प्रेम का वास्तविक स्वरूप

July 1945

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जिस वस्तु को ‘प्रेम’ कहा जाता उसके अनेकानेक स्वरूप इस संसार में दृष्टिगोचर होते हैं। स्त्री-प्रेम, पुत्र-प्रेम, धन-प्रेम, कीर्ति-प्रेम, व्यसन-प्रेम में व्यस्त व्यक्ति अपने को प्रेमी सिद्ध करते हैं। यह प्रेम का भौतिक स्वरूप है। भौतिक-प्रेम में तत्कालीन आकर्षण खूब होता है और उसकी प्रतिक्रिया में आनन्ददायक अनुभूतियाँ भी परिलक्षित हैं। उपरोक्त स्त्री, धन, कीर्ति आदि के प्रेम में मनुष्य को इतना आनन्द आता है कि इन्हें भव-बन्धन-कारक और अन्त में दुखदायक समझते हुए भी छोड़ता नहीं और सारी आयु उन्हीं के पीछे व्यतीत कर देता है।

भौतिक-प्रेम, आध्यात्मिक-प्रेम की एक छाया है। उसकी छोटी सी तस्वीर या प्रतिमा इन विषय भोगों में देखी जा सकती है। भौतिक-प्रेम का अस्तित्व इसलिए है कि हम इस तस्वीर के आधार पर असली वस्तु को पहचानने और प्राप्त करने में सफल हो सकें। प्रकृति की दुकान में यह नमूने की पुड़िया बंट रही हैं और बताया जा रहा है कि देखो इस एक जरा से टुकड़े में जितना मजा है, यदि ऐसे ही मजे का अक्षय भंडार तुम्हें पसंद है, तो उस असली वस्तु को- आध्यात्मिक प्रेम को प्राप्त करो। हमारे पथ-प्रदर्शक सोने का टुकड़ा दिखाते हुए बता रहे हैं कि ऐसे ही सोने की अगर तुम्हें जरूरत हो तो जाओ उस सामने वाली खान में से मनमानी तादाद में खोद लाओ, परन्तु हाय! हम कैसे मन्द बुद्धि हैं जो उन नमूने की पुड़ियों को चाटने में इतनी उछल कूद कर रहे हैं और खजाने की ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखते।

प्रेम का गुण है आनन्द! प्रेम करने पर आनन्द प्राप्त होता है। स्त्री, धन, कीर्ति आदि से प्रेम करने में आनन्द आता है या आनन्द के कारण प्रेम करते हैं। हम पत्थर, राख, कूड़ा या कौआ, चील, गीदड़ आदि से प्रेम नहीं करते, क्योंकि उनमें आनंद का अनुभव नहीं होता या आनन्द अनुभव नहीं करते इसलिए प्रेम नहीं होता। पड़ौसी के खजाने में लाखों रुपये भरे पड़े हों पर उनसे हमारी कोई ममता नहीं यदि वे सब रुपये आज ही नष्ट हो जाय, तो हमें कोई वेदना न होगी। इसी प्रकार अन्य व्यक्ति के स्त्री, पुत्र, परिजन मर जायं या किसी की कीर्ति को आघात पहुँचे तो दूसरा कौन परवाह करेगा?

