प्रज्ञा पुराण भाग-1

लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः-7

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यज्ञ संस्कृति के पिता

जहाँ गायत्री को विश्वमाता कहा गया है वहाँ यज्ञ को देव संस्कृति- धर्म का पिता कहा गया है। दोनों के समन्वय- सहयोग से ही देव संस्कृति का जन्म, विकास एवं परिपोषण सम्भव हुआ। 

'यज्ञ' में यज्ञीय भावनाओं के अभिवर्धन को बहुत महत्व दिया गया है। यज्ञ शब्द का भावार्थ है- पवित्रता, प्रखरता एवं उदारता। यह तत्वदर्शन व्यक्तिगत जीवन में भी समाविष्ट रहना चाहिए और उसे लोक व्यवहार में भी उत्कृष्टता की प्रथा- परम्परा जैसा प्रश्रय मिलना चाहिए। जीवन यज्ञ की चर्चा शास्त्रों में स्थान- स्थान पर हुई है। ब्रह्म यज्ञ, विश्वयज्ञ आदि नामों से समाज में यज्ञीय प्रचलन की प्रमुखता पर बल दिया है। पशु- प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने, पतनोन्मुख प्रवाह को उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के अनुबन्ध निर्धारण यज्ञ कहलाते हैं। इसी अवलम्बन के सहारे मानवी प्रगति सम्भव हुई है। वर्तमान की स्थिरता एवं उज्जवल भविष्य की सम्भावना भी इसी सदाशयता के अवलम्बन पर निर्भर रहेगी। 

यज्ञ दर्शन को अपनाकर ही आज की संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रचण्ड मोर्चा ले सकना सम्भव है। यज्ञ के साथ यही प्रेरणा जुड़ी है कि मन:क्षेत्र में घुसी निकृष्टता का निराकरण हो, व्यक्ति महान् एवं समाज सुसंस्कृत बने। 

यज्ञ का अर्थ मात्र अग्निहोत्र नहीं, शास्त्रों में जीवन अग्नि की दो शक्तियाँ मानी गई है - एक 'स्वाहा' दूसरी 'स्वधा'। 'स्वाहा' का अर्थ है- आत्म- त्याग और अपने से लड़ने की क्षमता। 'स्वधा' का अर्थ है- जीवन व्यवस्था में 'आत्म- ज्ञान' को धारण करने का साहस। 

लौकिक अग्नि में ज्वलन और प्रकाश यह दो गुण पाये जाते हैं। इसी तरह जीवन अग्नि में उत्कर्ष की उपयोगिता सर्वविदित है। आत्मिक जीवन को प्रखर बनाने के लिए उस जीवन अग्नि की आवश्यकता है। जत 'स्वाहा' और 'स्वधा' के नाम से, प्रगति के लिए संघर्ष और आत्मनिर्माण के नाम से पुकारा जाता है। 

सच्चा यज्ञ

महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ समाप्त होने पर एक अद्भुत नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा था यज्ञ भूमि में लोट लगाने लगा। कुछ ही समय बाद वह रुदन करके कहने लगा कि"यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ। " पाण्डवों सहित सभी उपस्थित लोगों को बड़ा आश्रर्य हुआ, पूछने पर नेवले ने बताया" कुछ समय पूर्व अमुक देश में भयंकर अकाल पड़ा। मनुष्य भूख के मारे तड़प- तड़प कर मरने लगे। एक ब्राह्मण परिवार कई दिनों से भूखा था। एक दिन कहीं से कुछ अन्न उन्हें मिला। ब्राह्मणी ने उसकी चार रोटी बनाई। उस ब्राह्मण का यह नियम था कि भोजन से पूर्व कोई भूखा होता तो उसे भोजन कराकर तब स्वयं खाता। उस दिन भी उसने आवाज दी कि जो हमसे अधिक- भूखा- हो उसका अधिकार इस भोजन पर है, आये, वह अपना भाग ग्रहण करे। तो एक चाण्डाल भूख से तड़प रहा था, आ गया। ब्राह्मण ने अपने हिस्से की एक रोटी सौंप दी, उससे भी तृप्त न होने पर क्रमश: पत्नी और बालक- बालिका ने भी अपने- अपने हिस्से की रोटी उसे दे दी। जब वह चाण्डाल भोजन कर चुका और उसने पानी पीकर हाथ धोये तो उससे धरती पर कुछ पानी पड गया। मैं उधर होकर निकला तो उस गीली जमीन पर लेट गया। मेरा आधा शरीर ही सम्पर्क में आया जिससे उतना ही स्वर्णमय बन गया। मैंने सोचा था शेष आधा शरीर युधिष्ठिर के यज्ञ से स्वर्णमय बन जायेगा, लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ। इसलिए यह यज्ञ मेरे ख्याल से पूर्ण नहीं हुआ। "

