प्रज्ञा पुराण भाग-1

॥अथ द्वितीयोऽध्याय॥ अध्यात्म दर्शन प्रकरण-7

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परिश्रममनोयोगस्यास्ति वित्तं फलं ध्रुवम् ।
प्रत्यक्षं नीतियुक्तं तु वित्तमेतदुपार्जयेत् ।। ४२ ।।
देशवासिजनानां च स्तरं हि प्रति पूरुषम् ।
गृह्नन् स्वकीयनिर्वाह स्वीकर्त्तव्य: सदैव च ।। ५० ।।
मितव्ययित्विमागृह्नन् योग्यतामत्र: वर्धयन् ।
सदाशयत्यमार्गेण भरितव्यास्तु दुर्बलाः ।। ५१ ।।

टीका- परिश्रम एवं मनोयोग का प्रत्यक्ष फल धन है? नीतिपूर्वक कमाया और औसत देशवासी के स्तर का निर्वाह अपनाते हुए बचत की योग्यता को बढ़ाने, सदाशयता को अपनाने एवं असमर्थो की सहायता करने में लगाना चाहिए ॥४९-५१॥

व्याख्या-भौतिक हो या आत्मिक प्रगति, दोनों ही क्षेत्र के पथिक को अपव्यय की तनिक भी छूट नहीं है । प्रश्न यह नहीं कि पैसा अपना है या पराया, मेहनत सेर कमाया या मुक्त में मिला है, उसे हर हालत में जीवनोपयोगी, समाजपयोगी सामर्थ्य मानना चाहिए ! और एक-एक पाई का उपयोग मात्र
सत्प्रयोजनों हेतु ही होना चाहिए ।

श्रम, समय एवं मनोयोग- ये तीन सूक्ष्म सम्पदाएँ भगवत् प्रदत्त हैं, इन्हीं का प्रत्यक्ष-स्थूल फल है । तत्यथः धन को काल देवता एवं श्रम देवता का सम्मिलित अनुदान मानना चाहिए । जैसी दूरदर्शिता समय के अपव्यय के लिए बरतने को कहा जाता है, वैसी ही धन की बर्बादी पर भी लागू हो । बचाया धन सदैव
परमार्थ में लगे ।

पिसनहारी का कुआँ
 
मथुरा के समीप एक छोटे गांव की बाल विधवा ने सारे दिन चक्की चलाकर दो आना रोज कमाने और गुजारा करने का नियम बनाया था । वह जीवन भर निभा । उन दिनों के दो आनों की कीमत आज कई गुना मानी जा सकती है । दो पैसा रोज उसने इसी दो आना में से नियमित रूप से परमार्थ के बचाये और वृद्धावस्था तक एक हजार की राशि से मथुरा-देहली मार्ग पर एक पक्का कुआँ बना दिया ।
मधुर, शीतल, आरोग्यवर्द्धक जल वाला यह कुआँ 'पिसनहारी का कुआँ' नाम से प्रख्यात है । जो इसका इतिहास सुनता है, शीतल जल पीता है, उसकी अन्तरात्मा अनायास ही उस स्वर्गस्थ उदार देवात्मा की स्मृति में शत-शत नमन से संयुक्त भावभरी श्रद्धांजलि पुलकित मन से चढाती चली जाती है । यदि भावना हो, अन्त: से उदारमना वृत्ति प्रकट
हो सके तो परमार्थ के लिए क्या कुछ नहीं किया जा सकता ।

भिखारी से उद्यमी, दानी फिर लोकसेवी- स्मार्त देश में 'निर्धन-बखरी' नाम का एक ऐसा स्थान था जहां प्रतिदिन जो भी व्यक्ति पहुंचता उसे पेट भर भोजन मिलता । इस स्थान पर कभी एक निर्धन भिक्षु रहा करता था । एक दिन एक स्त्री की प्रताड़ना से दु:खी होकर उसने भिक्षा वृत्ति त्याग दी और श्रम करने लगा । कुछ ही दिन में परिश्रम से काफी सम्पत्ति हो गई । वह व्यापार करने लगा । अथाह धन एकत्र हो गया । एक दिन वही स्त्री भीख
मांगती उसके पास पहुंची जिसने उसे प्रताड़ित किया था । भिक्षु का मन भर आया । उसने अपनी सारी सम्पत्ति क्षुधार्तो के लिए दान कर दी और लोकसेवी हो गया ।

