प्रज्ञा पुराण भाग-1

लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः-2

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यह तो लोक सेवी का ही कर्तव्य होता है कि वह संसारी जीवों को व्यावहारिक अध्यात्म विद्या का ज्ञान कराये, उन्हें आत्म सत्य की गरिमा से अवगत कराये। जो कुछ अतिरिक्त तप- पुरुषार्थ करने की स्थिति में हों, उन्हें वैसी प्रेरणा दे तथा जो भगवान् की इच्छानुसार उत्तम ढंग का जीवन जी सकते हैं उन्हें वैसा संकेत दिया जाय। मन स्थिति में परिवर्तन लाकर ही तो सभी साधारण व्यक्ति अपने को ऊँचा उठा सके है,। वैसा ही मार्गदर्शन: अभीष्ट होता है जैसा एक महात्मा द्वारा कही इस कथा से प्रकट
होता है। 

एक गड़रिया सब, भेड़ों को तो हाँकता हुआ ला रहा था; पर एक नन्हें बच्चे को अपने कन्धे पर रखे हुए जंगल से लौट रहा था। एक जिज्ञासु ने प्रश्र किया- क्यों भाई? इस भेड़ के बच्चे को भी पैदल क्यों नहीं चलाते। गड़रिया मुस्कराया '' तात। यह अबोध है, जंगल में भटक जाता है, इसलिए इसे गोद में लेकर चल रहा हूँ। सभी पर एक से नियम तो लागू नहीं हो सकते। "

पिपृच्छां च समाधातुं वैकुण्ठं नारदो गत:। 
नत्वाऽभ्यर्च्य च देवेशं देवेनापि तु पूजित: ॥११॥
कुशलक्षेमचर्चान्तेऽभीष्टे चर्चाऽभवद् द्वयो। 
संसारस्य च कल्याणकामना संयुता च या ॥१२॥

टीका-  इस पूछताछ के लिए देवर्षि नारद बैकुण्ड लोक पहुँचे, नारद ने नमन- वन्दन किया, भगवान ने भी उन्हें सम्मानित किया। परस्पर कुशल- क्षेम के उपरान्त अभीष्ट प्रयोजनों पर चर्चा प्रारम्भ हुई जो संसार की कल्याण- कामना से युक्त थी ॥११- १२॥

नारद उवाच- 

देवर्षि: परमप्रीत: पप्रच्छ विनयान्यित:। 
नेतुं जीवनचर्या वै साधनामयतां प्रभो॥१३॥
प्राप्तुं च परमं लक्ष्यमुपायं सरलं वद। 
समाविष्टो भवेद्यस्तु सामान्ये जनजीवने॥१४॥
विहाय स्वगृहं नैव गन्तु विवशता भवेत्। 
असामान्या जनार्हा च तितीक्षा यत्र नो तप: ॥१५॥

टीका- प्रसन्नचित्त देवर्षि ने विनय पूर्वक पूछा- ''देव! संसार में जीवनचर्या को ही साधनामय बना लेने और परमलक्ष्य प्राप्त कर सकने का सरल उपाय बतायें ऐसा सरल जिसे सामान्य जन- जीवन में समाविष्ट करना कठिन न हो। घर छोड़कर कहीं न जाना पडे़ और ऐसी तप- तितीक्षा न करनी पड़े जिसे सामान्य स्तर के लोग न कर सकें ॥१३- १५॥

व्याख्या- भगवान् से देवर्षि जो प्रश्न पूछ रहे हैं वह सारगर्भित है। सामान्यजन भक्ति, वैराग्य, तप का मोटा अर्थ यही समझते हैं कि इसके लिए एकान्तसाधना करने, उपवन जाने की आवश्यकता पड़ती है पर इस उच्चस्तरीय तपश्रर्या के प्रारम्भिक चरण जीवन साधना के मर्म को नहीं जानते। इसी जीवन- साधना, प्रभु परायण जीवन के विधि- विधानों को जानने, उन्हें व्यवहार में कैसे उतारा जाय इस पक्ष को विस्तार से खोलने की वे भगवान से विनती करतें हैं। 

रामायण में काकभुशुण्डि जी ने इसी प्रकार का मार्गदर्शन गरुड़जी को दिया है। जीवन साधना कैसे की जाय इसका प्रत्यक्ष उदाहरण राजा जनक के जीवन में देखने को मिलता है। 