यज्ञ की श्रेष्ठता उस्के बाह्य स्वरूप की विशालता में नहीं अन्तर की उत्कृष्ट त्याग वृत्ति में है। यज्ञ के साथ त्याग- बलिदान की अभूतपूर्व परम्परा जुड़ी हुई है। यही संस्कृति को धन्य बनाती है। 

प्राण देकर बीज बचाये

एक बार विदर्भ देश में जोर का अकाल पड़ा। एक गाँव में किसी के पास कुछ भी न बचा। उसी गाँव के एक किसान के पास एक कोठी भरा धान था। वह उससे कई महीने तक अपने परिवार का भरण- पोषण कर सकता था, लेकिन उसे ध्यान आया कि अगले वर्ष मौसम के समय खेतों में बोने के लिए बीज न मिलेगा तो फिर से सबको अकाल का सामना करना पड़ेगा। किसान ने उस धान के कोष को खाने में खर्च नहीं किया और सपरिवार सहर्ष मृत्यु की गोद में सो गया। लोगों ने सोचा कि काफी अन्न होते हुए भी किसान परिवार क्यों मर गया। लेकिन उसकी वसीयत को पढ़कर सभी किसान की महानता पर हर्ष सें आँसू बहाने लगे। उसमें लिखा था, "मेरा समस्त अन्न खेतों में फसल बोने के समय गाँव में बीज के लिए बाँट दिया जाय। " वर्षा हुई और चारों ओर नई लहलहाती फसल से लग रहा था मानो किसान मरा नहीं अपितु असंख्यों जीवधारी के रूप में हरे-  भरे खेतों में लहलहाता फिर से धरती पर उतर आया हो। 

बलिदानी मिट्टी- अमूल्य

विधाता ने अपने सेवकों को बुलाकर धरती से एक- एक उपहार लाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा- "जिसका उपहार सर्वश्रेष्ठ होगा, उसी को प्रधान सेवक के पद पर नियुक्त किया जायेगा। "
आज्ञा मिलने की देर थी। सभी सेवक अच्छे उपहारों की तलाश में पृथ्वी की ओर दौड़ने लगे। सब इस प्रयत्न में थे कि ऐसा उपहार ले जाया जाय जिससे मेरी पदोन्नति शीघ्र हो जाये। एक- से- एक बहुमूल्य उपहार सेवकों ने लाकर सामने रखे, पर विधाता के चेहरे पर कहीं प्रसन्नता और सन्तोष की रेखा तक न थी। हिसाब लगाया गया, तो एक सेवक आना शेष था। उसकी प्रतीक्षा बड़ी आतुरता से की जा रही थी। 

आखिर प्रतीक्षा की घड़ियाँ पूरी हुई और वह सेवक भी आ गया। कागज की एक पुड़िया विधाता को देकर नीचे डरते- डरते बैठ गया। वह सोच रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि देर से आने के कारण डाँट पड़े। उस सेवक की पुड़िया देखकर अन्य कितने ही सेवक मन में हँसने लगे, कई उसकी मूर्खता पर प्रसन्न हो रहे थे। विधाता ने पुड़िया खोली- 'अरे यह क्या, इस पुड़िया में मिट्टी बाँध लाये?' सेवक ने हाथ जोड़कर कहा- 'हाँ भगवन्! मैंने पृथ्वी का चप्पा- चप्पा छान मारा। शायद ही कोई स्थान रह गया हो, जहाँ मैं नहीं गया। मैंने इस बात की बड़ी कोशिश की कि ऐसा उपहार ले चलूँ जो आपको पसन्द आ जाये, पर कुछ समझ ही नहीं पड़ा। प्रभु! है तो यह मिट्टी ही, पर किसी साधारण स्थान की नहीं है। यह वह मिट्टी है जहाँ के लोगों ने धर्म और मानवता की रक्षा के लिए खुशी- खुशी अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। '

