पिप्पलाद उवाच
महाभाग! न ते प्रश्न: केवलं दीपयत्यहो।
अध्यात्मतत्वज्ञानस्य सारतथ्यात्युतापि तु ॥२१॥
लोककल्याणकृच्चापि, श्रीष्यज्येनं तु ये जना:।
सत्यं ज्ञास्यन्ति यास्यन्ति श्रेयो मार्गेऽविपत्तया ॥२२॥
भवन्त: सर्व एतस्या: समस्यायास्तु कारणम्।
समाधानं च शृण्वन्तु सावधानेन चेतसा ॥२३॥
टीका- हे महाभाग! आपका प्रश्न न केवल अध्यात्म तत्वज्ञान के सार तथ्यों पर प्रकाश डालता है, वरन् लोक कल्याणकारी भी है। जो इस शंका समाधान को सुनेंगे, वे सभी सत्य को समझेंगे, विपत्ति से बचेंगे और श्रेय- पथ पर चल सकने में समर्थ होंगे। आप सब लोग इस समस्या का कारण और समाधान ध्यानपूर्वक सुनें ॥२१- २३॥
व्याख्या- महाप्राज्ञ पिप्पलाद प्रश्न की गम्भीरता को अनुभव करते हुए कहते हैं कि ऐसी जिज्ञासा का समाधान हर सुनने वाले को सत्य का बोध कराता है। वस्तुत: सुनते तो अनेक हैं पर वे अन्दर तक उसमें प्रवेश कर उसे जीवन में कहाँ उतार पाते हैं। सुनने वाले जिज्ञासु साधक वृत्ति के हों, जन कल्याण ही जिनका उद्देश्य हो, वे कथा श्रवण कर उसे सार्थक कर देते हैं।
चार बार भागवत सुनी
वीतराग शुकदेव जी के मुँह से राजा परीक्षित ने भागवत पुराण की कथा सुनकर मुक्ति प्राप्त की थी। यह बात एक धनवान व्यक्ति ने सुनी तो उसके मन में भागवत पर बड़ी श्रद्धा हुई और वह
भी मुक्ति के लिए किसी ब्राह्मण से कथा सुनने के लिए आतुर हो उठा।
खोज की तो भागवत के एक बहुत बड़े विख्यात पण्डितजी मिले। कथा- आयोजन का प्रस्ताव किया तो पण्डितजी बोले- यह कलियुग है। इसमें धर्मकृत्यों का पुण्य चार गुना कम हो जाता है, इसलिए चार बार कथा सुननी पड़ेगी। चार बार कथा- आयोजन की सलाह देने का कारण था पर्याप्त दान- दक्षिणा। पण्डित जी को फीस देकर धनी व्यक्ति ने चार- भागवत सप्ताह सुने परन्तु लाभ कुछ नहीं हुआ। धनी उच्चकोटि के सन्त से मिला। भागवत सुनने का लाभ परीक्षित कैसे ले सके और मुझे क्यों नहीं मिला? उन्होंने इसका कारण बताया कि परीक्षित मृत्यु को निश्चित जानकर, संसार से पूर्णतया विरक्त होकर कथा सुन रहे थे और मुनि शुकदेव सर्वथा निर्लोभ रहकर कथा सुना रहे थे।
जिस किसी को भी ज्ञान, उपदेश अथवा सत्परामर्श के रूप में सुनने को मिला है, वही श्रेय पर चल सका है।
वाल्मीकी का बोध