शुकदेव का जनक को प्रणाम

शुकदेव ने राजा जनक को प्रणाम किया। शुकदेव संन्यासी और जनक गृहस्थ। इस प्रतिकूल से लगने वाले आचरण पर सारी सभा विस्मित हो उठी। शुकदेव इस बात को ताड़ गये। सभासदों का समाधान करते हुए उन्होंने कहा- विद्वानो! महाराज जनक ने अपने जीवन को ही योग बना लिया है, उनका प्रत्येक कर्म भगवान को, आदर्शो को समर्पित होता है। अतएव वे नि:सन्देंह सबसे बड़े योगी हैं। 

रैदास ने भी जीवन भर यही साधना की एवं इसी के फलस्वरूप वे सन्त- सा सम्मान पा सके। 

रैदास के पैसे गंगाजी ने हाथ मे लिए 

सन्त रैदास मोची का काम करते थे। काम को वें भगवान् की पूजा मानकर पूरी लगन एवं ईमानदारी से पूरा करते थे। एक साधु को सोमवती अमावस्या के दिन गंगा स्नान करने को साथ- साथ चलने के लिए उन्होंने आश्वासन दिया था। साधु सदा जप- तप में तल्लीन रहते थे। 

अमावस्या के स्नान का दिन निकट था। साधु रैदास के पास पहुँचे। गंगा स्नान की बात याद दिलायी। रैदास लोगों के जूते सीने का काम हाथ में ले चुके थे। समय पर देना था। अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए रैदास ने कहा 'महात्मन्! आप मुझे क्षमा करें। मेरे भाग्य में गंगा का स्नान नहीं है। यह एक पैसा लेते जाँय और गंगा माँ को मेरे नाम पर चढा देना। '

साधु गंगा सान के लिए संमय पर पहुँचे। स्नान करने के बाद उन्हें रैदास की बात स्मरण हो आयी। मन ही मन गंगा से बोले 'माँ यह पैसा रैदास ने भेजा है- स्वीकार करें। ' इतना कहना था कि गंगा की अथाह जल राशि से दो विशाल हाथ बाहर उभरे और पैसे को हथेली में ले लिया। साधु यह दृश्य देखकर विस्मित रह गये और सोचने लगे मैंने इतना जप- तप किया, गंगा आकर स्नान किया तो भी गंगा माँ की कृपा नहीं प्राप्त हो सकी, जब कि गंगा का बिना स्नान किए ही रैदास को अनुकुम्पा प्राप्त हो गयी। 

वे रेदास के पास पहुँचे और पूरी बात बतायी। रैदास बोले- 'महात्मन्! यह सब कर्त्तव्य धर्म के निर्वाह का प्रतिफल है। इसकें मुझ अकिंचन के तप, पुरुषार्थ की कोई भूमिका नहीं। '


जिज्ञासां नारदस्याथ ज्ञात्वा संमुमुदे हरि:। 
उवाच च महर्षे त्वमात्थ यन्मे मनीषितम् ॥१६॥
युगानुरूपं सामर्थ्य पश्यन्नन्न प्रसङ्गके। 
निर्धारणस्य चर्चाया व्यापकत्वं समीप्सितम् ॥१७॥

टीका- नारद की जिज्ञासा जानकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और बोले- ''देवर्षि आप तो हमारे मन की बात कह रहे हूँ। समय की आवश्यकता को देखते हुए इस प्रसंग पर चर्चा होना और निर्धारण को व्यापक किया जाना आवश्यक भी है ॥१६- १७॥"

व्याख्या- जो जिज्ञासा भक्त के मन में धुमड़ रही थी वही भगवान् के भी अंतःकरण में विद्यमान थी, भक्त हमेशा भगवान् की आकांक्षा के अनुरूप ही विचारते हैं एवं अपनी गतिविधियों का खाका बनाते हैं। सच्चे भक्त की कसौटी पर देवर्षि खरे उतरते हैं, जभी वे जन- सामान्य की समस्या को लेकर प्रभु से मार्गदर्शन माँगते हैं। 

ऋषिवर नारद से श्रेष्ठ और हो ही कौन सकता था जो सामयिक आवश्यकतानुसार अपने प्रभु के मन की इच्छा जानें व उनकी प्रेरणाओं- समस्याओं के समाधानों को जन- जन के गले उतार सकें। 