विधाता ने वह मिट्टी बड़ी श्रद्धा से अपने मस्तक पर लगायी और कहा- "सेवको! जब तक पृथ्वी पर ऐसे सन्त और सज्जन पुरुष बने रहेंगे तब तक धरती पर सुख- शान्ति क्री- सम्भावनाएँ भी कम न होंगी। "

प्रज्ञापीठस्वरूपेषु युगदेवालया भुवि। 
भवन्तु तत एतासां सृज्यानामथ नारद ॥७२॥
सूत्रं संस्कारयोग्यानां प्रवृत्तीनां च सञ्चलेत्। 
नृणां येन स्वरूपं च भविष्यत्संस्कृतं भवेत् ॥७३॥
सहैव पृष्ठभूमिश्च परिवर्तनहेतवे। 
निर्मिता स्याद् युगस्यास्तु संधिकालस्तु विंशति: ॥७४॥
वर्षाणां, सुप्रभातस्य वेलाऽऽवर्तनं हेतुका। 
अवाञ्छनीयताग्लानि: सदाशयविनिर्मिति" ॥७५॥

टीका- हे नारद ! युग देवालय, प्रज्ञापीठों के रूप में बनें। वहाँ से सृजनात्मक और सुधारात्मक सभी प्रवृत्तियों का सूत्र- संचालन हो, जिससे मनुष्य का स्वरूप एवं भविष्य सुधरे, साथ ही महान् परिवर्तन के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि भी बनने लगे। युग- सन्धि के ये वर्ष प्रभात की परिवर्तन बेला की तरह है। इसमें अवाञ्छनीयता की गलाई और सदाशयता की ढलाई होगी।  

व्याख्या- नये युग में इन्हीं प्रज्ञा की अधिष्ठात्री गायत्री के मन्दिर और यज्ञ शालाएँ बननी चाहिए। उन्हीं के माध्यम से रचनात्मक कार्य चलने चाहिए। महामना मदनमोहन मालवीय कहा करते थे- 

ग्रामें ग्रामे सभाकार्या: ग्रामेग्रामे कथाशभा:। पाठशाला, मल्लशला, प्रतिपर्वा महोत्सवा:॥

अर्थात् गाँव- गाँव ऐसे देवमन्दिर रहे जहाँ से न्याय, पर्व- संस्कार मनाने, विद्याध्ययन, आरोग्य सम्वर्धन के क्रिया कृत्य चलते रहें। केवल मन्दिरों से काम चलेगा नहीं। 

आद्य शंकराचार्य ने जब मान्धाता से यही बात कही तो उन्होंने चार धामों की स्थापना के लिए अपना अंदाय भण्डार खोल दिया। इन तीर्थो के माध्यम से धर्म- धारणा विस्तार की कितनी बड़ी सेवा हुई है- 
इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। 

मन्दिर मात्र पलायनवादी श्रद्धा नहीं, कर्म योगी निष्ठा जगायें तो ही उनकी सार्थकता है। 

जब इन देवालयों से, जनजागृति केन्द्रों के माध्यम से सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की गतिविधियाँ चलने लगेंगी, तो जन- जन में प्रखरता का उदय होगा तथा परिवर्तन के दृश्य सुनिश्चित रूप से दिखाई पड़ने लयोंगे। प्रस्तुत समय संधिवेला का है। आज संसार के सभी विद्धान, ज्योतिर्विद, अतीन्द्रिय दृष्टा इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि युग परिवर्तन का समय आ पहुँचा। परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर है। ऐसे में इन युग देवालयों की भूमिका अपनी जगह बड़ी महत्वपूर्ण है। 

सूरदास ने लिखा है- 
'एक सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसी योग परै। सहस्र वर्ष लौं सतयुग बीते धर्म की बेलि बढ़े ॥'


अर्थात् ११ वीं शताब्दी के अन्त में ऐसा ही परिवर्तन होगा जिसके बाद सहस्रों वर्षों के लिए धर्म का, सुख- शांति का राज्य स्थापित होगा। 

संक्रमण वेला में किस प्रकार की परिस्थितियाँ बनती और कैसे घटनाक्रम घटित होते हैं, इसका उल्लेख महाभारत के वन पर्व में इस प्रकार आता है- 