रास्ता रोके खड़े डाकू वाल्मीकि से सप्तऋषियों ने इतना ही तो कहा था कि'क्या ये स्वजन- सम्बन्धी तुम्हारे पापों में भी उतने ही भागीदार होंगे, जितना सुख वैभव में है?' पत्नी व बच्चों तक ने जब अपना उत्तर नकारात्मक दिया तो उसे अपने दिशा का भान हो गया। आत्म प्रगति का मन्त्र ऋषिगणों से पाकर उसने अपनी जीवन- धारा ही मोड़ दी और वह सन्त वाल्मीकि बन गया। नरक को उन्मुख हो रहा डाकू- अपनी विवेक बुद्धि को सत्परामर्श के सहारे प्रयुक्त कर सही दृष्टि पा गया और आदि कवि के रुप में इतिहास में अमर हो गया।
कथासुनी- डाकू बदला
एक सन्त आर्त्त भाव से प्रभु की शरण में जाने के सत्परिणाम एवं दुष्कर्मो की पुरिणति- प्रतिफल की चर्चा कर रहे थे। श्रोताओं में एक डाकू भी बैठा था जिसने कथा के तुरन्त बाद पण्डितजी तथा आये हुए वैभव सम्पन्न श्रोताओं को लूटने की योजना बनाई थी। अनायास ही उसने अजामिल, गणिका, तुलसीदास, बिल्व मंगल का जीवन बदलने व तरने की चर्चा सुनी तो वह अन्दर तक हिल गया। जिन मार्मिक शब्दों में ये कथाएँ सुनाई गयी थीं, उसने उसे अपने दुष्कर्मों पर चिन्तन व पश्चात्ताप करने को प्रेरित किया। कथा समाप्ति के तुरन्त बाद वह पण्डितजी के चरणों में गिर गया, अपने विगत पापों की जानकारी करायी व आगे के लिए जीवन सुधारने की दिशा पूछी।
उन निर्देशों ने उसका जीवन बदल दिया। तदुपरान्त वह प्रभु परायण जीवन बिताने लगा व जो पापों की खाई उसने खोदी थी, सेवा- परमार्थ द्वारा उसे पाटने लगा।
महात्मा गाँधी और हरिश्चन्द्र नाटक
सत्यवादी हरिश्चन्द्र का नाटक देखा और मोहनदास के अन्त: तक सत्य प्रतिष्ठापित हो गया। मनोरंजन के लिए तो कईयों ने उसे देखा होगा व अभिनय करने वालों ने भी उसे कई बार दोहराया होगा। पर ऐसे प्रसंग जब अन्दर तक प्रवेश करते हैं तभी व्यक्ति को श्रेय पथ की ओर अग्रगामी बनाते हैं। मोहनदास ने सत्य का आश्रय लेकर ही महात्मा गाँधी का पद पाया, यह सर्वविदित हैं।
भगवान्निर्ममे नृ न्यछक्तिसौविध्यसंयुतान्।
सुविधां तत्र स्वातन्त्र्याच्चयनस्य च संददौ ॥२४॥
दिशां धारां जीवनं च प्राप्तुं गतिविधिं तथा।
स्वतन्त्रमकरोदन्ये प्राणिन: प्रकृतिं श्रिता: ॥२५॥
टीका- भगवान् ने मनुष्य को जहाँ शक्ति और सुविधा से भरपूर बनाया वहाँ उसे एक विशेष सुविधा स्वतन्त्र चयन करने की भी दी है। अपनी दिशा धारा, जीवन क्रम और गति- विधि अपनी इच्छानुसार अपनाने की छूट दी। अन्य सभी प्राणी तो प्रकृति का अनुसरण भर कर पाते हैं॥२४- २५॥
व्याख्या- मनुष्य शान्ति- साधन सम्पन्न है, इतना कि जितने सृष्टि के अन्य प्राणी नहीं। शरीर बल तो उनके पास भी है पर बुद्धि कौशल तथा अपना मार्ग स्वयं चुनने की छूट ने मनुष्य को विशिष्ट विभूति सम्पन्न जीव बना दिया है। इस स्वतन्त्र चयन में भगवान भी कभी हस्तक्षेप नहीं करते।
मानव देवों से श्रेष्ठ या पशुओं से हीन?
