प्रज्ञा पुराण भाग-1

॥अथ द्वितीयोऽध्याय॥ अध्यात्म दर्शन प्रकरण-4

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कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग दूँढ़े वन माँहि । 
ऐसे सट- सट राम हैं, दुनियाँ देखे नाँहि । 
तेरा साईं तुझ्झ में, जस पुहुपन  में वास ।
कस्तूरी का हिरण ज्यों, फिर- फिर ढूँढ़त घास । 
आत्मावलम्बी किसी अनुग्रह, वरदान की प्रतीक्षा नहीं करते, न ही याचना । वरन् प्रगति का पथ स्वयं बनाते है,अपनी सहायता आप करते है । 

झरने तक उतरकर प्यास बुझाई

तीन पथिक पहाड़ी की ऊपरी चोटी पर लम्बा रास्ता पार कर रहे थे । धूप और थकान से उनका मुँह सूखने लगा । प्यास से व्याकुल हो उनने चारों और देखा पर वहाँ पानी न था । एक झरना बहुत गहराई में नीचे बह रहा था।  एक पथिक ने आवाज लगाई- ' हे ईश्वर । सहायता कर हम तक पानी पहूँचा। दूसरे ने पुकारा -'हे इन्द्र । '' मेघ माला ला और जल वर्षा।'' तीसरे पथिक ने किसी से कुछ नहीं माँगा और चोटी से नीचे उतर तलहटी में बहने वाले झरने पर जा पहुँचा और भरपूर प्यास बुझायी । दो प्यासे की आवाजें अभी भी सहायता के लिए पुकारती हुई पहाड़ी को प्रतिध्वनित कर रही थीं, पर जिसने आत्मावलम्बन का साहस किया वह तृप्ति लाभ कर फिर आगे बढ़ चलने में समर्थ हो गया । 

आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद ऐसी स्थिति आती है जिसे शाश्वत आनन्द की चरम उपलब्धि कहा जा सकता हैं । बुद्ध शव देख कर हँसे सुजाता ने खीर दी, बुद्ध ने उसे ग्रहण कर परम सन्तोष का अनुभव किया । उस दिन उनकी जो समाधि लगी तो फिर सातवें दिन जाकर टूटी । जब वे उठे, उन्हें आत्म- साक्षात्कार हो चुका था । 

निरंजना नदी के तट पर प्रसन्न मुख आसीन भगवान् बुद्ध को देखने गई सुजाता बड़ी विस्मित हो रही थी कि यह सात दिन तक एक ही आसन पर कैसे यै बैठे रहे? तभी सामने से एक शव लिए जाते हुए कुछ व्यक्ति दिखाई दिये  । उस शव कों देखते ही भगवान बुद्ध हँसने लगे ।

सुजाता ने प्रश्न किया- ''योगिराज! कल तक तो आप शव को देखकर दुःखी हो जाते थे, आज वह दुःख कहाँ चला गया ?

भगवान् बुद्ध ने कहा- ''बालिके । सुख- दुःख मनुष्य की कल्पना मात्र है । कल तक जड़ वस्तुओं में आसक्ति होने के कारण यह भय था कि कहीं यह न छूट जाय,वह न बिछुड़ जाय । यह भय ही दु:ख का कारण था, आज मैंने जान लिया कि जो जड़ है, उसका तो गुण ही परिवर्तनशील है, पर जिसके लिए दुःख करते हैं, वह न तो परिवर्तनशील, न नाशवान् ।  

अब तू ही बता जो सनातन वस्तु पा ले, उसे नाशवान् वस्तुओं का क्या दुःख' ?
आत्मावलम्बन की उपेक्षा व्यक्ति को कहाँ से कहाँ पहुंचा देती है, इसके कई उदाहरण देखने को मिलते है । सद्गति का लक्ष्य समीप होते हुए भी ये अपने इस परम पुरुषार्थ की अवहेलना कर पतन के गर्त में भी जा पहुंचते है । अहंकार की उत्पत्ति व उसका उद्धत प्रदर्शन इसी आत्म तत्व की उपेक्षा की फलश्रुति है । 