ततस्तु भूले संघाते वर्तमाने युग क्षये। यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य तया तस्य बृहस्पति: ॥ एकराशौ समेष्यन्ति प्रयत्स्यति तदा कृतम्। कालवर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च ॥ क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम्॥

अर्थात्- जब एक युग समाप्त होकर दूसरे युग का प्रारम्भ होने को होता है, तब संसार में संघर्ष और तीव्र हलचल उत्पन्न हो जाती है। जब चन्द्र, सूर्य, बृहस्पति तथा पुष्य नदात्र एक राशि पर जायेंगे तब सतयुग का शुभारम्भ होगा। इसके बाद शुभ नदात्रों की कृपा वर्षा होगी। पदार्थो की वृद्धि से सुख- समृद्धि , लोग स्वस्थ और प्रसन्न होने लगेंगे। 

इस प्रकार का ग्रह योग अभी कुछ समय पहले ही आ चुका है। अन्याय गणनाओं के आधार पर भी यही समय है। 

विशिष्ट अवसरों को आपत्तिकाल कहते हैं और उन दिनों आपत्ति धर्म निभाने की आवश्यकता पड़ती है। अग्निकाण्ड, दुर्घटना, दुर्भिदा, बाढ़, भूकम्प, युद्ध, महामारी जैसे अवसरों पर सामान्य कार्य छोड़कर भी सहायता के लिए दौड़ना पढ़ता है। छप्पर उठाने, धान रोपने, शादी- खुशी में साथ रहने, सत्प्रयोजनों का समर्थन करने के लिए भी निजी काम छोड़कर उन प्रयोजनों में हाथ बँटाना आवश्यक होता है। युग सन्धि में जागरूकों को युग धर्म निभाना चाहिए। व्यक्तिगत लोभ, मोह को गौण रखकर विश्व संकट की इन घड़ियों में उधस्तरीय कर्त्तव्यों के परिपालन को प्रमुख प्राथमिकता देनी चाहिए। यही है परिवर्तन की इस प्रभात वेला में दिव्य प्रेरणा, जिसे अपनाने में हर दृष्टि से हर किसी का कल्याण है। 

विभीषिकास्तु विश्वस्य दूरीकर्तुं पुनर्भुवि। 
स्वर्ग्यवातवृतिं कर्तुं क्षमानां देवतात्मनाम् ॥७६॥
मानवानां तु सम्भूति: कठिना किन्तु सत्र ये। 
योगदानरतास्तेषां श्रेय: सौभाग्यसम्भव: ॥७७॥

टीका- विश्व- विभीषिकाओं को निरस्त करने और धरती पर पुन: स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न कर सकने वाले देवमानवों का सृजन करने का कार्य कठिन तो है पर उसमें योगदान देने वालों को श्रेय- सौभाग्य भी कम न मिलेगा ॥७६- ७७॥

व्याख्या- दैवी प्रक्रोपों, विभीषिकाओं के मूल में जितना दोष भौतिक रूप से मानव द्धारा उससे उद्धत रूप से छेड़छाड़ करने का है उससे भी अधिक भ्रष्ट चिन्तन और निकृष्ट कर्तृत्व का आश्रय लेने वाली मानवी प्रकृति का है। नियति इसी से रुष्ट होती है एवं मानवजाति को सामूहिक रूप से विभीषिकाओं के रूप में उभर कर त्रास देतीं है। 

परिवर्तन की घड़ियाँ असाधारण उलट- पुलट की होती हैं। असुरता जीवन- मरण की लड़ाई लड़ती है और देवत्व उसे पदच्युत कर धरती पर स्वर्ग लाने के दुष्कर कार्य में कई अवरोधों का सामना करता है। यह कार्य कठिन तो है पर असम्भव नहीं। भूतकाल में भी ऐसे अवसरों पर यही दृश्य उपस्थित हुए हैं जैसे कि इन दिनों सामले हैं। ऐसे अवसरों पर ही जो देवमानव आगे आते हैं, स्वयं श्रेय पाकर धन्य बनते हैं, सारी मानवता को भी कतार्थ कर देते हैं। 

प्रज्ञावतार की दिव्यसत्ता ही प्रमुख है और इन दिनों वही युग परिवर्तन के सरंजाम जुटा रही है। तो भी समग्र कर्तृत्व का वहन उसे अकेले नहीं करना है। सेनापति अकेला नहीं लड़ता, सैनिक भी साथ चलते हैं। हाथ अकेला पुरुषार्थ नहीं करता, दस अँगुलियों व चौबीस पोर भी अपनी दासता के अनुरुप अपने क्या से उस कर्म कौशल में जुड़े रहते हैं। 

