बिन्दु भेद योग का साधन

July 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री संकीर्तन)

दोनों कानों में छिद्रों को यदि एक लकीर सीधी मस्तक के भीतर से खींचकर मिलाया जावे और भ्रूमध्य से पीछे को एक लकीर खींची जावे तो मस्तक के भीतर जहाँ दोनों लकीर एक दूसरे को काटेंगी, वहीं चेतन बिन्दु का स्थान है। यह बिन्दु शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। अष्टाँग योग में इसी स्थान को त्रिकुटी कहते हैं। द्रष्टा, दर्शन और दृश्य का मूल यही है। इससे ऊपर सहस्रार की ओर बढ़ने पर प्रकृति छूट जाती है। कुण्डलिनी योग में इस स्थान को शिवलिंग का स्थान मानते हैं। व्यापक पुरुष प्रकृति के आधार पर यहीं चिह्न रुप में निवास करता है। सीधे शब्दों में यह कारण शरीर जो कि अहंकारात्मक है, उसी का केन्द्र है। उसी से सूक्ष्म और स्थूल दोनों संचालित होते हैं और वह स्वयं हृदयस्थ चेतन से शक्ति लेकर कार्यशील होता है। हृदय में ध्यान सबके लिये सुगम नहीं और यहाँ चमत्कार शीघ्र दृष्टि पड़ते हैं। अतः साधक के लिये यह सरल पड़ता है।

इसी बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करके मेस्मेराइजर किसी को निद्रित करता है। निद्रावस्था में सोते व्यक्ति के भ्रूमध्य पर दृष्टि जमाकर दी हुई आज्ञा अपना कुछ न कुछ प्रभाव प्रकट करके ही रहती है। अतः ठीक समय पर नियमपूर्वक इस बिन्दु पर ध्यान करते हुये दृढ़ संकल्प का उपयोग करने हेतु मन को अभीष्ट दिशा में ले जाया जा सकता है।

इतना स्मरण रखना चाहिये कि जहाँ इस बिन्दु से महान लाभ उठाया जा सकता है, वहीं बहुत बड़ी हानि भी हो सकती है। भ्रूमध्य में ध्यान करते समय जो साधक विषयों का या संसार का चिन्तन करेगा, उसकी वासनायें और दृढ़मूल होती जावेंगी। वह अत्यधिक आसक्त और विषयी हो जावेगा। अतएव जब तक भ्रूमध्य में ध्यान किया जावे, कोई विषय, अशुभ वासना मन में न आने पावे! बलपूर्वक मन को लक्ष्य में अथवा शुभ संकल्पों में लगा रखना चाहिये। यदि मन अत्यधिक चंचल हो रहा हो और न मानता हो तो उस समय ध्यान करना बन्द कर देना चाहिये अथवा खुली दृष्टि से नाक की नोक पर त्राटक करना चाहिये।

बहुधा इस बिन्दु पर ध्यान करने वालों को नाना प्रकार के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। शब्द सुनाई देते हैं। वे उनके देखने और सुनने में तल्लीन हो जाते हैं। वे समझते हैं कि उनकी उन्नति हो रही है। लेकिन परिणामतः रूप और शब्द में उनकी आसक्ति बढ़ती जाती है। वे संसार में अत्यधिक आसक्त होते जाते हैं। साधक को सावधानी पूर्वक उन शब्द और दृश्यों से ध्यान हटाकर रखना चाहिये। उसे अपने मंत्र के जप और चेतन बिन्दु पर स्थिर रहना चाहिये। ये सब दृश्य चाहे वे कुछ भी हों (हंस, शिव, कृष्णादि) केवल मानसिक हैं- मन की कल्पनाएं हैं। भगवान का विशुद्ध रूप वासनाओं से परे होने पर ही प्राप्त हो सकता है।

निशीथ की नीरवता में अथवा ब्रह्ममुहूर्त में जब आप ध्यान करने बैठते हैं, नेत्रों को बन्द करके मन को चेतन बिन्दु पर एकत्र कीजिये। प्रणव, राम या सोऽहं का जप कीजिये। दृढ़ धारणा कीजिये कि आपके मन से संसारासक्ति दूर हो रही है। संसार में आपकी कोई आसक्ति नहीं। दो-चार मिनट वैराग्य प्रधान विचारों का चिन्तन कीजिए। फिर ध्यान कीजिये कि आपका मन चंचलता छोड़कर शान्त हो रहा है। मैं शान्त हूँ। मुझमें चंचलता का लेश नहीं। कोई भी विचार मुझे अपनी ओर नहीं खींच सकता। मुझमें कोई विचार नहीं है। इन भावनाओं की बार-बार आवृत्ति कीजिये।

थोड़े दिन के अभ्यास के पश्चात् ज्योतिर्मय चेतन बिन्दु दृष्टि पड़ेगा। यदि कोई और दृश्य भी कीड़ा सामने आवे तो मन को उधर से हटाकर केवल बिन्दु पर स्थिर करें। केवल बिन्दु पर एकाग्र हों। कोई विचार न उठे तो अच्छा। मन न माने तो वैराग्य, तत्व विचार या भक्ति के पवित्र विचार ही उठने देना चाहिये। मंत्र का जप यदि ध्यान की एकाग्रता के कारण छूट जावे तो उसकी कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये। उसे छूट जाने दीजिये।

प्रथम दिखाई पड़ने के पश्चात् बिन्दु कभी बढ़ेगा, कभी घटेगा, कभी हिलता जान पड़ेगा, कभी लुप्त हो जावेगा, कभी बहुत से बिन्दु दृष्टि पड़ेंगे, कभी उसमें अनेक प्रकार के दृश्य दिखलाई पड़ेंगे। आप इन सब परिवर्तनों पर ध्यान न देकर केवल बिन्दु का तटस्थ निरीक्षण कीजिये। लगातार ऐसा करने से कुछ काल में बिन्दु अपनी समस्त विकृतियों को छोड़कर स्थिर एवं उज्ज्वल हो जावेगा। मन को उसी पर पूर्णतः एकाग्र कर दीजिये। इस पूर्ण एकाग्रता में आप देखेंगे कि बिन्दु फट गया है। उसके भीतर छिद्र हो गया है। इसी को बिन्दु-वेध कहते हैं। बिन्दु के मध्य का वही छिद्र सहस्रार के भीतर जाने का मार्ग है। बिन्दु-वेध होते ही स्वयं सहस्रार का आकर्षण उस मार्ग से आपको उत्थित कर लेगा और परमाभीष्ट, अनिर्वचनीय स्थिति आपको प्राप्त होगी।

=कोटेशन============================

दुनिया में जितने दुष्ट मनुष्य हुए हैं उनमें से प्रायः सभी बचपन में अपने माता-पिता और बड़े-बूढ़ों की अवज्ञा करने वाले थे।

*****

प्रसन्नता एक कुँजी है जो दूसरों के हृदय के दरवाजे को हमारे लिए खोल देती है।

*****

दूसरों के सत्कार्यों में बाधा डालने वाले खुद ही नष्ट हो जाते हैं जैसे फसल को नष्ट करने वाला कीड़ा खुद भी नष्ट हो जाता है।

==================================

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118