एक सभा में वाद- विवाद चल रहा था। एक पक्ष ने कहा- 'मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है क्योंकि वह सभी जीवधारियों को वश में कर लेता है। ' दूसरा पक्ष कहता था' अन्य प्राणी श्रेष्ठ हैं, क्योकि वे जिन्दगी भर बिना कुछ माँगे मनुष्य की सेवा करते हैं। ' निर्णय नहीं हो पा रहा था। विवाद बढ़ता ही गया। एक ज्ञानी उधर से जा रहे थे। सबने उनकी सम्मति माँगी। ज्ञानी ने दोनों पक्षों की बात सुनी और बोले- भाई, मानवी स्वतन्त्रता की भी अपनी सीमा है। हर कोई जीवन जीने का मर्म नहीं जानता। मनुष्य जब तक सत्कर्म करता है तब तक ही श्रेष्ठ है और जब वह दुष्कर्म करने लगता है तो वह नीचे गिर जाता है। जब भी ऐसे चयन के अवसर आये- हैं, मानवी बुद्धिमत्ता की पूरी परीक्षा हुई।
कर सकते थे, किया नहीं
रावण तथा विभीषण एक ही कुल में उत्पन्न हुए सगे भाई थे, दोनों विद्वान- पराक्रमी थे। एक ने अपनी दिशा अलग चुनी व दूसरे ने प्रवाह के विपरीत चलकर अनीति से टकराने का
साहस किया। धारा को मोड़ सकने तक की क्षमता भगवान ने मनुष्य को दी ही इसलिए है ताकि वह उसका सहयोगी बन सके।
भगवान ने मनुष्य को इच्छानुसार वरदान माँगने का अधिकार भी दिया है। रावण शिव का भक्त था। उसने अपने इष्ट से वरदान सामर्थ्यवान होने का माँगा पर साथ ही यह भी कि मरूँ तो मनुष्य के हाथों। उसकी अनीति को मिटाने, उसका संहार करने के लिए स्वयं भगवान को राम के रूप में जन्म लेना पड़ा। राम शिव के इष्ट थे। यदि असाधारण अधिकार प्राप्त रावण प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी अपने इष्ट भगवान शिव से सत्परामर्श लेना नहीं चाहता तो अन्त तो उसका सुनिशित होगा ही। यह भगवान का सहज रूप है जो मनुष्य को स्वतन्त्र इच्छा देकर छोड़ देता है।
जीव विशुद्ध रूप में जल की बूँद के समान इस धरती पर आता है। एक ओर जल की बूँद धरती पर गिरकर कीचड बन जाती हैं व दूसरी ओर जीव माया में लिप्त हो जाता है। यह तो जीव के ऊपर है जो स्वयं को माया से दूर रख समुद्र में पडी बूंद के आत्म विस्तरण की तरह सर्वव्यापी हो मेघ बनकर समाज पर परमार्थ की वर्षा करे अथवा कीचड़ में पड़ा रहे।
मनुष्य को इस विशिष्ट उपलब्धि को देने के बाद विधाता ने यह सोचा भी नहीं होगा कि वह ऊर्ध्वगामी नहीं उर्ध्वगामी मार्ग चुन लेगा। अन्य जीवों, प्राणियों का जहाँ तक सवाल है वे तो बस ईश्वरीय अनुशासन- व्यवस्था के अन्तर्गत अपना प्राकृतिक जीवनक्रम भर पूरा कर पाते हैं। आहार ग्रहण, विसर्जन- प्रजनन यही तक उनका जीवनोद्देश्य सीमित रहता है। परन्तु बहुसंख्य मानव ऐसे होते हैं जो इन्हीं की तरह जीवन बिताते और अदूरदर्शिता का परिचय देते सिर धुन- धुनकर पछताते देखे जाते हैं। इनकी तुलना चासनी में कूद पड़ने वाली मक्खी से की जा सकती है।
चासनी के कढाव को एक बारगी चट कर जाने के लिए आतुर मक्खी बेतरह उसमें कूदती है और अपने पर- पैर उस जंजाल में लपेट कर बेमौत मरती है। जबकि समझदार मक्खी किनारे पर बैठ कर धीरे- धीरे स्वाद लेती, पेट भरती और उन्मूक्त आकाश में बेखटके बिचरती है। अधीर आतुरता ही मनुष्य को तत्काल कुछ पाने के लिए उत्तेजित करती है और उतने समय तक ठहरने नहीं देती जिसमें कि नीतिपूर्वक उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलतापूर्वक सम्भव हो सके।