पड़ौसी का रुपया भी उसी चाँदी का बना हुआ है जिसका कि अपना, पड़ौसी के स्त्री-पुत्रों के शरीर भी वैसे ही हैं जैसे कि अपनों के, किन्तु अपने रुपये से प्रेम है, अपने स्त्री-पुत्रों से प्रेम है यही वस्तुएं पड़ोसी की भी है, पर उनसे प्रेम नहीं। यहाँ प्रेम का असली कारण स्पष्ट हो जाता है। जिस वस्तु पर हम आत्मीयता आरोपित करते हैं, जिससे ममत्व जोड़ते हैं, वही प्रिय लगने लगती है और प्रेम के साथ ही आनन्द का उदय होता है। निश्चय ही किसी भी जड़ वस्तु में स्वयं प्रेमाकर्षण नहीं है, संसार की जिन भौतिक वस्तुओं को हम प्रेम करते हैं, वे न तो हमारे प्रेम को समझती हैं और न बदले में प्रेम करती हैं। रुपये को हम प्यार करते हैं, पर रुपया हमारे प्रेम या द्वेष से जरा भी प्रभावित नहीं होता। पैसा खर्च हो जाने पर हमें उस पैसे की बहुत याद आती है, पर उस पैसे को रत्ती भर भी परवाह नहीं कि जो व्यक्ति हम से इतना प्रेम करता था, वह जिन्दा है या मर गया। बात यह है कि संसार के किसी पदार्थ में जरा भी आकर्षण या आनन्द नहीं है, जिस पर आत्मा की किरणें पड़ती हैं वही वस्तु चमकीली प्रतीत होने लगती है, जिस पर आत्मीयता आरोपित करते हैं, वही आनन्ददायक, आकर्षक एवं प्रिय पात्र बन जाती है। प्रेम और आनन्द आत्मा का अपना गुण है बाहरी पदार्थों में तो उसकी छाया देखी जा सकती है।

जीव को आनन्द की प्यास है, वह उसी की तलाश में संसार में इधर-उधर ओंस चाटता हुआ मारा-मारा फिरता है, किन्तु तृप्ति नहीं होती। कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता है और हड्डी द्वारा मसूड़े छिलने से रक्त निकलता है, उसे पीकर आनन्द मानता है। हम लोग भौतिक वस्तुओं के प्रेम में आनन्द का अनुभव करते हैं। इसका मूल कारण असली आध्यात्मिक प्रेम है। यदि आत्मीयता हटा ली जाय तो वही कल की प्यारी वस्तुएं आज घृणित या अप्रिय प्रतीत होने लगेंगी। स्त्री का दुराचार प्रकट हो जाने पर वह प्राण-प्रिय नहीं रहती, वरन् शत्रु सी दृष्टिगोचर होती है। पिता-पुत्र में, भाई-भाई में, जब कलह होता है और आत्मीयता नहीं रहती तो कई बार एक दूसरे की जान के ग्राहक होते हुए देखे गये हैं। मकान, जायदाद, गाड़ी, सवारी जब अपने हाथ से बिककर दूसरे मालिक के हाथ में चले जाते हैं, तो उनकी रक्षा व्यवस्था की परवाह नहीं रहती, क्योंकि अब उन में से आत्मीयता छुड़ा ली गई। सुस्वाद भोजन, नाच-रंग, विषय-भोगों का आनन्द भी अपने भीतर ही है। यदि पेट में अजीर्ण हो, तो मधुर भोजन कडुआ प्रतीत होता है। गुप्त रोगों की व्यथा हो तो स्त्री भोग पीड़ा-कारक बन जायेगा। नेत्र दुख रहे हों तो किसी नाच रंग में रुचि न होगी। इन्द्रिय भोग जो इतने मधुर प्रतीत होते हैं, वास्तव में उनके अंतर्गत प्रकाशित होने वाली अखण्ड-ज्योति के ही स्फुल्लिंग है। अन्यथा बेचारी इन्द्रियाँ क्या आनन्ददायक हो सकती हैं।

