प्रज्ञा पुराण भाग-1

लोककल्याण- जिज्ञासा प्रकरण - प्रथमोऽध्यायः-4

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बन्दा बैरागी की साधना

बन्दा वैरागी भी इसी प्रकार समय की पुकार की अवहेलना कर, संघर्ष में न लगकर एकान्त साधना कर रहे थे। उन्हीं दिनों गुरुगोविन्दसिंह की बैरागी से मुलाकात हुई। उन्होंने एकान्त सेवन को आपत्तिकाल में हानिकारक बताते हुए कहा- "बन्धु! जब देश, धर्म, संस्कृति की मर्यादाएँ नष्ट हो रही है और हम गुलामी का जीवन बिता रहे है, आताताइयों के अत्याचार हम पर हो रहे है उस समय यह भजन, पूजन, ध्यान, समाधि आदि किस काम के हैं?"

गुरुगोविन्दसिंह की युक्तियुक्त वाणी सुनकर बन्दा वैरागी उनके अनुयायी हो गए और गुरु की तरह उसने भी आजीवन देश को स्वतन्त्र कराने, अधर्मियों को नष्ट करने और संस्कृति की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। इसी उद्देश्य के लिए बन्दा वैरागी आजीवन प्रयत्नशील रहे। मुसलमानों द्वारा वैरागी पकड़े गये, उन्हें एक पिंजरें में बन्द किया गया। मौत या धर्म परिवर्तन की शर्त रखी गई, लेकिन वे तिल मात्र भी विचलित नहीं हुए। अन्तत: आतताइयों ने उनके टुकड़े- टुकडे कर दिये। बन्दा अन्त तक मुस्कराते ही रहे। भले ही बन्दा मर गये परन्तु अक्षय यश और कीर्ति के अधिकारी बने। 

भगवान् का आमन्त्रण 

यह एक प्रमाणित तथ्य हैं कि जिन्होंने भगवान का आमन्त्रण सुना है वह कभी घाटे में नहीं रहे। बुद्ध ने 'धर्मम् बुद्धम् संघम् शरणम् गच्छामि' का नारा लगाया और संव्याप्त अनीति- अनाचार से जूझने हेतु आमन्त्रण दिया तो असंख्यों व्यक्ति युग की पुकार पर सब कुछ छोड़कर उनके साथ हो लिए। उन्होंने तत्कालीन व्यवस्था को बदलने के लिए उन भिक्षुओं के माध्यम से जो बौद्धिक क्रान्ति सम्पन्न की, उसी का परिणाम था कि कुरीतियुक्त समाज का नव निर्माण सम्भव हो सका। 

इसी तरह का चमत्कार गाँधी युग में भी उत्पन्न हुआ। अंग्रेजों की सामर्थ्य और शक्ति पहाड़ जितनी ऊँची थी। उन दिनों यह कहावत आम प्रचलित थी कि अंग्रेजों के राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था। बुद्धि, कौशल में भी उनका कोई सानी नहीं था। फिर निहत्थे मुट्ठी भर सत्याग्रही उनका क्या बिगाड़ सकते थे। हजार वर्ष से गुलाम रही जनता में भी ऐसा साहस नहीं था कि इतने शक्तिशाली साम्राज्य से लोहा ले सके और त्याग- बलिदान कर सके। ऐसी निराशापूर्ण परिस्थितियों में भी फिर एक अप्रत्याशित उभार उमड़ा और स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ा, यही नहीं अन्तत वह विजयी होकर रहा। 

उस संग्राम में सर्वसाधारण ने जिस पराक्रम का परिचय दिया वह देखते ही बनता था। असमर्थो की समर्थता, साधनहीनों को साधनों की उपलब्धता तथा असहायों को सहायता के लिए न जाने कहाँ से अनुकूलताएँ उपस्थित हुई और असम्भव लगने वाला लक्ष्य पूरा होकर रहा। 

सोत्सुकं नारदोऽपृच्छद्देवात्र किमपेक्ष्यते। 
कथं ज्ञेया वरिष्ठास्ते किं शिक्ष्या:कारयामि किम् ॥३७॥ 
यैन युगसन्धिकाले ते मूर्धन्या यान्तु धन्यताम्। 
समयश्चापि धन्य: स्यात्तात तत्सृज युगविधिम् ॥३८॥
पूर्वसंचितसंस्कारा श्रुत्वा युगनिमन्त्रणम्। 
मौना: स्थातुंन शख्यन्ति चौत्सुक्यात् संगतास्तत॥३९॥

