प्रज्ञा पुराण भाग-1

लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः-3

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सात घडा घन

मधुवर्त नामक वैश्य महाराज समुद्रदत्त के यहाँ नौकरी करता था। जितना मिलता था उसमें घर का अच्छा गुजर- बसर चलता था, बालक बच्चे सभी सुखी थे। एक दिन मधुवर्त जंगल सें गुजर रहा था तो एक पीपल से आवाज आई- 'सात घड़ा धन लोगे' मधुवर्त लालच में आ गया। उसने हाँ कर दी। अदृश्य आवाज ने कहा- 'जाओ तुम्हारे घर पहुँचा दिये जायेंगे। ' मधुवर्त घर लौटा तो पत्नी ने बताया कि सातों घडे़ आ गये हैं। उसने सातों देखे। छ: तो भरे थे। एक आधा खाली था। मधुवर्त को उसे पूरा करने की चिन्ता सताने लगीं। अब उसने अपना, बच्चों का सभी का पेट काटना शुरू कर दिया। फलत: स्वयं हो चला दुर्बल, बच्चे करने लगे उत्पात् पत्नी कभी उसकी तरफ कभी बच्चों की तरफ। घर में हाहाकार मच गया। एक दिन इसी शोक में डूबे मधुवर्त को देखकर महाराज समुद्रदत्त ने पूछा- ' कहीं तुम्हें यक्ष के सात घड़े तो नहीं मिल गये। ' मधुवर्त ने कहा- ' हाँ महाराज। ' वे हँसकर बोले- 'तुम्हारे दु:खों का वही कारण है सुख चाहो तो उन्हें लौटा दो। ' गलती समझ में आई तो मधुवर्त ने घडे लौटाये और जितना भी कुछ अपने पास था उसी में गुजारा करने लगे। 

जो लोग भले होते हैं, वे तो किसी प्रकार उबर आते है पर कुटिल चाल चलने वाले अन्तत : स्वयं गिरते हैं। ऐसे गीदड़ वेशधारी अनेक व्यक्ति समाज में बैठे हैं। 

गढ्डे में बकरी और गीदड़

एक गीदड़ एक दिन गढ्डे में गिर गया। बहुत उछल- कूद की किन्तु बाहर न निकल सका। अन्त में हताश होकर सोचने लगा कि अब इसी गढ्डे में मेरा अन्त हो जाना है। तभी एक बकरी को मिमियाते सुना। तत्काल ही गीदड़ की कुटिलता जाग उठी। वह बकरी से बोला- ' बहिन बकरी। यहाँ अन्दर खूब हरी- हरी घास और मीठा- मीठा पानी है। आओ जी भरकर खाओ और पानी पियो। " बकरी उसकी लुभावुनी बातों में आकर, गढ्डे में कूद गयी। 

चालाक गीदड़ बकरी की पीठ पर चढ़कर गढ्डे से बाहर कूद गया और हँसकर बोला- "तुम बड़ी बेवकूफ हो, मेरी जगह खुंद मरने गट्टे में आ गई हो। " बकरी बड़े सरल भाव से बोली- "गीदड़ भाई, मेरी उपयोगितावश कोई न कोई मुझे निकाल ही लेगा किन्तु तुम अपने ही क्षणों के कारण विनाश के बीज वो लोगे। 

थोड़ी देर में मालिक ढूँढ़ता हुआ बकरी को निकाल ले गया। रास्ते में जा रही बकरी ने देखा वही गीदड़ किसी के तीर से घायल हुआ झाड़ी में करता है। 