निश्चय ही प्रेम और आनन्द का उद्गम आत्मा के अन्दर है। उसे परमात्मा के साथ जोड़ने से ही अपरिमित और स्थायी आनन्द प्राप्त हो सकता है। साँसारिक नाशवान वस्तुओं के कंधे पर यदि आत्मीयता का बोझ रखा जाय, तो उन नाशवान वस्तुओं में परिवर्तन होने पर या नशा होने पर सहारा टूट जाता है और उसके कंधे पर जो बोझ रखा था, वह सहसा नीचे गिर पड़ता है, फलस्वरूप बड़ी चोट लगती है और हम बहुत समय तक तिलमिलाते रहते हैं। धन नाश पर, प्रियजन की मृत्यु पर, अपयश होने पर कितने ही व्यक्ति धाड़े मार कर रोते बिल-बिलाते और जीवन को नष्ट करते हुए देखे जाते हैं। बालू पर महल बनाकर उसके अजर-अमर रहने का स्वप्न देखने वालों की जो दुर्दशा होती है, वही इन हाहाकार करते हुए प्रेमियों की होती है। भौतिक पदार्थ नाशवान है, इसलिए उनसे प्रेम जोड़ना एक बड़ा अधूरा और लंगड़ा, लूला सहारा है, जो कभी भी टूटकर गिर सकता है और गिरने पर प्रेमी को हृदयविदारक आघात पहुँचा सकता है। प्रेम का गुण तो आनन्दमय है। जो दुखदायी परिणाम उपस्थित करे वह प्रेम कैसा? इसीलिए तो आध्यात्म तत्व के आचार्यों ने भौतिक प्रेम को ‘मोह’ आदि घृणास्पद नामों से संबोधन किया है।

प्रेम का आध्यात्मिक स्वरूप यह है कि आत्मा का आधार परमात्मा को बनाया जाय। चैतन्य और अजर-अमर आत्मा का अवलम्बन सच्चिदानन्द परमात्मा ही हो सकता है। इसलिए जड़ पदार्थ से, भौतिक माया बंधित वस्तुओं से, चित्त हटाकर परमात्मा में लगाया जाय। आत्मा के प्रेम का परमात्मा उत्तर देता है और आपस में इन दोनों प्रवाहों के मिलने पर एक ऐसे आनन्द का उद्भव होता है, जिसका वर्णन नहीं हो सकता।

आत्मा का विशुद्ध रूप ही परमात्मा है। मानव की उच्चतम, परम सात्विक, परम ऐश्वर्य और आनन्दमयी अवस्था ही ब्राह्मीस्थिति है। ब्रह्म और ब्राह्मीस्थिति एक ही बात है। इसी, परम तत्व की, इसी केन्द्र की चर्चा, कीर्तन, जप, स्तुति, अनुनय, विनय, पूजा-अर्चना करना भक्ति का वास्तविक उद्देश्य है। ईश्वर से प्रेम करना चाहिए, ब्रह्मानन्द में मग्न रहना चाहिए, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए, इसका सीधे शब्दों में तात्पर्य यह है कि परम सात्विक निर्दोष, शुद्ध अवस्था में पहुँचने के लिए हर घड़ी व्याकुल रहना चाहिये। एक क्षण के लिए भी उस आकाँक्षा को भुलाना न चाहिये। हमें सच्ची भक्ति की सच्चे प्रेम की उपासना करनी चाहिए। आत्मा से परमात्मा से प्रेम करना चाहिए। अपने को मनुष्यता की आदर्श प्रतिमा बनाने के लिए निरंतर विचार और कार्य करना चाहिए। यही स्वार्थ और यही परमार्थ है। प्रेम का सच्चा आध्यात्मिक स्वरूप भी यही है।

आत्मा प्रेम का केन्द्र है। विश्व व्यापी आत्मा-परमात्मा-समस्त प्राणी समाज हमारे प्रेम का केन्द्र होना चाहिए। घट-घट वासी परमात्मा से हम प्रेम करें। प्रत्येक प्राणी की आत्मा को ऊंचा उठाने, विकसित करने और सुखी बनाने में हम अधिक से अधिक ईमानदारी, मेहनत और दिलचस्पी के साथ काम करें, यही परमात्मा के साथ प्रेम करने का सच्चा तरीका है।

जो इस सेवा पथ पर प्रेम मार्ग पर चलता है उसे ही जीवन का सच्चा सुख प्राप्त होता है। वह सुख इन्द्रिय भोगों और स्वार्थ साधन के सुख की अपेक्षा लाखों गुना अधिक आनन्ददायक है।


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