प्रज्ञा पुराण भाग-1

॥अथ द्वितीयोऽध्याय॥ अध्यात्म दर्शन प्रकरण-5

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प्रगतिर्मानवानां या दुर्गतिर्वा ऽपि दृश्यते । 
तस्य संरचना स्वस्य तात । जानीहि निश्वितम् । । ३९ । । 
मानव: स्वयस्य, भाग्यस्य विधाता स्वयमेव हि । 
तथ्यमेतद् विजानन्ति ये ते तु निजचिंतनम् । । ४० । । 
प्रयासं साधुभावाय योजयन्ति न ते पुन: । 
पतनं पराभवं वापि सहन्ते न च यन्त्रणाम् । । ४१ । । 

टीका- हे तात । मनुष्य की जो भी प्रगति- दुर्गति दृष्टीगोचर होती है? वह उसकी स्वयं की संरचना है यह निश्चित समझो । '' मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है जो इस तथ्य को समझते है'- जो इस तथ्य को समझते है,वे अपने वे अपने 
चिन्तन और प्रयास को सदाशयता के लिए नियोजित करते हैं? ऐसे लोगों में से किसी को भी पतन- पराभव की यन्त्रणा नहीं सहनी पड़ती ३१ ४१ 


व्याख्या- आत्मज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि है यह बोध हो जाना कि हम अपने आप में सर्व समर्थ शक्तिमान सत्ता हैं व अपना भविष्य स्वयं बना सकते हैं । स्पष्टा का यही तो सबसे बड़ा अनुदान है । पुरुषार्थी, आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति कभी भाग्य के भरोसे बैठे नहीं रहते । इसीलिए वे हमेशा अपने चिन्तन 
और प्रयासों को उत्कृष्टता से जोड़कर अपनी परिस्थितियाँ स्वयं विनिर्मित करते हैं । भाग्यवादी तो इसी प्रतीक्षा में अवसर गँवाते चले जाते हैं कि उपयुक्त परिस्थितियाँ हों व बिना श्रम- प्रयास के सब अनुकूल होता चला जाये । 

शास्त्रों मे लिखा है- 

कलि : शयानो भवति संजिहानस्तु  द्वापर :। उत्तिष्ठन्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन् । 
                                                           चरैबेति, चरैबेति

अर्थात्- सोते रहना ही कलियुग है, जागरणोपरान्त जम्हाई लेना द्धापर है, उठ पड़ना ही त्रेता है, उठकर अपने लक्ष्य के लिए गतिशील हो जाना ही सतयुग है । अतएव लक्ष्य प्राप्ति के लिए चलते रहो, आगे 
बढ़ते रहो । 


प्रगति-दुर्गति,अपने ही हाथों

 प्रगति-दुर्गति के दो उद्दाहरण महाभारत में देखने को मिलते है।युधिष्ठिर व दुर्योधन दोनों का कृतित्व ही उनका भविष्य बन गया । धर्मराज ने जुआ खेला तो उन्हें वनवास भोगना पड़ा ।अपनी धर्मनिष्ठा बनाये रख पत्नी व भाईयों सहित उन्होंने उसे भोगा, श्रीकृष्ण को भगवत् स्वरूप माना तथा उनके निर्देश पर धर्म युद्ध लड़ा । सारे पराक्रमी एक ओर होते हुए भी विजय नीति की, आदर्शो की 
हुई । दुर्योधन ने तपस्विनी माँ गांधारी, ब्रह्मज्ञानी भीष्म व द्रोण के सत्परामर्शो की अवहेलना की, अपने ही भाईयों से युद्ध लड़ा व अन्त में पतन को प्राप्त हुआ । सारे कुरुवंश को ले डूबा । 

शक्ति मिल भी जाये, परिस्थितियाँ अनुकूल भी बना दी जायें तो भी सदाशयता का नियोजन न होने से मानवी कर्तृत्व उसे दुर्गति की ओर ही ले जाता है । 


अपङ्गों ने शक्ति पायी-खोयी 

एक बार पाँच ने असमर्थ और अपंग इकट्ठे हुए । अन्धा बोला- मेरी आँखें होती तो जो कुछ अनुपयुक्त दिखाई देता उसे ठीक करता । लँगड़ा बोला- मैं तो दौड़- दौड़कर लोगों की भलाई करता । निर्बल बोला- मेरे पास बल होता तो दीन- दुखियों की सेवा करता । निर्धन ने कहा- मैं धनी होता तो किसी को भूखा न रहने देता । मूर्ख बोला- मैं पण्डित होता तो लोगों को सच्चा ज्ञान देता । वरुणदेव ने उनकी बातें सुनी तो दया आ गई । उनकी इच्छायें उन्होंने पूरी कर दीं । पर अब तो अन्धा सौन्दर्य दर्शन में ही लीन रहने लगा । लंगड़ा सैर- सपाटे के लिए निकल पड़ा । निर्धन धन के नशे में डूब गया । निर्बल दूसरों को सताने लगा और मूर्ख अपनी ही शेखी बघारने लगा । वरुणदेव ने यह देखा तो उन्हें बड़ा दु :ख हुआ । अपनी दी हुई शक्तियां उनसे छीन ली । 

