मृत्यु के बाद जीव निद्रा में जाता है। इस निद्रावस्था में अपने कर्मों का शोधन करने के लिए स्वर्ग-नरक के स्वप्न देखता है। इससे बहुत कुछ मानसिक संशोधन होता है फिर भी कुछ आदतें शेष रह जाती हैं। इन आदतों को आध्यात्मिक भाषा में ‘संस्कार’ के नाम से पुकारा जाता है। यह आदतें तब तक नहीं छूटतीं जब तक कि जीव उन्हें ज्ञानपूर्वक पहचान कर छुड़ाने का वास्तविक प्रयत्न न करे। बन्धन के कारण यही संस्कार हैं। जीव स्वतन्त्र है वह अपनी इच्छानुसार संस्कार बनाता है और उन्हीं में जकड़ा रहता है। यही माया है। माया और कुछ नहीं अज्ञान का एक पर्यायवाची शब्द है। अपने आपको खुद अपने ही अज्ञान के बन्धन में उलझा कर दुखी होना बड़ी विचित्र बात है। इसी गोरख धंधे को दुस्तर माया के नाम से पुकारा गया है।
शुभाशुभ कर्मों का फल भोग लेने के बाद भी उसके पूर्व संस्कार नहीं मिटते। जैसे एक जुआरी सम्पूर्ण सम्पत्ति हार जाने पर भी जुआ खेलने की इच्छा करता है, शराबी अनेक कष्ट सहकर भी मद्यपान की ओर लालायित रहता है, उसी प्रकार पिछली आदतों के कारण जीव पुनर्जन्म के लिए स्थान तलाश करता है। मध्यम श्रेणी के व्यक्ति प्रायः पूर्व जन्म जैसी स्थिति के वातावरण में आकर्षित होते हैं। मान लीजिए एक व्यक्ति इस जन्म में किसान है सारी उम्र उसके मन पर खेती के संस्कार जमते रहे, अब वह अगले जन्म में भी दुकानदार होने की अपेक्षा किसानी ही पसंद करेगा। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि कोई अन्य शक्ति बलात् जन्म दे देती है, जीव स्वयं अपनी इच्छा से संस्कारों के वशीभूत होकर जन्म ग्रहण करता है। ऊपर उड़ता हुआ गिद्ध जैसे तीक्ष्ण दृष्टि से मृत पशु को तलाश करता फिरता है उसी प्रकार जीव निखिल आकाश में अपना रुचिकर वातावरण ढूँढ़ता फिरता है। पहले यह बताया जा चुका है कि तर्क, बहस या चुनाव करने वाली भौतिक बुद्धि परलोक में नहीं रहती इसलिए वह चालाकियाँ नहीं जानता और अपने स्वभाव के विपरीत ऊंची या नीची स्थिति की ओर नहीं खिंचता। छोटा बालक राज महल की अपेक्षा अपनी झोपड़ी को पसंद करता है। उसी प्रकार किसी व्यापारी संस्कारों का जीव राज घर में जन्म लेने की अपेक्षा व्यापारी परिवार में शामिल होना पसंद करता है। आधे से अधिक मनुष्य प्रायः अपने पूर्व घर या परिवार में ही जन्म लेते हैं। यदि पूर्व घर में उसे अपमानित, लाँछित या बहिष्कृत न किया गया हो तो वह उसी में या उसके आस-पास जन्म लेना चाहता है। दूरी के सम्बन्ध में भी यही बात है। पूर्व जन्म के प्रदेश में रहना ही सब पसंद करते हैं, क्योंकि भाषा, वेश, भाव की गहरी छाप उनके मन पर अंकित होती है। इटली का मनुष्य भारतवर्ष में या भारतवर्ष का टर्की में जन्म लेना प्रायः पसंद न करेगा। कोई विशेष ही कारण हो तो बात दूसरी है।
हमारी स्थूल इन्द्रियों के लिए यह पहचानना कठिन है कि किन स्थानों में कैसी मानसिक स्थिति और आन्तरिक वातावरण है पर परलोकवासी इस बात को बड़ी आसानी से पहचान लेते हैं। वे जहाँ ठीक स्थिति देखते हैं उसी परिवार के आस-पास डेरा डालकर बैठ जाते हैं। परलोक वासियों को पिछले कई जन्मों का भी स्मरण हो आता है यदि वे पिछले घरों में अधिक स्नेह रखते हैं तो उनकी ओर खिंच जाते हैं। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर उन परिवारों की ओर अपनी मनोवृत्ति में अन्तर आ जाता है तो भी वे कभी-कभी खिंच जाते हैं। किसी विद्वान कुल में एक मूढ़ का जन्म लेना या असुर कुल में महात्मा का पैदा होना दो कारणों को प्रकट करता है (1) या तो वह कुल कुछ पीढ़ियों के उपरान्त बदल गया है और जीव के संस्कार पुराने ही मौजूद हैं। (2) या वह जीव दूसरे ढांचे में ढल गया है और केवल व्यक्तिगत स्नेह के कारण उस कुल में खिंच आया है। हम बार-बार दुहरा चुके हैं कि जीव स्वतन्त्र हैं वह अपने आचरणों से संस्कारों में आसानी से परिवर्तन कर सकता है। जब किसी परिवार में कोई विपरीत स्वभाव की सन्तान पैदा हो तो समझना चाहिए कि या तो यह कुल बदल गया, जीव ने जब इसे पसंद किया था तब इसकी अन्य स्थिति थी और अब इतनी घट गई। या वह जीव प्रचीन मोह के कारण ही यह बेमेल संयोग में मिला है।