जय- विजय  भगवान् विष्णु के द्वारपाल थे । उन्हें अपने इस अधिकार पर घमण्ड हो गया । उन्हें इसमें अपना अनादर प्रतीत हुआ कि कोई उनसे पूछे बिना ही बैकुण्ठाधिपति से मिलने चला जाय । इन द्वारपालों ने अपने अधिकार का दुरुपयोग कर नारायण प्रिया लक्ष्मी- स्वयं गृहस्वामिनी को भी भीतर जाने से रोक दिया । लक्ष्मीजी शालीन स्वभाववश मौन रह गयीं । पर जिस दिन उन्होंने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार जैसे महात्माओं को रोक दिया तब वे चुप न रहे । उन्होंने दोनों को असुर होने का शाप दे दिया । तीन कल्पों में उन्हें हिरण्याक्ष- हिरण्यकशिपु, रावण- कुम्भकर्ण एवं शिशुपाल- दुर्योधन के रूप में जन्म लेना पड़ा । संतों को तो उन्हें निरहंकारिता का पाठ पढ़ाना था । बैकुण्ठवासी होने के नाते स्वयं में पूर्णता मानकर अपने आपको पतन के भय से मुक्त मान लेना किसी के लिए भी पराभव का कारण बन सकता है । निष्कर्ष यही है जब स्वर्ग में बैठा एक उच्चपदाधिकारी भी इस दुर्बलता के कारण रावण आदि असुर योनि को प्राप्त होता है तो फिर मर्त्यलोक का प्राणी यह कैसे मान लेता है कि वह आत्मा की उपेक्षा कर प्रगति कर सकता है । 

आत्मज्ञान की प्राप्ति का पथ एक ऐसा पथ है, जिस पर एक बार कदम रखते ही मनुष्य कभी लौटने का विचार नहीं करता । पग रखने भर से होने वाली अनुभूति उसे अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति करा देती है । यह एक ऐसी पारसमणि है, जो अन्दर से बाहर तक मनुष्य को स्वर्ण युक्त बना देती है । 

भौतिकी: सुविधा 'प्रादान्मनुष्येभ्य: प्रभु:स्वयम् । 
दिव्यानां च विभूतीनां निधिं वपुषि दत्तवान् ।  ३६ । 
किन्तु कार्यमिदं तस्याधीनं च कृतवान् प्रभु: । 
यद विवेकयुतां बुद्धिं स्वतन्त्रां परिदर्शयेत् ।  ३७ । 
उपयोगं साधनानां इरूपयोगमथाश्रयन् । 
सहभाक स्वर्ग्यधाराया नारक्या छापि सम्भवेत् ।  ३८  । 


टीका- ईश्वर ने मनुष्य को भौतिक सुविधाओं का बाहुल्य प्रदान किया भीतर दिव्य विभूतियों का भण्डार भर दिया ।पर इतना काम उसे ही सौंपा कि स्वतन्त्र विवेक बुद्धि का परिचय दे और साधनों का 
सदुपयोग या दुरुपयोग करके स्वर्ग या नरक की दिशा धारा का सहभागी बने ?? ३६ ३८ 