मछली वंशी में लिपटी आटे की गोली भर को देखती है। उसे उतना अवकाश या धीरज नहीं होता कि यह ढूँढ़- समझ सके कि इसके पीछे कहीं कोई खतरा तो नहीं है। घर बैठे हाथ लगा प्रलोभन उसे इतना सुहाता है कि गोली को निगलते ही बनता है। परिणाम सामने आने में देर नहीं लगती। काँटा आँतों में उलझता है और प्राण लेने के उपरान्त ही निकलता है।
अस्या: स्वतन्त्रतायोस्तुपयोगं क: कथं मुने।
करोति सम्मुखे सेयं परीक्षा पद्धति: स्थिता॥२६॥
टीका- हे मुने। इस स्वतन्त्रता का कौन किस प्रकार उपयोग करता है, यही परीक्षा- पद्धति हर मनुष्य के सामने है॥२६॥
व्याख्या- विधाता ने मनुष्य को विभूतियाँ दे दीं और साथ ही यह अधिकार भी कि वह उनका जैसा चाहे वैसा उपयोग करे। पर यह भी स्पष्ट कर दिया कि इस चयन की छूट का दुरुपयोग जो करता है वह दुर्गति को प्राप्त होता है। दूसरी ओर अपना लक्ष्य जानते हुए जो मानवोचित गरिमा का निर्वाह कर सुनिश्चित योजना बनाकर जीवन व्यतीत करते हैं, अपने कल्याण व परमार्थ को साथ जोड़ते हुए जीवन शकट खींचते हैं, वे सद्गति को प्राप्त होते हैं। यह एक चुनौती हर व्यक्ति के समक्ष है कि वह श्रेय पथ को स्वीकार करे अथवा प्रेय को।
कृष्ण के वरण की छूट
भगवान श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन व अर्जुन दोनों पहुँचे। महाभारत युद्ध पूर्व कौरव व पाण्डव दोनों ही कृष्ण को अपने पक्ष में करना चाहते थे। दुर्योधन पहले पहुँचे व अहंकारवश सो रहे श्रीकृष्ण के सिरहाने बैठ गये। बाद में अर्जुन आये व अपनी अहज श्रद्धा- भावना वश पैरों के पास बैठ गये। श्रीकृष्ण जागे। अर्जुन पर उनकी दृष्टि पडी। कुशल क्षेम पूछकर अभिप्राय पूछने ही जा रहे थे कि दुर्योधन बोल उठा- "पहले मैं आया हूँ, मेरी बात सुनी जाय। " श्रीकृष्ण असमंजस में पडे़। बोले- 'अर्जुन छोटे हैं इसलिए प्राथमिकता तो उन्हीं को मिलेगी, पर माँग तुम्हारी भी पूरी करुँगा। एक तरफ मैं हूँ, दूसरी तरफ मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना। बोलो अर्जुन? तुम दोनों में से क्या लोगे?' चयन की स्वतन्त्रता थी- यह विवेक पर निर्भर था, कौन क्या माँगता है- भगवत् कृपा अथवा उनका वैभव?
अर्जुन बोले- "भगवन्! मै तो आपको ही लूँगा। भले ही आप युद्ध न करें- बस साथ भर बने रहें। " दुर्योधन मन ही मन अर्जुन की इस मूर्खता पर प्रसन्न हुआ और श्रीकृष्ण की विशाल अपराजेय सेना पाकर फूला न समाया। अनीतिवादी दुर्योधन, ईश्वरीय समर्थन वाले अर्जुन जिसके पास श्रीकृष्ण भी निरस्त्र थे, से हारा ही नहीं महाभारत के युद्ध में बन्धु- बांधवों सहित मारा भी गया। दुर्यो धन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ई श्वरीय कृपा को वरण करने वाले तत्व हर मनुष्य के भीतर विद्यमान हैं- एक को विवेक या सुबुद्धि एवं दूसरे को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं। किसका चयन व्यक्ति करता है, यह उसकी स्वतन्त्रता है।
नचिकेता का तीसरा वर