पति की सम्पत्ति का सुनियोजन- असमथों की सहायतार्थ नियोजित धन मेघों के रूप में दाता के ऊपर बरस कर उसे भावनाशीलों की भावांजलियों से कृतार्थ कर देता है । गुजरात के एक गाँव की सत्य घटना है । तीस वर्ष की आयु में ही पति परलोक वासी हो गया ।
पीछे छोड़ गये तीस बीघा जमीन और हल-बैल । पत्नी ने सोचा यह पति की सम्पदा है । इस पर मेरा क्या अधिकार । मुझे भगवान ने दो हाथ इसीलिए दिये हैं, उन्हीं की कमाई खाऊं । फिर पति की सम्पत्ति का क्या उपयोग हो ?
उसने देखा गाँव में पानी की बड़ी कमी है । स्त्रियों को एक मील दूर के कुएँ से पानी लाना पड़ता है । पशुओं को पानी पिलाने की बड़ी दिक्कत पड़ती है । सो उसने पति की जमीन, हल, बैल सब बेचकर गांव के एक समझदार सज्जन की देख-रेख में एक कुआ खुदवा दिया । पशुओं के पानी पीने के लिए एक पक्की हौदी भी बनवा दी ।

भिन्न कार्यों के भिन्न दीपक

 नीतिपूर्वक कमाना व उस धन को अपना नहीं समाज का मानकर औसत स्तर का जीवन जीना ही महामानवों की विशेषता रही है । मनीषी जीलानी के जीवन का एक प्रसंग है । वे रात्रि के पहले प्रहर में राज्य के आदेशानुसार एक पुस्तक लिखा करते थे और चौथे प्रहर को अपनी पूजा
आराधना में लगाते थे । दोनों काम वे रात में ही करते थे । दिन दूसरे कामों में बीत जाता था । उनके पास दो दीपक थे । जब पुस्तक लिखते तो एक दीपक जलाते और जब पूजा का समय आता तो दूसरे को जलाया करते थे । एक मित्र ने कारण पूछा तो उनने बताया कि पुस्तक राज्य के लिए लिखी जाती है, इसलिए उसमें तेल राज्य का जलता है और पूजा मेरी व्यक्तिगत है इसलिए इसमें निजी तेल जलाता हूं । सच्चे मन और धर्म से उपार्जित साधनों
से सम्पन्न किए गये सत्कर्म ही फलित होते है ।

अपव्ययेन चैवाथानावश्यकसुसंग्रहै: ।
नैकधौत्यद्यते भूयो दुष्प्रवृत्तिस्ततः क्रमात् ।। ५२ ।।
अपव्ययेन मन्ये दुष्प्रवृत्तीरनेकधा ।
क्रीणन्ति चात्मनोSन्येषामहितं कुर्वते भृशम् ।। ५३ ।।

टीका- अपव्यय एवं अनावश्यक संग्रह से अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती हैं ? अपव्यय
करने वाले मानो बदले में दुष्प्रवृत्तियाँ खरीदते है और उनसे अपना तथा दूसरों का असीम अहित करते है ।

व्याख्या- बुद्धिमानी की सही परख यही है कि जो भी कमाया जाय, उसका अनावश्यक संचय अथवा अपव्यय न हो । जो उपार्जन को सदाशयता में नहीं नियोजित करता वह घर में दुष्प्रवृत्तियाँ आमंत्रित करता है । लक्ष्मी उसी घर में बसती है, फलती है जहाँ उसका सदुपयोग हो । आड़म्बर युक्त प्रदर्शन, फैशन
परस्ती, विवाहों में अनावश्यक खर्च, जुआ जैसे दुर्व्यसन ऐसे ही घरों में पनपते हैं, जहाँ उपार्जन के उपयोग पर ध्यान नहीं दिया जाता, उपभोग पर नियंत्रण नहीं होता । भगवान की लानत किसी को बदले में लेनी हो तो धन को स्वयं अपने ऊपर अनाप-शनाप खर्च कर अथवा दूसरों पर अनावश्यक रूप से लुटाकर सहज ही
आमंत्रित कर सकता है ।