व्याख्थ्या- मनुष्य में ये दो विशेषताएँ एक साथ पायी जाती है- ( १) बाल जगत में 
उपभोग हेतु सुख- साधन, प्रतिकूल को भी अनुकूल बना सकने योग्य सामर्थ्य तथा (२) अन्त: जगत में देवताओं को भी अप्राप्य आत्मिक सम्पदा जो उपयुक्त होने पर उसे ऋषि, देव मानव, महामानव स्तर का बनाती है । सृष्टि में अन्य ऐसा कोई भी जीवधारी नही जिसमें इन दोनों का समन्वय हो । इसे स्रष्टा का पक्षपात नहीं कहेंगे क्योंकि उसने इसके साथ एक उत्तरदायित्व उसी के ऊपर छोड़ दिया है कि वह अपनी विवेक शक्ति, दूरदर्शिता का उपयोग कर इन साधनों को किस सीमा तक, किसी प्रयोजन विशेष में लगा पाता है? इस विवेकशक्ति का जागरण जिसमें जितनी मात्रा में हुआ, समझना चाहिए वह उतना ही 
आध्यात्मिक होता चला गया । सदुपयोग ही स्वर्ग को ले जाने वाली तथा दुरुपयोग ही नरक की ओर ले जाने वाली पगडण्डी है ।


 
याचक ने पारस फेंक द्दिया

एक व्यक्ति एक संत के पास आया व उनसे याचना करने लगा कि वह र्निर्धन है। वे उसे कुछ धन आदि दे दें,ताकि वह जीविका चला सके।सन्त ने कहा- ' हमारे पास तो वस्त्र के नाम पर यह लंगोटी व उत्तरीय है । लंगोटी तो आवश्यक है पर उत्तरीय तुम ले जा सकते हो । इसके अलावा और कोई ऐसी निधि हमारे पास है नहीं । '' वह व्यक्ति बराबर गिड़गिड़ाता ही रहा, तो वे बोले- ' अच्छा, झोपड़ी के पीछे एक पत्थर पड़ा होगा । कहते हैं, उससे लोहे को छूकर सोना बनाया जा सकता है । तुम उसे ले जाओ । '' प्रसन्नचित्त वह व्यक्ति भागा व उसे लेकर आया, खुशी से चिल्ल पड़ा- ' महात्मन्! यह तो पारस मणि है । आपने इसे ऐसे ही फेंक दी । '' सन्त बोले- ' हाँ बेटा! मैं जानता हूँ और यह भी कि यह नरक की खान है । मेरे पास प्रभु कृपा से आत्म सन्तोष रूपी धन है जो मुझे निरन्तर आत्म ज्ञान, और अधिक यान प्राप्त करने को प्रेरित करता है । मेरे लिए इस क्षणिक उपयोग की वस्तु का क्या मूल्य?' वह व्यक्ति एकटक देखता रह गया । 

फेंक दी उसने भी पारस मणि । बोला- ' भगवन् । जो आत्म सन्तोष आपको है व जो कृपा आप पर बरसी है उससे मैं इस '' पत्थर '' के कारण वंचित नहीं होना चाहता । आप मुझे भी उस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दें जो सीधे प्रभु प्राप्ति की ओर ले जाती है । '' सन्त ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया । वे दोनों मोक्ष सुख पा गए । 

विवेकवान के समक्ष हर वैभव, हर सम्पदा तुच्छ है । वह सतत् अपने चरम लक्ष्य, परम पद की प्राप्ति की ओर बढ़ता रहता है । 

संत की परीक्षा


सन्त पुरन्दर की निर्लोभिता एवं तपश्चर्या की चर्चा विजय नगर के महाराज कृष्णदेवराय ने बहुत सुनी थी- पर,उन्हें सहसा विश्वास नहीं होता था कि क्या ऐसा भी सम्भव है । क्या व्यक्ति स्वयं विद्वान होते हुए तथा साधनों के सहज उपलब्ध  रहते हुए भी उन्हें ठुकरा दे और लोकसेवी का जीवन जिए? 
गृहस्थ जीवन और लोक सेवा ऐसी गरीबी में कैसे साथ- साथ निभ सकते हैं? 