यमराज द्वारा नचिकेता की निष्ठा पर प्रसन्न होकर उन्हें तीन वर दिये गये। उन्होंने मृत्यु भय से मुक्त होने के स्थान पर पिता के क्रोध की शान्ति पहला वर माँगा, परलोक के लिए स्वर्ग के साधनरूप अग्नि विज्ञान का दूसरा वर प्राप्त करके उन्होंने तीसरे वर के रूप में आत्मा के यथार्थ स्वरूप
और उसकी प्राप्ति का उपाय जानना चाहा। यमराज द्वारा वचन बद्ध होते हुए भी तीसरे वर का उसे पात्र न मानने के कारण उन्होंने उसे सब प्रकार के प्रलोभन दिए व बदले में कुछ और माँगने को कहा। पर आत्मतत्व तथा आत्मा के मरणोपरांत अस्तित्व संबंधी अनुभूति ज्ञान के अतिरिक्त उसने कुछ न मांगा। चयन की स्वतंत्रता सामने होते हुए भी नचिकेता ने सुखोपभोग, मुक्ति, पुनर्जीवन जैसे लाभ एक ओर होते हुए भी ब्रह्मविद्या व आत्म विद्या के ज्ञान को जानने को ही प्राथमिकता दी। पंचाग्नि विद्या को आत्मसात् कर साधना पथ का मार्गदर्शन मानव मात्र के लिए कर सकने में वे सफल हुए। ऐसे सौभाग्यशाली बिरले ही होते हैं।
श्रुतायुध व भस्मासुर
दोनों ही असुरों को तप द्वारा वरदान प्राप्त थे। यह तो उनकी दुर्बुद्धि ही थी कि वह वरदान उन्होंने अपनी इच्छानुसार ऐसा चुना जो अन्तत: उन्हीं की मौत का कारण बना। श्रुतायुध के पास शंकरजी के वरदान से प्राप्त फ गदा थी। शर्त मात्र यही थी कि वह उसका अनीति पूर्वक प्रयोग न करे। यदि करेगा तो लौटकर वह उसी को नष्ट करेगी। महाभारत युद्ध में क्रोध के आवेश में उसने उस गदा का प्रयोग सारथी की भूमिका निभा रहे भगवान कृष्ण पर कर डाला। गदा बीच से ही वापस लौटकर श्रुतायुध पर ही आ गिरी और उसे क्षत- विक्षत कर गयी। भस्मासुर ने भी यही वरदान माँगा था कि वह जिसके सिर पर हाथ रख देगा वही भस्म हो जायेगा। जब उसने वरदान का दुरुपयोग आरम्भ किया तो भगवान ने माया रची और उसकी दुर्बुद्धि ने उससे स्वयं अपने ऊपर हाथ रखवाकर भस्म कर डाला।
यह चयन की दिशा धारा ही है जो मनुष्य का गन्तव्य- भवितव्य निर्धारित करती है।
जहाँ जाना है उसे ठीक बनाया
एक राज्य का यह नियम था कि जन साधारण में से जो राजा चुनकर गद्दी पर बिठाया जाय ठीक अनाया दस वर्ष बाद ऐसे निविड़ एकाकी द्वीप में छोड़ दिया जाय, जहाँ अन्न जल उपलब्ध न हो। कितने ही राजा इसी प्रकार अपने प्राण गवाँ चुके थे। जो अपना राज्यकाल बिताते थे उन्हें अन्तिम समय में अपने भविष्य की चिन्ता दु:खी करती थी, तब तक समय आ चुका होता था।
एक बार एक बुद्धिमान व्यक्ति जानबूझकर उस समय गद्दी पर बैठा जब कोई भी उस पद को लेने के लिए तैयार न था। उसे भविष्य का ध्यान था। उसने उस द्वीप को अच्छी तरह देखा व वहाँ खेती कराने, जलाशय बनाने, पेड़ लगाने तथा व्यक्तियों को बसाने का कार्य आरम्भ कर दिया। दस वर्ष में वह नीरव एकाकी प्रदेश अत्यन्त रमणीक बन गया। अपनी अवधि समाप्त होते ही राजा वहाँ गया और सुख पूर्वक शेष जीवन व्यतीत किया।
जीवन के थोडे़ दिन 'स्वतन्त्र चयन' के रूप में हर व्यक्ति को मिलते हैं। इसमें वर्तमान का सुनियोजन और भविष्य की सुखद तैयारी जो कर लेता है, वह दूरदर्शी राजा की तरह सुखपूर्वक जीता है।
विस्मरन्ति स्वरूपं ये त्यक्ता चोत्तरदायिता।
यै:, पतन्ति तु पातस्य गर्ते ते निश्चित नरा:॥२७॥