टीका-  तब नारद ने उत्सुकतापूर्वक पूछा- हे देव। इसके लिए क्या करने की आवश्यकता है? वरिष्ठों कों कैसे ढूँढा जाय? उन्हें क्या सिखाया जाय और क्या कराया जाय? जिससे युग- सन्धि की बेला में अपनी भूमिका से मूर्धन्य आत्माएँ स्वयं धन्य बन सकें और समय को धन्य बना सकें। भगवान् बोले-  हे तात्! युग सृजन का अभियान आरम्भ करना चाहिए? जिनमें पूर्व संचित संस्कार होंगे वे युग निमन्त्रण सुनकर मौन बैठे न रह सकेंगे, उत्सुकता प्रकट करेंगे, समीप आवेंगे और परस्पर सम्बद्ध होंगे ॥३७- ३९॥

व्याख्या- जागृत आत्माएँ कभी भी चुप बैठी नहीं रह सकती। उनके अर्जित संस्कार व सत्साहस युग की पुकार सुनकर उन्हें आगे बढ़ने व अवतार के प्रयोजनों हेतु क्रियाशील होने को बाध्य कर देते हैं। 

जटायु व गिलहरी चुप नहीं बैठे

पंख कटे जटायु को गोद में लेकर भगवान् राम ने उसका अभिषेक आँसुओं से किया। स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए भगवान् राम ने कहा- तात्। तुम जानते थे रावण दुर्द्धर्ष और महाबलवान है, फिर उससे तुमने युद्ध क्यों किया ?

अपनी आँखों से मोती ढुलकाते हुए जटायु ने गर्वोन्नत वाणी में कहा- ' प्रभो! मुझे मृत्यु का भय नहीं है, भय तो तब था जब अन्याय के प्रतिकार की शक्ति नहीं जागती? 

भगवान् राम ने कहा- तात्! तुम धन्य हो! तुम्हारी जैसी संस्कारवान् आत्माओं से संसार को कल्याण का मार्गदर्शन मिलेगा। 

गिलहरी पूँछ में धूल लाती और समुद्र में डाल आती। वानरों ने पूछा- देवि! तुम्हारी पूँछ की मिट्टी से समुद्र का क्या बिगडे़गा। तभी वहाँ पहुँचे भगवान् राम ने उसे अपनी गोद में उठाकर कहा 'एक- एक कण धूल एक- एक बूँद पानी सुखा देने के मर्म को समझो वानरो। यह गिलहरी चिरकाल तक सत्कर्म में सहयोग के प्रतीक रूप में सुपूजित रहेगी। '

जो सोये रहते हैं वे तो प्रत्यक्ष सौभाग्य सामने आने पर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते। जागृतात्माओं की तुलना में उनका जीवन जीवित- मृतकों के समान ही होता है। 

सोते हो? नही, 
जीते हो? नहीं

एक बार भगवान् बुद्ध एक रात्रि प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन सुनने के लिए बैठा हुआ व्यक्ति बार- बार नींद के झोंके ले रहा था। तथागत ने उस ऊँघते हुए व्यक्ति से कहा- 'वत्स! सो रहे हो?'- ' नहीं भगवन्!' हड़बड़ा कर ऊँघते हुए व्यक्ति ने कहा। प्रवचन पूर्ववत् चालू हो गया और उक्त श्रोता फिर पहले की तरह ऊँघने लगा। भगवान बुद्ध ने तीन- चार बार उसे जगाया परन्तु वह 'नहीं भगवन्' कहता और फिर सो जाता। अन्तिम बार तथागत ने पूछा- ' वत्स जीवित हो, नहीं भगवन् - सदा की तरह उत्तर दिया श्रोता ने। श्रोताओं में हँसी की लहर दौड़ गयी। भगवान बुद्ध भी मुस्कराये, फिर गम्भीर होकर बोले- ' वत्स! निद्रा में तुमसे सही उत्तर निकल गया। जो निद्रा में है वह मृतक समान है। '