यदा मनुष्यो! नात्मानमात्मनोद्धर्तुमर्हति। 
कृतावतारोऽलं तस्य स्थितो: सशोधयाम्यहम्॥२७॥
क्रमेऽस्मिन्सुविधायुक्ता: साधनै: सहिता:नरा:। 
विभीषिकायां नाशस्याऽनास्थासंकटपाशिता:॥२८॥
तन्निवारणहेतोश्च कालेऽस्मिंश्चलदलोपमें। 
प्रज्ञावताररुपेऽवतराम्यत्र तु पूर्ववत्॥२९॥
त्रयोविंशतिवारं यद्भ्रष्टं सन्तुलनं भुवि। 
संस्थापितं मयैवैतद् भ्रष्टं सन्तुलयाम्यहम्॥३०॥

टीका- जब मनुष्य अपने बल- बूते दल- दल से उबर नहीं पाते तो मुझे अवतार लेकर परिस्थितियाँ सुधारनी पड़ती हैं? इस बार सुविधा- साधन रहते हुए भी मनुष्यों को जिस विनाश विभीषका में फँसना पड़ रहा हैं उसका मूल कारण आस्था- संकट ही हैं। उसके निवारण हेतु मुझे इस अस्थिर, समय में इस बार प्रज्ञावतार के रूप में अवतरित होना है। पिछले तेईस बार की तरह इस बार भी बिगड़े सन्तुलन को फिर संभालना है ॥२७- ३०॥

व्याख्या- मानवी पुरुषार्थ की भी अपनी महिमा- महत्ता है। लेकिन जब मनुष्य दुर्बुद्धि जन्य विभीषिकाओं के सामने स्वयं को विवश- असहाय अनुभव करता है, तब परिस्थितियाँ अवतार प्रकटीकरण की बनती हैं। भगवान ने हर बार मानवता के परित्राण हेतु असंतुलन कि स्थिति में अवतार लिया है और सृष्टि की डूबती नैया को पार लगाया है। 

सृष्टा अपनी अद्भुत कलाकृति विश्व- वसुधा को, मानवी सत्ता को, सुरभ्य वाटिका को विनाश के गर्त में गिरने से पूर्व ही बचाता और अपनी सक्रियता का परिचय देता है तथा परिस्थितियों को उलझने का चमत्कार उत्पन्न करता है। यही अवतार है। संकट के सामान्य स्तर से तो मनुष्य ही निपट लेते है, पर जब आसामान्य स्तर की विपन्नता उत्पन्न हो जाती है तो सृष्टा को स्वयं ही अपने आयुध सम्भालने पड़ते है। उत्थान के साधन जुटाना भी कठिन है पर पतन के गर्त में द्रुतगति से गिरने वाले लोक मानस को उलट देना अति कठिन है। इस कठिन कार्य को सृष्टा ने समय- समय पर स्वयं ही सम्पन्न किया है। आज की विषम वेला भी अवतरण की परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी लीला संदोह प्रस्तुत करते कोई भी प्रज्ञावान प्रत्यक्ष देख सकता है। 

अवतार का लीला- संदोह

अवतार प्रक्रिया आदिकाल से चली आ रही है और आदिकाल से अब तक मनुष्य जाति ने अनेक प्रकार के उतार- चढाव देखे है। स्वाभाविक ही भिन्न- भिन्न कालों में समस्यायें और असन्तुलन भिन्न- भिन्न प्रकार के रहे है। 