टीका- जो आत्म- स्वरूप को भूलते और उत्तरदायित्वों से विमुख होते हैं, वे पतन के गर्त में गिरते हैं ॥२७॥
व्याख्या- आत्मगरिमा को हर कोई नहीं समझता। आत्म तत्व एक अँगारे के समान है जिस पर कषाय- कल्मषों के आवरण चढ़े होते हैं। जो उन्हें हटाने का प्रयास करते हैं वे उसकी चमक व ताप से परिचित- प्रभावित होते हैं। बहुसंख्य ऐसे होते हैं जो अपने अन्दर छिपी सामार्थ्य को पहचान नहीं पाते, जिम्मेदारी का निर्वाह न कर उलटे अपना पतन और कर लेते हैं। जिन्सें आत्मबोध हो जाता है वे अपना स्वरूप समझकर तदनुसार अपनी जीवन- योजना का निर्धारण करते व कृत- कृत्य् होते हैं।
सिंह शावक गीदडों के बीच
एक गीदड़ ने सिंह के बच्चे को नवजात अवस्था में कहीं पड़ा देखा, उठाया और उसे अपने बच्चों के साथ पालने लगा। सिंह शावक गीदड़ों के बच्चों के साथ पलते- पलते उस परिकर में विकसित होते कभी स्वयं को नहीं पहचान पाया। एक बार यह परिवार शिकार को गया। मरे हाथी पर जैसे ही खाने के लिए टूटे वैसे ही स्वयं वनराज सिंह वहाँ पधार गये। उन्हें देखते ही गीदड़ परिवार कूच कर गया पर सिंह की पकड़ में सिंह शावक आ गया। सिंह ने उससे पूछ- "वह कैसे उनके साथ था और भयभीत क्यों होता है?"
शावक समझ ही नहीं पा रहा था कि यह सब क्या है? उसे भय से काँपते देख वनराज सब समझ गये। उन्होनें उसे पानी में अपनी परछाई दिखाई वे भी स्वयं अपना चेहरा। स्वयं दहाड़े और उसे भी स्वयं दहाड़ने को कहा। तब उसे अपने विस्मृत आत्म- स्वरूप का भान हुआ और वह सिंह बिरादरी में शामिल हो उमुक्त- भयमुक्त विचरण करने लगा।
ऐसे लोगों की संख्या अधिक होती है जो अपना स्वरूप भूलकर दिवास्वप्न अधिक देखते हैं।
बिल्ली ने सपना देखा
बिल्ली ने सपना देखा कि वह शेर बन गई है और एक मोटी- सी बकरी का शिकार कर रही है। शिकार का स्वाद लेने भी न पाई कि उसने देखा कि पड़ोसी का मोटा कुत्ता भोंकता हुआ उसके ऊपर चढ़ दौड़ा। बिल्ली ने बकरी छोड़ दी और वह भाग कर मालिकन की पौली में आ छिपी। दूसरा सपना बिल्ली ने फिर देखा कि वह कुत्ता बन गई है और मालकिन के चौके में घुस कर स्वादिष्ट व्यंजनों पर हाथ साफ करने की तैयारी कर रही है, इतने में मालकिन आ पहुँची और उन्होंने मोटे बेलन से मार- मार कर उसे बेदम कर दिया और वह बुरी तरह कराहने लगी।
उनींदी बिल्ली को कराहते- कलपते देख मालकिन ने उसे जगाया। बिल्ली ने आँखें खोलीं तो कहीं कुछ न था। उसने मालकिन से कहा- 'अब मैं वही बनी रहूँगी, जो हूँ। रूप बदलने में तो खतरा ही खतरा रहता है। '
अपने स्वरूप को हम अच्छी तरह समझे रहें, कभी भूलें नहीं इसका स्मरण विभिन्न घटना- क्रम दिलाते रहते है।
स्वप्न का राजा
एक युवक ने स्वप्न देखा कि वह किसी बड़े राज्य का राजा हो गया है। स्वप्न में मिली इस आकस्मिक विभूति के कारण उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। प्रात:काल पिता ने काम पर चलने को कहा, माँ ने लकडियाँ लाने की आज्ञा दी, धर्मपत्नी ने बाजार से सौदा लाने का आग्रह किया, पर युवक ने कोई भी काम न कर एक ही उत्तर दिया- 'मैं राजा हूँ, मैं कोई भी काम कैसे कर सकता हूँ?'