'' अपने मन्त्री व्यासराय की सहायता से उन्होंने सन्त की परीक्षा लेने का निश्चय किया । उन्होंने सन्त को परीक्षत: कहलवाया कि वे अपनी भिक्षा राजभवन से ले लिया करें । भिक्षा में दिये जाने वाले चावलों में उन्होंने रत्न- हीरे मिला दिये । नित्य उन्हें इसी प्रकार प्रसन्नभाव से आते देख उन्हें शंका हुई, अपने मन्त्री से बोले- ' '' आइये! जिन सन्त की निस्पृहता की बड़ी प्रशंसा सुनी थी, उसे उनके घर चलकर परखे । '' वहाँ पहुँचे तो बड़ा विचित्र दृश्य 
देखा । सादगी भरा जीवन जी रहे सन्त व उनकी पत्नी में परस्पर सम्वाद चल रहा था । पत्नी हीरे आदि बीनकर अलग  रखती जाती थी व कहती जा रही थी- ' '' आजकल आप न जाने कहाँ से भिक्षा लाते हैं । इन चावलों में तो कंकड़- पत्थर भरे पड़े हैं । '' इतना कहकर छद्मवेशधारी राजा मन्त्री के सामने ही उसे वे कचरे के ढेर में फेंक आयीं । 
राजा के आश्चर्य व्यक्त करने पर वे बोलीं- ' पहले हम भी यही सोचते थे कि ये हीरे- मोती हैं । पर जब से भक्ति का पथ अपनाया, लोक सेवा की ओर कदम बढ़ाया तो निर्वाह योग्य ब्राह्मणोचित आजीविका से ही काम चल जाता है । अब इस बाह्य सम्पदा का मूल्य हमारे लिए तो हीरो के नहीं, कंकड़- पत्थर के बराबर ही है । '' 

स्वतन्त्र विवेक बुद्धि ही है जो व्यक्ति को दो मार्गो- आत्मिक प्रगति तथा भौतिक समृद्धि के चयन, अनुपयोग, दुरुपयोग, सदुपयोग के माध्यम से स्वर्ग व नरक के दृश्य इसी जीवन में दिखाती है व उसका भविष्य निर्धारित करती है । 

 वेश्या  एवम् सद्गृहस्थ के दृश्य

स्वर्ग और नरक करनी के फल है, एक सन्त ने अपने शिष्य को समझाया पर  शिष्य की समझ में बात आयी नहीं। तब उसका उत्तर देने के लिए अगले दिन सन्त शिष्य के लेकर एक बहेलिएकें पास पहुँचे ।वहाँ जाकर देखा कुछ जंगल से व्याध निरीह पक्षी पकड़कर लाया था, वह काट रहा था, घर कलह मची थी । यह सब  देखते ही शिष्य ही शिष्य चिल्लया- ' महाराज! यहाँ तो नरक है, यहाँ से शीघ्र '' चलिए । '' सन्त बोले- ' सचमुच, इस बहेलिये ने इतने जीव मार डाले, पर आज तक फूटी कौड़ी तक न जोड़ पाया । कपड़ों तक के पैसे नहीं, इसके लिए यह संसार भी नरक है और परलोक में तो इतने मारे गये जीवों की तड़पती आत्मायें उसे जितना कष्ट देंगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं हो सकती । 


व्याध, संत


सन्त दूसरे दिन एक साधु की कुटी पर पधारे । शिष्य भी साथ थे, वहाँ जाकर देखा, साधु के पास है तो कुछ नहीं, पर उनकी मस्ती का कुछ ठिकाना नहीं, बड़े सन्तुष्ट, बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे । सन्त ने कहा- ' वत्स! यह साधु इस जीवन में कष्ट का, तपश्चर्या का जीवन जी रहे हैं तो भी मन में इतना आह्लाद इस बात का प्रतीक है कि इन्हें पारलौकिक सुख तो निश्र्चित ही है । '' 

