ कई तरह की समस्याऐं उत्पन्न होती रहेंगी। उन्हें आगे बढ़ने से पूर्व ही सुलझाते रहा जाय तो हमारे परिवार सच्चे प्रजातन्त्र बने रह सकते हैं और उनके स्वास्थ्य विकास से सभ्य समाज का निर्माण होने में भारी योगदान मिल सकता है। परिवारों को सुव्यवस्थित बनाया जाय, उनकी एक व्यवस्थित आचार संहिता रहे जिसका सब लोग पालन करें। जिस प्रकार सरकार चलाने के लिये विधान और कानून बने हुए हैं, पंचायतों की व्यवस्था पंचायत एक्ट के मुताबिक चलती है, उसी प्रकार भारतीय परिवारों की भी एक आचार संहिता रहनी चाहिए। उसके अनुसार कार्य करते हुए प्रत्येक अपने कर्तव्यों का पालन और अधिकारों का उपयोग करता रहे तो हमारे घर स्वर्गीय वातावरण से ओत−प्रोत हो सकते हैं। पारिवारिक आचार संहिता की रूपरेखा पाठक ‘अखण्ड ज्योति’ के अगले अंकों में पढ़ेंगे।

गृहिणी और गृह−व्यवस्था

परिवार का मेरुदण्ड पत्नी होती है। पुरुष दिन भर घर से बाहर रहता है। जितनी देर घर पर रहता है उसमें भी अधिकाँश समय शौच, स्नान, भोजन, निद्रा आदि नित्य कर्मों में लग जाता है। प्रायः सारा दिन स्त्री को घर पर रहना होता है। उसका ही सीधा सम्बन्ध परिवार के छोटे बड़े सब से रहता है। घर की अन्य स्त्रियाँ तथा बच्चे तो दिन भर घर ही रहते हैं, उनके साथ पूरा व्यवहार-क्रम पत्नी को ही चलाना पड़ता है। पुरुष जब घर आते हैं तो उनकी व्यवस्था भी उसी को करनी पड़ती है। इसलिए घर का व्यावहारिक संतुलन बनाये रखना प्रायः स्त्री के हाथ रहता है। पुरुष आर्थिक समस्याऐं हल कर सकते हैं, सुख−सुविधा के साधन जुटा सकते हैं पर दिन भर की पारिवारिक व्यवस्था का नियमित और परिपूर्ण संचालन वे नहीं कर सकते, यह कार्य स्त्री को ही करना होता है। स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कृति एवं भावना की परिपूर्ण व्यवस्था रखनी चाहिये। कुछ दोष दुर्गुण सब में होते हैं हम में से किसी की भी पत्नी ऐसी नहीं होती जो पूर्णतया सब प्रकार उपयुक्त हो। माँ−बाप के घर से कुछ शिक्षा लेकर स्त्रियाँ आती हैं कुछ बातें उन में जन्मजात भी होती हैं, पर सबसे अधिक निर्माण कार्य ससुराल में होता है। ससुराल में भी पति करता है। पति यदि सुयोग्य हो तो फूहड़ से फूहड़ पत्नी को सद्गुणों की खान और उन विशेषताओं से सम्पन्न बना सकता है जो पारिवारिक जीवन को सुसंचालित रखने के लिए आवश्यक हैं।

नारी की कामना और आकाँक्षा

अपने पिता का भरा-पूरा घर, अपने जन्म परिवार का स्नेह सौजन्य को छोड़कर जब नारी ससुराल आती है तो उसे इस जीवन क्रान्ति में एकमात्र प्रकाश स्तंभ पति का प्रेम ही दीखता है। यों ससुराल में सभी से उसे सद्व्यवहार की आशा होती है पर सबसे अधिक आकाँक्षा पति की गहन आत्मीयता की होती है। वह अपने बिछुड़े हुए पितृ परिवार की सारी ममता और आत्मीयता की क्षतिपूर्ति पति के प्रेम प्रतिदान द्वारा पूर्ण करना चाहती है। यदि वह मिल गया तो विपुल वर्षा होने पर उर्वर भूमि में उगने वाली वनस्पति की तरह उसका व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों की हरियाली से लहलहाने लगता है। यदि यह प्राप्त न हुआ तो जिस प्रकार सूखा पड़ जाने या तुषारपात होने पर हरी−भरी फसल भी नष्ट हो जाती है उसी प्रकार नारी के संचित सद्गुण भी असंतोष की आग में जल−भुन कर समाप्त हो जाते हैं। नारी की स्वाभाविक आकाँक्षा आत्मीयता को दिये बिना कोई पति उसका सच्चा प्रेम और सहयोग प्राप्त कर नहीं सकता।

