प्रज्ञा पुराण भाग-1

लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः

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                            लोककल्याणकृद् धर्मधारणासंप्रारक:।
                            व्रती यायावरो मान्यो देवर्षिऋषिसत्तम: ॥१॥
                            अव्याहतगतिं प्राप गन्तुं विष्णुपदं सदा।
                            नारदो ज्ञानचर्चार्थं स्थित्वा वैकुण्ठसन्निधौं॥२॥   
                            लोककल्याणमेवायमात्मकल्याणवद् यत:।
                            मेने परार्थपारीण: सुविधामन्यदुर्लभाम् ॥३॥
                            काले काले गतस्तत्र स्मस्या: कालिकी मृशन्।
                            मतं निश्चित्य स्वीचक्रे भाविनीं कार्यपद्धतिम् ॥४॥

टीका- लोक कल्याण के लिए जन- जन तक धर्म धारणा का प्रसार- विस्तार करने का व्रत लेकर निरन्तर विचरण करने वाले नारद ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ गिने गये और देवर्षि के मूर्धन्य सम्मान से विभूषित हुए। एक मात्र उन्हीं को यह सुविधा प्राप्त थी किं कभी भी बिना किसी रोक- टोक विश्लोक पहुँचें और भगवान के निकट बैठकर अभीष्ट समय तक प्रत्यक्ष ज्ञानचर्चा करें। यह विशेष सुविधा उन्हें लोक- कल्याण को ही आत्म- कल्याण मानने की परमार्थ परायणता के कारण मिली? वे समय- समय पर भगवान् के समीप पहुँचते और सामयिक समस्याओं पर विचार करके तदनुरूप अपना मत बनाते और भावी कार्यक्रम निर्धारित करते ॥१- ४॥

व्याख्या- परमार्थ में सच्ची लगन यदि किसी में हो तो उसे पुण्य अर्जन के अतिरिक्त आत्मकल्याण का लाभ मिलता हैं। ऐसे व्यक्ति दूसरों को तारते हैं, स्वयं अपनी नैया भी जीवन सागर में खेले जाते हैं।

नारद ऋषि को भगवान् की विशेष अनुकम्पा इसी कारण मिली कि उन्होंने परहित को अपना जीवनौद्दश्य माना। इसके लिए वे निरन्तर भ्रमण करते, जब चेतना जगाते व सत्परामर्श देकर लोगों को सन्मार्ग की राह दिखाते थे। ध्रुव, प्रह्लाद तथा पार्वती को अपने सामयिक मार्गदर्शन द्वारा उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर किया। इसी लोक परायणता ने उन्हें देवर्षि पद सें सम्मानित करवाया तथा भगवान् के सामीप्य का लाभ भी उन्हें मिला। चूँकि वे सतत् जन सम्पर्क में रहते थे व लोक- कल्याण में रत रहते थे, इसी कारण सामयिक जन समस्याओं के समाधान हेतु वे परामर्श- मार्गदर्शन हेतु प्रभु के पास पहुँचते थे व मार्गदर्शन प्राप्त क्य अपनी भावी नीति का क्रियान्वयन करते थे ऐसे परमार्थ परायण व्यक्ति जहाँ भी होते हैं, सदैव श्रद्धा- सम्मान पाते हैं।

गन्ना और ब्रह्म सरोवर "एक बार ब्रह्म सरोवर ने शिकायत की भगवन्! आप भगवती गंगा की इतनी सराहना करते हैं, हम भी लोगों को शीतलता और सद्गति प्रदान करते है वह पुण्य हमें क्यों नहीं मिलता ?" भगवान विष्णु ने गम्भीर होकर उत्तर दिया- 'भगवती गंगा स्थान- स्थान, घर- घर जाकर लोगों की प्यास बुझाती और सद्गति प्रदान करती हैं जबकि आप केवल उन्हें देते हैं जो आपके पास आते हैं। '

ब्रह्म- सरोवर ने अनुभव किया भगवती गंगा सचमुच महान् है। उन्हें अपने भीतर कभी- कभी विकार पैदा होने का कारण भी ज्ञात हो गया।

परमार्थ की यह वृत्ति भारतीय संस्कृति की विशेषता है। इसी प्रयोजन से धर्म- धारणा के विस्तार का व्रत लेकर नैष्ठिक परिब्राजक निरन्तर भ्रमण करते रहते थे एवं जन- मानस के परिष्कार का वह उद्देश्य पूरा करते थे जिसके लिए वानप्रस्थ परम्परा, परिब्राजक धर्म तथा तीर्थयात्रा का समावेश आर्य कालीन महामानवों द्वारा किया गया था। इस कार्य को लोक- सेवी मनीषियों ने सदैव एक साधना माना है। यह साधना एक कठोर तप होते हुए भी उन्हें आह्लाद एवं आत्म सन्तोष देती है।

प्रतिमा और पगडण्डी-  पर्वत शिखर पर बने मन्दिर की प्रतिमा ने एक सामने वाली पगडण्डी से सहानुभूति दिखाते हुए कहा- "भद्रे ! तुम कितना कष्ट सहती हो, यहाँ आने वाले कितने लोगों का बोझ उठाती हो यह देखकर हमारा जी भर आता है। " पगडण्डी मुस्कराती हुई बोली- " भक्त को भगवान से मिलाने का अर्थ भगवान से मिलना ही तो है देवी !"