अधुनास्ति हि संर्वत्राऽनास्था क्रमपरम्परा। 
अदूरदर्शिताग्रस्ता जना विस्मृत्य गौरवम् ॥१८॥
अचिन्त्यचिन्तना जाता अयोग्याचरणास्तथा। 
फलत: रोगशोकार्तिकलहक्लेशनाशजम् ॥१९॥
वातावरणमुत्पन्नं भीषणाश्च विभीषिका:। 
अस्तित्वं च धरित्यास्तु संदिग्धं कुर्वतेऽनिशम्॥२०॥

टीका- इन दिनों सर्वत्र अनास्था का दौर है अदूरदर्शिताग्रस्त हो जाने से लोग मानवी गरिमा को भूल गये हैं। अचिन्त्य- चिन्तन और अनुपयुक्त आचरण में संलग्न हो रहे है, फलत: रोग, शोक, कलह, भय, और विनाश का वातावरण बन रहा है। भीषण-  विभीषिकाएँ निरन्तर धरती के अस्तित्व तक को चुनौती दे रही हैं 

व्याख्या- यहाँ भगवान आज की परिस्थितियों पर संकेत करते हुए अनास्था की विवेचना करते हैं व वातावरण में संव्याप्त रूप तथा भयावह परिस्थितियों का कारण भी श्रद्धा तत्व की अवमानना को ही बताते हैं। मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार से ही आचरण बनता हैं। वातावरण से परिस्थिति बनती है और वही सुख- दुःख, उत्थान- पतन का निर्धारण करती हैं। जमाना बुरा है, कलयुग का दौर है, परिस्थितियाँ कुछ प्रतिकूल बन गयी हैं, भाग्य चक्र कुछ उल्टा चल रहा है- ऐसा कह कर लोग मन को हल्का करते हैं, पर इससे समाधान कुछ नहीं निकलता। जब समाज में से ही तो अग्रदूत निकलते हैं। प्रतिकूलता का दोषी 

मूर्धन्य राजनेताओं को भी ठहराया जा सकता है। पर भूलना नहीं चाहिए कि इन सबका उद्गम केन्द्र मानवों अन्तराल ही है। आज की विषम परिस्थितियों को बदलने की जो आवश्यकता समझते हैं, उन्हें
कारण तह तक जाना होगा। अन्यथा सूखे पेड़, मुरझाते वृक्ष को हरा बनाने के लिए जड़ की उपेक्षा करके पत्ते सींचने जैसी विडम्बना ही चलती रहगी। 


आज अस्त: के उद्गम से निकलने तथा व्यक्तित्व व परिस्थितियों का निर्माण करने वाली आस्थाओं का स्तर गिर गया है। मनुष्य ने अपनी गरिमा खो दी हैं और संकीर्ण स्वार्थपरता का विलासी परिपोषण ही उसका जीवन लक्ष्य बन गया है। वैभव सम्पादन और उद्धत प्रदर्शन, उच्छृंखल दुरुपयोग ही सबको प्रिय है। समृद्धि बढ़ रही है, पर उसके साथ रोग- कलह भी प्रगति पर हैं। प्रतिभाओं की कमी नहीं पर श्रेष्ठता संवर्धन व निकृष्टता उन्मूलन हेतु प्रयास ही नहीं बन पढ़ते। लोक मानस पर पशु प्रवृत्तियों का ही आधिपत्य है। आदर्शों के प्रति लोगों का न तो रुझान हैं, न उमंग ही। दुर्भिक्ष- सम्पदा का नहीं, आस्थाओं का है। स्वास्थ्य की गिरावट, मनोरागों की वृद्धि अपराध वृत्ति तथा उद्दण्डता सारे वातावरण में संव्याप्त है और ये ही अदृश्य जगत में उस परिस्थिति को विनिर्मित कर रही हैं, जिसके रहते धरती महाविनाश- युद्ध की विभीषिकाओं के बिल्कुल समीप आ खडी हुई है। 

भगवान ने यहाँ स्पष्ट संकेत युग की समस्याओं के मूल कारण आस्था संकट की ओर किया है। सड़ी कीचड़ में से मक्खी, मच्छर कृमि- कीटक, विषाणु के उभार उठते हैं। रक्त की विषाक्तता फुंसियों के के रूपं में, ज्वर प्रदाह के रूप, में प्रकट होती हैं। ऐसें में प्रयास कहाँ हो ताकि मूल कारण को हटाया जा सके। अंत: की निकृष्टता को मिटाया जा सकें इसी तथ्य की विवेचना वे करते हैं। 