हिस्टेरिया, मृगी, चिड़चिड़ापन, दुस्वप्न, अनिद्रा, दिल की धड़कन मासिक धर्म की खराबी, सिर दर्द, कमर दुखना आदि अनेक शारीरिक रोगों की जड़ स्त्रियों के आन्तरिक असंतोष में रहती है। वे स्वाभाविक लज्जावश अपनी वेदना किसी से कह तो नहीं पाती, कहें भी तो अनुकूलता उत्पन्न करने का कोई उपाय उनके पास नहीं होता। ऐसी दशा में वे चुपचाप सहती तो रहती हैं पर आन्तरिक असन्तोष उनके अनेकों सद्गुणों को जलाता भूनता रहता है। उनका कोमल मस्तिष्क एक प्रकार से विक्षिप्त रहने लगता है, फलस्वरूप शारीरिक स्वास्थ्य ही खोखला नहीं होता जाता वरन् वे मानसिक विशेषताएँ भी नष्ट होने लगती हैं जो पारिवारिक सुव्यवस्था एवं विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक होती हैं।

संतोष और समृद्धि

मनु भगवान की उक्ति है कि “जहाँ नारी संतुष्ट है उस घर में समृद्धि की वर्षा होगी और जहाँ उसे असंतोष रहेगा वहाँ सब कुछ नष्ट हो जायेगा।” असंतोष के छोटे−मोटे कारण व्यवस्था श्रम संबंधी असुविधा, जीवनोपयोगी वस्तुओं के अभाव, तात्कालिक घटनाएँ एवं दूसरे लोगों का असद्व्यवहार आदि कारण भी होते हैं, पर उनका प्रभाव बहुत गहरा नहीं होता। उनमें सुधार भी हो सकता है, भुलाया भी जा सकता है और संतोष भी किया जा सकता है। पर जो कमी और किसी प्रकार पूरी नहीं हो सकती वह पति के प्रेम की कमी है। उपेक्षिता नारी विधवा से भी अधिक दुखी रहती है। विधवा अपने दुर्भाग्य को अटल मानकर संतोष कर लेती हैं पर सुहागिन को तो अपनी स्थिति पर आँसू ही बहाते रहने पड़ते हैं।

असंतुष्ट नारी के गर्भ से कभी सद्गुणी सन्तान उत्पन्न नहीं हो सकती। अवैध संतान के गर्भ काल में माता अनेकों चिन्ताओं, विक्षोभों और भय, लज्जा, दुर्भाव आदि में ग्रस्त रहती हैं इसलिए आमतौर से ऐसे बच्चे उद्दण्ड और दुर्गुणी निकलते हैं। इसी प्रकार पति के प्रेम के अभाव या अन्य किन्हीं कारणों से यदि नारी असंतुष्ट और विक्षुब्ध बनी रहती है तो उसका प्रभाव गर्भस्थ संतति पर निश्चित रूप से पड़ने वाला है। ऐसे बालकों को उच्च शिक्षा भी उनके मानसिक एवं आत्मिक दुर्गुणों से रहित नहीं बना सकती। इसलिए संतान को सुयोग्य और प्रबुद्ध बनाने की भूमिका के रूप में पत्नी के संतुष्ट सुखी और निश्चिन्त बनाने की व्यवस्था के लिए तो यह कार्य अनिवार्य ही है क्योंकि बाहर से स्वस्थ दीखने पर भी जो भीतर से विक्षुब्ध रहती है उस नारी के आचरण में व्यवस्था, शिष्टता आदि की कमी बनी ही रहेगी। वह सुयोग्य गृहिणी नहीं बन सकेगी। अविचल विश्वास और परिपूर्ण प्रेम पाकर नारी परम संतुष्ट रह सकती है। जहाँ उसे स्नेह और सम्मान मिलता है, सहानुभूति और कृतज्ञता से देखा जाता है वहाँ वह आत्मसमर्पण करके सब कुछ होम देने को तैयार हो जाती है। नारी का रंग-रूप, वेश-विन्यास, बनाव-शृंगार देखना निरर्थक है। यह चीजें बहुत ही तुच्छ और क्षणिक हैं। आन्तरिक सौन्दर्य काले, कुरूप, अशिक्षित और अस्वस्थ शरीर में भी हो सकता है। उस सच्चे सौन्दर्य का पुष्प भावनाओं की टहनी पर खिलता है। इस आन्तरिक सौन्दर्य का रसास्वादन पति−पत्नी जहाँ आपस में किया करते हैं वहाँ स्वर्ग ही विराजमान रहता है। जिस पति−पत्नी ने अपनी अन्तरात्मा को एक करके एकता और आत्मीयता की, प्रेम और विश्वास की गंगा प्रवाहित कर ली, उनके परिवार में सदा मंगल ही मंगल रहेगा। एकता वहाँ की नष्ट न होगी, लक्ष्मी वहाँ से टाले न टलेगी। उस घर के हर व्यक्ति का भविष्य आशा और उत्साह की दिशा में ही अग्रसर होगा।


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