प्रज्ञा पुराण भाग-1
भारतीय इतिहास - पुराणों में ऐसे अगणित उपाख्यान है, जिनसे मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समास्याओं के समाधान विघमान है। उन्हीं में से सामयिक परिस्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ का ऐसा चयन किया गया है, जो युग समस्याओं के समाधान में आज की स्थिति के अनुरुप योगदान दे सकें।
सर्ववदित है कि दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रवचन- प्रतिपादन उन्हीं के गले उतरते है, जिनकी सुविकसित मनोभूमि है , परंतु कथानकों की यह विशेषता है कि बाल, वृद्ध , नर- नारी , शिक्षित अशिक्षित सभी की समझ में आते है और उनके आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहूँच सकना सम्भव होता है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल का यह सर्वसुलभ लाभ है।
आज की परिस्थितियों मान्यताएँ , प्रथाएँ, समस्याएँ एवं आवश्यकताऐं को ध्यान में रखते हुए समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस ग्रंथ के सृजन का प्रयास किया गया है।
प्रथम खण्ड में युग समस्याओं के कारण उद्भूत आस्था संकट का विवरण है एवं उससे उबर कर प्रज्ञा युग लाने की प्रक्रिया रूपी अवतार सत्ता द्वारा प्रणीत सन्देश है। भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण से जूझने हेतु अध्यात्म दर्शन को किस तरह व्यावहारिक रूप से अपनाया जाना चाहिए, इसकी विस्तृत व्याख्या है एवं अन्त में महाप्रज्ञा के अवलम्बन से संभावित सतयुगी परिस्थितियों की झाँकी है।
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