जिस प्रकार की समस्यायें उत्पन्न हुई हैं, तब उसी का समाधान करने के लिए एक दिव्य चेतना, जिसे अवतार कहा गया है प्रादुर्भूत हुई है और उसी क्रम से अवतार, युग प्रवाह को उलटने के लिए अपनी लीलाएँ रचते रहे है। सृष्टि के आरम्भ में जल ही जल था। प्राणी जगत में जलचरों की ही प्रधानता थी, तब उस असंतुलन को मत्स्यावतार ने साधा। जब जल और थल पर प्राणियों की हलचलें बढी तो उनके अनुरूप क्षमता सम्पन्न कच्छप काया ने सन्तुलन बनाया। उन्हीं के नेतृत्व में समुद्र- मन्थन के रूप में प्रकृति दोहन का पुरुषार्थ सम्पन्न हुआ। हिरण्याक्ष समुद्र में छिपी सम्पदा को ढूँढ़कर उसे अपने ही एकाधिकार में कर लिया तो भगवान् का वाराह रूप ही उसका दमन करने में समर्थ- सक्षम हो सका। जब मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक कमाने में समर्थ हो गया तो संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित संचय की- प्रवृत्ति भी बढी। संचय और उपभोग की पशु प्रवृत्ति को उदारता में परिणत करने के लिए भगवान् वामन के छोटे बौने और पिछडे़ लोग उठ खड़े हुए और बलि जैसे सम्पन्न व्यक्तियों को स्वेच्छापूर्वक उदारता अपनाने के लिए सहमत कर लिया गया। 

उच्छृंखलता जब उद्धत और उद्दण्ड हो जाती है तब शालीनता से उसका शमन नहीं हो सकता। प्रत्याक्रमण द्वारा ही उसका दमन करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर नरसिंहों की आवश्यकता पड़ती है और उन्हीं का पराक्रम अग्रणी रहता है। उन आदिम परिस्थितियों में भगवान् ने नर और व्याघ्र का समन्वय आवश्यक समझा तथा नृसिंह अवतार के रूप में दुष्टता के दमन एवं सज्जनता के संरक्षण का आश्वासन पूरा किया'। 

इसके बाद परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध के अवतार आते हैं। इन सभी का अवतरण बढ़ते हुए अनाचरण के प्रतिरोध और सदाचरण के समर्थन- पोषण के उद्देश्य के लिए हुआ। परशुराम ने शस्त्र बल से सामन्तवादी निरंकुश आधिपत्य को समाप्त किया। राम ने मर्यादाओं के पालन पर जोर दिया तो कृष्ण ने अपने समय की धूर्तता और छल- छद्म से घिरी हुई परिस्थितियों का दमन 'विषस्य विषमौषधम्' की नीति अपना कर किया। कृष्ण चरित्र में कूटनीतिक दूरदर्शिता की इसलिए प्रधानता है कि इस समय की परिस्थितियों में सीधी उँगली से घी नहीं निकल पा रहा था। इसलिए काटे से काँटा निकालने का उपाय अपनाकर अवतार प्रयोजन को पूरा करना पड़ा। 

बुद्ध के बुद्धवाद का स्वरूप 'विचार क्रान्ति' था। पूर्वार्द्ध में धर्म चक्र का प्रवर्तन हुआ था। धर्म धारणा का सम्मान करते हुए लाखों व्यक्तियों ने उसमें भाव भरा योगदान दिया था। आनन्द जैसे मनीषी, हर्षवर्धन जैसे श्रीमन्त, आम्ब्रपाली जैसी कलाकार, अंगुलिमाल जैसे प्रतिभाशाली बड़ी संख्या में उस अभियान के अंग बने थे। इससे पिछले अवतारों का कार्यक्षेत्र सीमित रहा था, क्योंकि समस्यायें छोटी और स्थानीय थीं। बुद्ध- काल तक समाज का विस्तार बडे क्षेत्र में हो गया था। इसलिए बुद्ध का अभियान भी भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं रहा और उन दिनों जितना व्यापक प्रयास सम्भव था, उतना अपनाया गया। धर्मचक्र प्रवर्तन भारत से एशिया भर में फैला और उससे भी आगे बढ़कर उसने अन्य महाद्वीपों तक अपना आलोक बाँटा। 

प्रज्ञावतार- बुद्धावतार का उत्तरार्ध है। बुद्धि प्रधान युग की समस्यायें भी चिन्तन प्रधान होती हैं। मान्यतायें, विचारणायें, इच्छायें ही प्रेरणा केन्द्र होती हैं और उन्हीं के प्रवाह में सारा समाज बहता है। ऐसे समय में अवतार का स्वरूप भी तदनुरूप ही हो सकता है। लोकमानस को अवांछनीयता, अनैतिकता एवं मूढ़मान्यता से विरत करने वाली ही अपने समय की समस्याओं का समाधान कर सकती है। 