साथ जुडे़ श्रेय पाया 

विगत अवतारों में उसके सामयिक सहयोगियों का अविस्मरणीय अनुदान रहा है। राम अवतरण में लक्ष्मण, हनुमान, अंगद, विभीषण, सुग्रीव, नल- नील जैसे वरिष्ठ और सामान्य रीछ वानरों जैसे कनिष्ठ समान रूप से सहगामी रहे हैं। गिद्ध- गिलहरी जैसे अकिंचनों ने भी सामर्थ्यानुसार भूमिकाएँ निभाई हैं। कृष्ण काल में पाण्डवों से लेकर ग्वाल- बालों तक का सहयोग साथ रहा है। बुद्ध के भिक्षु और गाँधी के सत्याग्रही कंधे से कंधा मिलाकर जुटे और कदम से कदम मिलाकर चले हैं। भगवान् सर्व समर्थ है, वे चाहे तो उंगली की नोंक पर पर्वत उठा सकते है और बाराह- नृसिंह की तरह अकेले ही अभीष्ट प्रयोजन पूरे कर सकते हैं, किन्तु प्रियजनों को श्रेय देना भी अवतार का एक बडा काम है। शबरी और कुब्जा जैसी महिलाओं और केवट और सुदामा जैसे पुरुषों को भी अवतार के सखा सहचर होने का लाभ मिला था। गाँधी के सान्निध्य में विनोबा और बुद्ध के सहचर आनन्द जैसे असंख्यों को श्रेय मिला था। भगवान् के अनन्य भक्तों में से नारद जैसे देवर्षि, वशिष्ठ जैसे महर्षि और विभीषण जैसे अगणितों को अविच्छिन्न यश पाने का अवसर मिला है। सहकारिता को, संगठन को सर्वोपरि शक्ति के रूप में प्रतिपादित करने के लिए महान् शक्तियाँ सदा ही यह प्रयत्न करती रही हैं कि जागतों को महत्वपूर्ण अवसरों पर अग्रिम पंक्ति में खड़े होने के लिए उभारा जाय। अर्जुन के साथ तो इसके लिए भर्त्सना जैसे उपाय बरते गये थे। सुग्रीव को धमकाने लक्ष्मण पहुँचे थे। परमहंस- विवेकानन्द को घसीट कर आगे लाये थे। आम्ब्रपाली, अंगुलिमाल, हर्षवर्धन और अशोक से जो लिया गया था उससे असंख्य गुना उन्हें लौटाया गया था। भामाशाह के सौभाग्य पर कितने ही धनाध्यक्ष ईर्ष्या करते रहते हैं। 

महानता की अपनी निजी सामर्थ्य है। उसके आधार पर वह स्वयं गरिमा प्रकट करती ही है, साथ ही अपने सम्पर्क परिकर को भी उन विशेषताओं से भरती और कृतकृत्य बनाती देखी गई है। यह एक परीक्षित तथ्य है, सृजन प्रक्रिया में सहयोग देने वाले कभी घाटे में नहीं रहते। सामयिक रूप से तो उन्हें कष्ट ही सहना पड़ता है, लगता वह घाटे का सौदा ही है पर अन्तत: परिणाम सुखद ही होता है। 

कष्ट सहाश्रेरयार्थी बने

पाण्डवों ने जीवन भर कष्ट सहा। राज सत्ता से पदच्युत किये गये पर नीति पथ से हटे नहीं। भगवान से जुडे़ रहे अन्तत: उनके सहचर- सहयोगी बनकर असुरता के दमन में श्रेय सौभाग्य के अधिकारी बने। 

चरक ऋषि जिन्दगी भर औषधियों के गुणधमों का अन्वेषण व पीडित मानवता हेतु चिकित्सा पद्धति के निर्माण हेतु जुटे रहे है। कष्ट सहने उपरान्त ही वे उस श्रेय को प्राप्त कर सके जो आज आयुर्वेद के प्रणेता के रुप में उन्हें प्राप्त है। 