अवतार के लिए तो महत्व आमन्त्रण सुनकर जग उठने, व्यामोह छोड़कर तत्पर हो जाने वालों का ही होता है। 

दीपक का आश्वासन

सूरज विदा होने को था- अंधकार की तमिस्रा सन्निकट थी। इतने में एक टिमटिमाता दीपक आगे आया और सूरज से बोल उठा- 'भगवन्! आप सहर्ष पधारें। मैं निरन्तर जलते रहने का व्रत नहीं तोडूँगा जैसे आपने चलने का व्रत नहीं तोड़ा है। आपके अभाव में थोड़ा ही सही, पर प्रकाश देकर अंधकार को मिटाने का मैं पूरा- पूरा प्रयास करूँगा। ' छोटे से दीपक का आश्वासन सुनकर सूर्य भगवान ने उसके साहस की सराहना की व सहर्ष विदा हुए। 

प्रयत्न भले ही छोटे हों पर प्रभु के कार्यों में ऐसे ही भावनाशीलों का थोड़ा- थोड़ा अंश मिलकर युगान्तरकारी कार्य कर दिखाता है। 

आदर्शवादी दुस्साहस की ही प्रशंसा होती है। वह सत्साहस के रूप में उत्पन्न होता है और असंख्यों को अनुप्राणित करता है। श्रेय किस व्यक्ति को मिला यह बात नितान्त गौण है। यह तो झण्डा लेकर आगे चलने वाले की फोटो के समान है। जबकि उस सैन्यदल में अनेकों का शौर्य, पुरुषार्थ झण्डाधारी की तुलना में कम नहीं, अधिक होता है। 

सत्यात्रतां गतास्ते चु तत्वज्ञानेन बोधिता:। 
कार्या: संक्षिप्तसारेण यदमृतमिति स्मृतम्॥४०॥
तुलना कल्पवृक्षेण मणिना पारदेन च। 
यस्य जाता सदा तत्त्वज्ञानं तत्ते वदाम्यहम्॥४१॥
तत्त्वचिन्तुनत: प्रज्ञा जागर्त्यात्मविनिर्मितौ। 
प्राज्ञ: प्रसज्जते चात्मविनिर्माणे च सम्भवे॥४२॥
तस्यातिसरला विश्वनिर्माणस्यास्ति भूमिका। 
कठिना दृश्यमानापि ज्ञानं कर्म भवेत्तत:॥४३॥
प्रयोजनानि सिद्धयन्ति कर्मणा नात्र संशय:। 
सद्ज्ञान देव्यास्तस्यास्तु महाप्रज्ञेति या स्मृता॥ ४४॥
आराधनोपासना संसाधनाया उपक्रम:। 
व्यापकस्तु प्रकर्तव्यो विश्वव्यापी यथा भवेत्॥४५॥

टीका- ऐसे लोगों को सत्पात्र माना जाय और उन्हें उस तत्व ज्ञान को सार संक्षेप में हृदयंगम कराया जाय जिसे अमृत कहा गया है? जिसकी तुलना सदा पारसमणि और कल्पवृक्ष से होती रही है? वही तत्वज्ञान तुम्हें बताता हूँ। तत्व- चिन्तन से 'प्रज्ञा' जगती है। प्रज्ञावान आत्मनिर्माण में जुटता है। जिसके लिए आत्मनिर्माण कर पाना सम्भव हो सका है उसके लिए विश्व निर्माण की भूमिका निभा सकना अति सरल है भले ही वह बाहर से कठिन दीखती हो। ज्ञान ही कर्म बनता है। कर्म से प्रयोजन पूरे होते हैं इसमें सन्देह नहीं। उस सद्ज्ञान की देवी 'महाप्रज्ञा' है! जिनकी इन दिनों उपासना- साधना और आराधना का व्यापक उपक्रम बनना चाहिए ॥४०- ४५॥