ऐसे उदाहरण आज के भौतिकता प्रधान समाज में चारों ओर देखने को मिलते हैं । परिवारों में कलह तथा सामाजिक अपराधों की वृद्धि का एक प्रमुख कारण अपव्यय की प्रवृत्ति भी है ।

समुद्र संचय नहीं करता, मेघ बनकर बरस जाता है तो बदले में नदियाँ दूना जल लेकर लौटती हैं । यदि वह भी कृपण हो संचय करने लगता तो नदियाँ सूख जाती, अकाल छा जाता और यदि अत्यधिक उदार हो धनघोर बरसने लगता तो अतिवृष्टि की बिभीषिका आ जाती । अत: समन्वित नीति ही ठीक है ।

जहाँ सुमति तहाँ सम्पत्ति- यहाँ स्थति तहाँ एक सेठ बहुत धनी था । उसके कई लड़के भी थे । परिवार बढ़ा पर साथ ही सबमें मनोमालिन्य, द्वेष एवं कलह रहने लगा । एक रात को लक्ष्मीजी ने सपना दिया कि मैं अब तुम्हारे घर से जा रही हूँ । पर चाहो तो चलते समय का एक वरदान मांग लो । सेठ ने कहा- ''भगवती आप प्रसन्न हैं तो मेरे घर का कलह दूर कर दें, फिर आप भले ही चली जाँय ।"

लक्ष्मीजी ने कहा- 'मेरे जाने का कारण ही गृह कलह था । जिन घरों में परस्पर द्वेष रहता है, मैं वहाँ नहीं रहती । अब जब कि तुमने कलह दूर करने का वरदान मांग लिया और सब लोग शांतिपूर्वक रहोगे तब तो मुझे भी यहीं ठहरना पड़ेगा । सुमति वाले घरों को छोड़कर मैं कभी बाहर नहीं जाती ।"

दो मित्र की की गति परिणति- दो मित्र एक साथ खेले, बड़े हुए । पढ़ाई में भी दोनों आगे रहते थे । एक धनी घर का था और उसे खर्च की खुली छूट थी । दूसरा निर्धन पर संस्कारवान घर से आया था व सदैव सीमित खर्च करता । धनी मित्र जब तक साथ रहा उसे अपनी फिजूलखर्ची में साथ रहने को आमंत्रित करता रहा । पर उसने उसकी यही बात न मानी शेष बातों पर सदैव परामर्श लेता भी रहा और उसे सुझाव देता भी कि अक्षय सम्पदा होते हुए भी तुम्हें खर्च अनावश्यक नहीं करना चाहिए ।

दोनों कालान्तर में अलग हुए । निर्धन मित्र ने अध्यापक की नौकरी स्वीकार कर ली व धनी मित्र ने व्यापार में धन लगाकर अपना कारोबार अलग बना लिया । १० वर्ष बाद दोनों की सहसा मुलाकात एक औषधालय में हुई ।
धनी मित्र अपना धन तो चौपट कर ही चुका था, अन्य दुव्यर्सनों के कारण जिगर खराब होने से औषधालय में चिकित्सार्थ भर्ती था । दूसरी ओर उसका मित्र अब एक विद्यालय का प्रधानाचार्य था । पति-पत्नी व एक बालक
सीमित खर्च में निर्वाह करते थे । प्रसन्न उल्लास युक्त जीवन जीते थे । दोनों ने एक दूसरे की कथा-गाथा सुनी । धनी मित्र की आँखों से आँसू लुढ़क पड़े "मित्र ! मैंने तुम्हारा कहा माना होता तो आज मेरी यह स्थिति न होती ।
अनावश्यक खर्च की मेरी वृत्ति ने आज मुझे यहाँ तक पहुँचा दिया ।'' दूसरे ने सहानुभूति दर्शायी, यथा सम्भव आर्थिक सहयोग देकर उसे नये सिरे से जीवन जीने योग्य बना दिया ।

धनार्जने यथा बुद्धेरपेक्षा व्ययकर्मणि ।
ततोऽधिकैव सापेक्ष्या तत्रौचित्सस्य निश्चये ।। ५४ ।।

टीका- धन कमाने में जितनी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता पड़ती है, उससे अनेक गुनी व्यय के औचित्य का निर्धारण करते समय लगनी चाहिए ।। ५४ ।।