आज आस्था संकट के कारण मनुष्य सुख- समृद्धि से सम्पन्न होने के बावजूद जिस जंजाल में स्वयं फँसा हुआ है एवं अन्यों के लिए विपत्ति का कारण बना हुआ है, उसका निवारण आस्था, प्रज्ञारूपी अस्त्र द्वारा ही सम्भव है। 

परस्पर सम्वाद में वर्तमान स्थिति का विश्लेषण कर भगवान् इसीलिए प्रज्ञावतार के प्रकटीकरण की परिस्थितियाँ देवर्षि को समझौते हैं और पिछले अव्रतारों का स्मरण दिलाते हुए इस बार भी विभाषिका निवारण हेतु अपनी शक्तियों को सन्तुलन स्थापना के लिए आवश्यक प्रतिपादित करते हैं। 

निराकारत्वहेतोश्च प्रेरणां कर्तुमीश्वर:। 
शरीरिण्श्च गृह्णामि गतिसञ्चालने तत:॥३१॥ 
अपेक्ष्यन्ते वरिष्ठाश्च आत्मान: कार्यसिद्धये। 
अग्रदूतानिमान् कर्तुं पुष्याम्यन्विष्य सर्वथा॥३२॥ 
ततो निजप्रभावेण वर्चस्वेन च ते समम्। 
समुदायं दिशां नेतुं भिन्नां कुर्युर्वृतिं पराम्॥३३॥

टीका- निराकार होने के कारण मैं प्रेरणा ही भर सकता हूँ। गतिविधियों के लिए शरीरधारियों का आश्रय लेना पड़ता है, इसके लिए वरिष्ठ आत्माएँ चाहिए। इन दिनों अग्रदूत बनाने के लिए उन्हीं को खोजना, उभारना और सामर्थ्यवान् बनाना है, जिससे कि अपने प्रभाव, वर्चस्व से वें समूचे समुदाय की दिशा बदल: सके, समूचे वातावरण में परिवर्तन प्रस्तुत कर सकें॥३१- ३३॥

व्याख्या- अवतार प्रकटीकरण का हमेशा यही स्वरूप रहा है। भगवान् प्रेरणा देते हैं एवं उस आदर्शवादी प्रेरणा को शरीरधारी क्रिया में परिणत करते हैं। ईश्वरीयसत्ता जब भी अवतरित होती है, उसके साथ लोक- कल्याण की भावनाओं से सम्पन्न देवात्माएँ भी धरती पर अवतरित होती हैं, वरिष्ठ अग्रगामी- अवतारों के पार्षदगपा ही इस प्रेरणा संचार को ग्रहण करते हैं। 

चेतना का अवतरण अग्रदूतों में

दसों दिशाओं में रावण का आतंक फैला था। कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि उसका विरोध- प्रतिरोध किया जा सकता है। अनीति जब चरम सीमा पर पहुँची, राम जन्म लेने की तैयारी करने लगे। तब भगवान् की सहायता के लिए देवताओं को एकत्र कर ब्रह्माजी ने भिन्न- रुपों में धरतीपर जन्म लेकर अवतार प्रयोजन की पूर्ति हेतु व्यवस्था की। रीछ, वानर, गिद्ध इन जागृत वरिष्ठ आत्माओं के रूप में उभरे और अपने शौर्य- साहस का परिचय देते हुए धर्म- युद्ध में सहायक हुए। 

जब भी आतंक को चीरते हुए अप्रत्याशित रूप से सत्साहस उभरे, समझना चाहिए कि दैवी चेतना काम कर रही है। चेतना प्रवाह का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है-  आदर्शवाद को अपनाना और दुस्साहस का परिचय देते हुए घाटे का सौदा स्वीकार करना। 