व्याख्या- सत्पात्रों को गायत्री महाविद्या का अमृत, पारस, कल्पवृक्ष रूपी तत्व ज्ञान दिया जाना इस कारण भगवान ने अनिवार्य समझा ताकि वे अपने प्रसुप्ति को जगा- प्रकाशवान हों- ऐसे अनेक के हृदय को प्रकाश से भर सकें। अमृत अर्थात् ब्रह्मज्ञान- वेदमाता के माध्यम से, पारस अर्थात् भावना- प्रेम- विश्वमाता के माध्यम से एवं कल्पवृक्ष अर्थात् तपोबल- देवत्व की प्राप्ति- देवमाता के माध्यम से। ये तीनों ही धाराएँ एक ही महाप्रज्ञा के तीन दिव्य प्रवाह हैं। अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति का निवारण प्रत्यक्ष कामधेनु गायत्री के अवलम्बन से ही सम्भव है। 

गायत्री ब्रह्म विद्या है। उसी को कामधेनु कहते हैं। स्वर्ग के देवता इसी का पयपान करके सोमपान का आनन्द लेते और सदा निरोग, परिपुष्ट एवं युवा बने रहते हैं। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा गया है। इसका आश्रय लेने वाला अभावग्रस्त नहीं रहता। गायत्री ही पारस है। जिसका आश्रय, सान्निध्य लेने वाला लोहे जैसी कठोरता, कालिमा खोकर स्वर्ण जैसी आभा और गरिमा उपलब्ध करता है। गायत्री ही अमृत है। इसे अन्तराल में उतारने वाला अजर- अमर बनता है। स्वर्ग और मुक्ति को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। यह दोनों ही गायत्री द्वारा साधक को अजस्र-  अनुदान के रूप में अनायास ही मिलते हैं। मान्यता है कि गायत्री माता का सच्चे मन से अंचल पकड़ने वाला कभी कोई निराश नहीं रहता। संकट की घड़ी में वह तरण- तारिणी बनती है। उत्थान के प्रयोजनों में उसका समुचित वरदान मिलता है। अज्ञान के अन्धकार में भटकाव दूर करके और सन्मार्ग का सही रास्ता प्राप्त करके चरम प्रगति के लक्ष्य तक जा पहुँचना गायत्री माता का आश्रय लेने पर सहज सम्भव होता है। 

प्रज्ञा व्यक्तिगत जीवन को अनुप्राणित करती है, इसे 'ऋतम्भरा' अर्थात् श्रेष्ठ में ही रमण करने वाली कहते हैं। महाप्रज्ञा इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। उसे दूरदर्शिता, विवेकशीलता, न्यायनिष्ठा, सद्भावना, उदारता के रूप में प्राणियों पर अनुकम्पा बरसाते और पदार्थो को गतिशील, सुव्यवस्थित एवं सौन्दर्य युक्त बनाते देखा जा सकता है। परब्रह्म की वह धारा जो मात्र मनुष्य के काम आती एवं आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने की भूमिका निभाती है-  'महाप्रज्ञा' है। ईश्वरीय अगणित विशेषताओं एवं क्षमताओं से प्राणि- जगत एवं पदार्थ- जगत उपकृत होते हैं, किन्तु मनुष्य को जिस आधार पर ऊर्ध्वगामी बनने- परमलक्ष्य तक पहुँचने का अवसर मिलता है, उसे महाप्रज्ञा ही समझा जाना चाहिए। इसका जितना अंश जिसे, जिस प्रकार भी उपलब्ध हो जाता है वह उतने ही अंश में कृत- कृत्य बनता है। मनुष्य में देवत्व का, दिव्य क्षमताओं का उदय- उद्भव मात्र एक ही बात पर अवलम्बित है कि महाप्रज्ञा की अवधारणा उसके लिए कितनी मात्रा में संभव हो सकी। महाप्रज्ञा का ब्रह्म विद्या पक्ष अन्त:करण को उच्चस्तरीय आस्थाओं से आनन्दविभोर करने के काम आता है। दूसरा पक्ष साधना है, जिसे विज्ञान या पराक्रम कह सकते हैं, इसके अन्तर्गत आस्था को उछाला और परिपुष्ट किया जाता है। मात्र ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता। कर्म के आधार पर उसे संस्कार, स्वभाव, अभ्यास के स्तर तक पहुँचाना होता है। साधना का प्रयोजन श्रद्धा को निष्ठा में- निर्धारण की- अभ्यास की- स्थिति में पहुँचाना है। इसलिए अग्रदूतों, तत्वज्ञानियों, जीवनमुक्तों एवं जागृत आत्माओं को भी साधना का अभ्यास क्रम नियमित रूप से चलाना होता है। 