घर वाले बड़े हैरान थे, आखिर किया क्या जाये? तब कमान सम्भाली उसकी छोटी बहिन ने। एक- एक कर उसने सबको बुलाकर चौके में भोजन करा दिया, अकेले खयाली महाराज ही बैठे के बैठे रह गये। शाम हो गई, भूख से आँतें कुलबुलाने लगीं। आखिर जब रहा नहीं गया तो उसने बहन से कहा- 'क्यों री! मुझे खाना नहीं देगी क्या?' बालिका ने मुँह बनाते कहा- '
राजाधिराज! रात आने दीजिए, परियाँ आकाश से उतरेंगी तथा वही आपके लिए उपयुक्त भोजन प्रस्तुत करेंगी। हमारे रूखे- सूखे भोजन से आपको सन्तोष कहाँ होगा?'
व्यर्थ की कल्पनाओं में विचरण करने वाले युवक ने हार मानी और शाश्वत और सनातन सत्य को प्राप्त करने का, श्रमशील बनकर पुरुषार्थरत होने का, वचन देने पर ही भोजन पाने का अधिकारी बन सका।
ऐसे लोगों की स्थिति वैसी ही होती है, जिनका कबीर ने अपनी ही शैली में वर्णन किया है-
ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साँई तुझ में, जागि सके तो जाग॥
ज्यों नैनों में पूतली, त्यों मालिक सर मांय।
मूर्ख लोग ना जानिये, बाहर ढूँढ़न जाँय॥
सदुपयुञ्जते ये तु सौभाग्यं प्रस्तुतं क्रमात्।
उद्गच्छन्ति तथा यान्ति पूर्णतां लक्ष्यगां सदा ॥२८॥
टीका- जो प्रस्तुत सौभाग्य का सदुपयोग करते हैं वे क्रमश: अधिक ऊँचे उठते और पूर्णता के लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं ॥२६॥
व्याख्या- सामने आया समय बार- बार नहीं आता। मानव जीवन एक सौभाग्य है जो बार- बार नहीं मिलता। विडम्बना यही है कि इसका सदुपयोग करने वाले कम ही होते हैं। जो जीवन का समुचित उपयोग करना जानते हैं वे क्रमिक गति से ऊँचे उठते हुए परम ध्येय को अन्तत: प्राप्त करके ही रहते हैं।
कुबेर का विवेक युक्त पुरुषार्थ
पुलस्ति के विश्रवा के यहाँ एक कुरूप सन्तान ने जन्म लिया। बेडौल आकार का होने के कारण सभी उसकी हँसी उड़ाते। उसे लोगों की मूर्खता पर बड़ा क्षोभ हुआ। 'कुबेर' नामक इस पुरुषार्थी ने अपनी हँसी घर में उड़ते देख ठान ली कि वह मानव समुदाय को यह बताकर रहेगा कि सभी को मनुष्य जीवन रूपी प्राप्त सम्पदा का सदुपयोग कर महान से महान बना जा सकता है। शरीर गत सुन्दरता से नहीं अपितु गुण रूपी सम्पदा महत्वपूर्ण है एवं उसे ही अर्जित किया जाना चाहिए। यह सोचकर उसने अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए कठोर तप किया। अपनी लगन से उसने पिता व बाबा को भी इस साधना में सम्मिलित कर लिया। देवताओं ने उन्हें अपना धनाधीश- लोकपाल बनाया और वे अलकापुरी में राज करने लगे।
कालिदास की कथा
कालिदास एक गया बीता व्यक्ति था, बुद्धि की दृष्टि से शून्य एवं काला कुरूप। जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। जंगल में उसे इस प्रकार बैठे देख राज्य सभा से विद्योत्तमा अपमानित पण्डितों ने उस विदुषी को शास्त्रार्थ में हराने व उसी से विवाह कराने का षड्यन्त्र रचने के