जिस परिवार में जन्म लेना जीव पसन्द कर लेता है उसके आस-पास मंडराने लगता है, अवसर की प्रतिक्षा करता है। जब किसी स्त्री के पेट में गर्भ की स्थापना होती है तो वह उसमें अपनी सत्ता को प्रवेश करता है और नौ मास गर्भ में रहकर संसार में प्रकट हो जाता है। कई तत्वज्ञों का मत है कि वह गर्भ पर अपनी सत्ता स्थापित कर लेता है और पूरी तरह शरीर में तब प्रविष्ट होता है जब बालक पेट से बाहर आ जाता है। हमारा मत यह है कि संभोग के समय रजवीर्य का सम्मिलन होकर यदि गर्भ कलल बन जाय तो उसमें कुछ ही क्षण उपरान्त जीव अपना अधिकार कर लेता है और गर्भ में रहने लगता है। यह समझना ठीक नहीं कि गर्भ में बालक को बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि उस समय तक गर्भ का मस्तिष्क और इन्द्रियाँ अविकसित होने के कारण जीव को पूरी तरह बंधित नहीं करते और जीव का कुछ विशेष बंधन नहीं होता। वह उदर में घोंसला रखता है पर अपनी चेतना से चारों ओर परिभ्रमण कर सकता है। जन्म लेने के कुछ ही समय पूर्व जब गर्भ की इन्द्रियाँ पूर्णतः परिपक्व हो जाती हैं तो जीव की स्वतंत्रता नष्ट होती है। तब वह तुरन्त ही बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, इसी समय को प्रसव काल कहा जाता है।
गर्भ का शरीर और उसके अवयव यह पूर्णतः जीव की ही इच्छा से नहीं बनते। यह साझे का कार्य है। माता-पिता का रजवीर्य और जीव की इच्छा इन सबके मिलने से ही नवीन शरीर बनता है। कुम्हार और मिट्टी इन दोनों में से एक भी दोषपूर्ण होगा तो इच्छित फल की प्राप्ति न होगी। माता-पिता का रजवीर्य मिट्टी है और जीव कुम्हार। अनाड़ी कुम्हार अच्छी मिट्टी से भी खराब बर्तन बनाता है और अच्छे कुम्हार का प्रयत्न खराब मिट्टी के कारण बेकार रहता है। यदि जीव उत्तम संस्कार वाला हो तो रजवीर्य के भौतिक संस्कारों पर अपना उत्तम प्रभाव डालता है और कुछ न कुछ सुधार कर लेता है, इसके विपरीत कुसंस्कारी जीव उत्तम रजवीर्य में भी कुछ न कुछ दोष मिला देता है। फिर भी माता-पिता के संस्कार पूर्ण रूप से मिट नहीं जाते, उनका बहुत बड़ा प्रभाव होता है। माता-पिता की भावनाओं का प्रभाव गर्भ शरीर पर पड़ता है। यदि जीव ऊँचे दर्जे का न हो तो उसे उन संस्कारों के क्षेत्र में ही रहना पड़ता है। देखा गया है कि व्यभिचार द्वारा उत्पन्न हुई संतान बहुधा दुष्ट होती है, क्योंकि गर्भाधान के समय माता-पिता का अन्तरात्मा पाप कर्म के कारण बड़ा व्यग्र रहता है। वही संस्कार गर्भ पर उतर जाते हैं।
=कोटेशन============================
मनुष्य जीवन को सुसज्जित करने वाला बहुमूल्य आभूषण उसका सुयश है। यशस्वी पुरुष ही सबसे बड़ा भाग्यवान है।
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मितव्ययिता से जीवन संग्राम में आधी विजय मिल जाती है।
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इस संसार में वह सुखी रहेगा जो अपनी नीति में कमखर्ची, पवित्रता और सत्यता को प्रथम स्थान देगा। इस संसार में स्वस्थ वह रहेगा जो आत्म संयम और प्रसन्नता को अपना स्वभाव बना लेगा।
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