महापुरुषों द्वारा गायत्री का महत्व वर्णन

प्रव्रज्या कर रहे जगद्गुरु शङ्कराचार्य से मान्धाता ने पूछा- भगवन् सर्वोपरि देव कौन है? जिनकी उपासना से लोक- परलोक दोनों सधते हों। शंकराचार्य ने कहा- वह है गायत्री। गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है। सद्बुद्धि का हीना इतना  बडा कार्य है जिसकी समता संसार में और किसी से नहीं हो सकती। आत्म- ज्ञान प्राप्त करने की दिव्यदृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है उसकी प्रेरणा गायत्री द्वरा होती है। 

सृष्टि निर्माण करने के उपरान्त पितामह मनु ने प्रजा से कहा- 

अष्टादशसु विद्यासु मीमांसातिगरीयसी। ततोऽपितर्कशास्त्राणि पुराणास्तेभ्य एव च॥ ततोऽपिधर्मशास्त्राणि तेभ्यो गुर्वीश्रुतिर्द्विज। ततोप्युपनिषच्छ्रेष्ठा गायत्री च त्ततोऽधिका ॥ दुर्लभासर्वमंत्रेषु गायत्री प्रणवान्विता। 
न गायत्र्याधिकं कित्ञ्चिमहीषु परिगीयते ॥ 

अर्थात् अट्ठारह विद्याओं में मीमांसा बड़ी है, इससे भी अधिक गुरु तर्क शास्त्र, उससे भी अधिक धर्मशास्त्र होते हैं। श्रुति उससे भी श्रेष्ठ है, पर इन सबसे अधिक श्रेष्ठ गायत्री है इससे अधिक और कोई नहीं। प्रणव से समन्वित गायत्री उपासना को दुर्लभ ही मानना चाहिए। यह वेदसार या सर्वोपरि वेद- महाप्रज्ञा है। रामकृष्ण परमहंस ने शिष्यों को संबोधित कर कर कहा- '' गायत्री उपासना का जितना विकास, विस्तार होगा, यह देश उतना ही शक्तिशाली, समर्थ और सिद्ध होता जायेगा। " छोटे से गायत्री मंत्र में सारे विश्व की सामर्थ्य विद्यमान हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मा, विश्वामित्र, राम एवं कृष्ण ने भी इसी आद्यशक्ति गायत्री की शरण ली एवं सृष्टि रचना, अवतार प्रयोजन इसी प्रकार पूरे हुए। अगले दिनों भी यही होने जा रहा है। 

अपने युग में भगवान की सत्ता "प्रज्ञावतार" के रूप में प्रकट हो रही है। इसकी कलायें चौबीस हैं। गायत्री के चौबीस अक्षरों में से प्रत्येक को एक कला किरण माना जा सकता है। इन दिव्य धाराओं में बीज रूप में वह सब कुछ विद्यमान है- जो मानवी गरिमा को स्थिर एवं समुन्नत बनाने के लिए आवश्यक है। सूर्य के सप्त अश्व, सप्त- मुख, सप्त- आयुध प्रसिद्ध हैं। सविता की प्राण सत्ता गायत्री की शक्तिधारायें इससे अधिक है। गायत्री के चौबीस अक्षरों में साधन परक सिद्धियाँ और व्यक्तित्वपरक सिद्धियाँ अनेकानेक हैं उनका वर्गीकरण चौबीस विभागों में करने से विस्तार को समझने में सुविधा होती है। चेतना का अन्तरंग का परिष्कार और साधन सुविधाओं का विस्तार यह दोनों ही तथ्य मिलने पर मनुष्य में देवत्व के उदय और समाज में स्वर्णिम परिस्थितियों के विस्तरण की सम्भावना बनती है। प्रज्ञावतार का कार्यक्षेत्र यही है। वह व्यक्ति के रूप में नहीं शक्ति के रूप में प्रकट होगी। जिस व्यक्ति में इस प्रज्ञा तत्व की मात्रा जितनी अधिक प्रकट होगी, उतना ही अधिक वह युग सृजेताओं की गणना में आ सकेगा और अपने पुरुषार्थ के आधार पर श्रेय प्राप्त कर सकेगा। इतने पर भी परिवर्तन के लिए अवतरित मूल सत्ता निराकार ही रहेगी। चेतना सदा निराकार ही रहती है- निराकार ही रहेगी। 