इसी तथ्य को रामायणकार ने इस प्रकार लिखा है- 

करम प्रधान विश्व करि राखा । 
जो जस करहिं तो तस फल चाखा । 


मनुष्य के लिए तो यही उचित है कि वह अपनी गरिमा के अनुरूप सदैव उत्थान की ओर बढ़े । अन्यों को भी साथ ले । 
ऊर्ध्य उठे फिर ना गिरे, यही मनुज को कर्म । औरन ले ऊपर उठे, इससे बडौ न धर्म । इस तथ्य को मनुष्य समझ नहीं पाता और अपनी ही रची नारकीय सृष्टि से दूर भागने का विफल प्रयास करते देखा जाता है । 

स्वयं बिगाड़ा है स्वयं ही सुधारो 

मगध के एक धनी व्यापारी ने बहुत धन कमाया । उसे अपनी सम्पन्नता पर इतना गर्व हुआ कि वह अपने घर के लोगों पर ऐंठा करता । फल हुआ कि उसके लड़के भी उद्दण्ड और अहंकारी हो गये। पिता-पुत्रों में ही ठनने लगी। घर नरक बन गया स्वयं ही सुधारो से गये । इश्ता- पुत्रों में ही ठनने लगी । घर नरक बन गया । 
उद्विग्र व्यापारी ने महात्मा बुद्ध की शरण ली और कहा- '' भगवन्! मुझे इस नरक से मुक्ति दिलाइये, मैं भिक्षु होना चाहता हूँ । '' तथागत ने कुछ सोचकर उत्तर दिया- ' '' भिक्षु बनने का अभी समय नहीं है तात! तुम जैसा संसार चाहते हो वैसा आचरण करो तो घर में स्वर्ग के दर्शन कर सकणै । '' उपवन में तुम्हें शान्ति' नहीं मिलेगी जब तक मन अशान्त है । यह नरक तुम्हारा अपना ही पैदा किया हुआ है । 

व्यापारी घर लौट आया । उसने जैसे ही अपना दृष्टिकोण- व्यवहार- आचरण बदला, सबके हृदय बदले व उसे घर में ही स्वर्ग के दर्शन होने लगे । 

प्रगति- दुर्गति तथा स्वर्ग- नरक किस प्रकार मनुष्य स्वयमेव रचता है, उसका परिचय प्रस्तुत दृष्टान्त से मिलता है । 

यद् भविष्यति की दुर्गति

एक तालाब में तीन मछलियाँ रहती थी- एक का नाम था '' यद्भविष्यति ', दूसरी का '' प्रत्युत्पन्नमति '' तीसरी का '' दूरदर्शी '' । एक दिन मछुआरे आये व बोले कल यहाँ जाल की डालेंगे -काफी मछलियाँ हैं । '' यद्भविष्यति '' ने कहा- ' यहीं रहने में भला है । कल ये लोग आयें आवश्यक नहीं । '' दूरदर्शी बोली- ' भला इसी में है कि आज रात्रि तक यहॉं से निकल जायें । '' अवसर पाकर 
वह तालाब से जुड़े दूसरे पोखर में चली गयी । तीसरी '' प्रत्युत्पन्नमति '' बोली- ' कल जब ये लोग आयेंगे तब परिस्थिति के अनुसार निर्णय लिया जायेगा । '' अगले दिन मछुआरे आये । जाल डाला गया । दोनों पकड़ी गयीं । 
प्रत्युत्पन्नमति ने मृतवत् होने का ढोंग रचा । मृतक समझ मछुआरों ने उसे जाल से निकाल दिया, वह उचककर गहरे पानी में तैरती हुई धारा को पारकर दूसरी ओर चली गयी । '' यद्भविष्यति '' पकड़ी गई व अपनी '' भाग्य पर अवलम्बन '' 
वाली बुद्धि पर रोती रही । 

इसी प्रकार दूरदर्शी, तुरन्त निर्णय लेने वाले व भविष्य- भाग्य पर विश्वास कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वाले 
तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं । वे इस तथ्य की पूरी साक्षी देते हैं कि '' मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है । '' 


