अन्याय एक प्रकार की दुधारी तलवार है जो निर्बल को घायल करती है किन्तु साथ ही घायल करने वाले को भी अछूता नहीं छोड़ती। पड़ोसी के छप्पर में आग लगाकर, अपना घर बचा लेना मुश्किल है इसी प्रकार दूसरों पर अन्याय करके स्वयं चैन से बसर करना कठिन है। अन्याय एक तेजाब है जो पहले उसी पात्र पर असर करता है जिसमें वह रखा हुआ है। मनुष्य कागज की पुड़िया के समान है जो अपने अंदर अन्याय को धारण करता है-अन्यायी बनता है-वह कुछ समय में अपने आप ही गलकर नष्ट हो जाता है।
इसलिए आप अन्याय से उसी तरह दूर रहिए जैसे सिंह और सर्प से दूर रहते हैं। इन्द्रियों के और मनोविकारों के बहकावे में आकर अपनी आत्मा के साथ अन्याय मत कीजिए। अहंकार से उद्धत होकर एवं लालच से अन्धे होकर दूसरों का अधिकार मत छीनिए, उनके स्वत्वों को हरण मत कीजिए। क्योंकि अनाचार और अत्याचार पारे की तरह है जो किसी को पच नहीं सकता, उसकी चमक पर मुग्ध होकर लोग पेट में रखने की कोशिश करते हैं परन्तु अन्याय रूपी पारा घमंडी और लालचियों की मूर्खता पर हँसता हुआ उनके रोम-रोम को चीर कर बाहर निकलता है। आप सूक्ष्म दृष्टि से न्याय अन्याय की विवेचना कीजिए और जिस बात को अन्याय समझें उसे त्यागते हुए न्याय के पथ पर आरुढ़ हो जाओ। यही कल्याण का मार्ग है।