प्राह नारद इच्छाया: स्वकीयाया भवान् मम। 
जिज्ञासायाश्च प्रस्तौति यं समन्वयमद्भुतम्॥४६॥
आत्मा मे पुलकितस्तेन स्पष्टं निर्दिश भूतले। 
प्रतिगत्य च किं कार्यं येन सिद्धयेत्प्रयोजनम् ॥४७॥

टीका-  नारद ने कहा- है देव! अपनी इच्छा और मेरी जिज्ञासा का आप जो अद्भुत समन्वय प्रस्तुत कर रहे हैं उससे मेरी अन्तरात्मा पुलकित हो रही है। कृपया स्पष्ट निर्देश कीजिए किं पुन: मृत्युलोक में वापस जाकर मुझे क्या करना चाहिए, ताकि आपका प्रयोजन पूर्ण हो ॥४६- ४७॥

उवाच भगवांस्तात! दिग्भ्रान्तान् दर्शयाग्रत:। 
यथार्थताया आलोकं सन्मार्गे गन्तुमेव च॥४८॥ 
तर्कतथ्ययुतं मार्गं त्वं प्रदर्शय साम्प्रतम्। 
उपायं च द्वितीयं सं तदाधारसमुद्भवम्॥ ४९॥
उत्साहं सरले कार्ये योजयाभ्यस्ततां यत:। 
परिचितिं युगधर्में च गच्छेयुर्मानवा: समे॥५०॥
चरणौ द्वाविमौ पूर्णावाधारं प्रगतेर्मम। 
अवतारक्रियाकर्त्ता चेतना सा युगान्तरा॥५१॥

टीका- भगवान् बोले-  हे तात्? सर्वप्रथम दिग्भ्रान्तों को यथार्थता का आलोक दिखाना और सन्मार्ग अपनाने के लिए तर्क और तथ्यों सहित मार्गदर्शन करना है, दूसरा उपाय इस आधार पर उभरे हुए उत्साह को किसी सरल कार्यक्रम में जुटा देना है ताकि युग धर्म से वे परिचित और अभ्यस्त हो सकें? इन दो चरणों के उठ जाने पर आगे की प्रगति का आधार मेरी अवतरण प्रक्रिया- युगान्तरीय चेतना स्वयमेव सम्पन्न कर लेगी ॥४८- ५१॥

व्याख्या- युग परिवर्तन का कार्य योजनाबद्ध ढंग से ही किया जा सकता है। सबसे पहले तो सुधारकों, अग्रगामियों को अपने सहायक ढूँढ़ने के लिए निकलना होता है, उन्हें उँगली पकड़कर चलना सिखाना पड़ता है। जब वे अपनी दिशा समझ लेते हैं, उच्चस्तरीय पथ पर चलने के लिए वे सहमत हो जाते हैं, तब उन्हें सुनियोजित कार्य पद्धति समझाकर उनके उत्साह को क्रियारूप देना होता है। यही नीति हर अवतार की रही है। इतना बन पड़ने पर शेष कार्य वह चेतन- सत्ता स्वयं कर लेती है। 

समस्या तब उठ खड़ी होती है, जब व्यक्ति ईश्वरीय सत्ता की इच्छा- आकांशा जानते हुए भी व्यामोह में फँसे दिशा भूले की तरह जीवन बिताते हैं अथवा उद्देश्य को जानते हुए भी अपने उत्साह को सही नियोजित नहीं कर
पाते। 

