आत्म-बोध

July 1945

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तू अनन्त-शक्ति है, अजेय है, महान है। क्या तुझे अभी नहीं हुआ स्वरूप-ज्ञान है? तू विवेक शील, पाप-हीन है-पवित्र है, व्यर्थ राग-द्वेष त्याग जीव मात्र मित्र है।

तू प्रकृति रूप पुष्प से प्रसूत इत्र है, धैर्य, वीरता, प्रताप का सजीव चित्र है। तू अमर्त्य-पुत्र है, अतीव बुद्धिमान है। तू अनन्त-शक्ति है, अजेय है, महान है॥

काम-क्रोध-लोभ-मोह से तुझे न प्रीति हो, ‘स्वार्थ घोर शत्रु है’ यही पुनीत रीति हो। तू मनुष्य है तुझे मनुष्य से न भीति हो, प्राण भी बिसार दे जहाँ कहीं अनीति हो॥

क्या रहा महत्व जो न शेष स्वाभिमान है? तू अनन्त-शक्ति है, अजेय है, महान है। शूर वीर त्यागते नहीं कभी परम्परा, यातना अनेक भी सकीं नहीं उन्हें डरा।

मार्ग शूल युक्त हो कि हो प्रसून से भरा, धीर विघ्न देख खोजते न मार्ग दूसरा॥ ध्येय-निष्ठ के लिये सभी सदा समान है। तू अनन्त-शक्ति है, अजेय है, महान है॥

जन्म कर्मवीर का अवश्य ही कृतार्थ है, प्राण धर्म वीर का गया सदा परार्थ है। तू कभी खड़ा हुआ स्वबन्धु-रक्षणार्थ है, तो सभी वसुंधरा खड़ी सहायतार्थ है।

जो क्रिया स्वरूप है वही पुनीत ज्ञान है। तू अनन्त-शक्ति है, अजेय है, महान है।

जो क्रिया स्वरूप है वही पुनीत ज्ञान है। तू अनन्त-शक्ति है, अजेय है, महान है।

*समाप्त*


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