सांयकाल सन्त एक वेश्या के घर में प्रवेश करने लगे तो शिष्य चिल्लाया- ' महाराज! यहाँ कहाँ?' सन्त बोले- ' वत्स! यहाँ का वैभव भी देख लें । मनुष्य इस सांसारिक सुखोपभोग के लिए अपने शरीर, शील और चरित्र को भी किस तरह बेचकर मौज उड़ाता है पर शरीर का सौन्दर्य नष्ट होते ही कोई पास नहीं आता, यह इस बात का प्रतीक है कि इसके लिए यह संसार स्वर्ग की तरह है, पर अन्त इसका वही है, जो उस बहेलिये का था । '' 

अन्तिम दिन वे एक सद्गृहस्थ के घर रुके । गृहस्थ बड़ा परिश्रमी, संयमशील, नेक और ईमानदार था सो सुख- समृद्धि की उसे कोई कमी नहीं थी वरन् वह बढ़ रही थी । सन्त ने कहा- यह वह व्यक्ति है, जिसे इस पृथ्वी पर  भी स्वर्ग है और परलोक में भी । शिष्य ने इस तत्व- ज्ञान को भली प्रकार समझ लिया कि स्वर्ग और नरक वस्तुत :करनी का फल है । 

विधाता ने तो मानव को यही सोच कर भेजा है कि वह पृथ्वी पर अन्य जीवधारियों से अलग अपनी दिशाधारा चयन करेगा और श्रेय पक्ष की ओर बढ़कर सबका कल्याण करेगा पर उसे भी वर्तमान स्थिति देखकर निराशा 
ही होती होगी । 


स्वयं ही गिरा है स्वयं ही उठेगा 

 प्रजापति ब्रह्म ने वृक्ष बनाये, वनस्पति बनाई, छोटे- छोटे जीव जन्तु बनाये, बड़े- बड़े जीवधारी बनाये पशु और पक्षी बनाये और जब देखा कि इनमें से एक भी सृष्टि को व्यवस्थित रख सकने में समर्थ नही, हर जीव खुदगर्ज साबित हुआ तब विधाता ने सम्पूर्ण ही प्रतिभा  ज्ञान सम्पन्न मनुष्य का निर्माण किया।मनुष्य को अपने समान क्षमतावान् देखकर विधाता की चिन्ता दूर हुई । सृष्टि की व्यवस्था मनुष्य को सौंपकर उन्होंने अपनी थकावट मिटाने के लिए लेट लगाई और 
शयन करने लगे । 

एक हजार वर्ष की नींद टूटी तो विधाता ने देखा द्वार पर जीव- जन्तुओं की भारी भीड़ जमा है । विधाता को जगाने और अपनी शिकायत पेश करने के लिए सब किवाड़ खटखटा रहे थे, नारे लगा रहे थे । चकित विधाता दरवाजा 
खोलकर बाहर निकले और जीव- जन्तुओं से उनके दु :ख का कारण पूछा । जीवों के प्रमुख प्रतिनिधियों ने बताया- 
'' भगवन् । आपने मनुष्य को बनाया था सृष्टि की व्यवस्था के लिए पर यह तो हम सबको ही सताये और नष्ट किए डाल रहा है । '' 


सृष्टि का सौन्दर्य नष्ट होता देखकर विधाता बहुत चिन्तित हुए और बोले- ' बच्चा । दु :ख मत करो । मनुष्य ने अपनी सद्बुद्धि को दुर्बुद्धि में बदल कर आप लोगों का उतना अहित नहीं किया जितना अपना पतन किया । 
जाओ कुछ दिन और प्रतीक्षा करो । एक दिन उसकी यह दुर्बुद्धि ही उसे पशुवत् जीवन में ले जायेगी तब वह स्वयं ही अनुभव करेगा कि यदि हम भी पशुओं की तरह ही जीवन जीते है, तो मनुष्य शरीर पाने का क्या लाभ? यह 
ज्ञान ही उसे पश्र्चाताप और सुधार की प्रेरणा देगा, तभी सुख- शान्ति स्थापित होगी ।  वह स्वयं गिरा है तथा उठेगा 
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