प्रज्ञा पुराण भाग-1

लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः-8

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
साहस अपनाया- कृतकृत्य बने

भगतसिंह और सुभाष जैसा यश मिलने की सम्भावना हो तो उस मार्ग पर चलने के लिए हजारों आतुर देखे जाते हैं। समझाया जाय तो कितने ही बिना उतराई लिए पार उतारने की प्रक्रिया पूरी कर सकते हैं। पटेल और नेहरु बनने के लिए कोई भी अपनी वकालत छोड़ सकता है। पर दुर्भाग्य इतना ही रहता है कि समय को पहचानना और उपयुक्त अवसर पर साहस जुटाना सभी लोगों से बन ही नहीं पड़ता। वे जागरूक ही है जो महत्वपूर्ण निर्णय करते, साहसिकता अपनाते और अविस्मरणीय महामानवों की पदवी प्राप्त करते हैं। ऐसे सौभाग्यों में श्रेयार्थी का विवेक ही प्रमुख होता है। महान् बनने के लिए जहाँ आत्म- साधना और आत्म- विकास की तपश्चर्या को आवश्यक बताया गया है वहाँ इस ओर भी संकेत किया गया है कि उसकी प्रखरता से सम्पर्क साधने और लाभान्वित होने का अवसर भी न चूका जाय। यों ऐसे अवसर कभी- कभी ही आते और किसी भाग्यशाली को ही मिलते है। किन्तु कदाचित् वैसा सुयोग बैठ जाय तो ऐसा अप्रत्याशित लाभ मिलता है जिसे लाटरी खुलने और देखते- देखते मालदार बन- जाने के समतुल्य कहा जा सके। 

पवनपुत्र हनुमान 

हनुमान का उदाहरण इसी प्रकार का है। वे सदा से सुग्रीव के सहयोगी थे पर जब बालि ने सुग्रीव की सम्पदा एवं गृहिणी का अपहरण किया तो वे प्रतिरोध में कोई पुरुषार्थ न दिखा सके। इससे प्रतीत होता है कि उस अवसर पर सुग्रीव की तरह हनुमान ने भी अपने को असमर्थ पाया होगा और जान बचाकर कहीं खोह- कन्दरा का आश्रय लेने में ही भला देखा होगा। इससे स्पष्ट है कि उनकी जन्मजात क्षमता सामान्यों से अधिक नहीं रही होगी। पर वे जब प्राण हथेली पर रख रामकाज के परमार्थ प्रयोजन में संलग्न हुए तो पर्वत उठाने, समुद्र लांघने, अशोक उद्यान उजाड़ने, लङ्का जलाने जैसे असम्भव पराक्रम दिखाने लगे। सुग्रीव पत्नी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहने पर भी अन्य देश में- समुद्र पार बसे अभेद्य दुर्ग को वेधकर वे सीता को मुक्त कराने में सफल हो गये। 

युग की आवश्यकता के अनुरूप अच्छे व्यक्ति तैयार कर देना, उन्हें युग चेतना का सन्देश सुनाकर जन्मोद्देश्य का परिचय दे देना भी एक प्रकार से नव सृजन का ही कार्य है। 

अच्छे आदमी अच्छे रसायनज्ञ

नागार्जुन सुप्रसिद्ध रसायनज्ञ थे, पर वे सम्पर्क में आने वालों को धर्मोपदेश ही दिया करते थे। इस पर एक व्यक्ति ने कहा- आप रसायन शास्त्र पढ़ाया करें तो आपका नाम भी बढेगा, आपकी विद्या का भी विस्तार होगा। '

नागार्जुन बोले- 'रसायनज्ञ तो कभी भी बना जा सकता है। बात तो तब है जब अच्छे आदमी बनें। जिन्हें धार्मिक उत्तरदायित्व वहन करने पड़ते हैं, उन्हें तो इस तथ्य को अनिवार्य ही मानना चाहिए। '

'जो जागृत है, उन्हें स्वयं भी इस युग चेतना में भाग लेने के लिए उठना चाहिए। ऐसे अवसर इतिहास में बार- बार नहीं आते। '

साहसादर्शरूपा ये चेतनामुच्चभूमिकाम्। 
निजेन बलिदानेन त्यागेनोद्भावयन्ति ये ॥८१॥ 
आत्मसन्तोषमासाद्य लोकसम्मानमेव च। 
दैवानुग्रहलाभं च कृतकृत्या भवन्ति ते ॥८२॥

टीका- आदर्श और साहस के धनी अपने त्याग- बलिदान से उच्चस्तरीय चेतना उत्पन्न करते हैं और आत्म- सन्तोष लोक- सम्मान तथा दैवी- अनुग्रह के तीन लाभ एक साथ प्राप्त करते तथा धन्य बनते है ॥८१- ८२॥