राम- वनवास की अवधि में सब कुछ साधन सामने होते हुए भी भरत कठोर तपस्वी जैसा जीवन जीते रहे। भाई- भावज के वापस अयोध्या लौटने पर रामराज्य स्थापना में सहयोगी बने। उनके त्याग व निष्ठा ने उन्हें भी सहज ही वह श्रेय प्रदान कर दिया जो रामकाज में जुड़ने वाले हर देवमानव को मिला था। 

चन्द्रगुप्त और राणाप्रताप कठोर जीवन जीकर ही इतिहास में अपना नाम अमर कर पाये, नवसृजन में सहयोगी तो बने ही। 

यह परम्परा हमेशा से रही है। जो संघर्ष के समय आगे आता है, वही श्रेय सम्मान पाता है। 

शतमन्यु आगे आया 

यज्ञ भाग न मिलने के कारण इन्द्र कुपित हो गये। उत्तराखण्ड में अकाल पड़ गया। नरमेध से ही अकाल टल सकता है? कौन उसके लिए आगे आये यह प्रश्न उठ रहा था। तभी शतमन्यु नाम के बालक ने आगे कदम बढ़ाया और धरती धन- धान्य से पूर्ण हो गई। 

सन्मार्ग पर बालक भी चल पड़े तो औरों का उत्साह जगते देर नहीं लगती, विचारशील लोग आगे चलते हैं, किसी की शिकायत नहीं
करते। 

जागृतात्मवतामेतं सन्देशं प्रापयास्तु मे। 
नोपेक्ष्मोऽनुपम: काल: क्रियतां साहसं महत्॥७८॥ 
महान्तं प्रतिफलं लब्ध्वा कृतकृत्या भवन्तु ते। 
जन्मन इदमेवास्ति फलमुद्देश्यरूपकम्॥७१॥ 
अग्रगामिन एवात्र प्रज्ञासंस्थान निर्मिती। 
प्रज्ञाभियान सूत्राणां योग्या: संचालने सदा॥८०॥ 

टीका- अस्तु जागृत आत्माओं तक मेरा यह सन्देश पहुँचाना कि वे इस अनुपम अवसर की उपेक्षा न करें बड़ा साहस करें, बड़ा प्रतिफल अर्जित करके कृतकृत्य बनें। यही उनके जन्म का उद्देश्य है। जो अग्रगामी हों उन्हें प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण तथा प्रज्ञा- अभियान के सूत्र संचालन में जुटाना ॥७८- ८०॥

व्याख्या- जागृत आत्माएँ कभी अवसर नहीं चूकतीं। वे जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित होती हैं, उसे पूरा किये बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। जागृत वे जो अदृश्य जगत में बह रहे प्रकृति प्रवाह को पहचानते हैं, परिवर्तन में सहायक बनते हैं। दूसरे जब आगे चलकर उन परिणामों को देखते हैं तो पछताते हैं कि हमने अवसर की उपेक्षा क्यों कर दी। 

एक बीज फला, दूसरा गला

दो बीज धरती की गोद में जा पड़े। मिट्टी ने उन्हें ढक दिया। दोनों रात सुख की नींद सोये। प्रात:काल दोनों जगे तो एक के अंकुर फूट गये और वह ऊपर उठने लगा। यह देख छोटा बीज बोला- भैया ऊपर मत जाना। वहाँ बहुत भय है। लोग तुझे रौद्र डालेंगे, मार डालेंगे। बीज सब सुनता रहा और चुपचाप ऊपर उठता रहा। धीरे- धीरे धरती की परत पारकर ऊपर निकल आया और बाहर का सौन्दर्य देखकर मुस्कराने लगा। सूर्य देवता ने धूप स्नान कराया और पवन देव ने पंखा डुलाया, वर्षा आई और शीतल जल पिला गई, किसान आया और चक्कर लगाकर चला गया। बीज बढ़ता ही गया। झूमता, लहलहाता, और फलता हुआ बीज एक दिन परिपक्व अवस्था तक जा पहुँचा। जब वह इस संसार से विदा हुआ तो अपने जैसे बीज छोड़कर हँसता और आत्म- सन्तोष अनुभव करता विदा हो गया। 

मिट्टी के अन्दर दबा बीज यह देखकर पछता रहा था- भय और संकीर्णता के कारण मैं जहाँ था वहीं पडा रहा और मेरा भाई असंख्य गुना समृद्धि पा गया। 
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