कृष्ण के साथ ग्वाल- बाल आये और कंस की अनीति के विरुद्ध संघशक्ति के स्वरूप बने। आगे चलकर जब महाभारत रचा गया तो अनीति के प्रतीक, साधन सम्पन्न दुर्योधन से दुर्धर्ष संघर्ष करने के लिए पाण्डव सहित न्याय पक्ष के असंख्यों समर्थक कृष्ण के साथ लड़े। अन्तत: न्याय की जीत हुई और अनीति-  अन्याय हारे। अवतार के अतिरिक्त किसी के द्वारा ऐसा नहीं होता जो लोग आदर्शो के लिए घाटा सहते हुए लड़ मरने का साहस बरत सकें। ये वे ही निराकार प्रेरणाएँ हैं जिन्होंने समय- समय पर आदर्शवादिता की, धर्म की प्रतिष्ठापना की है। 

जो लोग भगवान् की प्रेरणाएँ अपने में धारण करते है, वे अर्जुन की तरह है, जो उन्हें सारथी रूप में स्वीकारते है, लड़ते स्वयं ही हैं। जो उन प्रेरणाओं को धारण न करे, वह दुर्योधन की तरह हैं जो कहता था- "जानामि धर्म न च मे प्रवृत्ति- मैं धर्म को जानता हूँ पर उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाता"- इसलिए वह महाभारत में हारा। जीता तो अर्जुन ही। 

अकाल से जूझने वाली कन्या सुप्रिया

प्रश्न सामर्थ्य और क्षमता का नहीं, उच्चस्तरीय भावनाओं का है। भगवान् बुद्ध के समय श्रावस्ती में भयंकर अकाल पड़ा। साधन- सम्पन्न लोग न केवल घरों में छिप गये अपितु अपने पास उपलब्ध वाली अन्न, वस्त्र भी छिपा बैठे। ऐसे समय बुद्ध के समक्ष सुप्रिया नाम की एक कुलीन कन्या ने राज्य के भरण- पोषण की प्रतिज्ञा की। वह घर- घर जाकर अन्न- वस्त्र माँगने लगी। उसकी निष्ठा से जन-  भावनाएँ भड़क उठीं और देखते- देखते अकाल से लड़ने वाली शक्ति सामर्थ्य जुटकर खड़ी हो गयी। 

कभी भी परिस्थितियाँ कितनी ही आँधी- सीधी क्यों न हों, यदि प्रारम्भ में कुछ भी निष्ठावान् देवदूत खड़े हो गये तो न केवल लक्ष्य पूर्ण हुआ, अपितु वह इतिहास भी अमर हो गया। 

गुरू गोविन्दसिंह के पाँच प्यारे

गुरु गोविन्दसिंह ने एक ऐसा ही नरमेध यज्ञ किया। उक्त अवसर पर उन्होंने घोषणा की- "भाइयो। देश की स्वाधीनता पाने और अन्याय से मुक्ति के लिए चण्डी बलिदान चाहती है, तुम से जो अपना सिर दे सकता हो, वह आगे आये। गुरु गोविन्दसिंह की मांग का सामना करने का किसी में साहस नहीं हो रहा था, तभी दयाराम नामक एक युवक आगे बढ़ा। " गुरु उसे एक तरफ ले गये और तलवार चला दी, रक्त की धार बह निकली, लोग भयभीत हो उठे। तभी गुरु गोविन्दसिंह फिर सामने आये और पुकार लगाई अब कौन सिर कटाने आता है। एक- एक कर क्रमश: धर्मदास, मोहकमचन्द, हिम्मतराय तथा साहबचन्द आये और उनके शीश भी काट लिए गये। बस अब मैदान साफ था कोई आगे बढ़ने को तैयार न हुआ। 