व्याख्या- नव- सृजन में अपना सब कुछ लुटा देने वाले कभी घाटे में नहीं रहते। भगवान के काम में लग जाने वाले तीन असामान्य लाभ सहज पा लेते हैं जो एक दूसरे की प्रतिक्रियाएँ ही हैं। जागृत आत्माएँ आदर्शवादिता अपनाकर सत्साहस दिखाती हैं और अन्त: में सन्तोष, बहिरंग में सम्मान- सहयोग पाती हैं और ऐसों पर ही दैवी अनुदान बरसते हैं, जो उन्हें कृतकृत्य कर जाते हैं। पेड़ अपने पत्ते गिराते, जमीन को खाद देते और बदले में जड़ों के लिए उपयुक्त खुराक उपलब्ध करते हैं। फल- फूलों से दूसरों को लाभानित करते हैं। यह परमार्थ व्रत आज की चिन्तन धारा के अनुसार तो मूर्खता ही ठहराया जायगा और व्यंग्य- उपहास का ही कारण बनेगा। किन्तु पर्यवेक्षकों को इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि विश्व- व्यवस्था में ऐसी परिपूर्ण गुंजायश है कि परमार्थ परायणों को लोक सम्मान ही नहीं दैवी अनुदान भी अजस्र परिमाण में मिलते रहें। पेड़ों को बार- बार नये पल्लव और नये फल- फूल देते रहने में प्रकृति कोताही नहीं बरतती। उदारमना घाटा उठाते लगते भर हैं। वस्तुत: वे जो देते हैं उसे ब्याज समेत वसूल कर लेते हैं। 

इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित महामानवों में से प्रत्येक ने परमार्थ- परायणता की दूरदर्शितापूर्ण नीति अपनाई है। वे बीज की तरह गले और वृक्ष की तरह बढ़े हैं, इस मार्ग पर चलने के लिए उन्हें प्राथमिक पराक्रम यह करना पड़ा कि संचित कुसंस्कारों की पशु- प्रवृत्तियों से जूझे और उन्हें सुसंस्कारी बनने के लिए पूरी तरह दबाया- दबोचा और तब छोड़ा जब वे ची बोल गईं और संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊँचे उठकर आदर्शवादी परमार्थ प्रवृत्ति को अंगीकार करने के लिए सहमत हो गईं। 

पन्नाधाय का सत्साहस

बनवीर को कुछ समय के लिए राजा बनाया गया था किन्तु उसके मन में सत्ता का लोभ समा गया। उसने बालक उदय को मार डालने का षड़यन्त्र रचा। पन्नाधाय- जिस पर उदय की रक्षा का भार था, ने उदय के स्थान पर अपने बच्चे को लिटा दिया। उस बच्चे की हत्या हो गई, पर पन्ना धाय के इस उत्कृष्ट आदर्श और त्याग भावना ने मेवाड़वासियों को नई चेतना प्रदान की। उन्होंने बनवीर के शासन को उखाड़ फेंका। 

आदर्शवादिता के मार्ग पर छोटे बच्चे भी चल पड़े तो भी उससे उत्पन्न शक्ति इतनी प्रचण्ड हो उठती है जिसे रोकना शक्तिशाली के लिए भी कठिन हो जाता है। 

गुरु गोविन्दसिंह के बच्चे

गुरुगोविन्दसिंह ने अपने १६ वर्षीय बड़े पुत्र अजीतसिंह को आज्ञा दी कि 'तलवार लो और युद्ध में जाओ। पिता की आज्ञा पाकर अजीत सिंह युद्ध में कूद पड़ा और वहीं काम आया। इसके बाद गुरु ने अपने द्वितीय पुत्र जोझारसिंह को वही आज्ञा दी। पुत्र ने इतना ही कहा-  'पिताजी प्यास लगी है, पानी पी लूँ। ' इस पर पिता ने कहा- 'तुम्हारे भाई के पास खून की नदियाँ बह रही हैं। वहीं प्यास बुझा लेना। ' जोझारसिंह उसी समय युद्ध क्षेत्र को चल दिया और वह अपने भाई का बदला लेते हुए मारा गया। 

इन बच्चों के बलिदान से सिखों में ऐसी आग पैदा हुई कि दुश्मनों को अपना खेमा उखाड़ते ही बना। आदर्शो से जुड़ने वाले नरपुंगव दैवी अनुग्रह के पात्र किस प्रकार बनते हैं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आद्य शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द, मीरा, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ एवं तुलसीदास हैं। इन्होंने प्रतिकूलताओं से संघर्ष हेतु साहस दिखाया- यह दैवी अनुग्रह ही था जो उनके अन्त: में प्रेरणा के रूप में उभरा एवं आदर्शवादी उत्कृष्टता से जुड़कर बदले में उन्हें यश- सम्मान भी दे गया। 