व्याख्या-सही तरीके से कमाना व सही कामों में औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखकर खर्च करना ही लक्ष्मी का सम्मान है । इसलिए अर्थ संतुलन के मितव्ययिता पक्ष को प्रधानता दी जाती है । ध्यान यही रखा जाय कि जो भी बचाया जाय उसको उचित प्रयोजनों में नियोजित कर दें ।

रत्नों से श्रेष्ठ चक्का- एक राजा ने महात्मा को अपने हीरे-मोतियों से भरा खजाना दिखाया । महात्मा ने पूछा- 'इन पत्थरों से आपको कितनी आय होती है ? राजा ने कहा- आय नहीं होती बल्कि इनकी सुरक्षा पर व्यय होता है ? महात्मा राजा को एक किसान की झोपड़ी में ले गया । वहाँ एक स्त्री चक्की
से अनाज पीस रही थी । महात्मा ने उसकी ओर संकेत कर कहा- पत्थर तो चक्की भी है और तुम्हारे हीरे मोती भी । परन्तु इसका उपयोग होता है और यह नित्य पूरे परिवार का पोषण करने योग्य राशि दे देती है । तुम्हारे हीरे-मोती तो उपयोग हीन है । उन्हें यदि परमार्थ में खर्च करोगे तो सुरक्षा-व्यय तो बचा ही लोगे बदले में जन श्रद्धा, दैवी अनुदान अजस्र मात्रा में पाओगे ।''

अशोक द्वारा सूबेदारों को इनाम- सम्राट अशोक ने अपने जन्म-दिवस पर राज्य के सब सूबेदारों को बुलाकर कहा कि- 'मैं इस वर्ष सबसे अच्छे काम करने वाले सूबेदार को आज इनाम दूँगा सब लोग अपने सूबे का हाल सुनाते जायें ।'
उत्तरी प्रदेश के सूबेदार ने कहा- 'सम्राट ! मैंने इस साल अपने सूबे की आमदनी तिगुनी कर  दी है ।' दक्षिण के सूबेदार ने आगे आकर कहा-'राज्य के खजाने में प्रतिवर्ष जितना सोना भेजा जाता था, इस साल मैंने उससे दूना सोना भेजा है ।' पूरब के सूबेदार ने कहा-' महाराज । पूर्व की बदमाश प्रजा को मैंने पीस डाला है ।   अब वह कभी मेरे सामने आँख नहीं उठा सकती ।' पश्चिम का सूबेदार बोला-' मैंने प्रजा से लिया जाने वाला कर बढ़ा
दिया है और राज्य के नौकरों का खर्च कम करके राजकीय आय में काफी उन्नति की है, खजांची यह बात जानता है ।'

अन्त में मध्य प्रान्त के सूबेदार ने कहा- 'महाराज! क्षमा कीजिएगा । मैं इस वर्ष राज्य की आमदनी में कुछ भी वृद्धि नहीं कर पाया हूँ ? बल्कि राज्य के खजाने में हर साल की अपेक्षा कम रुपये भेजे हैं क्योंकि मैंने अपने प्रदेश में आपकी प्रजा को शिक्षित करने के लिए नये-नये स्कूल खोले हैं । किसानों की सुविधाओं केलिए बहुत से कुएं
खुदवाये हैं । सार्वजनिक धर्मशाला तथा दवाखाने बनवाने में भी बहुत धन खर्च हो गया है । ''मध्य प्रान्त के सूबेदार की अपनी प्रजा के प्रति ऐसी सच्ची लगन देखाकर सम्राट ने उसी को इनाम दिया । शेष सबको यही कहा- 'आप सब यही परम्परा अपनाते तो सुरा राज्य ही सुखी-समुन्नत हो उठता ।'
तीन प्रकार के धनिक- एक बार एक भक्त ने नानक से पूछा आप कहते है कि सब पैसे वाले एक से नहीं होते । इसका क्या तात्पर्य है ।' नानक बोले- 'उत्तम लोग वे है जो उपार्जन को सत्प्रयोजनों के निमित्त खर्च कर देते हैं । मध्यम श्रेणी के व्यक्ति वे है जो कमाते है, जमा करते हैं पर सदुपयोग करना भी जानते है । तीसरी
श्रेणी उनकी है जो कमाते नहीं, कहीं से पा जाते है और उडा़ जाते हैं । ऐसे लोग संसार में पतन का कारण बनते है ।
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