सद्भाव और सौंदर्य

July 1945

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(योगिराज शिवकुमार शास्त्री)

यदि आप अपनी जवानी और सुन्दरता को स्थिर रखना चाहते हैं तो इसके लिये किसी औषधि या कठिन साधन की आवश्यकता नहीं है, केवल अपने पुराने और हानिकारक विचारों को बदल दीजिए।

‘युवा, बलवान् और सुन्दर बने रहो’-

इन बातों की आज्ञा ठीक उसी तरह से अपने शरीर को दीजिये जैसे सम्राट् अपनी प्रजा को देता है। धैर्य और विश्वास के साथ इसका नित्य साधन कीजिये, थोड़े ही दिनों में शरीर के ऊपर इसका अद्भुत प्रभाव पड़ेगा। और जब आप इसका अद्भुत प्रभाव स्वयं देख लेंगे तो विश्वास भी बढ़ता जायेगा और विश्वास बढ़ने के साथ ही साथ लाभ भी अधिक होगा।

प्रातःकाल उठो और कम से कम अपने शरीर भर को, अपने को राजा समझकर चित्त को एकाग्र करके शरीर को सामने तलब करो। शरीर को पुकार कर कहो कि ‘देखो हमारे अणु में वह आत्मा व्यापक है जो अनादि, अनन्त, निरामय, निर्विकार, अजर, अमर और परम सुन्दर है। अतः तुम्हें कभी रोगी नहीं होना चाहिए, वृद्ध नहीं होना चाहिए और इसी तरह से कुरूप भी नहीं होना चाहिए। देखो, तुम हमारे अर्थात् परमात्मा के शरीर हो तुम्हारे भीतर हम (जो साक्षात् परमात्मा हैं) रहते हैं अतः तुम सर्वदा निरोग सुँदर, सुडौल, युवा, बलवान, अजर और अमर बने रहो’ इन बातों की आज्ञा ठीक उसी तरह से अपने शरीर को दीजिये जैसे सम्राट अपनी प्रजा को देता है। धैर्य और विश्वास के साथ इसका नित्य साधन कीजिये, थोड़े ही दिनों में शरीर के ऊपर इसका अद्भुत प्रभाव पड़ेगा।

शुभ विचार, शुभ भावना और शुभकार्य मनुष्य को सुन्दर बना देते है। यदि सुँदर होना चाहते हो तो मन में से ईर्ष्या, द्वेष और बैरभाव को निकाल कर केवल यौवन और सौंदर्य की भावना करो, कुरूपता की ओर ध्यान न दो। सुन्दर मूर्ति की कल्पना करो, सुन्दर से सुन्दर मूर्ति का ध्यान करो और सौंदर्य के ही उपासक बनो। प्रातःकाल ऐसे स्थानों पर घूमने के लिए निकल जाओ जहाँ का दृश्य मनोहर हो सुन्दर से सुन्दर फूल खिले हों, सुन्दर से सुन्दर पक्षी बोल रहे, उड़ रहे, और चहक रहे हों। सुन्दर पहाड़ों पर, हरे जंगलों में और नदियों के सुन्दर तट पर घूमो, टहलो, दौड़ो और खेलो। वृद्धावस्था के भावों को अपने हृदय से निकाल दो और वन जाओ एक हंसते हुए बालक के समान, फिर देखो कैसा आनन्द आता है।

किसी की बुराई न करो, किसी की निन्दा न करो, बुराई की ओर दृष्टि ही न डालो। सबमें कुछ न कुछ गुण होता है, सब जगह कोई न कोई स्थान सुन्दर होता है। तुम अवगुण को छोड़ कर गुण की ओर देखो। गुलाब के फूल में भी नीचे काँटा होता है। तुम केवल गुणों की ओर ध्यान दो, काँटे की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। काँटे को हृदय से निकाल दो। दूसरों का अवगुण देखते-देखते, दूसरों की निन्दा करते करते, दूसरों से नाराज होते-होते मनुष्य स्वयं अवगुणी, कुरूप और निंद्य हो जाता है। दया, करुणा, प्रेम और शुभ भावना मनुष्य शरीर को सुन्दर आकर्षक और मनोहर बना देती है।

=कोटेशन============================

यथार्थ में वही वीर पुरुष है जो समस्त संसार के विरुद्ध होने पर भी अपने विचारों को स्पष्ट रूप से प्रकट करने में नहीं झिझकता।

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बुद्धिमानी और धैर्य से चलो, क्योंकि तेज दौड़ने वाले अक्सर ठोकर खा जाते हैं।

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