भगवन्तं ततो नत्वा वांछा साम्यं विचार्य च। 
प्रज्ञापुराणसन्देशमुपदेष्टं जनं जनमू ॥८३॥
जागृतात्मन प्रज्ञाभियान मार्गे नियोजितुम्। 
संकल्प्य धरणीमायात् प्रसन्नहृदयस्तदा ॥८४॥
सप्तर्षीणां तपोभूमौ विरम्याथ गतक्लम:। 
युगान्तरचिते रूपे विश्वव्यापी बभूव च ॥८५॥ 

टीका- नारद ने भगवान् को नमन किया और उनकी इच्छा में अपनी इच्छा मिलाते हुए जन- जन को 'प्रज्ञा पुराण' का सन्देश सुनाने, जागृत- आत्माओं को प्रज्ञा- अभियान प्रयासों में लगाने कौ संकल्प लेकर, प्रसन्न हृदय धरती पर उतरे। सप्त ऋषियों की तपोभूमि मे थोड़ा विराम- विश्राम करके वे युगान्तरीय- चेतना के रूप में विश्वव्यापी बन गये ॥८३- ८५॥

व्याख्या- भक्त की स्वयं की कोई इच्छा नहीं होती। वह भगवान का काम करने का संकल्प लेकर जन्मता है व अपने 'स्व' को चेतन शक्ति में घुला देता है। देवर्षि नारद ने अपनी इच्छा को भगवान की प्रेरणा के साथ मिलाया। एक बार नारद स्वयं मोह में पड़े थे और अपने अहंकार के मद में प्रभु प्रेरणा को समझने में असफल रहे। भगवान ने उनका मोह भंग किया, उन्हें वास्तविकता से अवगत कराया। तब से उन्होंने संकल्प ले लिया कि अब आगे से कभी भी अपनी इच्छा को प्रभु से अलग नहीं रखेंगे। 

नारद मोह

एक बार नारद को काम वासना पर विजय पाने का अहंकार हो गया था। उन्होंने भगवान् विष्णु के समक्ष भी अभिमान सहित प्रकट कर दिया। भगवान् ने सोचा कि भक्त के मन में मोह- अहंकार नहीं रहने देना चाहिए। उन्होंने अपनी माया का प्रपंच रचा। सौ योजन वाले अति सुरम्य नगर में शीलनिधि नामक राजा राज्य करता था। उसकी पुत्री परम सुन्दरी विश्व मोहिनी का स्वयम्बर हो रहा था। उसे देखकर नारद के मन में मोह वासना जागृत हो गयी। वे सोचने लगे कि नृपकन्या किसी विधि उनका वरण कर ले। भगवान को अपना हितैषी जानकर नारद ने प्रार्थना की। भगवान प्रकट हो गए और उनके हित साधन का आश्वासन देकर चले गए। मोहवश नारद भगवान की गढ़ बात को समझ नहीं सके। वे आतुरतापूर्वक स्वयंवर भूमि में पहुँचे। नृप बाला ने नारद का बन्दर का सा मुँह देखकर उधर से बिछल ही मुँह फेर लिया। नारद बार- बार उचकते- मचकते रहे। विष्णु भगवान नर- वेष में आये। नृप सुता ने उनके गले में जयमाला डाल दी। वे उसे ब्याह कर चल दिये। अपनी इच्छा पूरी न होने पर नारदजी को गुस्सा आ गया और मार्ग में नृप- कन्या के साथ जाते हुए विष्णु भगवान को शाप दे डाला। भगवान ने मुस्करा कर अपनी माया समेट ली। अब वे अकेले खड़े थे। नारदजी की आँखें खुली की खुली रह गयीं। उन्होंने बार- बार क्षमायाचना की, कहा- भगवन्। मेरी कोई व्यक्तिगत इच्छा न रहे, आपकी इच्छा ही मेरी अभिलाषा हो, लोकं- मंगल की कामना ही हमारे मन में रहे। 

नारद भगवान से निर्देश- सन्देश लेकर जन- जन तक उसे पहुँचाने के लिए उल्लास के साथ धरती पर आये एवं व्यक्ति के रूप में नहीं अपितु समष्टि में संव्याप्त चेतन प्रवाह के रूप में व्यापक बने। आज ध्वंस की तमिस्रा के मध्य जो नव सृजन का आलोक बिखरा दिखाई पड़ रहा है, वह इसी का प्रतिफल है। 

इति श्री मत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मबिद्याऽऽत्मबिद्ययो:, 
युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो: 
श्री नारद- सम्वादे "लोककल्याणजिज्ञासे, " 
इति प्रकरणो नाम प्रथमोऽध्याय: ॥१॥
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118