कृष्ण की अर्जुन को लताड़

अर्जुन के हाथ से युद्ध मध्य में गाण्डीव छूटते, मुख सूखते देख कृष्ण झुँझला पड़े थे। कथनी और करनी में व्यतिरेक, व्यामोह, असमंजस उनसे सहन नहीं हुआ। भौहें तरेरते हुए वे बोल उठे- 'कुतस्त्रा कश्मलमिदु विषमे समुपस्थितम्' - हे अभागे! इस विषम वेला में यह कृपणता तेरे मन मस्तिष्क पर किस प्रकार चढ़ बैठी? दिग्भ्रान्त अर्जुन की आँखें खुली और उभरे उत्साह ने गाण्ड़ीवधारी अर्जुन को महाभारत विजय का श्रेय दिलाया। कार्य तो ईश्वरीय चेतना ने ही किया पर जागृत व उफन कर आये सत्साहस की परिणति ही पूर्व भूमिका बना सकी। 

मार्गदर्शन के, सत्य का प्रकाश दिखाने के और भी कई तरीके हो सकते हैं- 

विद्यासागर द्वारा कर्मठ युवक की सहायता

सुधार का रचनात्मक ढंग प्रभावशाली और चिरस्थायी होता है। एक हट्टे- कट्टे युवक भिखारी से एक दिन मनीषी प्रवर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कहा- 'बेटे! यदि तुम कोई उद्यम कर लो तो न केवल भिक्षायाचना की घृणास्पद स्थिति से बच सकते हो वरन् अपने भावी जीवन को सम्मानास्पद भी बना सकते हो। ' युवक ने कहा- 'श्रीमान् जी! मेरे पास पचास
रुपये की भी पूँजी हो जाती तो मैं भीख नहीं माँगता। ईश्वरचन्द्र ने उसे पचास रुपये दे दिये। एक दिन वही युवक कलकत्ते की एक बडी कपड़ा फर्म का मालिक बना और अपनी तरह के सैकड़ों अनाथ, असहायों को भी इसी तरह आजीविका से लगाया। 

शिक्षा कभी- कभी अनजाने में ऐसे व्यक्तियों से भी मिल जाती है जो बहिरंग की दृष्टि से तो ज्ञानवान्, प्रतिभाशाली नजर नहीं आते पर उनका व्यवहार ज्ञान इतना प्रखर होता है कि वह व्यक्ति की जीवन धारा ही पलट देता है। शिवाजी के साथ यही हुआ। 

शिवाजी को बुढिया की सीख

शिवाजी उन दिनों मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। रात को थके- माँदे वे एक वनवासी बुढ़िया की झोपड़ी में जा पहुँचे और कुछ खाने- पीने की याचना करने लगे। बुढ़िया के घर में कोदों थी सो उसने प्रेमपूर्वक भात पकाया और पत्तल पर उसने सामने परस दिया। शिवाजी बहुत भूखे थे। सो सपाटे से भात खाने की आतुरता में उँगलियाँ जला बैठे, मुँह से फूँककर जलन शान्त करनी पड़ी। बुढ़िया ने आँखें फाड़कर देखा और बोली- सिपाही तेरी शक्ल शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी की तरह मूर्ख भी है। '

शिवाजी स्तब्ध रह गये। उनने बुढ़िया से पूछा- 'भला शिवाजी की मूर्खता तो बताओ और साथ ही मेरी भी। ' बुढ़िया ने कहा- 'तू ने किनारे- किनारे से थोड़ी- थोड़ी ठण्डी कोदों खाने की अपेक्षा बीच के सारे भात में हाथ मारा और उँगलियाँ जला लीं। यही बेअकली शिवाजी करता है। वह दूर किनारों पर बसे छोटे- छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और मार खाता है। ' शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाये और उन्हें पूरी करने की रीति- नीति अपनाई। छोटी सफलताएँ पाने से उनकी शक्ति बढ़ी और अन्तत: बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए। 

शुभारम्भ हमेशा छोटे- छोटे कदमों से होता है, पर यथार्थता की प्रकाश किरणें इतने मात्र से एक व्यक्ति की जीवन धारा बदल देती है। 

तोता पढाते सद्भाव जगा

एक सन्त ने गणिका को साध्वी बनने का पाठ पढ़ाना आरम्भ किया। पढ़ाते- पढ़ाते गणिका के अन्दर भाव जागने लगा और उसका जीवन- क्रम ही बदल गया। उसने धर्म- संस्कृति के उत्थान में स्वयं को समर्पित कर दिया। 
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