वयं यद् ब्रह्मतत्वस्य भुने मु कुर्मोऽष्वगाहनम् । 
न विवेच्यो विराट् तत्र परमेतदवेहि यत् । । ४२ । । 
मानवानामन्तराले सत्ता या विद्यते प्रभो :। 
तस्मा महामहत्तां तु कथं ज्ञातुं क्षमा वयम् । । ४३ । । 
कथं पश्याम एवं च कथं कुर्मस्तथात्मसात् । 
प्रयोजनमिदं सर्व ब्रह्मविद्या प्रचक्षते । । ४४ । । 

टीका- हे ऋषि श्रेष्ठ! हम लोग जिस ब्रह्मतत्व का अवगाहन करते है उसमें उद्देश्य विराट् की विवेचना नहीं? वरन् यह है कि मानवी अन्तराल में विद्यमान ईश्वरीय- सत्ता की महान् महत्ता को किस प्रकार समझा जाय एवं उसे कैसे देखा उभारा व अपनाया जाय । इस सम्पूर्ण प्रयोजन को ही 
ब्रह्मविद्या कहते है । ४४ ।


 व्याख्या-महाप्राज्ञ पिप्पलाद विषय की गूढ़ता को देखते हुए उसे अधिक स्पष्ट करने का प्रयास करते हुए ब्रह्मविद्या एवं विराट् विश्वपुरुष परब्रह्म की विवेचना में अन्तर बताते हैं । सृष्टि का व्यापक विस्तार और उसमें संव्याप्त जड़- चेतन का सम्मिश्रित लीला जगत तो वह पक्ष हुआ जिसे विराट्' के नाम से ऋषिवर ने सम्बोधित किया है । इसी तथ्य को ऋग्वेद में ऋषि ने समझाते हुए कहा है- ' है मनुष्यो! बर्फ से आच्छादित पहाड़, नदियाँ समुद्र जिसकी महिमा का गुणगान करते हैं, दिशाएँ जिसकी भुजाएँ हैं, हम उस विराट् विश्वपुरुष परमात्मा
को कभी न भूलें ?' '' 

ब्रह्मविद्या वह विज्ञान है जिसके अन्तर्गत परमपिता के अंशरुप में विद्यमान अपने अन्दर अवस्थित सत्ता की महत्ता को समझा, उभारा एवं विकसित किया जाता है । उपासना ईश्वर के इसी रूप की की जाती है । परब्रह्म तो अचिस्थ्य, अगोचर है, उसके क्रिया- कलापों को जड़- चेतन में, गति- विधियों तथा सृष्टि विज्ञान 
के विभिन्न स्वरूपों में देखा जा सकता है पर जिस ईथर, परमात्मा, भगवान, इष्ट कीं उपासना- साधना अभ्यर्थना करने की चर्चा की जाती है वह तो मनुष्य के अन्दर ही बीज रूप में विद्यमान है । इसे पहचान कर, आच्छादित आवरणों को हटाकर जो विकसित कर लेता है वह महामानव देवदूत, ऋषि स्तर तक जा 
पहुँचता है । ऋद्धि- सिद्धियाँ इसी आत्मतत्व के अनुदान रूप में बरसती है- कहीं बाहर से नहीं टपकतीं । 

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के मोक्ष संन्यासयोग बिषयक अध्याय में इस गुह्मज्ञान को और भी अधिक अच्छी तरह स्पष्ट किया है । '' 'ईश्वर:सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन  तिष्ठति' '- इस प्रकार कहते हुए भगवान 
अर्जुन को समझाते हैं- ' हे अर्जुन! यंत्र पर आरूढ़ हुए के समान सब भूतों को  अपनी शक्ति से घुमाता हुआ ईश्वर सब जीवधारियों के हृदय में वास करता है । हे भरत पुत्र! तू उसी ईश्वर की शरण में समर्पित हो जा । उसके प्रसाद से तुझे परमशान्ति और शाश्वत आनन्द मिलेगा । यह गुह्मज्ञान मैंने तुझे कहा है, इस पर अच्छी तरह विचार कर ।' '' 

मीरा चैतन्य महाप्रभु, रैदास तथा कबीर आदि सन्तों- महामानवों ने अपने इसी ईश्वर को तो पूजा है । उनकी साधना- उपासना अन्तर्जगत में विराजमान ईश्वर की थी । प्रतीक उसका कुछ भी हो । यह ब्रह्मविद्या की साधना किस व्यक्ति को कितना ऊँचा उठा सकी यह इसी पर निर्भर करता है कि किसने आत्म 
तत्व को समझने का प्रयास किया व उसे विकसित किया । 
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