प्रस्तुत परिस्थितियों को भगवान शिव- पार्वती सम्बन्धी यह आख्यान स्पष्ट करता है। 

शिवजी कोढी बने

एक बार पार्वती ने शिवजी से पूछा- ' भगवन्! लोग इतना कर्मकाण्ड करते हैं फिर भी इन्हें आस्था का लाभ क्यों नहीं मिलता? शिवजी बोले- धार्मिक कर्मकाण्ड होने पर भी मनुष्य जीवन में जो बने
आडम्बर छाया है; यहीं अनास्था है। लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं, उनके मन वैसे नहीं है। परीक्षा लेने दोनों धरती पर आये। मां पार्वती ने सुन्दरी साध्वी पत्नी का व शिवजी ने कोढ़ी का रूप धारण किया। मन्दिर की सीढ़ियों के समीप वे पति को लेकर बैठ गयीं। दानदाता दर्शनार्थ आते रहे व रुककर कुछ पल पार्वती जी को देखकर आगे बढ़ जाते। बेचारे शिवजी को गिनें चुनें कुछ सिक्के मिल पाये। कुछ दानदाताओं ने तो संकेत भी किया कि' कहाँ इस कोढ़ी पति के साथ बैठी हो। इन्हें छोड दो। ' पार्वतीजी सहन नहीं कर पायीं, बोलीं- ! प्रभु! लौट चलिए अब कैलाश, पर। सहन नहीं होता इन पाखण्डियों के यह कुत्सित स्वरूप। , इतने में ही एक दीन- हीन भक्त आया, पार्वतीजी के चरण हुए और बोला- माँ! आप धन्य हैं जो पति परायण हो इनकी सेवा में लगी है। आइये! मैं इनके घावों को धो दूँ। फिर मेरे पास जो भी कुछ सतू आदि हैं, आप हम साथ- साथ खा लें। ' ब्राह्मण यात्री ने घावों पर पट्टी बाँधी, सतू थमा पुन:' प्रणाम, कर ज्योंही आगे बढ़ा वैसे ही शिवजी ने कहा- ' यही है भार्ये एकमात्र भक्त, जिसने मन्दिर में प्रवेश से पूर्व निष्कपट भाव से सेवा धर्म को प्रधानता दी। ऐसे लोग गिने चुने हैं। शेष तो सब आत्म प्रवंचना भर करते है व अवगति को प्राप्त होते हैं। ' शिव- पार्वती ने अपने वास्तविक स्वरूप में उस भक्त को दर्शन दिये। परमगति का अनुदान दिया व वापस लौट गये। 

मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्कृष्ट संरचना और शक्तिशाली कृति है। अपने आप सें विग्रह करके ही उसने सर्वनाश की परिस्थितियाँ पैदा कर ली हैं, अन्यथा भगवान ने उसे जो कुछे देकर पैदा किया उसमें उसके दु:खी रहने का कोई कारण नहीं। 

ईदृश्यां च दशायां तु स्वप्रतिज्ञानुसारत:। 
जाता नवावतारस्य व्यवस्थायाः स्थिति: स्वयम्॥२१॥
प्रज्ञावतारनाम्नां च युगस्यास्यावतारक:। 
भूलोके मानवानां तु सर्वेषां हि मन:स्थितौ॥२२॥
परिस्थितौ च विपुलं चेष्टते परिवर्तनम्। 
सृष्टिक्रमे चतुर्विश एष निर्धार्यतां क्रम:॥२३॥

टीका- ऐसी दशा में अपनी प्रतिज्ञानुसार नये अवतार की व्यवस्था बन गई। प्रज्ञावतार नाम से इस का अवतरण भूलोक के मनुष्य समुदाय की मनःस्थिति एवं में भारी परिवर्तन करने जा रहा है। सृष्टि क्रम में इस प्रकार का यह चौबीसवाँ निर्धारण है॥२१- २३॥