प्रतिमा पदडण्डी की इस महानता के आगे नतमस्तक हुए बिना रह सकी।

देवर्षि नारद की तरह असाधरण और आपत्तिकालीन हर किसी को नहीं मिलते। यह प्रमुख व्यक्तियों को मिलते हैं। परमात्म- सत्ता के दरबार में उदार- परमार्थ की योग्यता ही यह अधिकार दिलाती है।

द्वारपाल हट गये-  एक व्यक्ति राजमुकुट और तलवार उपहार स्वरुप लेकर भगवान के पास पहुँचा। वह उनसे एकान्त में भेंट
करना चाहता था। द्वार पर खडे देवदूतों ने कहा- " भाई ! भगवान को राजमुकुट से क्या मतलब वे तो स्वयं ब्रह्माण्डनायक हैं। तलवार की उन्हें आवश्यकता नहीं, वे तो स्वयं वेद रुप है। वे ज्ञान से ही बन्धनों के शत्रु काट डालते हैं और कुछ हो तो बताओ? यह चर्चा चल ही रही थी तभी उसने एक वृद्ध को ठोकर लगकर गिरते देखा। उसकी आँखों में आँसू आ गये। दौड़कर उसे सम्भाला, मन में आया चलकर भगवान से पूछें आखिर असहाय जन दु:खी क्यों हैं। वह लौटा तो देखा- रोकने वाले द्वारपाल वहाँ से हट गये थे।

                                    एकदा हृदये तस्य जिज्ञासा समुपस्थिता।
                                    ब्रह्मविद्यावगाहाय काल उच्चैस्तु प्राप्यते ॥५॥
                                    सञ्चितैश्च सुसंस्कारै: कठोरं व्रतसाधनम्।
                                    योगाभ्यासं तपश्चापि कुर्वन्त्येते यथासुखम् ॥६॥
                                    सामान्यानां जनानां तु मनस: सा स्थिति: सदा।
                                    चंचलासित न ते कर्तुं समर्था अधिकं क्वचित्॥७॥
                                    अल्पेऽपि चात्मकल्याणसाधनं सरलं न ते।
                                    वर्त्म पश्यन्ति पृच्छामि भगवन्तमस्तु तत्स्वयम्॥८॥
                                    सुलभं सर्वमर्त्यानां ब्रह्मज्ञानं भवेद यथा।
                                    आत्मविज्ञानमेवापि योग- साधंनमप्युत॥९॥
                                    नातिरिक्तं जीवचर्या दृष्टिकोणं नियम्य वा।
                                    सिद्धयेत्प्रयोजन लक्ष्यपूरकं जीवनस्य यत्॥१०॥

टीका- एक बार उनके मन में जिज्ञासा उठी- 'उच्चस्तर के लोग तो ब्रह्मविद्या के गहन- अवगाहन के लिए समय निकाल लेते हैं। संचित सुसंस्कारिता के कारण कठोर व्रत- धारण, योगाभ्यास एवं तपसाधन भी कर लेते हैं। किन्तु सामान्य- जनों की मन:स्थिति- परिस्थिति उथली होती है। ऐसी दशा में वे अधिक कर नहीं पाते। थोडे़ में सरलतापूर्वक आत्मकल्याण का साधन बन सके ऐसा मार्गदर्शन उन्हें प्राप्त नहीं होता। अस्तु भगवान से पूछना चाहिए कि सर्वसधारण की सुविधा का ऐसा ब्रह्मज्ञान, आत्म- विज्ञान एवं योग साधन क्या हो सकता है जिसके लिए कुछ अतिरिक्त न करना पडे़, मात्र दृष्टिकोण एवं जीवन- चर्या में थोडा परिवर्तन करके ही जीवन- लक्ष्य को पूरा करने का प्रयोजन सध जाय' ॥५- १०॥

व्याख्या- जनमानस को स्तर की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जाता है। एक वे जो तत्वदर्शन, साधन तपश्चर्या के मर्म को समझते हैं। कठोर पुरुषार्थ करने योग्य पात्रता भी उन्हें पूर्व जन्म के अर्जित संस्कारों व स्वाध्याय परायणता के कारण मिल जाती है परन्तु देवर्षि नारद न जन- जन में प्रवेश