लिए कालिदास को श्रेष्ठ पात्र माना । शास्त्रार्थ में अपनी कुटिलता से उसे मौन विद्वान् बताकर उन्होंने प्रत्येक प्रश्न का समाधान इस तरह किया कि विद्योत्तमा ने उस महामूर्ख से हार मान उसे अपना पति स्वीकार कर लिया ।पहले ही दिन जब उसे वास्तविकता का पता चला जो उसने उसे घर से निकाल दिया । धक्का देते समय जो वाक्य उसने उसकी भर्त्सना करते हुए कहे- वे उसे चुभ गये । दृढ़ संकल्प- अर्जित कर वह अपनी ज्ञान वृद्धि में लग गया । अन्त में वही महामूर्ख अपने अध्ययन से कालान्तर में महाकवि कालिदास के रूप में प्रकट हुआ और अपनी विद्वता की साधना पूरी कर विद्योत्तमा से उसका पुनर्मिलन हुआ ।
लेकिन जो अवसर की महत्ता नहीं पहचानते, उन्हें तो अन्तत : पछताना ही पड़ता है ।
अवसर का प्रतीक चित्र :-
एक बार एक कलाकार ने अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाई । उसे देखने के लिए नगर से सैकड़ों धनी- मानी व्यक्ति भी पहुँचे । एक लड़की भी उस प्रदर्शनी को देखने आई । उसने देखा सब प्रतीक- चित्र टँगा है जिसके मुँह को बालों से ढक दिया गया है और जिसके पैरों पर पंख लगे थे।चित्र के नीचे बड़े अक्षरों में लिखा था '' अवसर '' । चित्र कुछ भद्दा सा था इसलिए
लोग उस पर उपेक्षित दृष्टि डालते और आगे बढ़ जाते ।
लड़की का ध्यान प्रारम्भ से ही इस चित्र की ओर था । जब वह उसके पास पहुँची तो चुपचाप बैठ कलाकार से पूछ ही लिया- ' श्रीमान् जी यह चित्र किसका है? आपने इसका मुँह क्यों ढक रखा है तथा उसके पैरों में पंखों का क्या रहस्य है?' कलाकार ने जवाब दिया- ' बेटी । यह '' अवसर '' का चित्र है । चूँकि साधारण व्यक्ति इसे पहचान नहीं पाते । '' अत : मैंने इसका मुँह ढक रखा है ताकि इसे देखकर जिज्ञासा तो उठे । पैरों में पंख इसलिए कि यह अवसर जो आज चला गया, कल फिर आयेगा नहीं । इसलिए इसे उड़ने से पहले ही थाम लो । इसका सदुपयोग कर लो । '' लड़की ने मर्म को समझा और तत्क्षण ही अपने जीवन निर्माण में जुट गयी ।
काल ही जीवन है । काल पर वस्तुत : किसी का बस नहीं । जो यह गर्वोक्ति करते हैं उनके लिए युधिष्ठिर के जीवन का यह प्रसंग बहुत यथार्थ है ।
युधिष्ठिर ने काल जीता
एक बार एक ब्राह्मण ने युधिष्ठिर के पास जाकर दान की याचना की । युधिष्ठिर राज्य- कार्यों में व्यस्त थे, इसलिए ब्राह्मण को दूसरे दिन आने को कह दिया । भीमसेन को यह बात अच्छी न लगी ।उन्होंने सेवकों को बुलाकर सभी मंगल वाद्य बजाने की आज्ञा दी और स्वयं भी दुन्दुभि बजाने लगे । वाद्यों की आवाज सुनकर युधिष्ठिर दौड़े आये । उन्होंने भीम से इसका कारण पूछा । भीमसेन ने कहा- '' महाराज! आपने काल जीत लिया है इस खुशी में हम यह कर रहे है । कल ब्राह्मण को बुलाने का तात्पर्य यही है कि कल तक समय आपके वश में है । '' युधिष्ठिर ने अभिप्राय समझा और कहने लगे- ' सचमुच भीम! अच्छे कार्यो में देर नहीं करनी चाहिए । ''