गुरु गोविन्दसिंह अब उन पाँचों को बाहर निकाल लाये। विस्मित लोगों को बताया यह तो निष्ठा और सामर्थ्य की परीक्षा थी, वस्तुत: सिर तो बकरों के काटे गये। तभी भीड़ में से हमारा बलिदान लो- हमारा भी बलिदान लो की आवाज आने लगी। गुरु ने हँसकर कहा- "यह पाँच ही तुम पाँच हजार के बराबर है। जिनमें निष्ठा और संघर्ष की शक्ति न हो उन हजारों से निष्ठावान् पाँच अच्छे?'' इतिहास जानता है इन्हीं पाँच प्यारो ने सिख संगठन को मजबूत बनाया। 

जो अवतार प्रकटीकरण के समय सोये नहीं रहते, परिस्थिति और प्रयोजन को पहचान कर इनके काम में लग जाते है, वे ही श्रेय- सौभाग्य के अधिकारी होते हैं, अग्रगामी कहलाते है। 

जागते को दसों सिद्धियाँ

एक सन्त दस शिष्यों समेत सघन बन में रहते थे। एक रात्रि को उनने एक विशेष साधना कराई।  शिष्यों पंक्तिबद्ध होकर ध्यान करने के लिए बिठा दिया। रात्रि के तीसरे प्रहर गुरु ने धीमे में आवाज दी- 'राम!' राम उठा, गुरु ने उसे चुपके से दुर्लभ सिद्धि प्रदान की। अब दूसरें की बारी आई। पुकार श्याम। पर श्याम तो सो रहा था। इस बार भी राम ही आया और दूसरी सिद्धि भी लेकर चला गया। 

शेष सभी शिष्य सो रहे थे। गुरु को उस दिन दस सिद्धियाँ देनी थीं। सोते को जगाने का निषेध था। दसों बार राम ही आया और एक- एक करके दसों सिद्धियाँ प्राप्त करके कृत- कृत्य हो गया। सोने वाले दूसरे दिन जागे और अपनी भूल पर पूछताने लगे। 

निराकार सत्ता की प्रेरणा इसी प्रकार हम सबको टटोलती है। जो जागृत होते हैं, वे ही उस प्रेरणा को समझ पाते हैं, शक्ति पाकर सामर्थ्यवान् बनते तथा सारे वातावरण को बदल कर रख देते हैं। 

संयुक्तश्च प्रयासोऽयं कर्त्तव्यो नारद शृणु। 
प्रेरयामि तु सम्पर्कं कुरु साधय पोषय॥३४॥
वरिष्ठात्मान एवं च त्यक्त्वा सर्वा: प्रसुप्तिका:। 
युगमानवकार्यं च साधयिष्यन्ति पोषिता:॥३५॥
अनेनागमनं ते तु ममामन्त्रणमेव च। 
उभयपक्षगतं सिद्धं प्रयोजनमिदं तत:॥३६॥ 

टीका- हे नारद! इसके लिए हम लोग संयुक्त प्रयास करें। हम प्रेरणा भरें, आप सम्पर्क साधें और उभारे। इस प्रकार वरिष्ठ आत्माओं की प्रसुप्ति जागेगी और वे युग मानवों की भूमिका निभा सकने में समर्थ हो सकेंगे। इससे आपके आगमन और हमारे आमन्त्रण का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा होगा ॥३४- ३६॥

व्याख्या- संयुक्त प्रयास ही हमेशा फलदायी होते हैं। प्रेरणा निराकार सत्ता की तथा किसी अन्य द्वारा उसका सुनियोजित क्रियान्वयन- दोनों मिलकर प्रयोजन को समग्र- सफल बनाते हैं। 

रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानन्द, समर्थ गुरु रामदास तथा शिवाजी, श्रीकृष्ण और अर्जुन, राम और हजुमान, स्वामी विरजानन्दजी तथा दयानन्द ऐसे संयुक्त प्रयासों के उदाहरण हैं। प्रेरणा हमेशा इसी रूप में आती है और पार्षद उसे क्रियानित करते हैं। 