करके पाया कि दूसरे स्तर के लोगों की संख्या अधिक है जो जीवन व्यापार में उलझे रहने के कारण अथवा साधना विज्ञान के विस्तृत उपक्रमों से परिचित होने का सौभाग्य न मिल पाने के कारण अध्यात्मविद्या के सूत्रों को समझ नहीं पाते, व्यवहार में उतार नहीं पाते तथा ऐसी ही उथली स्थिति में जीते हुए किसी तरह अपना जीवन शकट खींचते हैं।

विशेष लोगों के लिए तो विशेष उपलब्धियाँ हैं। ऐसे असाधारण व्यक्तियों की तो बात ही अलग हैं। उनके जीवन- उपाख्यान यही बताते हैं कि वें विशिष्ट विभूति सम्पन्न होते हैं।

असामान्य संस्कारवान् व्यक्ति

शुकदेव जन्म लेते ही घर से चल पड़े। उनके पिता महर्षि व्यास ने कहा भी! 'तात। अपनी माँ का संस्कारवान् स्तन पान तो कर ले', पर उन्होने कहा- 'एक बार संसार में आसक्त हो जाने पर उससे छूटना कठिन है, अभी तो पूर्व जन्मों का मुझे स्मरण है, सो समय क्यों गँवाऊँ, ' वे, तुरन्त तप के लिए चल पड़े।

कच ने इसी तरह शुक्राचार्य के पास तथा नचिकेता ने यमाचार्य के पास जाकर संचित सुसंस्कारों की प्रेरणा से ही तप किया। मनु- शतरूपा, भगवती- प्रार्वती, काकभुशुण्डि, ध्रुव और प्रह्लाद के आख्यान भी ऐसे ही हैं।

नानक के पिता ने उन्हें कुछ रुपये दिये और सौदा करके कुछ कमाने के लिए भेज दिया। नानक ने सारे, रुपये निर्धन भूखों में बाँट दिये और आप सच्चे सौदे की खोज में लग गये।

इसके विपरीत सामान्य व्यक्ति ब्रह्मज्ञान-  आत्मकल्याण की विद्या से नितान्त, अपरिचित होने के कारण अपने लक्ष्य से विमुख ही बने रहते हैं। देवर्षि ने इन्हीं बहुसंख्य व्यक्तियों के कल्याण की बात सोची- यह चिन्तन किया कि भगवान् से ही पूछा जाय कि सुर दुर्लभ योनि प्राप्त परन्तु साधारण व उससे भी हेय जी रहे लोगों का आध्यात्मिक मार्गदर्शन किस प्रकार किया जाय।

साधारण व हेय की गति

मनु- शतरुपा भी एक बार इस प्रकार का चिन्तन कर रहे थे। परस्पर चर्चा में मनु से शतरुपा ने पूछा- भगवन ! मनुष्य को अन्याय योनियों में क्यों भटकना पड़ता है? कई बार मानव- योनि पाकर भी मुक्त होने के स्थान पर फिर पदच्युत कर दिया जाता है। ऐसा क्यो ?

मनु बोले-
                        शरीरजै: कर्म दोषैयाति स्थावरतां नर:। वाचिकै: पक्षिमृगतां मानसैरन्यजातिताम्॥
                        इह दुश्चारितै: केचित्केचित् पूर्वकृतैस्तथा। प्राप्नुवन्ति दुरात्मानों नरा रुपं विपर्ययम्॥

"शारीरिक पाप कर्मों से जड़ योनियों में जन्म होता है। वाणी के पाप से पशु- पक्षी बनना पड़ता है। मानसिक दोष करने वाले मनुष्य- योनि से बहिष्कृत हो जाते है। इस जन्म के अथवा पूर्व जन्म के किऐ हुए पापों से मनुष्य अपनी स्वाभाविकता खोकर विद्रूप बनते है।

साधारण व्यक्ति संसार के माया जाल में फँसे कैसा जीवन जीते है इसे समझते हुए एक संत ने अपने शिष्य को एक कथा सुनाई-  

संसारी लोग

"एक बार एक सेठ के घर में आग लग गई। सेठ के कहने से लोग कीमती सामान, धन आदि, तो निकालनें लगे पर सेठ के बच्चे की ओर किसी का ध्यान न गया। जब सारा सामान आया तब सेठ ने बच्चे की याद की पर तब तक वह जल चुका था। सेठ छाती पीट- पीटकर रोने लगा कि धन का अधिकारी तो मर ही गया। " सन्त ने कहा- "शिष्यो! इसी तरह संसार के लोग दुनियावी सुखी के फेर में आत्मा को भूल जाते है।


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