व्याख्या- आस्था संकट के दौर में भगवान हमेशा अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हैं, ऐसी परिस्थिति में ईश्वरीय, संत्ता के अवतरण का उद्देश्य एक ही रहता है। गीता में कहा हैं- 
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे- युगे॥

गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार- 
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निजश्रुति सेतु। 
जग विस्तारहिं विशद यश राम जनम कर हेतु ॥

भावार्थ यह है किं अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना अवतार प्रक्रिया का मूलभूत प्रयोजन है। यह संकल्प विराट है और अनादिकाल से यथावत् चला आ रहा हैं। 

सुदूर अतीत के अवतारों में प्रारम्भिक का कार्यक्षेत्र भौतिक परिस्थितियों से जूझना भर था। उसके बाद वालों को अनाचरियों से लड़ना पडा। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम, कृष्ण को पूर्ण पुरुष और बुद्ध को विवेक का देवता कहा जाता है। प्रज्ञावतार इन सबका उत्तरार्ध माना जा सकता है। उसका कार्य अपेक्षाकृत अधिक कठिन और व्यापक है। उसे मात्र सामयिक समस्याओं एवं व्यक्तिगत उद्दण्डताओं से ही नहीं जूझना है वरन्
लोकमानस में ऐसे आदर्शों का बीजारोपण, अभिवर्धन तथा परिपोषण क्रियान्वयन करना है जो सतयुग जैसी भावना और राम राज्य जैसी व्यवस्था के लिए आवश्यक अन्त:प्रेरणा व्यापक क्षेत्र में उत्पन्न कर सके। लक्ष्य और कार्य की गरिमा एवं व्यापकता को देखते हुए प्रज्ञावतार की कलाएँ चौबीस होना स्वाभाविक है। 

बदलती परिस्थितियों में बदलते आधार भगवान को भी अपनाने पडे है। विश्व विकास की कम व्यवस्था के अनुरुप अवतार का स्तर एवं कार्यक्षेत्र भी विस्तृत होता चला गया है। मनुष्य जब तक साधन प्रधान और कार्य प्रधान था तब एक शास्त्र और साधनों के सहारे काम चल गया। आज की परिस्थितियों में बुद्धि तत्व की प्रधानता है। मन ही सर्वत्र छाया हुआ है। महत्वाकांक्षाओं के क्षेत्र में अनात्म- तत्व की भरभार होने से सम्पन्नता और समर्थता का दुरुपयोग ही बन पड़ रहा है। महामारी सीमित क्षेत्र तक नहीं रही, उसने अपने प्रभाव क्षेत्र में समूची मानव जाति को जकड़ लिया है। विज्ञान ने दुनियाँ को बहुत छोटी कर दिया है और गतिशीलता को अत्यधिक द्रुतगामी। ऐसी दशा में भगवान का अवतार युगान्तरीय चेतना के रुप में हि हो सकता है। जन- मानस के सुविस्तृत क्षेत्र में अपने पुण्य प्रवाह का परिचय देना इसी रुप में सम्भव हो सकता है, जिसमें कि 'प्रज्ञावतार' के प्रादुर्भाव की सूचना- सम्भावाना सामने है। 

वरिष्ठता नराणां तु श्रंद्धाप्रज्ञाऽवलम्बिता। 
निष्ठाश्रिता च व्यक्तित्वं सर्वेषामत्र संस्थितम्॥२४॥
न्यूनाधिकता हेतो: क्षीयते वर्धते च तत्। 
उत्थानसुखजं पातदु:खजं जायते वृति:॥२५॥
अधुना मानवैस्त्यक्ता श्रेष्ठताऽऽभ्यन्तर स्थिता। 
फलत आत्मनेऽन्येभ्य: सटान् भावयन्ति ते॥२६॥

टीका- मनुष्य की वरिष्ठा श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा पर अवलम्बित है। इन्हीं की न्यूनाधिकता से उसका व्यक्तित्व उठता- गिरता है। (व्यक्तित्व) के उठने- गिरने के कारण उत्थानजन्म सुखों और पतनजन्य दुखों का वातावरण बनता है। इन दिनों मनुष्यों ने आन्तरिक वरिष्ठता गँवा दी है। फलत: अपने तथा सबके लिए संकट उत्पन्न कर रहे है ॥२४- २६॥