भगवान् की चेतना और जाग्रत आत्माओं का सहयोग इस उदाहरण से समझा जा सकता है जिसमें कम शक्ति- सामर्थ्य होते हुए भी दो व्यक्ति मिलकर परस्पर पूरक बन गये। 

अंधे- पंगे का जोडा

एक गाँव में आग लग गई। सभी आदमी तो सुरक्षित भाग निकले पर दो वृद्ध ऐसे थे जो भाग नहीं सकते थे- एक अन्धा, एक पंगा। दोनों ने एकता स्थापित की, अंधे ने पंगे को कन्धे पर बैठा लिया, पंगा रास्ता बताने लगा और अन्धा तेज दौड़ने लगा। दोनों सकुशल बाहर आ गये। सहयोग का अर्थ ही है- अनेक तरह की सामथ्यों से एक परिपूर्ण शक्ति का उद्भव। 

भवन जब बनाया जाता है तो योजना तथा नक्शा वास्तुकला विज्ञ व यांत्रिक बनाते हैं, जबकि श्रमिक मिलकर श्रम करते हैं। दोनों के संयुक्त प्रयास से ही अट्टालिकाएँ बनकर तैयार हो जाती हैं। विशाल बाँध की एक योजना बनती है और उसे मूर्तरूप देने के लिए विशेषज्ञ आते हैं। भले ही अन्तिम कल्पना पूरी हो जाने पर श्रमिक गण मिलकर उसे पूरा करें- महत्व दोनों का अपनी अपनी जगह है। 

भगवान् की प्रेरणा तथा देवर्षि के जागत आत्माओं को जगाने- उभारने का पुरुषार्थ- दोनों का समन्वय ही युगान्तरीय कार्य सम्पादित कर सकने में समर्थ हो सकता है, इस तथ्य को यहाँ स्पष्ट करते हुए वरिष्ठ आत्माओं की असामान्यता व जागृति की आवश्यकता बतायी गयी है। 

जागृत आत्माएँ- हनुमान, शिवाजी, अर्जुन- जब भगवान राम ने हनुमान को सीता को ढूँढ़ लाने का काम सौपा तब उन्हें अपने ऊपर आत्मविश्वास नहीं था, न ही अपनी सामर्थ्य की जानकारी थी। जाम्बवन्त के प्रेरक वचन सुनते ही उन्हें अपनी वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ और पवनपुत्र उड़ चले लंका की ओर। एक साधारण वानर अपनी सामर्थ्य को पहचान कर असामान्य पार्षद बन गया। 

समर्थ गुरु रामदास ने को आततायी आक्रमणकारियों से संघर्ष हेतु प्रेरणा दी, योजनाबद्ध शिक्षण दिया और उनके अन्दर की सामर्थ्य को जगाकर उन्हें छत्रपति बना दिया। 

महाभारत की दोनों सेनाओं के बीच खड़ा अर्जुन का रथ देखने में शस्त्रसज्जा से भरा- पूरा व हर दृष्टि से समर्थ-  सशक्त प्रतीत होता था, पर उसके भीतर असमंजस का अदृश्य दिनभ्रम इतना अधिक संव्याप्त था कि सूत्र संचालक का माथा ही ठनकने लगा। सारथी बने भगवान श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी, महापराक्रमी अर्जुन को अवसादग्रस्त देखकर जो संदेश दिया उसका सार तत्व यही था- "पास की नहीं, दूर की सोच। अब तो जाग! लाभ को नहीं, श्रेय को चुन। " भगवान भक्त का भी असमंजस हरते हैं, उसे प्रसुप्ति से जगाते हैं व दिव्य आलोक देते हैं। वही अर्जुन को भी मिला। 

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