व्याख्या- श्रद्धा अर्थात् सद्भाव, प्रज्ञा अर्थात् सद्ज्ञान एवं निष्ठा अर्थात् सत्कर्म। तीनों का समन्वित स्वरूप ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है। श्रद्धा अन्तःकरण से प्रस्फुटित होने वाले आदर्शो के प्रति प्रेम है। इस गंगोत्री से निःसृत होने वाली पवित्र धारा ही सद्ज्ञान और सत्कर्म से मिलकर पतितपावनी गंगा का स्वरुप ले लेती है। इन तीनों का विकास- उत्थान ही मानव की महामानव बनाता है तथा इस क्षेत्र का पतन ही उसे विकृष्ट स्तर का जीवनयापन करने को विवश करता है। 

मनुष्य अपनी वरिष्ठता का कारण अपने वैभव- पुरुषार्थ, बुद्धिबल- धनबल को मानता है, जबकि यह मान्यता नितान्त मिथ्या है। व्यक्तित्व का निर्धारण तो अपना ही स्व- अन्त:करण करता है। निर्णय, निर्धारण यहाँ से होते हैं। मन और शरीर स्वामिभक्त सेवक की तरह अन्त:करण की आकांशा पूरी करने के लिए तत्परता और स्फूर्ति से लगे रस्ते हैं। उन्नति- अवनति का भाग्य- विधान यही लिखा जाता है। 

अन्तःकरण से सद्भाव न उपजेगा तो सद्ज्ञान व सदाचरण किस प्रकार फलीभूत होगा ? वस्तुत: तीनों ही परस्पर पूरक हैं- 

तीनों परस्पर मिलकर सार्थक

ज्ञान, भावना और कर्म तीनों अपने आपकों ज्येष्ठ बताया करते थे। इसके लिए झगडा हो गया। निपटारे के लिए तीनों ब्रह्माजी के पास गये। ब्रह्माजी बोले- ' जो आकाश को छू ले वही बडा है। ज्ञान सूर्य तक पहुँचा। आगे उसकी गति न थी। भावना ने छलाँग लगाई तो आकाश के दूसरे छोर में पहुँच गई पर नीचे न उतर पाई, वहीं लटकी रह गई। कर्म ने सीढ़ियाँ बनानी शुरू कीं, पर दोपहर तक ही थक गया। ब्रह्मा ने तीनों कोर दुबारा बुलाकर समझाया कि तुम्हारी पूर्णता साथ- साथ रहने में ही है, अकेले तीनों अधूरे हैं। 

इनमें से एक भी कम अधिक होने पर व्यक्तित्व के उठने- गिरने का कारण बन जाता है। कई बार प्रारम्भिक जीवन क्रम अच्छा होने पर भी सद्भाव सम्वर्धन का साधन क्रम न बने रहने से आचरण भ्रष्ट होने लगता है और यह पतन का कारण बनता है। आज बहुसंख्य व्यक्ति इसी समूह के अन्तर्गत आते हैं। 

बलि का तेज चला गया

राजा बलि असुर कुल में उत्पन्न हुए थे पर वे बड़े सदाचारी थे और अपनी धर्म परायपता के उनने बहुत वैभव और यश कमाया था। उनका पद इन्द्र के समान हो गया। पर धीरे- धीरे जब धन सें उत्पन्न होने वाले अहंकार, आलस्य, दुराचार जैसे दुर्गुण बढ़ने लगे तो उनके भीतर वाली शक्ति खोखली होने लगी। 

एक दिन इन्द्र की बलि से भेंट हुई तो सबने देखा कि बलि के शरीर से एक प्रचण्ड तेज निकलकर इन्द्र के शरीर में चला गया है और बलि श्री विहीन हो गये। 

उस तेज से पूछा गया कि आप कौन हैं? और क्यों बलि के शरीर से निकलकर इन्द्र की देह में गये? तो तेज ने उत्तर दिया कि मैं सदाचरण है। मैं जहां भी रहता हूँ वहीं सब विभूतियाँ रहती हैं। बलि ने तब तक मुझे धारण किया जब तक उसका वैभव बढ़ता रहा था। जब इसने मेरी उपेक्षा कर दी तो मैं सौभाग्य को साथ लेकर, सदाचरण में तत्पर इन्द्र के यहाँ चला आया हूँ। 

बलि का सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया और इन्द्र का चमकने लगा, उसमें सदाचरण रूपी तेज की समाप्ति ही प्रधान कारण थी। 

ऐसे भी व्यक्ति होतै हैं जो अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाकर अपने को महामानव स्तर तक पहुँचा देते है, जन सम्मान पाते हैं। ऐसे निष्ठावानों से भारतीय- संस्कृति सदा से गौरवान्वित होती रही है। 

नैष्ठिकों की परिपाटी

मानवता के ऋण हेतु तथा जनसाधारण को दीन स्थिति से उबर कर आने हेतु प्रेरणा फूँकने में आद्य शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, स्वामी विवेकानन्द, कुमारजीव आदि का नाम हमेशा इतिहास मैं लिखा जायेगा। आद्य शंकराचार्य अपनी अल्पायु में भ्रमण करते रहे व चारों धाम की स्थापना कर उन्होंने धर्म संस्कृति की अक्षुण्ण सेवा की। समर्थ गुरु रामदास ने स्थान- स्थान पर व्यायामशालाएँ, हनुमान मन्दिर बनाए और अपना संदेश युगानुरूप परिस्थितियों के अनुसार जन- जन तक पहुँचाया। आक्रामक आतताइयों के विरुद्ध छत्रपति शिवाजी को तैयार कर उन्होंने धर्ममंच से अनीति के विरुद्ध मोर्चा लडा। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु का सन्देश भारत से लेकर विश्व भर में पहुँचाया व वेदान्त, मानव- धर्म, भारतीय- संस्कृति का विस्तार उसी प्रकार अल्पावधि में ही कर दिखाया जिस प्रकार कुमारजीव ने बौद्ध मान्यताओं को विश्व के कोने- कोने में फैला दिया था। 

लेकिन इन दिनों परिस्थितियाँ बड़ी विषम हैं। समृद्धि की दृष्टि से भले ही आज का मानव सौभाग्यशाली स्वयं को समझता हो, स्वास्थ्य, सन्तुलन, स्नेह- सहकार जैसे जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में श्मशान जैसी वीभत्स भयंकरता छाई हुई है। जो क्षमताएँ सृजन और सहयोग में नियोजित होकर संसार में स्वर्गीय वातावरण बना सकती थीं वे ही एक दूसरे को काटने में लगी है। यह दुरुपयोग कैसे बन पडा? सृजन भ्वंस में कैसे बदल गया इस विडम्बना का एक ही कारण है- आन्तरिक वरिष्ठता का अवमूल्यन। इसी की प्रतिक्रिया व्यक्ति और समाज के सम्मुख खड़ी अनेकानेक विपत्ति विभीषिकाओं के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है। यदि जड़ें मजबूत होती तो यह स्थिति न आती। 

जडे़ कमजोर थी    

एक रात भयंकर तूफान आया। सैकड़ों विशालकाय वृक्ष धराशायी हो गये। अनेक किशोर वृक्ष भी थे जो बच तो गये थे, पर बुरी तरह सकपकाये खड़े थे। 

प्रात:काल आया, सूर्य ने अपनी रश्मियाँ धरती पर फेंकी। डरे हुए पौधों को देखकर किरणों ने पूछा- 'बालको। तुम इतना सहमे हुए क्यों हो। ' किशोर पौधों ने कहा- ' देवियो! ऊपर देखो हमारे कितने पुरखे धराशायी पड़े हैं। रात के तूफान ने उन्हें उखाड़ फेंका। न जाने कब यही स्थिति हमारी भी आ बने। '

किरणें हँसी और बच्चों से बोली- तात! आओ इधर देखो- यह वृक्ष तूफान के कारण नहीं जड़ें खोखली हो जाने के कारण गिरे, तुम अपनी जड़ें मजबूत रखना, तूफान तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ नहीं पायेंगे। 

मनुष्यों का दीन- हीन होना विचित्र बात है। जब बिना साधनों के जंगल के जानवर स्वस्थ, निरोग और आमोद- प्रमोद का जीवन जी लेते हैं तो मनुष्य दु:खों का रोना क्यों रोये। स्पष्ट है उसकी तृष्णा, वासनायें और अहंता ही उसे श्मशान के भूत की तरह सताती रहती हैं। यदि व्यक्ति अपने दायरे को संकीर्ण न बनाता, इन तृष्णाओं के चंगुल में न फँसता तो दीन- दु:खी जीवन जीने की नौबत ही क्यों आती?

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